Tuesday 5 July 2016

बरिकज़ट: करार मुझे नहीं है कि बेकरार हुं मैं

ब्रिटेन के यूरोपियन यूनियन से अलग होने के फैसले ने पश्चिमी जगत में हलचल मचा दी। ब्रिटेन के इस जनमत ने यूरोप के समृद्धि, सहिष्णु औ रसमानता के अग्रणी ब्रिटेन के चेहरे को बेनकाब कर दिया। महान ब्रिटेन विभिन्न दृष्टि से टूटाफूटा दिखाई देने लगाहै। युवा, शिक्षित और आर्थिक रूप से समृद्ध वर्ग युरोपी युनियन का समर्थक था जबकि वृध्द अवकाश प्राप्त वर्ग, कम पढ़े लिखे लोग और दरिद्र जनता ने विरोध किया था। इस निष्कर्ष से यह स्पष्ट हो गया कि समाज में किस वर्ग को बहुमत प्राप्त है। इस भेदभाव की वजह साफ है।यूरोपीय संघमें भाग लेने से उत्तरार्द्ध वर्ग का फायदा हुआ और दुसरा घटक घाटे में रहा। हर वर्ग ने फैसला अपने हितों के अनुसार किया न तो युवकों ने बुजुर्गों की राय का सम्मान किया और न बुजुर्गों ने अपनी आगामी पीढ़ी के भविष्य की खातिर बलिदान देना अवश्यक समझा।

इस जनसंग्रह में यह भी दिखाई दिया कि जनता का विश्वास बड़े राजनीतिक दलों से उठ गया है। वह गंभीर निराशा का शिकार हैं। उन्हें अपनी नौकरी का डर सता रहा है इसलिए दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों के समर्थनको रद्द कर दिया गया। गठबंधन का समर्थन प्रधानमंत्री सहित सारे बड़े नेता कर रहे थे जब कि इस का विरोध करने वालों में सब से आगे ब्रिटेन में डोनाल्ड ट्रम्प कहलाने वाले लंदन शहर के पूर्व मेयर बोरिस जॉनसन और अतिवादी दल यूकेएलपी था।

ग्रेट ब्रिटेन के भौगोलिक बखिए भी इस बार उधेड़ दिए गए।ब्रिटेन दरअसल लंदन, वेल्श, स्कॉटलैंड और आयरलैंड के विलय का नाम है। इन चार में से दो स्कॉटलैंड और आयरलैंड ने गठबंधन के पक्ष में राय दी। स्कॉटलैंड की जनता और नेता यूरोपीय संघ के साथ गठबंधन को इतना महत्व देते हैं कि वे इस के लिए ब्रिटेन से नाता तोड़ने के लिए तैयार हैं। इसलिए स्कॉटलैंड के अलग हो जाने का खतरा बढ़ गया है। पिछले साल आयरलैंड ने बहुत कम से ब्रिटेन के साथ रहने का फैसला किया था लेकिन यूरोपीय संघ के साथ संबंध के विषय में यह अंतर बहुत बढगया है। अब खतरा है कि ब्रिटेन न केवल यूरोपीय संघ की सदस्यता से वंचित होजाए बल्कि स्काटलैंडऔरआयरलैंडसेभीहाथधोबैठे।

यूरोपीय देश दशकों तक आपस में संघर्ष रत रहे हैं। खूनखराबामें उन की बराबरी कोई नही कर सकता।भूत काल में समय-समय पर युद्ध उन्मूलन के लिए गठबंधन के प्रयत्न होते रहे हैंलेकिनवहदेरतक टिक नहीं पाए।1910     में इस तरह की एक प्रयत्न से इस बात की उम्मीद बंध गई थी कि अब लड़ाई नहीं होगी लेकिन फिर एक के बाद दो महायुद्ध में लाखों जानें नष्ट हुईं।इस के बाद थके हारे यूरोप ने 1945   में संयुक्त राष्ट्र द्वारा शांति स्थापित करने की कोशिश की और फिर आगे बढ़ कर यूरोपीय संघ बनाकर आर्थिक समृद्धि का सपना देखा लेकिन वह साकार होता दिखाई नहीं देता।

युद्ध के बाद यूरोप में यह हुआ कि राजाओं की जगह लोकतांत्रिक नेताओंने लेली मगर जनता दमन शोषण की चक्की में पिसते रहे। विश्व व्यापार की खुलीमंडीने पूंजी पतियों कोलूटखसूट की खुली छूट दे दी नतीजा यह है हुवा कि जनता का आक्रोश राष्ट्रीय चुनाव में भी व्यक्त होने लगा। भावनात्मक शोषण करनेवाले प्रबुद्ध नेताओं की चिकनी चुपड़ी बातों अब जनता नहीं अती क्यों कि राजनीति और पूंजीवाद की साठगांठ ने उनका जीना दूभर कर दिया है। पश्चिम का हर अंतरराष्ट्रीय गठबंधन असमानता का शिकार रहा है। संयुक्त राष्ट्र में मुट्ठीभर देश वीटो की सहायता से अपनी मनमानी करते हैं। यूरोपीय संघ में जर्मनी और फ्रांस जैसे समृद्ध देश अनेक आर्थिक सुधार अन्य सदस्यों देशों पर थोपते रहते हैं जिससे उनका अपना लाभ और दूसरों का नुकसान होता है। इस आर्थिक गुलामी की चपेट में कमजोर वर्ग आते हैं यही कारण है कि उन्होंने घोषणा की'' हमें अपने देश वापस चाहिए'' तथा सफलता के बाद इसे''ब्रिटेन की स्वतंत्रता'' का नाम दिया।

पश्चिमी शासकों द्वारा लगाए जाने वाले मानव कल्याण,समानता और समृद्धि के खुशनुमा नारे इसलिए खोखले ठहरते हैं कि उनमें ईमानदारी के बजाय स्वार्थ छुपा होता है। धर्मनिरपेक्षता के उन समर्थकों के स्थाई मूल्यों का अभाव होता है इसलिए वह मौका पाते ही शोषण में जुट जाते हैं। उनके पास ईश्वरीय गुणवत्ता नहीं होती इसलिए अवसरवादी नियमों की सहायता से अपने लक्ष्य प्राप्त करते है। मानव अधिकारों को हनन रोकने वाली पर लौकिक आस्था विलुप्त होने के कारण उन्हें अपनी ग़लती का बोध नहीं होता।ये लोग ना केवल दूसरे देशों का शोषण करते हैं बल्कि खुद अपनी जनता को भी नहींबखशते। बरिकज़िट इस रवैये के विरूध प्रकट होने वाली प्रतिक्रिया है।

अप्रैल में ऑस्ट्रिया के अंदर राष्ट्रपति चुनाव का आयोजन हुआ। इसके पहले चरण में अतिवादी दक्षिणपंथी फ्रीडम पार्टी के उम्मीदवार होफरने जबरदस्त जीत दर्ज कराते हुए सबसे अधिक 35 प्रतिशत वोट हासिल किए। दूसरे नंबर पर गरीन नाम की नई पार्टी के उम्मीदवार बेलन को 21 प्रतिशत वोट मिले। एक स्वतंत्र उम्मीदवार ग्रेस 19 प्रतिशत वोट हासिल करके तीसरे स्थान पर आया और पिछले साठ सालों से अदलबदल कर सत्ता की बागडोर संभालने वाले सोशल डेमोक्रेटिक और प्यूपिलस पार्टी के उम्मीदवारों को 11 प्रतिशत पर समाधान करना पड़ा। ऑस्ट्रिया के संविधान में राष्ट्रपति पद के के लिए 50 प्रतिशत से अधिक मत अनिवार्य हैं इसलिए दूसरे चरण में केवल पहले दो उम्मीदवार मैदान में थे। मईके अंदर होने वाले दूसरे दौर में भी पहले होफर को 51 दशमलव 9 प्रतिशत वोट मिले लेकिन जब डाक के वोट गिने गए तो बेलन 50दशमलव3 वोट से सफल हो गए। इस तरह यूरोप पहले अतिवादी दक्षिणपंथी प्रमुखसे बालबाल बच गया।

 ऑस्ट्रिया में मतदाताओं का वितरण बिल्कुल ब्रिटेन की तरह थी। कम पढ़ेलिखे, दरिद्र और गांवों के लोग होफर के साथ थे और नगरों में रहने वाला हृष्टपुष्ट शिक्षित वर्ग बेलन के साथ था। वर्तमान में राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी दल जनता की आर्थिक विकटता का अपने पक्ष में उपयोग कर रहे हैं और उन्हें सफलता मिलने लगी है। होफर भी यूरोपीय संघ से निराश है। वह प्रवासियों के खिलाफ आवाज उठाता है और इस्लाम के खिलाफ जहर उगलता है। वह जनता को यह समझाने की कोशिश करता है कि उनकी बेरोजगारी के लिए मुस्लिम प्रवासी जिम्मेदार हैं। हालांकि विश्व बाजार जब से खुला है औद्योगिक उत्पादकता चीन व कोरिया जैसे देशों की ओर चली गई इस से यूरोप और अमेरिका में बेरोजगारी आई। इस तथ्य को स्वीकार करना चूंकि पूंजीपति समर्पथकों को खिलाफ है इसलिए राष्ट्रवादको नाम पर एक फर्जी शत्रू के खिलाफ जनता को भड़काया और गुमराह किया जा रहा है।

फ्रीडम पार्टी जैसे दल यूरोप के विभिन्न देशों जैसे जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैंड आदि में भी पैर फैलाने लगेहैं । सभी की कार्य प्रणाली में समानता है इसलिए उनका उद्देश्य समान है। वैसे अमेरिकी चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प के दिन प्रतिदिन लोकप्रियता इसी कारण बढ रही है। वह भी पहले अमेरिका फिर वैश्विक हितों का नारालगाताहै। मुसलमानों बल्कि मैक्सिकन लोगों के खिलाफ भी आए दिन जनता की भावनाओं से खेलता है, लेकिन चीनी उत्पादों के विरूध जुबान नहीं खोलता इसलिए कि वह खुद पूंजीपति है और जानता है कि पानी कहाँ मरता है।

इसी सप्ताह फिलीपींस के अंदर सत्ता पर आसीन होने वाले डयूटरटे का भी यही हाल है। डयूटरटे इससे पहले दुवाई नामक शहर का 20 वर्षों तक मेयर था और इसके बारे में प्रसिद्ध है कि इसका अपना निजी समूह था जो तस्करों को न्यायिक फैसले के बिना मौत के घाट उतार देता था। डयूटरटेने घोषणा की है कि वह नशीली पदार्थों के तस्करों की जानकारी प्रदान करें या अपनी बंदूक से खुद उन्हें मारदें। जो तस्कर को मारकर आएगा उसे मेरी ओर से पदक दिया जाएगा। अगर इस तरह की घोषणा कोई मुस्लिम शासक करता तो इस्लाम को बदनाम करने के लिए न जाने कैसा बवाल मचा दिया जाता लेकिन सौभाग्य से डयूटरटे लोकतंत्र समर्थक ईसाई है।

पश्चिमी लोकतंत्रके प्रति सार्वजनिक अक्रोश सारी दुनिया में व्यक्त हो रहा है। बरिकज़ट के बाद नीदरलैंडके निकज़ट आ रहा है। यदि यह सिलसिला जारी रहा तो बहुत जल्द योरोपी संघ में 28 के बजाय 8 देश शेष बचेंगे लेकिन जब फ्रांस और जर्मनी में फिर से राष्ट्रवाद की बाढ आएगी तो सोवियत संघ की तरह यूरोपीय संघ का भूगोल भी हवा में भंग हो जाएगा और इतिहास का भाग बन जाएगा। यूरोप के विभिन्न देशों में राष्ट्रवादी दलों के सत्ता संभालने के बाद अवश्य फिर एक बार युद्ध का बाजार गर्म हो जाएगा। समृद्धि की उम्मीद में राष्ट्रवादियों का समर्थन करनेवाले भोली-भाली जनता नरसंहार की आग में झोंक दी जाएगी। यह कोई धारणा नहीं बल्कि यूरोप के काले इतिहास की पर्नावृत्ती है।

यह तथ्य है कि दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में सारे वादों और दावों के बावजूद धनदौलत कुछ लोगों के हाथों में सिमट रहा है और अमीर व गरीब वर्गों के बीच असमानता ओं बढ़ती जा रही है। इस प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया को पश्चिम अपनी राजनीतिक प्रणाली की विफलता के रूप में स्वीकार नहीं कर रहा है। जनता को राष्ट्रवाद का अफीम पिलाकर उनका ध्यान मूल समस्या से हटाया जा रहा है। इस्लाम के खिलाफ इतनी नफरत पैदा कर दी गई है कि जनता दयावान इस्लामी प्रणाली की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते। पश्चिमी बुद्धिजीवियोंके मन की घृणाका प्रसार मीडियासे हो रहा है। इस वातावर्ण ने इस्लामवादियों के हौसले पस्त कर दिए हैं और उनकेआत्मविश्वास में कमी इस्लाम को एक वैकल्पिक जीवनप्रणाली के रूपमें पेश करने में रुकावट बन रही है।

वर्तमानमें पश्चिम के बुद्धिजीवी दो प्रकार के हैं। एक कार वैया उनकी अज्ञानता का प्रतीक है और दूसरा जानते बूझते अनदेखी कर रहा हैं। इस प्रवृत्ती को रोगी और चिकित्सक के उदाहरण से समझा जा सकता है। जब कोई डॉक्टर बीमारी की पहचान करने में विफल हो जाता है तो वह दर्दनाशक दवाओं का सहारा लेता है। ऐसा करने से रोग का इलाज नहीं होता लेकिन रोगी की पीड़ा कम हो जाती है। वह इस खुशफहमी का शिकार हो जाता है कि स्वस्थ हो रहा है जब कि वास्तव में अंदर ही अंदर बीमारी उसे खोखला कर रही होती है। लोकतांत्रिक चुनाव से फिलहाल यही काम लिया जा रहा है। इस के माध्यम से जनता का क्रोध व्यक्त हो जाता है। अस्थायी सपनों और उम्मीदों के सहारे वह अपने दुख दर्द भूल कर अच्छे दिनों के सपने संजोता है परंतु हालात नहीं बदलते और वह बार बार निराशा का शिकार होता रहताहैं। यह अनभिज्ञ डॉक्टरों व्दारा भोले-भाले मरीजों की दुर्दशाकी दुखभरी कहानी है।

दूसरी श्रेणी के चिकित्सक बीमारी और इलाज दोनों से परिचित है लेकिन इस्लाम का सीधा साधा इलाज उनके व्यक्तिगत हितों से टकराता है। मेडिकल की दुनिया में पाया जाने वाला भ्रष्टाचार अब कोई ढकी छुपी बात नहीं है। प्रत्येक टेस्ट पर कमीशन है इसलिए बिना कारण महंगे महंगे सीटी स्कान आदि भी कराए जाते हैं। इस में मरीज की मजबूरी का फायदा उठाकर जांच करने और कराने वाले मिल कर रोगी की जेब खाली कर लेते हैं। अस्पताल और दवा बनाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियां भी यही करती हैं। चिकित्सा बीमा का फलता फूलता व्यवसाय इसी गोरखधंधे का हिस्सा है। इस से मरीज़ के अलावा हर किसी के वारे न्यारे होते हैं। राजनीतिक स्तर पर जब शोषण हदों से गुजर जाता और सामान्य जनता विद्रोह पर उतारू हो जाती है जिस का दह न तो राष्ट्रवाद की आग में किया जाता है। अपने ही देश के अंदर या बाहर के काल्पनिक दुश्मन से भयभीत करके अपने काले करतूतों पर पर्दा डाला जाता है।

ब्रिटेन जनमत संग्रह औरऑस्ट्रियाके चुनाव नतीजों में समानता है। फिलपीन और भारत का सत्ता परिवर्तन एक जैसा है। अमेरिका चुनाव प्रचार भी उसी दिशा में बढ रहा है। सारे बड़े राजनीतिक दलों के समर्थन के बावजूद ब्रिटेन की जनता का अलग होने का निर्णय लेना या ऑस्ट्रिया के राष्ट्रपति चुनाव में वर्षों तक शासन करने वाले पक्षों का चौथे और पांचवें स्थान पहुँचजाना। अमरीका में डोनाल्ड ट्रम्प जैसे अपारंपरिक राजनीतिक व्यक्ति का राष्ट्रपतिपद के लिए सशक्त उम्मीदवार बन जाना और फिलीपींस में असंवैधानिक हत्या (एनकाउंटर) समर्थक डेट्रायट के राष्ट्रपति या भारत में नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बन जाना एक ही रोग के विभिन्न लक्षण हैं। उनमें से किसी देश में इस्लामी जागरूकता नहीं है और यह सब की सब पश्चिमी लोकतंत्र पर वर्षों से प्रतिबद्ध हैं। इन सभी स्थानों पर दक्षिणपंथी उग्रवादियों की लोकप्रियता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। इन सारे देशोंमें मुसलमानों के विरूध असहिष्णुता बढ रही है।

इस मामले को माँ और बच्चे के उदाहरण से भी समझा जा सकता है।  छोटा बच्चा जब भूखा होता है तो रोता है। माँ जब उसे अपने सीने से लगा कर उस की भूख मिटाती है तो वह आराम से सो जाता है लेकिन अगर माँ ने मजबूरी में नहीं बल्कि दुनिया के लोभ लालच में अपने ऊपर अनावश्यक काम ओढ़ रखे हों तो बच्चों को खिलौनों सेबहलायाजाताहै।अनावश्यक कामों में व्यस्त माँ बच्चों की देखभाल करने में असमर्थ रहती है। ऐसे में बच्चे अनदेखी का शिकार हो जाते हैं या आया के हवाले कर दिये जाते हैं। वह एक हद तक ध्यान रखती है लेकिन फिर तंग आकर बच्चे को दूध के साथ अफीम पिलाकर सुला देती है। पश्चिम के बुद्धिजीवी अपनी जनता को राष्ट्रवाद की अफीम अमृत बताकर पिलाते हैं मगर धर्म को अफीम बताया जाता है।
जब उन के सामने इस्लाम एक वैकल्पिक प्रणाली बन कर आता है तो यह मिस्र की तरह चोर दरवाजे से सेना की मदद लेकर सरकार का तख्ता पलट देते हैं। तुर्की जैसे देश यदि यह संभव नहीं हो पाता तो पर्यटन की महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्था को नष्ट करने के लिए हवाई अड्डों पर विस्फोट करवा ते हैं।विश्वभर में खुली मंडी के नाम पर आर्थिक शोषण और राष्ट्रवाद के जरिए राजनीतिक नफरत फैलाने वालों के लिए बरिकजिट में एक कडवा संदेश है।

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