Monday 18 July 2016

तुर्कीः फूंकों से ये चिराग़ बुझाया ना जाएगा

मानव स्मर्ण शक्ति सीमित होती है और फिर एक सदी का लंबा समय भी तो कम नहीं होता। प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की का प्रायद्वीप गीली पोली एक ऐतिहासिक युद्ध मैदान था। गीली पोली इसी इस्तांबुल के दक्षिण में स्थित है जहां हाल में तुर्की की जनता ने बगावत का सिर कुचल दिया। अप्रैल  1915 से जनवरी 1916 के बीच यहां उस्मानी तुर्क और गठबंधन सेना यानी साम्राज्य ब्रिटेन और फ्रांस के बीच प्रथम विश्व युद्ध की एक प्रमुख लडाई हुई थी । इस युद्ध में तुर्की ने जीत प्राप्त की थी। ​​इस का उद्देश्य तुर्क साम्राज्य को हराकर युद्ध से अलग करना था अभी ईस तख्ताउलट का तर्क भी तुर्की को मध्य पूर्व में योगदान करने से रोकना और अपना सहयोगी बनाए रखना था। इस लड़ाई में 7 लाख तुर्क और साढ़े 5 लाख सहयोगी सैनिक मारे गए थे लेकिन सहयोगियों का हमला तुर्कों के अनोखी प्रतिरोध और बहादुरी का मुकाबला नहीं कर सका था। 9 जनवरी 1916 को गठबंधन सेना पराजित होकर भाग खड़ी हुई थीं। इस हमले की योजना बनाने वाले गठबंधन कमांडर विंस्टन चर्चिल को उस के पद से हटा दिया गया था और ब्रिटिश प्रधानमंत्री एसकोसिथ को भी अपना पद छोड़ना पड़ा था। इस जीत ने तुर्कों का उत्साह बढा  दिया था और इस बार फिर यही हुआ है।
प्रथम विश्व युद्ध की न तो शुरुआत मुसलमानों ने की थी और न ही उसका अंत मुसलमानों की मर्जी से हुआ। इस युद्ध का आरंभ ऑस्ट्रो-हंगरी राजशाही में युवराज फर्नांडो की हत्या से हुआ था जिसे पड़ोसी देश सरबिया के एक राष्ट्र भक्त ने मार डाला था। वह दोनों ईसाई देशों थे। इसके बाद ऑस्ट्रिया के साथ जर्मनी, तुर्की और इटली आ गए जबकि सर्बिया के साथ फ्रांस, ब्रिटेन, रूस, बेल्जियम, जापान और अमेरिका ने दिया। जर्मनी के आत्मसमर्पण से तुर्की भी पराजित गठबंधन का सहभागी बन गया । इस खूंखार युद्ध में 90 लाख सैनिक मारे गए और दो करोड सैनिक घायल हुए। नागरिकों की मौत का अनुमान एक करोड है जिस में सब से अधिक जर्मनी और फ्रांस के लोग थे। इस युद्ध के अंत में खिलाफत उस्मानिया के अलावा रूसी, ऑस्ट्रिया और हंगरियन तथा जर्मनी साम्राज का सूर्यास्त हो गया। इस युद्ध के बाद खुद टर्की तो पश्चिम की गुलामी से सुरक्षित रहा लेकिन खिलाफत उस्मानिया में शामिल अन्य देशों को विजयी सहयोगियों ने आपस में बांट लिया। इनमें से कुछ देशों में अपने पिट्ठू बैठा दिये और कुछ में सीधे शासन करने की नाकाम कोशिश की। पहला विकल्प किसी कदर सफल रहा लेकिन जिन देशों में ब्रिटेन और फ़्रांस ने अपना उपनिवेश स्थापित किया वे समय के साथ मुक्त होते चले गए।
अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ मुस्लिम दुनिया में धार्मिक समूहों ने विरोध किया इसलिए वह शासकों की नजर में संदिग्ध ठहरे और अत्याचार का शिकार हुए। इसके विपरीत अंग्रेजी प्रबुद्ध लोगों ने अंग्रेजों के चाकरी करके अपना भविष्य उज्ज्वल कर लिया। शासकों के आज्ञाकारी बन कर सेना के उच्च पदों पर आसीन होने वालों ने पश्चिम संस्कृती के आगे आत्मसमर्पण कर दिया । अंग्रेजों के लिए जब सार्वजनिक प्रतिरोध का सामना करना असंभव हो गया तो वह सत्ता की बागडोर अपने सक्षम गुलामों के हवाले करके लौट गए। आगे चलकर जब शीत युद्ध का जमाना आया तो यह हालत हुई कि राजाशाही अमेरिकी साम्राज्यवाद की समर्थक बन गई और सैन्य तानाशाह सोवियत संघ के प्रति वफादारी का दम भरने लगे। इस तरह मुस्लिम दुनिया पश्चिम के दो गुलामों की रणभूमी बन गई। ईन दोनों पक्षों का संयुक्त दुश्मन इस्लामी आंदोलन था। इस्लाम समर्थक पूंजीवाद और समाजवाद दोनों के लिए चुनौती थे इसलिए दोनों बड़ी शक्तियों ने अपने गुलामों की मदद से इस्लाम का विरोध किया।
ईरानी क्रांति के बाद मुस्लिम दुनिया में पहला परिवर्तन यह हुआ कि नए शासकों ने अमेरिका के मोहरे शाह ईरान को बेदखल करने के बाद सोवियत संघ के शिविर में शामिल होने से इनकार कर दिया। ईरान को अस्थिर करने के लिए पहली बार अमेरिका और सोवियत संघ दोनों ने मिलकर सद्दाम हुसैन का समर्थन किया। शीत युद्ध के समय यह कल्पना असंभव थी। पश्चिम को दूसरा झटका तब लगा जब मुजाहिदीने अफगानिस्तान ने सोवियत संघ को देश से निकालने के बाद अमेरिका को भी रास्ता नापने का आदेश दे दिया। अमेरिका बहादुर को यह उम्मीद नहीं थी। इस दौरान तुर्की और गाजा में इस्लामवादियों को सफलता मिली और फिर अरब बिहार ने मुस्लिम ब्रदरहुड को सत्ता प्रदान कर दी जिस से पश्चिम की नींद उड़ा गई। पश्चिम के सारे मंसूबों पर पानी फेरने वाला यह परिवर्तन उसका सपने से परे था। इसलिए एक बार फिर सेना व्दारा तख्तापलटने की रणनीति आजमाई गई। मिस्र में सफलता मिली परंतु तुर्की में यह रामबाण उपाय भी कारगर साबित नहीं हो सका।
गीली पोली की हार के बाद यूरोप ने तुर्की को गुलाम बनाने का विचार अपने मन से निकाल दिया। अब यह रणनीति अपनाई गई कि जिस मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने गठबंधन सेना को युद्ध के मैदान में नाकों चने चबवा दिए थे उसी को अपना सहयोगी बना लिया जाए और उसके द्वारा इस्लाम की जड़ काटी जाए। पश्चिम जानता था कि मूल समस्या नेता नहीं धर्म है अगर जनता को इस्लाम से भटका दिया जाए तो राजनीतिक प्रभुत्व के बिना भी उन्हें गुलाम बनाया जा सकता है। इसलिए बाहरी हमले के बजाय आंतरिक तख्तापलट का उपयोग होने लगा। इस निंदनीय श्रृंखला की दुर्भाग्यपूर्ण शुरूवात आधुनिक तुर्की के वास्तुकार माने जाने वाले मुस्तफा कमाल अतातुर्क से हुई जिसने 1920 में खिलाफते उस्मानिया के अंतिम ताजदार खलीफा वहीद दीन सरीर राय को हटाकर सत्ता संभाली थी।
 अतातुर्क की मौत के 22 साल बाद 1960 में एक और खूनी तख्तापलट द्वारा प्रधानमंत्री अदनान मैंडीरस को अपदस्थ कर दिया गया। जनरल जमाल गोरसल ने सत्ता अतिग्रहण के बाद अदनान मैंडीरस को फांसी दे दी। इसके बाद 1971 और 1980 में भी सत्ता पर दमनकारी कब्जे के प्रयास हुए और जनरलों ने जनता के प्रतिनिधियों को हटाकर सत्ता अपने हाथ में ले ली। 1998 में अंतिम बार प्रधानमंत्री नजम दीन अरबकान को हटाने की नापाक हरकत की गई थी तो उस समय रिसेप तईप अरदगान को इस्तांबुल के मेयर की जिम्मेदारी से हटना पड़ा था लेकिन 16 जुलाई 2016 को जब फिर से उसे दोहराया गया तो साहसी व जागरूक जनता ने उसे नाकाम कर दिया।
रिसेप तईप अरदगान पिछले 13 सालों से सत्ता में हैं। इससे पहले उनकी सरकार को हटाने के लिए चार से पांच बार कोशिशें की गईं जिसे प्रारंभ ही में नाकाम बना दिया गया। एक बार  तक्सीम स्कोयर पर हंगामा और विरोध इतना बढ़ गया था कि विश्व मीडिया में यूँ लगने लगा था मानो एकेपी सरकार बस कुछ दिनों की मेहमान है। खुद मुझे इस दौरान इस्तांबुल जाने का मौका मिला तो पता चला कि शहर की स्थिति बिल्कुल सामान्य हैं। लोग अपने रोजमर्रा के कामकाज में व्यस्त हैं। एक मैदान में कुछ वामपमथी प्रदर्शनकारियों ने डेरा डाल रखा हैं जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस प्रकार पेश किया जा रहा है मानो कोई बड़ी लाल क्रांति अंगड़ाई ले रही है। सच तो यह है इस्तांबुल के दौरे ने मेरी सारी चिंता दूर कर दी क्योंकि तथ्य वह नहीं था जो अखबारों में या टेलीविजन के पर्दे पर दिखाई देता था। इस दौरान एक जुलूस की हिंसा पर सुरक्षाबलों द्वारा आंसू गैस के स्रोत व्दारा नियंत्रण पाना भी मैंने देखा और मुझे पता चल गया कि यह आंदोलन जनता के भारी समर्थन से वंचित है। उस समय दिल्ली में बाबा रामदेव और अन्ना हजारे द्वारा चलाई जाने वाला आंदोलनों भी इस्तांबुल आंदोलन से अधिक लोकप्रिय था।
इस दौरान संविधान में वैध संशोधन के बाद अरदगान जनता की सीधी राय से राष्ट्रपति बन चुके थे। अरदगान पर आरोप लग रहा था कि वह देश को तानाशाही की ओर ले जा रहे हैं। यह अजीब तर्क था कि अमेरिकी राष्ट्रपति का प्रत्यक्ष चयन होना लोकतंत्र है और आरदगान की उसी हरकत को तानाशाही करार दिया जा रहा था। पिछले साल के चुनाव में जब एकेपी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो उसने सहयोगी दलों की मदद से सरकार बनाने के पश्चात पुर्व विदेश मंत्री दाऊद ओगलो को प्रधानमंत्री बनाया। इस नई सरकार से बहुत जल्द सहयोगी दलों के समर्थन वापस ले लेने के कारण वह अल्पमत में आ गई। इस्लाम दुश्मनों को उम्मीद थी कि तुर्की में अब या तो सांसदों की खरीद-फरोख्त होगी और जोड़ तोड़ से नई सरकार बनेगी या राष्ट्रपति अरदगान अपने अधिकारों का उपयोग करके मार्शल ला लगा देंगे लेकिन उन्होंने फिर अपने विरोधियों को निराश किया और खुद अपनी पार्टी की सरकार को भंग करके नए चुनाव की घोषणा कर दी।
रिसेप तईप आरदगान ने एक जबरदस्त खतरा मोल लिया था लेकिन चुनाव नतीजों ने एकेपी की मजबूरी दूर कर दी। अन्य दलों पर निर्भरता समाप्त हो गई और वह अपने बलबूते पर बहुमत में आ गई। एकेपी के तंग दिल विरोधियों न तो अरदगान के राष्ट्रपति चुनाव में सफलता और ना ही उसके बहुमत की सराहना सके। इस बीच कभी तो पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद गुल तो कभी पूर्व प्रधानमंत्री दाऊद ओगलो के साथ अरदगान की असहमति को इस तरह बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया कि मानो तुर्की में न जाने कौन सा राजनीतिक ज्वालामुखी फटने वाला है लेकिन 16 जुलाई के बाद सारी दुनिया ने देखा कि एकेपी में कोई दरार तो दूर विरोधी राजनीतिक दलों तक ने एक स्वर में तख्तापलट की निंदा कर दी। अब तो कुछ दूर की कौड़ी लाने वाले समाजवादी इस तख्तापलट को भी अरदगान अपनी साजिश करार दे रहे हैं।
 तुर्की सरकार ने दाईश की समाप्ति के लिए स्थापित की जाने वाली अमेरिकी एयरबेस को बंद करके यह संकेत दे दिया है कि उसे किस पर शक बल्कि विश्वास है। पिछले सौ सालों में पांच और 60 वर्षों में 4 बार सेना द्वारा अपदस्थ की जो कोशिशें हुईं थी और इसबार जो कुछ हुआ उसमें अंतर यह था कि तुर्की के इतिहास में पहली बार जनता घरों से निकल कर टैंकों के आगे सो गए या ऊपर चढ़ गए। जनता और सेना के बीच उत्पन्न यह संघर्ष दरअसल इस्लाम और पश्चिमी शक्तियों की लड़ाई है। इसलिए कि मुस्तफा कमाल अतातुर्क से लेकर अब तक हर विद्रोह इस्लामवादियों के खिलाफ था और सैन्य जनरलों द्वारा क्रांति की घोषणा धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के नाम पर होती थी। सारे वर्दीधारी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने और धर्म के प्रभाव को कम करके अपने पश्चिमी स्वामी को खुश करने का प्रयास करते थे। पश्चिम नवाज बुद्धिजीवियों ने हमेशा इस्लामवादियों के द्वेष में कभी खुले तो कभी ढके छिपे तरीके सैन्य तानाशाहों का समर्थन किया है।
 पश्चिमी सरकारें पहले तो मामूली ज़ुबानी जमा खर्च करने का पाखंड करती हैं लेकिन जब सैनिक तानाशाहों के कदम जम जाते हैं तो उनके समर्थन में प्रतिबद्ध हो जाती हैं। सौभाग्य से जनता को जब भी स्वतंत्र रूप से अपने प्रतिनिधियों को चुनने का मौका मिलता है उन की दृष्टि इस्लामवादियों पर जाकर टिक जाती है। लाख कुप्रचार के बावजूद वह इस्लामवादियों को चुनकर सत्ता उनके हाथों में सौंप देते है। यही कारण है कि डॉक्टर मोर्सी को पूरा पश्चिम मिस्र का एकमात्र निर्वाचित राष्ट्रपति के उपनाम से याद करता है, जबकि मिस्र के हर प्रमुख ने चुनाव का ढोंग रचाया है। इसी स्वतंत्र चुनाव के परिणाम स्वरूप जब अरबकान या अरदगान जैसे लोग आगे आते हैं तो वे इस्लाम वीरोधकों की आंखों में कांटे की तरह खटकने लगते हैं। रॉबर्ट फिस्क जैसे प्रबुद्ध बुद्धिजीवी भी तुर्की तख्तापलट के विफल हो जाने पर खेद व्यक्त करते हैं और वह बहुत जल्द एक सफल तख्तापलट की भविष्यवाणी कर देते हैं।
 एक मुस्लिम विद्वान ने हाल में एक ग्रुप के अंदर यह सवाल किया कि आखिर इस तरह के राजनीतिक कलह यूरोप और अमेरिका में क्यों नहीं होता? यह बहुत गंभीर प्रशन है। आमतौर पर जब इस तरह का सवाल उभरता है तो हम लोग या तो अपने आप को कोसने में लग जाते हैं या साम्प्रदायिक मतभेद के आधार पर एक दूसरे पर कीचड़ उछालने लगते हैं। हालांकि इस पर गंभीरता के साथ विचार-विमर्श होना चाहिए। वैसे तुर्की विद्रोह के मद्देनजर इस सवाल का एक जवाब तो यह है कि तुर्की से लेकर ट्यूनीशिया तक जब भी स्वतंत्र चुनाव का आयोजन होता है तो कहीं रिसेप तईप अरदवान, कहीं इस्माइल हनिया कहीं डॉक्टर मोर्सी तो कहीं डॉक्टर ग़नोशी जैसे नेक लोगों का चयन हो जाता है जो पश्चिम के शोषण प्रणाली के आगे नहीं झुकते इसलिए तख्तापलट के षडयंत्र से बलपुर्वक हटाने की जरूरत पडती है।
 जहां तक ​​पश्चिम का सवाल है वहां तो लोकतांत्रिक रास्ते पर जॉर्ज बुश और टोनी ब्लेयर जैसे युद्ध अपराधी उपलब्ध हो जाते हैं। चलकोट समिति की रिपोर्ट में इस तथ्य का प्रमाण मौजूद है और आगे भी अमेरिका के अंदर डोनाल्ड ट्रम्प जैसा बददमाग सत्ता संभालने के लिए परतोल रहा है। पश्चिमी देशों में चूंकि दमनकारी धनी वर्ग का घी सीधी उंगली से ही निकल जाता है इसलिए इसे टेढा करने की जरूरत नहीं पडती? पश्चिम के शासक अपनी जनता का खून तो चूसते ही हैं लेकिन अपने पूंजीपति स्वामी वर्ग के इशारे पर दुनिया भर में अशांति फैलाते हैं। सेना से साठगांठ करके सरकारों को उखाड़ फेंकने के नापाक षडयंत्र रचते हैं। अपने काले करतूतों पर पर्दा डालने के लिए किसी जमाने में वे समाजवाद के पीछे पड़े रहते थे आजकल इस्लाम को बदनाम करने में लगे रहते हैं ताकि जनता इस सुशील धर्म से शंकित हो जाए और उनकी तरह नास्तिकता के अंधकार में डूबी रहे।
  मुस्लिम जनता के बहुमत को प्रभावित करने में यह रणनीति पिछले सौ वर्षों के भीतर तो कामयाब नहीं हो सकी लेकिन एक क्षेत्र ऐसा जरूर है जिस पर पश्चिम ने सफलता प्राप्त की है। पिछले शतक के शुरुआत में पश्चिम ने जब अपना तुलना खिलाफत उस्मानिया की तो इस उसे पता चला कि मुस्लिम देशों में शांति है इसके विपरीत यूरोप अशांति का शिकार है। यूरोपीय देश संयुक्त धर्म के बावजूद विभाजित हैं जबकि मुसलमान आपस में एकजुट हैं। यूरोपीय बुद्धिजीवियों ने अपनी अराजकता और मुसलमानों की एकता की वजह जानने की कोशिश की तो पता चला कि पश्चिम राष्ट्रवाद के आधार पर विभाजित है, जबकि एक ईश्वर की भक्ती ने मुसलमानों को एकजुट कर रखा था। अमेरिका ने मुसलमानों की तरह अपनी 50 राज्यों को ख़िलाफ़त उस्मानिया के समान एकजुट कर लिया लेकिन यूरोप के लिए अपने राष्ट्रीय पहचान को ताक पर रखना असंभव था इस लिए उन लोगों ने राष्ट्रवाद के कीटाणु मुस्लिम जगत में फैला कर उसको को पारा पारा दिया। प्रथम विश्व युद्ध के बाद इस की शुरुआत भौगोलिक विभाजन से की गई और फिर अरब व गैरअरब का अंतर आया और अंततः मसलकी मतभेद इतना बढा  कि हम गैरों के सहयोगी और अपने प्रतिद्वंद्वी बन गए। शत्रू के मित्र और दोस्तों के दुश्मन हो गए।
गीली पोली की जीत के बावजूद मुसलमानों की हार का मुख्य कारण युद्ध में सैन्य विजय के बाद हमारे शासकों और बुद्धिजीवियों की बौद्धिक पराजय है। अफसोस के राष्ट्रवाद को हम ने भी अपना ओढ़ना बिछौना बना लिया है। धार्मिक कर्तव्य से अधिक महत्व राष्ट्रीय हितों को देने लगे । इस लिए रणभूनि की उपलब्धियों के साथ साथ बौद्धिक मोर्चे पर भी पश्चिम से पंजा आजमाई करके उसे पराजित करना होगा। उम्मत के सतत जीत के लिए यह अनिवार्य है कि हमारे संघर्ष की धुरी कोई व्यक्ति विशेष नहीं बल्कि इस्लामी आस्था और विश्वास हो।
इस्लामवादियों की जब हार होती है तो उसे इस्लामी जीवन व्यवस्था से जोड़ दिया जाता है। हाल में सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल पीटर्स ने फोक्स टीवी पर कहा कि अगर यह विद्रोह सफल हो जाता तो हम जीत जाते और इस्लामवादी हार जाते। बशार अलासद ने भी डॉक्टर मुर्सी के हटाए जाने के बाद खुश हो कर कहा कहा था हम तो यही कहते हैं कि इस्लामी सिद्धांत व्यवहार्य नहीं है। जरूरत इस बात की है कि जब कोई सफलता मिले तब उसे भी इस्लामी जीवन प्रणाली से जोड़कर पेश किया जाए। यह अपेक्षा हम इस्लाम दुश्मन विचारकों से नहीं कर सकते। यह काम हमें खुद करना होगा।
16 जुलाई को जब सुबह की प्रार्थना के लिए उठा तो वॉट्सऐप पर तुर्की के तख्ता पलटने की खबर थी। प्रार्थना के बाद दिल पुकार पुकार कर कहता था कि हे सारे जग के स्वामी अपने धर्म और उसके समर्थकों की सहायता फ़रमा। यह स्थिति तब तक बाकी रही जब तक कि कुछ स्पष्ट नहीं था। फिर जैसे-जैसे दिन चढ़ने लगा और तख्तापलट की विफलता सुनिश्चित होती चली गई तो कभी रिसेप तईप अरदगान, कभी उनकी घोषणा, जनता का घरों से बडी संख्या में निकलना, टैंकों पर चढ़ जाना, विपक्ष का एकजुट होकर सेना का विरोध करना और विश्व समुदाय का निंदा करना महत्वपूर्ण होता चले गया।
अब जबकि यह लेख समाप्त हो रहा है एक नया वाट्स एप संदेश सामने है जिस में पूर्णतः अरदगान के दस सामाजिक-आर्थिक सुधारों को तख्तापलट की विफलता के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। इन सभी बातों के महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन मैं सोचता हूँ कि क्या वे तड़के की प्रर्थना बिल्कुल निरथर्क थी। क्या इस उलटफेर में नियती की कोई भूमिका नहीं है। मैं सोचता हूँ कि कितना एहसान फ़रामोश हूँ? ऐसे मौके पर मुझे वह कुरान की वह प्रेरणा क्यों याद नहीं आती कि। '' जब अल्लाह की मदद और जीत आ जाए। और तू अल्लाह के धर्म में लोगों को बडी संख्या में आता देख ले तो अपने प्रभु की महिमा व स्तुति के साथ और उसके क्षमा की प्रार्थना कर बेशक वह क्षमा याचना करने वाला है। 

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