Thursday 28 July 2016

میں اب پہلے سے بہتر دیکھتا ہوں


کتے فرض شناسی اور وفاداری کیلئے مشہور ہیں لیکن سچ تو یہ ہے کہ فرد شناسی کے بغیر کوئی جانور یا انسان فرض شناس نہیں ہوسکتا۔ کتے اپنے اور پرائے کا فرق خوب جانتے ہیں۔وہ اپنے محلے والوں پر نہیں بھونکتے لیکن باہروالے نووارد  پر ٹوٹ پڑتےہیں۔ انسانوں میں بھی تفریق و امتیاز ملحوظ خاطر رکھتےہیں ۔ اپنے مالک کے تلوے  چاٹنے والے اس کے دشمنوں کوبڑھ چڑھ کر کاٹتےہیں اگر یقین نہیں آتا ہو تو ارنب گوسوامی کو دیکھ لیجئے۔  کتے کی ایک اور خوبی یہ ہے کہ اپنی جانب پھینکے جانے والے پتھر کی طرف نہیں بلکہ پھینکنے والے شخص کی طرف لپکتا ہے لیکن ارنب جیسا دشمن جب  ہماری جانب  کوئی فرضی تنازع  اچھالتا ہے تو ہم پتھرکے تعاقب میں دوڑ پڑتے ہیں ۔حالانکہ نہ صرف پتھر پھینکنے والے کو بلکہ اس کےمقاصد کو بھی جاننے کی سعی ہونی چاہئے تاکہ ان ناپاک ارادوں کی سرکوبی ممکن ہوسکے۔ 
عصر حاضر کی مکاری نےکیوں کو کیا سے زیادہ اہم بنادیا ہے اس لئے کون کیا کررہا ہے کے ساتھ کیوں کررہا ہے یہ بھی جاننا ضروری ہےورنہ نادانستہ ہم دشمن کے آلۂ  کار بن سکتے ہیں۔ مثلاً اگر کوئی عیار  کتے کا زہر زائل کرنے والاانجکشن لگانے بعدمحض اکسانے کی خاطر دعوت مبازرت دے۔  اس کے جواب میں ہمارے شور شرابے کے سبب ذرائع ا بلاغ  متوجہ ہوجائے،جو بنیادی سبب  یعنی ابتدائی پتھر دکھانے کے بجائے اس کے خلاف ہونے والےاحتجاج کوہ نشر کر رائے عامہ کو بگاڑنے میں جٹ جائے تاکہ ردعمل کرنے والوں کو پاگل قرار دیا جاسکے ۔ حالانکہ یہ موقع پتھر مارنے والے کی راہ ہموار کرنے کا نہیں بلکہ اسکے گھناونے  مقاصد کوحکمت کے ساتھ ناکام بنانے کا  ہے۔  ورنہ لوہا گرم ہوجانے پرہتھوڑا چلادیا جاتا ہے۔ دشنام طرازی آگے چل کر مارپیٹ یاگولیاں میں بدل جاتی ہے اور احمق تماش بین تالیاں بجاتے ہیں۔
 مایا وتی کے معاملے میں یہی ہوا؟ ایک بدزبان دیاشنکر سنگھ نے انہیں کھلے عام طوائف  سے بدترکہہ دیا ۔  جب  ایوان پارلیمان میں احتجاج ہوا تو گھبرا کر سنگھ کو پارٹی سے نکال باہر کیا گیااور وہ کاغذی شیر بھاگ کر جھارکھنڈ کے کسی مندر میں روپوش ہوگیا۔ اس کے بعد وکیل کے ذریعہ پیشگی ضمانت حاصل کرنے کی کوشش میں لگ گیا تاکہ جیل جانے کی نوبت نہ آئے  ۔ اس بیچ بی ایس پی والوں نے عوامی  احتجاج کرکے دیا شنکر سنگھ کے ساتھ ساتھ اس کے اہل خانہ کو بھی نشانے پر لے لیا بس پھر کیا تھا ایک ہریجن کی مجال جو ٹھاکر کی جانب نظر اٹھا کر دیکھے ۔ پرلیہ آگیا پرلیہ ۔ دیا شنکر کی ماں تریتا دیوی جو اپنے بیٹے کی تربیت میں ناکام رہیں تھیں پولس تھانے پہنچ گئیں اور بی ایس پی کے سکریٹری نسیم الدین کے خلاف ایف آئی آر درج کروادی ۔
اپنے شوہر نامدار کو قابو میں نہیں رکھ  پانے والی دیا شنکر کی اہلیہ سواتی سنگھ سے بھی نہیں رہا گیا ۔ وہ گورنر کی خدمت میں حاضر ہوگئیں اور انہیں مایاوتی کے جلسہ کی ویڈیو دے کر اپنی  ساس اور اپنی ۱۲ سالہ بیٹی کے ساتھ  توہین آمیز سلوک کی شکایت کردی۔ سواتی کے مطابق صدمہ کا شکاردیا شنکر کی بیٹی نہ  گھر سے باہر نکلتی ہے اورنہ اسکول جاتی ہے۔ سواتی سنگھ کی نام نہاد کی سرگرمیوں نے بی جے پی کی  ایک پریشانی دور کردی۔ اسے وزیراعلیٰ کے عہدے کا ایک اور امیدوار مل گیا ۔ سواتی سنگھ کا سب سے بڑا اعتراض وہ دھمکی ہے جس میں دیاشنکر کی زبان کاٹ کر لانے والے کے لئے۵۰ لاکھ کا انعام ہے۔اس طرح کا اعلان تو سادھوی  پراچی نے بھی   ڈاکٹرذاکر نائک کےسر کی بابت  کیا تھا  لیکن ذرائع ابلاغ  کو بھلاذاکر نائک سے کیسی ہمدردی؟ اپنے مالک کا وفادارمیڈیا اس کے دشمنوں کو خوب پہچانتا ہے اور دن رات ان ہی کے خلاف بھونکتا ہے ۔ یہی وجہ ہے کہ ارنب کے سبب برکھا دت  جیسی صحافیہ  اپنے پیشے  پر شرمسار ہے۔ ویسے دیاشنکر اور ارنب گو سوامی جیسے لوگوں کی چیخ پکار اس شعر کی مصداق ہے کہ         ؎ 
کسی نے دھول کیا آنکھوں میں جھونکی میں اب پہلے سے بہتر دیکھتا ہوں

Wednesday 27 July 2016

अभिमन्यु! चक्रव्यूह में फंस रहा है तू

महाभारत के चरित्र ऐसे रोचक हैं कि उन की अनुभुति विभिन्न घटनाओं में होती रहती है। महाभारत में अभिमन्यु को अर्जुन के पुत्र और श्री कृष्ण का भांजा होने का सौभाग्य प्राप्त है। वह सबसे बहादुर और प्रतिभाशाली सेनानी है। उस का बेटा आगे चलकर हसतनापूर का राजा बनता है परंतु वह स्वतः युद्ध के तेरहवें दिन चक्रव्युह में फंसकर मारा जाता है। उस में और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में समानता दिखाई देती हैं। अव्वल तो यह कि चक्रव्युह तोड़ने का ज्ञान उसके पास अधूरा था। जब श्री कृष्ण अपनी बहन सुभद्रा को यह शिक्षा दे रहे थे तो वह सो गईं इसलिए वे बीच ही में चुप हो गए। इस प्रकार गर्भावस्था में ज्ञान प्राप्त करने वाले अभिमन्यु की शिक्षा अधूरी रह गई।
अगर यह सब को आप अजीब लगता है तो मोदी जी की शिक्षा के बारे जानें। किसी साक्षात्कार में वह खुद स्वीकार करते नजर आएंगे कि स्कूल के बाद शिक्षा जारी नहीं रख सके। कभी वह दिल्ली में स्नातक करते दिखाई देंगे लेकिन डिग्री चीख चीख कर कह रही होगी कि वह नकली है और फिर गुजरात से स्नातकोत्तर की डिग्री का चमत्कार भी नजर आजाएगा अर्थात हमारे प्रधानमंत्री भी सतयुग के लेकर कलयुग तक जारी चमत्कारों की महत्वपूर्ण श्रंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं। वर्तमान परिस्थिती पर नजर डाली जाए तो ऐसा लगता है कि कलयुग का अभिमन्यु भी बड़े आराम से चक्रव्युह में फंसता जा रहा है। एक जमाना था जब उसका हर तीर निशाने पर लगता था और अब सारे चूक रहे हैं।
राजनीतिक दलों के लिए चुनाव से अधिक महत्व का कोई राष्ट्रीय या मानवीय मुद्दा नहीं होता। वर्तमान में भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश का चुनाव है। उत्तर प्रदेश में भाजपा ने पहले तो मायावती को अपने साथ लेने का भरपूर प्रयत्न किया परंतु जब इसमें सफलता नहीं मिली तो बसपा को अंदर से खोखला करने की योजना बनाई गई। इस रणनीति के तहत विधानसभा में बहुजन समाज पार्टी के प्रमुख नेता स्वामी प्रसाद मौर्य को तोड़ा गया परंतु यह सिलसिला रुका नहीं। मौर्य के बाद आरके चौधरी और रवींद्र प्रताप त्रिपाठी को बसपा से अलग किया गया और उनके बाद राष्ट्रीय सचिव परम देव निकल गए। अमित शाह की समझ में यह बात नहीं आती कि इस तरह की हरकतों से मायावती के प्रति दलित मतदाताओं की सहानुभूति बढ़ सकती है। बिहार में इसका प्रदर्शन हो चुका है पूर्व मुख्यमंत्री मांझी की गद्दारी से नीतीश कुमार का लाभ हुवा और खुद मांझी की अपनी नाव डूब गई।
उत्तर प्रदेश में दयाशनकर सिंह के एक मूर्खतापूर्ण बयान ने बसपा को फिर से जीवित कर दिया। जितने लोग भाजपा से निकले थे उन सब ने मायावती पर टिकट बेचने का आरोप लगाया था और यह बहुत हद तक सही भी है। मायावती ही क्यों भाजपा ने क्या विजय माल्या से कुछ लिए बिना ही दान में अपने सदस्यों के मत इस भ्रष्ट पूंजीपति को दिलवा दिए होंगे? और दिल्ली से भागने में मदद की होगी? मौजूदा राजनीति को व्यापार के अलावा कुछ और समझने वाला दरअसल राजनीति की क ख ग से भी परिचित नहीं है। दया शंकर सिंह ने कोई नई बात नहीं कही बल्कि जो लोग रुपयों के बदले बिक कर बसपा को अलविदा कह रहे हैं उनकी वकालत करते हुए कहा कि उनके ऐसा करने का कारण मायावती द्वारा टिकटों की बिक्री है लेकिन साथ ही दया शंकर सिंह ने मायावती को वेश्या से बदतर भी कह दिया। दया शंकर के अपमानजनक बयान ने मायावती के सितारे चमका दिए। दया शंकर खुद तो डूबे लेकिन उनके साथ भाजपा के अनुसूचित जाति मोर्चे के अध्यक्ष दीप चंद राम ने इस्तीफा देकर संघ परिवार की सारी सोशल इन्जिनियरिंग चौपट कर दी।
दया शंकर सिंह ने जो कहा वह न तो पहली बार है और न भाजपा का हड़बड़ाहट नई है। अप्रैल के अंदर उत्तर प्रदेश भाजपा महिला मोर्चा की अध्यक्ष मधु मिश्रा ने भी अपने कार्य कर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था कि आज तुम्हारे सिर पर बैठ कर संविधान के सहारे जो लोग राज कर रहे हैं याद है वह कभी अपने जूते साफ किया करते थे। एक ज़माने तक हमें जिन के साथ बैठना भी स्वीकार नहीं था जल्द ही हमारे बच्चे उन्हें हुजूर कहकर पुकारेंगे। इस बयान के सामने आते ही भाजपा ने मधु मिश्रा को 6 साल के लिए पार्टी से बाहर निकाल दिया था दया शंकर के साथ भी यही किया गया लेकिन इस तरह के अपमानजनक व्यवहार के बाद भी अगर अमित शाह इस खुशफहमी का शिकार हैं कि दलित समाज भाजपा को या उनके उकसाने पर मायावती से अलग होने वालों का समर्थन करेगा तो इससे बड़ी बेवकूफी कोई और नहीं है।
उत्तर प्रदेश में सब से पहले चुनाव का बिगुल भाजपा ने जून ही में राष्ट्रीय कार्यकारिणी सम्मेलन आयोजित करके बजा दिया। इससे पहले कई लोग मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावा पेश कर चुके थे परंतु वरूण गांधी को डांट दिया गया। अदित्यनाथ की उपेक्षा और स्मृति ईरानी का नाम खारिज हो गया। इस प्रकार राजनाथ सिंह का नाम सबसे उभर कर सामने आया। सम्मेलन के बाद होने वाली जनसभा में राजनाथ सिंह का जनता ने उसी उत्साह के साथ स्वागत किया जैसा कि किसी ज़माने में मोदी जी का होता था। उनके भाषण से पहले नारे लगाने वालों का उत्साहित लोग चुप होने का नाम नहीं लेते थे। मोदी जी इससे ठिठक गए।
इसके बाद राजनाथ के नाम की घोषणा तो दूर दूसरे दिन रणनीति तय करने के लिए जो बैठक रखी गई थी उसमें भी उन्हें बैठने का मौका नहीं मिला इस लिए कि मोदी जी उन को अपने साथ लेकर दिल्ली आगए। उस के बाद से भाजपा को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नहीं मिला। राजनाथ सिंह बहुत शक्तिशाली उम्मीदवार है लेकिन मोदी और शाह की जोड़ी उन्हें अपने लिए खतरा मानती है। एक ओर जहां 27 साल बाद मरी पड़ी कांग्रेस की रथयात्रा का उत्तर प्रदेश में स्वागत हो रहा है वहीं भाजपा की नाव बीच मंजधार में डोल रही है।
दलितों पर अत्याचार की घटनाएं उत्तर प्रदेश से निकलकर गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक तक फैल गई हैं। उत्पत्ति गुजरात से हुई जहां गौ भक्ति के नशे में चूर मोदी भक्तों ने मृत गाय की खाल निकालने वाले दलितों की खुलेआम पिटाई कर दी। वैसे जो लोग गोमूत्र को अपने लिए अमृत समझते हैं उनसे क्या अपेक्षा की जाए? इन निर्दोष दलितों को आदर्श गुजरात पुलिस ने ही दंगाइयों के हवाले किया था। इस अत्याचार के खिलाफ देश भर में विरोध प्रदर्शन हुआ और संसद में इसकी गूंज सुनाई दी। मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल ने जब कुछ दे दिलाकर मामले को ठन्डा करने का प्रयत्न किया तो पीडितों ने कहा हमें मुआवजा नहीं न्याय चाहिए। अत्याचार करने वालों को हमारे हवाले करो ताकि हम बदला ले सकें। मोदी जी और शाह जी को खुद अपने राज्य में होने वाला यह अत्याचार नज़र नहीं आया, जबकि उसके खिलाफ कई दलितों ने आत्मदहन की कोशिश कर चुके हैं और उनमें से एक की मृत्यु भी हो गई।
उत्तर प्रदेश में आखलाक़ अहमद के परिजनों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने के बाद संघ परिवार के हौसले ऐसे बुलंद हुए कि उन्होंने कर्नाटक में एक दलित परिवार की गोमांस खाने के आरोप में पिटाई कर दी। बजरंग दल के 40 लोगों ने पहले तो बलराज और उसके परिजनों को एक घंटे तक बंधक बनाए रखा और फिर लाठी और हॉकी से उन पर टूट पड़े। इस हमले में बलराज का हाथ टूट गया और उसकी पत्नी व बेटी भी घायल हुए। कर्नाटक में गोमांस पर प्रतिबंध नहीं है। यहां से बड़े का मांस पड़ोसी राज्यों बल्कि दुनिया भर में निर्यात किया जाता है लेकिन वहां रहने वाले गरीबों को इससे वंचित रखा जा रहा है। दलितों पर अत्याचार के खिलाफ कानून के तहत जब 7 आरोपियों को पुलिस ने गिरफ्तार किया तो चोरी और सीना जोरी दिखाते हुए बजरंग दल के साथ भाजपा के विधायक ने भी विरोध प्रदर्शन में भाग लिया।
असहिष्णुता और घृणा की यह आग महाराष्ट्र में भी फैल रही है। बीड जिले में दो दलित युवकों पर इसलिए 30 लोगों ने रास्ते में रोक कर मारा पीटा कि उसकी मोटर साइकिल पर डॉ बाबा साहब की तस्वीर लगी थी। यह बात अगर आप को चकित करती है कि आखिर डाक्टर बाबा साहब की तस्वीर में क्या खराबी है तो आप नहीं जानते कि अहमदनगर के पास कोपर्डी के स्थान पर एक नाबालिग लड़की का बलात्कार और हत्या हो गई थी। वहां से सैकड़ों मील दूर जिन बाइक सवारों को पीटा गया उनका संबंध बलात्कार से नहीं था बल्कि उस जाति से था जिस के व्यक्ति ने यह घृणित अपराध किया और उन्हें मारने वाले मराठा जाति के थे जिससे उस लडकी का संबंध था। बलात्कार और हत्या की सारी निंदा के बावजूद क्या मराठों हर दलित पर अपना गुस्सा उतारना योग्य है? लेकिन उन्हें कौन समझाए? केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री रामदास अठावले को तक खुद उनकी सहयोगी पार्टी भाजपा के मुख्यमंत्री ने कोपर्डी जाने से रोक दिया और कहा 8 दिन बाद हम वहां जाएंगे।
अठावले तो खैर दलित हैं लेकिन खुद ब्राह्मण फडनवीस भी अभी तक कोपर्डी जाने का साहस नहीं जुटा पाए। दलित समाज के अन्य दो नेताओं डॉक्टर प्रकाश अंबेडकर और योगेंद्र कवाड़े को भी पुलिस ने वहां जाने से रोक दिया। कोपर्डी ही तरह की एक घटना नई मुंबई में हुई जहां स्वपनिल सोनावने नाम के एक दलित युवक की केवल इसलिए हत्या कर दी गई कि वह एक आगरी समाज की लड़की से शादी करना चाहता था। स्वपनिल को लड़की के भाई जबरन पुलिस थाने ले गए वहां पर उसे डरा-धमका कर यह लिखने पर मजबूर किया गया कि वह लड़की से संपर्क नहीं रखेगा साथ ही यह भी लिख्वा लिया गया कि यदि उसके साथ कोई आकस्मिक घटना हो जाए तो कोई और जिम्मेदार नहीं होगा। इस वसीयत के बाद तो मानो उसकी हत्या का परवाना मिल गया। यह विडंबना है कि सारी दुनिया कोपर्डी तो जाना चाहती है लेकिन कोई सोनावने परिवार का दुख बांटने के लिए नवी मुंबई नहीं जाना चाहता है।
भाजप ने रोहित वेमुला से कोई सबक नहीं सीखा जिस के चलते जातीय घृणा का ज्वालामुखी अंदर ही अंदर पकने लगा और अब हम सब उस के कगार पर खड़े हैं। यह सत्तारूढ़ दल के अपने हाथों की कमाई है इसलिए वह पूर्णतः अक्षम है। इस गंभीर समस्या से ध्यान हटाने के लिए कभी डॉक्टर ज़ाकिर नायक के आईआरएफ से किसी को गिरफ्तार कर लिया जाता तो कभी कल्याण या परभनी से मुस्लिम युवकों को दाइश से संबंध का निराधार आरोप लगाकर उठा लिया जाता हे। दाइश के नाम से जो खेल चल रहा उसके बारे में खुद एटीएस ने विधि विभाग से मांग की है कि नकली शिकायत करने वालों को सजा दी जाए। पिछले 8 महीने में इस प्रकार की 300 शिकायतें प्राप्त हुई हैं और वह सब की सब नकली थीं। उनमें से एक 80 वर्षीय मस्जिद के इमाम के खिलाफ थी जो पिछले 20 वर्षों से इमामत कर रहे हैं। जांच के बाद पता चला कि मस्जिद ट्रस्ट के आपसी झगडे में जब एक गुट को महसूस हुआ कि इमाम साहब दूसरे के समर्थक हैं तो उसने इमाम साहब को आईएस का पक्षधर बना दिया।
मुंबई में सड़क पर कबाब बेचने वाले एक व्यक्ति के खिलाफ शिकायत आई तो पता चला कि उसका कारण एक सब्जी विक्रेता के कारोबार पर दुशप्रभाव था। एक कार्यालय में कोई महिला अपने सहकारी में रुचि रखती थी जब उसने देखा कि वह व्यक्ति किसी और की ओर आकर्षित है तो उस पर आईएसिस से संबंध का आरोप लगा दिया गया। यहां तक कि एक परिवार ने शादी के रिश्ते को स्वीकार करने से इंकार करने वालों को परेशान करने के लिए उसका रिश्ता आईएसिस से जोड़ दिया। पुलिस विभाग के इस स्पष्टिकर्ण से पता चलता है कि इन फर्जी शिकायतों के पीछे कहीं निजी दुश्मनी, कहीं व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा, कहीं हसद व जलन जैसे कारण हैं। यह तो व्यक्तिगत मामलों हैं परंतु जब खुद सरकार इसका राजनीतिक कारणों से विरोधियों को परेशान करने के लिए या अपनी असफलताओं से जनता का ध्यान हटाने के लिए उसका दुर्उपयोग करने लगे तो मामला बहुत बिगड़ जाता है।
केरल के एबिन जेकब ने शिकायत की उसकी बहन मेरीन जेकब उर्फ मरियम और उसके पति बैक्सटन विन्सेंट जिसने इस्लाम कबूल करने के बाद अपना नाम याहया रख लिया गायब हो गए हैं इसलिए वे निश्चित रूप आईसिस से जाकर मिल गए होंगे। इस आरोप के आधार पर आईआरएफ के अर्शी कुरैशी को मुंबई आकर गिरफ्तार कर लेना कितनी मूर्खतापूर्ण कृति है, इसलिए कि यह दो साल पहले की घटना है। अर्शी कुरैशी को उन से जोड़कर आईएसीस से जोड़ने की कोशिश करना निंदनीय अपराध है । यह खेदजनक है कि शिकायत कर्ता का संबंध संघ परिवार तो दरकिनार हिंदू समाज से भी नहीं है।
केरल पुलिस की मदद से यह गंदा खेल खेलने वाली प्रांतीय सरकार भाजपा या कांग्रेस की नहीं बल्कि कम्युनिस्टों की है और उनसे संघ परिवार की दुश्मनी इतनी बढ़ी हुई है कि नरसंहार तक की नौबत आती रहती है। इसके बावजूद केरल की वामपंथी सरकार का संघ का कलपुर्जा बन कर निर्दोष लोगों को बल्कि संस्थाओं और धर्म को बदनाम करने की साजिश में शामिल हो जाना निंदनीय है। भाजपा को याद रखना चाहिए कि इस तरह के नींददायक इंजेक्शन से काम नहीं चलेगा जब यह जातिवाद का ज्वालामुखी फटेगा तो पूरे संघ परिवार को अपने साथ भस्म कर लेगा। यह भस्मासुर नाचते नाचते जब अपना हाथ अपने ही सिर पर रखेगा तो खुद भस्म हो जायेगा लेकिन उस समय तक यह अपने साथ कितनों को निगल लेगा यह कोई नहीं जानता। इस अवसर पर मोदी जी को चाहिए कि वह नीरो की तरह बंसी बजाने के बजाय अभिमन्यु की कथा से कुच्छ सीखें।
अभिमन्यु के बारे में यह प्रसिद्ध है कि वह चन्द्र देवता के पुत्र वरछा का अवतार था और साथ ही श्री कृष्ण का भांजा भी था इसलिए यह सवाल पैदा होता है कि मामा ने अपने भांजे को बचाया क्यों नहीं? इस की भी एक बहुत ही रोचक कथा है। अभिमन्यु अपने पिछले जन्म में अभिकसूरा नामक राक्षस था और वह कृष्ण के मामा कंस का मित्र था। राजा कंस अपने भांजे कृष्ण को मारना चाहता था लेकिन हुआ यह कि कृष्ण ने उस को ठिकाने लगा दिया। अभिकसूरा अपने दोस्त के खून का बदला लेने का इरादा किया तो श्रीकृष्ण ने उसे जादू से कीड़ा बनाकर एक डिब्बे में बंद कर दिया।
श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा ने अर्जुन से शादी के बाद गलती से वह डिब्बा खोल दिया। वह कीड़ा गर्भ में निवेशन कर गया और अभिमन्यु का जन्म हुआ। जब अर्जुन ने श्री कृष्ण से अपने बेटे की मृत्यु की शिकायत की तो उन्हों ने बताया कि मैं ने पिछले जन्म का बदला लिया है। मोदी जी ने भी मुख्यमंत्री के काल में जिन लोगों को जीना दूभर कर दिया था और अब भी जिस तरह राजनाथ और स्मृति ईरानी इत्यादि को नाराज कर रहे हैं तो उनके खिलाफ भी कई अभिकसूरा तैयार हो गए हैं। वे बदले की आग में जल रहे हैं और मोदी जी के चक्रव्युह में फंसने की प्रतिक्षा कर रहे हैं। मोदी जी को यह नहीं भूलना चाहिए कि जब वे फंस जाएंगे तो अर्जुन के समान न संघ परिवार कुछ कर सकेगा तथा न कृष्ण की तरह अमित शाह समर्थन में आएगा।

Thursday 21 July 2016

ترکستان کی بغاوت اور مسلمانانِ عالم

ترکی کے فرقانی واقعات کوسورہ آل عمران  کی  آیات ۱۱۰ تا ۱۲۰ کی روشنی میں دیکھیں تو ایک نیا معرفت کھل جاتا ہے۔ ابتداء خودشناسی سے اس طرح  ہوتی  ہے:’’اب دنیا میں وہ بہترین گروہ تم ہو جسے انسانوں کی ہدایت و اصلاح کے لیے میدان میں لایا گیا ہے‘‘۔امت مسلمہ کا مقام اور مرتبہ بتا دینے کے بعد اس کا فرض منصبی بھی واضح فرما دیا گیا: ’’ تم نیکی کا حکم دیتے ہو، بدی سے روکتے ہو اور اللہ پر ایمان رکھتے ہو‘‘۔ ملت کے تئیں دیگر اقوام  اور خاص طور پر اہل کتاب سے توقع  اور ان کےرویہ کی تفصیل یوں بیان ہوئی کہ : ’’یہ اہل کتاب ایمان لاتے تو انہی کے حق میں بہتر تھا اگرچہ ان میں کچھ لوگ ایمان دار بھی پائے جاتے ہیں مگر اِن کے بیشتر افراد نافرمان ہیں‘‘۔ اس کے بعددشمنانِ اسلام کی ریشہ دوانیوں کا تذکرہ فرما کراہل ایمان  کی ڈھارس  کچھ اس طرح بندھائی گئی کہ : ’’یہ تمہارا کچھ بگاڑ نہیں سکتے، زیادہ سے زیادہ بس کچھ ستا سکتے ہیں اگر یہ تم سے لڑیں گے تو مقابلہ میں پیٹھ دکھائیں گے، پھر ایسے بے بس ہوں گے کہ کہیں سے اِن کو مدد نہ ملے گی‘‘۔
قرآن مجید میں اہل کتاب کے ایک اور طبقہ کا ذکر بھی  ملتا ہے:’’مگر سارے اہل کتاب یکساں نہیں ہیں ان میں کچھ لوگ ایسے بھی ہیں جو راہ راست پر قائم ہیں، راتوں کو اللہ کی آیات پڑھتے ہیں اور اسکے آگے سجدہ ریز ہوتے ہیں۔ اللہ اور روز آخرت پر ایمان رکھتے ہیں، نیکی کا حکم دیتے ہیں، برائیوں سے روکتے ہیں اور بھلائی کے کاموں میں سرگرم رہتے ہیں یہ صالح لوگ ہیں۔ اور جو نیکی بھی یہ کریں گے اس کی نا قدری نہ کی جائے گی، اللہ پرہیزگار لوگوں کو خوب جانتا ہے‘‘۔ اسلام کی دعوت پر لبیک کہنے والوں کاذکر فرمانے کے بعد اللہ کی کتاب  معاندانہ رویہ اختیار کرنے والوں کی نشاندہی کرتی ہے: ’’رہے وہ لوگ جنہوں نے کفر کا رویہ اختیار کیا تو اللہ کے مقابلہ میں ان کو نہ ان کا مال کچھ کام دے گا نہ اولاد، وہ تو آگ میں جانے والے لوگ ہیں اور آگ ہی میں ہمیشہ رہیں گے۔جو کچھ وہ اپنی اس دنیا کی زندگی میں خرچ کر رہے ہیں اُس کی مثال اُس ہوا کی سی ہے جس میں پالا ہو اور وہ اُن لوگوں کی کھیتی پر چلے جنہوں نے اپنے اوپر ظلم کیا ہے اور اسے برباد کر کے رکھ دے اللہ نے ان پر ظلم نہیں کیا در حقیقت یہ خود اپنے اوپر ظلم کر رہے ہیں‘‘۔
اس دنیا میں جب امت مسلمہ کسی آزمائش میں گرفتار ہوتی ہے تو بہت سارے جعلی ہمدرد بھی بغض معاویہ میں مسلمانوں کے ہمدردو غمخوار بن کر مگر مچھ کے آنسو بہانے لگتے ہیں ۔ ایسے منافقین کے فریب سے بچنے کی تلقین اس طرح کی گئی کہ : ’’لوگو جو ایمان لائے ہو، اپنی جماعت کے لوگوں کے سوا دوسروں کو اپنا راز دار نہ بناؤ ‘‘۔ترکی میں اہل ایمان کی کامیابی کے بعد ان نام نہاد ہمدردان ملت کا نفاق بالکل اسی طرح سامنے آگیا جیسا کہ قرآن حکیم میں بیان ہوا ہے : ’’وہ تمہاری خرابی کے کسی موقع سے فائدہ اٹھانے میں نہیں چوکتے تمہیں جس چیز سے نقصان پہنچے وہی ان کو محبوب ہے ان کے دل کا بغض ان کے منہ سے نکلا پڑتا ہے اور جو کچھ وہ اپنے سینوں میں چھپائے ہوئے ہیں وہ اس سے شدید تر ہے ہم نے تمہیں صاف صاف ہدایات دے دی ہیں، اگر تم عقل رکھتے ہو (تو ان سے تعلق رکھنے میں احتیاط برتو گے)‘‘۔
ترکی میں بغاوت کے بعد دنیا بھر کے روشن خیال  ہمدردانِ ملت کی موشگافیوں کو دیکھ کر کتاب الٰہی کی یہ آیات یاد آتی ہیں :’’ تمہارا بھلا ہوتا ہے تو ان کو برا معلوم ہوتا ہے، اور تم پر کوئی مصیبت آتی ہے تو یہ خوش ہوتے ہیں مگر ان کی کوئی تدبیر تمہارے خلاف کارگر نہیں ہو سکتی بشرطیکہ تم صبر سے کام لو اور اللہ سے ڈر کر کام کرتے رہو جو کچھ یہ کر رہے ہیں اللہ اُس پر حاوی ہے‘‘۔ اب ہمیں چاہئے کہ دشمنان اسلام کی سازشوں اور کارستانیوں کو  میدان کارزار میں ان  سے لوہا لینے  والے مجاہدین اسلام اوراللہ کے حوالے کرکے اپنی ذمہ داریوں کی ادائیگی پر توجہ مرکوز  کریں ۔ امت کی کامیابیوں کا جشن منانے کے ساتھ ساتھ یہ یاد رکھنا ضروری ہے کہ ہماری فلاح آخرت ہمارے اپنے اخلاص و عمل سے وابستہ  ہے۔

Monday 18 July 2016

तुर्कीः फूंकों से ये चिराग़ बुझाया ना जाएगा

मानव स्मर्ण शक्ति सीमित होती है और फिर एक सदी का लंबा समय भी तो कम नहीं होता। प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की का प्रायद्वीप गीली पोली एक ऐतिहासिक युद्ध मैदान था। गीली पोली इसी इस्तांबुल के दक्षिण में स्थित है जहां हाल में तुर्की की जनता ने बगावत का सिर कुचल दिया। अप्रैल  1915 से जनवरी 1916 के बीच यहां उस्मानी तुर्क और गठबंधन सेना यानी साम्राज्य ब्रिटेन और फ्रांस के बीच प्रथम विश्व युद्ध की एक प्रमुख लडाई हुई थी । इस युद्ध में तुर्की ने जीत प्राप्त की थी। ​​इस का उद्देश्य तुर्क साम्राज्य को हराकर युद्ध से अलग करना था अभी ईस तख्ताउलट का तर्क भी तुर्की को मध्य पूर्व में योगदान करने से रोकना और अपना सहयोगी बनाए रखना था। इस लड़ाई में 7 लाख तुर्क और साढ़े 5 लाख सहयोगी सैनिक मारे गए थे लेकिन सहयोगियों का हमला तुर्कों के अनोखी प्रतिरोध और बहादुरी का मुकाबला नहीं कर सका था। 9 जनवरी 1916 को गठबंधन सेना पराजित होकर भाग खड़ी हुई थीं। इस हमले की योजना बनाने वाले गठबंधन कमांडर विंस्टन चर्चिल को उस के पद से हटा दिया गया था और ब्रिटिश प्रधानमंत्री एसकोसिथ को भी अपना पद छोड़ना पड़ा था। इस जीत ने तुर्कों का उत्साह बढा  दिया था और इस बार फिर यही हुआ है।
प्रथम विश्व युद्ध की न तो शुरुआत मुसलमानों ने की थी और न ही उसका अंत मुसलमानों की मर्जी से हुआ। इस युद्ध का आरंभ ऑस्ट्रो-हंगरी राजशाही में युवराज फर्नांडो की हत्या से हुआ था जिसे पड़ोसी देश सरबिया के एक राष्ट्र भक्त ने मार डाला था। वह दोनों ईसाई देशों थे। इसके बाद ऑस्ट्रिया के साथ जर्मनी, तुर्की और इटली आ गए जबकि सर्बिया के साथ फ्रांस, ब्रिटेन, रूस, बेल्जियम, जापान और अमेरिका ने दिया। जर्मनी के आत्मसमर्पण से तुर्की भी पराजित गठबंधन का सहभागी बन गया । इस खूंखार युद्ध में 90 लाख सैनिक मारे गए और दो करोड सैनिक घायल हुए। नागरिकों की मौत का अनुमान एक करोड है जिस में सब से अधिक जर्मनी और फ्रांस के लोग थे। इस युद्ध के अंत में खिलाफत उस्मानिया के अलावा रूसी, ऑस्ट्रिया और हंगरियन तथा जर्मनी साम्राज का सूर्यास्त हो गया। इस युद्ध के बाद खुद टर्की तो पश्चिम की गुलामी से सुरक्षित रहा लेकिन खिलाफत उस्मानिया में शामिल अन्य देशों को विजयी सहयोगियों ने आपस में बांट लिया। इनमें से कुछ देशों में अपने पिट्ठू बैठा दिये और कुछ में सीधे शासन करने की नाकाम कोशिश की। पहला विकल्प किसी कदर सफल रहा लेकिन जिन देशों में ब्रिटेन और फ़्रांस ने अपना उपनिवेश स्थापित किया वे समय के साथ मुक्त होते चले गए।
अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ मुस्लिम दुनिया में धार्मिक समूहों ने विरोध किया इसलिए वह शासकों की नजर में संदिग्ध ठहरे और अत्याचार का शिकार हुए। इसके विपरीत अंग्रेजी प्रबुद्ध लोगों ने अंग्रेजों के चाकरी करके अपना भविष्य उज्ज्वल कर लिया। शासकों के आज्ञाकारी बन कर सेना के उच्च पदों पर आसीन होने वालों ने पश्चिम संस्कृती के आगे आत्मसमर्पण कर दिया । अंग्रेजों के लिए जब सार्वजनिक प्रतिरोध का सामना करना असंभव हो गया तो वह सत्ता की बागडोर अपने सक्षम गुलामों के हवाले करके लौट गए। आगे चलकर जब शीत युद्ध का जमाना आया तो यह हालत हुई कि राजाशाही अमेरिकी साम्राज्यवाद की समर्थक बन गई और सैन्य तानाशाह सोवियत संघ के प्रति वफादारी का दम भरने लगे। इस तरह मुस्लिम दुनिया पश्चिम के दो गुलामों की रणभूमी बन गई। ईन दोनों पक्षों का संयुक्त दुश्मन इस्लामी आंदोलन था। इस्लाम समर्थक पूंजीवाद और समाजवाद दोनों के लिए चुनौती थे इसलिए दोनों बड़ी शक्तियों ने अपने गुलामों की मदद से इस्लाम का विरोध किया।
ईरानी क्रांति के बाद मुस्लिम दुनिया में पहला परिवर्तन यह हुआ कि नए शासकों ने अमेरिका के मोहरे शाह ईरान को बेदखल करने के बाद सोवियत संघ के शिविर में शामिल होने से इनकार कर दिया। ईरान को अस्थिर करने के लिए पहली बार अमेरिका और सोवियत संघ दोनों ने मिलकर सद्दाम हुसैन का समर्थन किया। शीत युद्ध के समय यह कल्पना असंभव थी। पश्चिम को दूसरा झटका तब लगा जब मुजाहिदीने अफगानिस्तान ने सोवियत संघ को देश से निकालने के बाद अमेरिका को भी रास्ता नापने का आदेश दे दिया। अमेरिका बहादुर को यह उम्मीद नहीं थी। इस दौरान तुर्की और गाजा में इस्लामवादियों को सफलता मिली और फिर अरब बिहार ने मुस्लिम ब्रदरहुड को सत्ता प्रदान कर दी जिस से पश्चिम की नींद उड़ा गई। पश्चिम के सारे मंसूबों पर पानी फेरने वाला यह परिवर्तन उसका सपने से परे था। इसलिए एक बार फिर सेना व्दारा तख्तापलटने की रणनीति आजमाई गई। मिस्र में सफलता मिली परंतु तुर्की में यह रामबाण उपाय भी कारगर साबित नहीं हो सका।
गीली पोली की हार के बाद यूरोप ने तुर्की को गुलाम बनाने का विचार अपने मन से निकाल दिया। अब यह रणनीति अपनाई गई कि जिस मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने गठबंधन सेना को युद्ध के मैदान में नाकों चने चबवा दिए थे उसी को अपना सहयोगी बना लिया जाए और उसके द्वारा इस्लाम की जड़ काटी जाए। पश्चिम जानता था कि मूल समस्या नेता नहीं धर्म है अगर जनता को इस्लाम से भटका दिया जाए तो राजनीतिक प्रभुत्व के बिना भी उन्हें गुलाम बनाया जा सकता है। इसलिए बाहरी हमले के बजाय आंतरिक तख्तापलट का उपयोग होने लगा। इस निंदनीय श्रृंखला की दुर्भाग्यपूर्ण शुरूवात आधुनिक तुर्की के वास्तुकार माने जाने वाले मुस्तफा कमाल अतातुर्क से हुई जिसने 1920 में खिलाफते उस्मानिया के अंतिम ताजदार खलीफा वहीद दीन सरीर राय को हटाकर सत्ता संभाली थी।
 अतातुर्क की मौत के 22 साल बाद 1960 में एक और खूनी तख्तापलट द्वारा प्रधानमंत्री अदनान मैंडीरस को अपदस्थ कर दिया गया। जनरल जमाल गोरसल ने सत्ता अतिग्रहण के बाद अदनान मैंडीरस को फांसी दे दी। इसके बाद 1971 और 1980 में भी सत्ता पर दमनकारी कब्जे के प्रयास हुए और जनरलों ने जनता के प्रतिनिधियों को हटाकर सत्ता अपने हाथ में ले ली। 1998 में अंतिम बार प्रधानमंत्री नजम दीन अरबकान को हटाने की नापाक हरकत की गई थी तो उस समय रिसेप तईप अरदगान को इस्तांबुल के मेयर की जिम्मेदारी से हटना पड़ा था लेकिन 16 जुलाई 2016 को जब फिर से उसे दोहराया गया तो साहसी व जागरूक जनता ने उसे नाकाम कर दिया।
रिसेप तईप अरदगान पिछले 13 सालों से सत्ता में हैं। इससे पहले उनकी सरकार को हटाने के लिए चार से पांच बार कोशिशें की गईं जिसे प्रारंभ ही में नाकाम बना दिया गया। एक बार  तक्सीम स्कोयर पर हंगामा और विरोध इतना बढ़ गया था कि विश्व मीडिया में यूँ लगने लगा था मानो एकेपी सरकार बस कुछ दिनों की मेहमान है। खुद मुझे इस दौरान इस्तांबुल जाने का मौका मिला तो पता चला कि शहर की स्थिति बिल्कुल सामान्य हैं। लोग अपने रोजमर्रा के कामकाज में व्यस्त हैं। एक मैदान में कुछ वामपमथी प्रदर्शनकारियों ने डेरा डाल रखा हैं जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस प्रकार पेश किया जा रहा है मानो कोई बड़ी लाल क्रांति अंगड़ाई ले रही है। सच तो यह है इस्तांबुल के दौरे ने मेरी सारी चिंता दूर कर दी क्योंकि तथ्य वह नहीं था जो अखबारों में या टेलीविजन के पर्दे पर दिखाई देता था। इस दौरान एक जुलूस की हिंसा पर सुरक्षाबलों द्वारा आंसू गैस के स्रोत व्दारा नियंत्रण पाना भी मैंने देखा और मुझे पता चल गया कि यह आंदोलन जनता के भारी समर्थन से वंचित है। उस समय दिल्ली में बाबा रामदेव और अन्ना हजारे द्वारा चलाई जाने वाला आंदोलनों भी इस्तांबुल आंदोलन से अधिक लोकप्रिय था।
इस दौरान संविधान में वैध संशोधन के बाद अरदगान जनता की सीधी राय से राष्ट्रपति बन चुके थे। अरदगान पर आरोप लग रहा था कि वह देश को तानाशाही की ओर ले जा रहे हैं। यह अजीब तर्क था कि अमेरिकी राष्ट्रपति का प्रत्यक्ष चयन होना लोकतंत्र है और आरदगान की उसी हरकत को तानाशाही करार दिया जा रहा था। पिछले साल के चुनाव में जब एकेपी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो उसने सहयोगी दलों की मदद से सरकार बनाने के पश्चात पुर्व विदेश मंत्री दाऊद ओगलो को प्रधानमंत्री बनाया। इस नई सरकार से बहुत जल्द सहयोगी दलों के समर्थन वापस ले लेने के कारण वह अल्पमत में आ गई। इस्लाम दुश्मनों को उम्मीद थी कि तुर्की में अब या तो सांसदों की खरीद-फरोख्त होगी और जोड़ तोड़ से नई सरकार बनेगी या राष्ट्रपति अरदगान अपने अधिकारों का उपयोग करके मार्शल ला लगा देंगे लेकिन उन्होंने फिर अपने विरोधियों को निराश किया और खुद अपनी पार्टी की सरकार को भंग करके नए चुनाव की घोषणा कर दी।
रिसेप तईप आरदगान ने एक जबरदस्त खतरा मोल लिया था लेकिन चुनाव नतीजों ने एकेपी की मजबूरी दूर कर दी। अन्य दलों पर निर्भरता समाप्त हो गई और वह अपने बलबूते पर बहुमत में आ गई। एकेपी के तंग दिल विरोधियों न तो अरदगान के राष्ट्रपति चुनाव में सफलता और ना ही उसके बहुमत की सराहना सके। इस बीच कभी तो पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद गुल तो कभी पूर्व प्रधानमंत्री दाऊद ओगलो के साथ अरदगान की असहमति को इस तरह बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया कि मानो तुर्की में न जाने कौन सा राजनीतिक ज्वालामुखी फटने वाला है लेकिन 16 जुलाई के बाद सारी दुनिया ने देखा कि एकेपी में कोई दरार तो दूर विरोधी राजनीतिक दलों तक ने एक स्वर में तख्तापलट की निंदा कर दी। अब तो कुछ दूर की कौड़ी लाने वाले समाजवादी इस तख्तापलट को भी अरदगान अपनी साजिश करार दे रहे हैं।
 तुर्की सरकार ने दाईश की समाप्ति के लिए स्थापित की जाने वाली अमेरिकी एयरबेस को बंद करके यह संकेत दे दिया है कि उसे किस पर शक बल्कि विश्वास है। पिछले सौ सालों में पांच और 60 वर्षों में 4 बार सेना द्वारा अपदस्थ की जो कोशिशें हुईं थी और इसबार जो कुछ हुआ उसमें अंतर यह था कि तुर्की के इतिहास में पहली बार जनता घरों से निकल कर टैंकों के आगे सो गए या ऊपर चढ़ गए। जनता और सेना के बीच उत्पन्न यह संघर्ष दरअसल इस्लाम और पश्चिमी शक्तियों की लड़ाई है। इसलिए कि मुस्तफा कमाल अतातुर्क से लेकर अब तक हर विद्रोह इस्लामवादियों के खिलाफ था और सैन्य जनरलों द्वारा क्रांति की घोषणा धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के नाम पर होती थी। सारे वर्दीधारी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने और धर्म के प्रभाव को कम करके अपने पश्चिमी स्वामी को खुश करने का प्रयास करते थे। पश्चिम नवाज बुद्धिजीवियों ने हमेशा इस्लामवादियों के द्वेष में कभी खुले तो कभी ढके छिपे तरीके सैन्य तानाशाहों का समर्थन किया है।
 पश्चिमी सरकारें पहले तो मामूली ज़ुबानी जमा खर्च करने का पाखंड करती हैं लेकिन जब सैनिक तानाशाहों के कदम जम जाते हैं तो उनके समर्थन में प्रतिबद्ध हो जाती हैं। सौभाग्य से जनता को जब भी स्वतंत्र रूप से अपने प्रतिनिधियों को चुनने का मौका मिलता है उन की दृष्टि इस्लामवादियों पर जाकर टिक जाती है। लाख कुप्रचार के बावजूद वह इस्लामवादियों को चुनकर सत्ता उनके हाथों में सौंप देते है। यही कारण है कि डॉक्टर मोर्सी को पूरा पश्चिम मिस्र का एकमात्र निर्वाचित राष्ट्रपति के उपनाम से याद करता है, जबकि मिस्र के हर प्रमुख ने चुनाव का ढोंग रचाया है। इसी स्वतंत्र चुनाव के परिणाम स्वरूप जब अरबकान या अरदगान जैसे लोग आगे आते हैं तो वे इस्लाम वीरोधकों की आंखों में कांटे की तरह खटकने लगते हैं। रॉबर्ट फिस्क जैसे प्रबुद्ध बुद्धिजीवी भी तुर्की तख्तापलट के विफल हो जाने पर खेद व्यक्त करते हैं और वह बहुत जल्द एक सफल तख्तापलट की भविष्यवाणी कर देते हैं।
 एक मुस्लिम विद्वान ने हाल में एक ग्रुप के अंदर यह सवाल किया कि आखिर इस तरह के राजनीतिक कलह यूरोप और अमेरिका में क्यों नहीं होता? यह बहुत गंभीर प्रशन है। आमतौर पर जब इस तरह का सवाल उभरता है तो हम लोग या तो अपने आप को कोसने में लग जाते हैं या साम्प्रदायिक मतभेद के आधार पर एक दूसरे पर कीचड़ उछालने लगते हैं। हालांकि इस पर गंभीरता के साथ विचार-विमर्श होना चाहिए। वैसे तुर्की विद्रोह के मद्देनजर इस सवाल का एक जवाब तो यह है कि तुर्की से लेकर ट्यूनीशिया तक जब भी स्वतंत्र चुनाव का आयोजन होता है तो कहीं रिसेप तईप अरदवान, कहीं इस्माइल हनिया कहीं डॉक्टर मोर्सी तो कहीं डॉक्टर ग़नोशी जैसे नेक लोगों का चयन हो जाता है जो पश्चिम के शोषण प्रणाली के आगे नहीं झुकते इसलिए तख्तापलट के षडयंत्र से बलपुर्वक हटाने की जरूरत पडती है।
 जहां तक ​​पश्चिम का सवाल है वहां तो लोकतांत्रिक रास्ते पर जॉर्ज बुश और टोनी ब्लेयर जैसे युद्ध अपराधी उपलब्ध हो जाते हैं। चलकोट समिति की रिपोर्ट में इस तथ्य का प्रमाण मौजूद है और आगे भी अमेरिका के अंदर डोनाल्ड ट्रम्प जैसा बददमाग सत्ता संभालने के लिए परतोल रहा है। पश्चिमी देशों में चूंकि दमनकारी धनी वर्ग का घी सीधी उंगली से ही निकल जाता है इसलिए इसे टेढा करने की जरूरत नहीं पडती? पश्चिम के शासक अपनी जनता का खून तो चूसते ही हैं लेकिन अपने पूंजीपति स्वामी वर्ग के इशारे पर दुनिया भर में अशांति फैलाते हैं। सेना से साठगांठ करके सरकारों को उखाड़ फेंकने के नापाक षडयंत्र रचते हैं। अपने काले करतूतों पर पर्दा डालने के लिए किसी जमाने में वे समाजवाद के पीछे पड़े रहते थे आजकल इस्लाम को बदनाम करने में लगे रहते हैं ताकि जनता इस सुशील धर्म से शंकित हो जाए और उनकी तरह नास्तिकता के अंधकार में डूबी रहे।
  मुस्लिम जनता के बहुमत को प्रभावित करने में यह रणनीति पिछले सौ वर्षों के भीतर तो कामयाब नहीं हो सकी लेकिन एक क्षेत्र ऐसा जरूर है जिस पर पश्चिम ने सफलता प्राप्त की है। पिछले शतक के शुरुआत में पश्चिम ने जब अपना तुलना खिलाफत उस्मानिया की तो इस उसे पता चला कि मुस्लिम देशों में शांति है इसके विपरीत यूरोप अशांति का शिकार है। यूरोपीय देश संयुक्त धर्म के बावजूद विभाजित हैं जबकि मुसलमान आपस में एकजुट हैं। यूरोपीय बुद्धिजीवियों ने अपनी अराजकता और मुसलमानों की एकता की वजह जानने की कोशिश की तो पता चला कि पश्चिम राष्ट्रवाद के आधार पर विभाजित है, जबकि एक ईश्वर की भक्ती ने मुसलमानों को एकजुट कर रखा था। अमेरिका ने मुसलमानों की तरह अपनी 50 राज्यों को ख़िलाफ़त उस्मानिया के समान एकजुट कर लिया लेकिन यूरोप के लिए अपने राष्ट्रीय पहचान को ताक पर रखना असंभव था इस लिए उन लोगों ने राष्ट्रवाद के कीटाणु मुस्लिम जगत में फैला कर उसको को पारा पारा दिया। प्रथम विश्व युद्ध के बाद इस की शुरुआत भौगोलिक विभाजन से की गई और फिर अरब व गैरअरब का अंतर आया और अंततः मसलकी मतभेद इतना बढा  कि हम गैरों के सहयोगी और अपने प्रतिद्वंद्वी बन गए। शत्रू के मित्र और दोस्तों के दुश्मन हो गए।
गीली पोली की जीत के बावजूद मुसलमानों की हार का मुख्य कारण युद्ध में सैन्य विजय के बाद हमारे शासकों और बुद्धिजीवियों की बौद्धिक पराजय है। अफसोस के राष्ट्रवाद को हम ने भी अपना ओढ़ना बिछौना बना लिया है। धार्मिक कर्तव्य से अधिक महत्व राष्ट्रीय हितों को देने लगे । इस लिए रणभूनि की उपलब्धियों के साथ साथ बौद्धिक मोर्चे पर भी पश्चिम से पंजा आजमाई करके उसे पराजित करना होगा। उम्मत के सतत जीत के लिए यह अनिवार्य है कि हमारे संघर्ष की धुरी कोई व्यक्ति विशेष नहीं बल्कि इस्लामी आस्था और विश्वास हो।
इस्लामवादियों की जब हार होती है तो उसे इस्लामी जीवन व्यवस्था से जोड़ दिया जाता है। हाल में सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट कर्नल पीटर्स ने फोक्स टीवी पर कहा कि अगर यह विद्रोह सफल हो जाता तो हम जीत जाते और इस्लामवादी हार जाते। बशार अलासद ने भी डॉक्टर मुर्सी के हटाए जाने के बाद खुश हो कर कहा कहा था हम तो यही कहते हैं कि इस्लामी सिद्धांत व्यवहार्य नहीं है। जरूरत इस बात की है कि जब कोई सफलता मिले तब उसे भी इस्लामी जीवन प्रणाली से जोड़कर पेश किया जाए। यह अपेक्षा हम इस्लाम दुश्मन विचारकों से नहीं कर सकते। यह काम हमें खुद करना होगा।
16 जुलाई को जब सुबह की प्रार्थना के लिए उठा तो वॉट्सऐप पर तुर्की के तख्ता पलटने की खबर थी। प्रार्थना के बाद दिल पुकार पुकार कर कहता था कि हे सारे जग के स्वामी अपने धर्म और उसके समर्थकों की सहायता फ़रमा। यह स्थिति तब तक बाकी रही जब तक कि कुछ स्पष्ट नहीं था। फिर जैसे-जैसे दिन चढ़ने लगा और तख्तापलट की विफलता सुनिश्चित होती चली गई तो कभी रिसेप तईप अरदगान, कभी उनकी घोषणा, जनता का घरों से बडी संख्या में निकलना, टैंकों पर चढ़ जाना, विपक्ष का एकजुट होकर सेना का विरोध करना और विश्व समुदाय का निंदा करना महत्वपूर्ण होता चले गया।
अब जबकि यह लेख समाप्त हो रहा है एक नया वाट्स एप संदेश सामने है जिस में पूर्णतः अरदगान के दस सामाजिक-आर्थिक सुधारों को तख्तापलट की विफलता के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। इन सभी बातों के महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन मैं सोचता हूँ कि क्या वे तड़के की प्रर्थना बिल्कुल निरथर्क थी। क्या इस उलटफेर में नियती की कोई भूमिका नहीं है। मैं सोचता हूँ कि कितना एहसान फ़रामोश हूँ? ऐसे मौके पर मुझे वह कुरान की वह प्रेरणा क्यों याद नहीं आती कि। '' जब अल्लाह की मदद और जीत आ जाए। और तू अल्लाह के धर्म में लोगों को बडी संख्या में आता देख ले तो अपने प्रभु की महिमा व स्तुति के साथ और उसके क्षमा की प्रार्थना कर बेशक वह क्षमा याचना करने वाला है। 

Thursday 14 July 2016

پھر خزانہ غیب کا لٹنے لگا رشک سے حاتم کا دم گھٹنے لگا


مغرب کے ملحد ماہرین سیاست کیلئے یہ معرفت مشکل ہے کہ ’’ کہو! اے اﷲ، سلطنت کے مالک! تُو جسے چاہے سلطنت عطا فرما دے اور جس سے چاہے سلطنت چھین لے‘‘۔ان کے نزدیک اقتدار کا پانا اور کھونا یا تو جمہور کی رائے سے ہوتا ہے یا بندوق کے زور سے۔ کبھی کبھار موت اور وراثت بھی اس کی منتقلی کا سبب بنتی ہے لیکن ان ذرائع سے بھی غیر متوقع  لوگوں کو اقتدار نصیب ہوجاتا ہے ۔ مثلاً سعودی عرب میں شاہ عبداللہ کی موت کے بعد شاہ سلمان نے اقتدار سنبھالا اورحسبِ روایت  اپنے چھوٹے بھائی مقرن بن عبدالعزیز کو ولیعہد کے عہدے پر فائز کیا لیکن ۱۰۰ دن کے اندر انہیں برطرف کردیا گیا محمد بن نائف کو ولیعہد بنا دیا گیا  اور برسوں کی روایت کو بالائے طاق رکھ کر اپنے بیٹے کو نائب ولیعہد بھی بنادیا۔ جمہوری نظام میں بھی  ایسا چمتکار ہوتا رہتا ہے ۔ مثلاً بیٹھے بٹھائے بے خطا ڈیوڈ کیمرون کو استعفیٰ دے کرنکل جانا پڑتا ہے اور ایک نامعلوم خاتون تھریسا  مے کے ہاتھوں میں عظیم برطانیہ کی باگ ڈور تھما آ جاتی ہے ۔ اقتدارتو اسی کو ملتا  جسے ملک کا مالک چاہتا ہے نہ کہ بورس جانسن کوجوبظاہراستصواب کے بعداس کاسب سے بڑادعویدارتھا
ہندوستان میں دو مہینے کے اندر اتراکھنڈ اور ارونانچل کی بابت ہونے والی تبدیلیاں یقیناً  غیرتوقع ہیں۔  ان دونوں مقامات پر مشترک یہ ہے کہ  کانگریس کی صوبائی  حکومتیں تھیں ۔ ہر جگہ کانگریس پارٹی میں پھوٹ پڑی ۔ بی جے پی کی مرکزی حکومت  نے اپنے پٹھو گورنر کی مدد سے سیاسی خلفشار پیدا کرکے اس کا فائدہ اٹھانے کی کوشش کی  لیکن سارے کئے کرائے پر عدالت عالیہ نے پانی پھیر دیا ۔ اس بابت اگر کوئی سوچتا ہے کہ ہندوستانی عدالتیں حکومت کے دباو سے بالکل آزاد ہیں تو یہ اس کی غلط فہمی ہے۔ عدالتوں سے من مانے فیصلے کرائے جاتے ہیں اور ججوں کو مجبور تک کیا جاتا ہے  لیکن ایسااسی وقت تک ممکن ہوتاہے جب تک کہ اوپر والے کی رسی دراز ہو مگر جب وہ کھینچ لی جاتی ہے تو سب کئے دھرے پر پانی پھر جاتا ہے ۔ ساری تدبیریں اوندھے منہ گر جاتی ہیں ۔ اس کائنات کو چلانے والا ہاتھ  چونکہ نظر نہیں آتا اسی لئے بصیرت کے مارے دانشوراس کا انکار کردیتے ہیں۔  
ارونانچل پردیش کا معاملہ اترا کھنڈ سے کئی معنیٰ میں مختلف  تھا ۔ ارونانچل میں ایک تہائی سے زیادہ ارکان اسمبلی نے  بغاوت کی تھی اس لئے اتراکھنڈ کے برعکس وہ پھوٹ غیر دستوری نہیں تھی ۔ اتراکھنڈ میں  وزیراعلیٰ کی برطرف کرنے کے بعد صدر راج نافذ کرکے مرکزی کابینہ عدالتی احکامات کے ساتھ ساتھ ملک کے دستور کی دھجیاں اڑائی تھیں ۔اس  فیصلے کو مسترد کرکےعدالت عالیہ نے وزیراعلیٰ کو اعتماد کا ووٹ حاصل کرنے کی اجازت دی جس میں  ہریش راوت اس میں کامیاب ہوگئے اور ان کی حکومت بحال ہوگئی۔ اس کے برعکس ارونانچل میں گورنر نے من منانے طریقہ پر ایک ماہ قبل اسمبلی کا اجلاس بلوایا ۔ ایک نیا اسپیکر نامزد کیا ۔ اسمبلی کے باہر ایک ہال میں نئے وزیراعلیٰ نے اعتماد کا ووٹ حاصل کیا اور اس کو حلف دے کر حکومت کرنے کا موقع دے دیا گیا۔ عدالت عالیہ اس ساری بدتمیزی کو مسترد تو کردیا  لیکن قوی امکان ہے پرانے وزیراعلیٰ تکی اعتماد کا ووٹ حاصل نہ کرسکیں اور پھر سے نئے وزیراعلیٰ  پل کے ہاتھوں میں زمام کار آجائے۔ اس اٹھا پٹخ میں مرکزی حکومت کی ذلت و رسوائی پر قرآن مجید کی آیت کا دوسرا حصہ صادق آتا ہے ’’اور تُو جسے چاہے عزت عطا فرما دے اور جسے چاہے ذلّت دے، ساری بھلائی تیرے ہی دستِ قدرت میں ہے، بیشک تُو ہر چیز پر قدرت والا ہے‘‘۔ اقتدار کی طرح عزت و ذلت بھی پاک پروردگار کے ہاتھ  میں ہے۔ وہ سرکار دے کر بھی مودی جیسوں کو رسوا کردیتا ہے اور ایدھی جیسےقلندروں کو بغیراقتدار کے نام ونموس سے نواز دیتا ہے جن کی نذر یہ شعر ہے۔ (اے فناے فقر تجھ کو الوداع مفلسی ہی مفلسی تیری عبا )

پھر خزانہ غیب کا لٹنے لگا رشک سے حاتم کا دم گھٹنے لگا


 خانمغرب کے ملحد ماہرین سیاست کیلئے یہ معرفت مشکل ہے کہ ’’ کہو! اے اﷲ، سلطنت کے مال! تُوجسے چاہے سلطنت عطا فرما دے اور جس سے چاہے سلطنت چھین لے‘‘۔ان کے نزدیک اقتدار کا پانا اور کھونا یا تو جمہور کی رائے سے ہوتا ہے یا بندوق کے زور سے۔ کبھی کبھار موت اور وراثت بھی اس کی منتقلی کا سبب بنتی ہے لیکن ان ذرائع سے بھی غیر متوقع  لوگوں کو اقتدار نصیب ہوجاتا ہے ۔ مثلاً سعودی عرب میں شاہ عبداللہ کی موت کے بعد شاہ سلمان نے اقتدار سنبھالا اورحسبِ روایت  اپنے چھوٹے بھائی مقرن بن عبدالعزیز کو ولیعہد کے عہدے پر فائز کیا لیکن ۱۰۰ دن کے اندر انہیں برطرف کردیا گیا محمد بن نائف کو ولیعہد بنا دیا گیا  اور برسوں کی روایت کو بالائے طاق رکھ کر اپنے بیٹے کو نائب ولیعہد بھی بنادیا۔ جمہوری نظام میں بھی  ایسا چمتکار ہوتا رہتا ہے ۔ مثلاً بیٹھے بٹھائے بے خطا ڈیوڈ کیمرون کو استعفیٰ دے کرنکل جانا پڑتا ہے اور ایک نامعلوم خاتون تھریسا  مے کے ہاتھوں میں عظیم برطانیہ کی باگ ڈور تھما آ جاتی ہے ۔ اقتدارتو اسی کو ملتا  جسے ملک کا مالک چاہتا ہے نہ کہ بورس جانسن کوجوبظاہراستصواب کے بعداس کاسب سے بڑادعویدارتھا
ہندوستان میں دو مہینے کے اندر اتراکھنڈ اور ارونانچل کی بابت ہونے والی تبدیلیاں یقیناً  غیرتوقع ہیں۔  ان دونوں مقامات پر مشترک یہ ہے کہ  کانگریس کی صوبائی  حکومتیں تھیں ۔ ہر جگہ کانگریس پارٹی میں پھوٹ پڑی ۔ بی جے پی کی مرکزی حکومت  نے اپنے پٹھو گورنر کی مدد سے سیاسی خلفشار پیدا کرکے اس کا فائدہ اٹھانے کی کوشش کی  لیکن سارے کئے کرائے پر عدالت عالیہ نے پانی پھیر دیا ۔ اس بابت اگر کوئی سوچتا ہے کہ ہندوستانی عدالتیں حکومت کے دباو سے بالکل آزاد ہیں تو یہ اس کی غلط فہمی ہے۔ عدالتوں سے من مانے فیصلے کرائے جاتے ہیں اور ججوں کو مجبور تک کیا جاتا ہے  لیکن ایسااسی وقت تک ممکن ہوتاہے جب تک کہ اوپر والے کی رسی دراز ہو مگر جب وہ کھینچ لی جاتی ہے تو سب کئے دھرے پر پانی پھر جاتا ہے ۔ ساری تدبیریں اوندھے منہ گر جاتی ہیں ۔ اس کائنات کو چلانے والا ہاتھ  چونکہ نظر نہیں آتا اسی لئے بصیرت کے مارے دانشوراس کا انکار کردیتے ہیں۔
ارونانچل پردیش کا معاملہ اترا کھنڈ سے کئی معنیٰ میں مختلف  تھا ۔ ارونانچل میں ایک تہائی سے زیادہ ارکان اسمبلی نے  بغاوت کی تھی اس لئے اتراکھنڈ کے برعکس وہ پھوٹ غیر دستوری نہیں تھی ۔ اتراکھنڈ میں  وزیراعلیٰ کی برطرف کرنے کے بعد صدر راج نافذ کرکے مرکزی کابینہ عدالتی احکامات کے ساتھ ساتھ ملک کے دستور کی دھجیاں اڑائی تھیں ۔اس  فیصلے کو مسترد کرکےعدالت عالیہ نے وزیراعلیٰ کو اعتماد کا ووٹ حاصل کرنے کی اجازت دی جس میں  ہریش راوت اس میں کامیاب ہوگئے اور ان کی حکومت بحال ہوگئی۔ اس کے برعکس ارونانچل میں گورنر نے من منانے طریقہ پر ایک ماہ قبل اسمبلی کا اجلاس بلوایا ۔ ایک نیا اسپیکر نامزد کیا ۔ اسمبلی کے باہر ایک ہال میں نئے وزیراعلیٰ نے اعتماد کا ووٹ حاصل کیا اور اس کو حلف دے کر حکومت کرنے کا موقع دے دیا گیا۔ عدالت عالیہ اس ساری بدتمیزی کو مسترد تو کردیا  لیکن قوی امکان ہے پرانے وزیراعلیٰ تکی اعتماد کا ووٹ حاصل نہ کرسکیں اور پھر سے نئے وزیراعلیٰ  پل کے ہاتھوں میں زمام کار آجائے۔ اس اٹھا پٹخ میں مرکزی حکومت کی ذلت و رسوائی پر قرآن مجید کی آیت کا دوسرا حصہ صادق آتا ہے ’’اور تُو جسے چاہے عزت عطا فرما دے اور جسے چاہے ذلّت دے، ساری بھلائی تیرے ہی دستِ قدرت میں ہے، بیشک تُو ہر چیز پر قدرت والا ہے‘‘۔ اقتدار کی طرح عزت و ذلت بھی پاک پروردگار کے ہاتھ  میں ہے۔ وہ سرکار دے کر بھی مودی جیسوں کو رسوا کردیتا ہے اور ایدھی جیسےقلندروں کو بغیراقتدار کے نام ونموس سے نواز دیتا ہے جن کی نذر یہ شعر ہے۔ (اے فناے فقر تجھ کو الوداع مفلسی ہی مفلسی تیری عبا )

Wednesday 13 July 2016

डॉक्टर जाकिर नायकः खल नायक या महा नायक

एक साल पहले अगर यह पूछा जाता कि कनैह्या कुमार कौन है? तो जेएनयू के बाहर शायद ही कोई इस सवाल का सही जवाब दे पाता लेकिन आज हालत यह है कि न केवल देश का बच्चा बच्चा उससे परिचित है बल्कि विश्व मीडिया में भी वह अजनबी नाम नहीं है। इस दौरान कनैह्या कुमार ने कौन सा ऐसा कारनामा कर दिया कि जिसने उसे इस असाधारण प्रतिष्ठा का हकदार बना दिया? दरअसल कनैह्या कुमार ने तो सिर्फ यह है किया कि छात्र संघ के अध्यक्ष के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए अफजल गुरु की फांसी के खिलाफ आयोजित होने वाले एक प्रदर्शन में भाग लिया जिसमें दो चार सौ छात्र भी उपस्थित नहीं थे। वह विरोध भी कोई नया नहीं था बल्कि तीसरी बार हो रहा था और उसकी ओर कोई ध्यान देने की जरूरत तक महसूस नहीं करता था परंतु यह हुवा कि स्मृति ईरानी की लगातार गलतियों ने खुद उन्हें जीरो बना दिया और कनैह्या कुमार को हीरो बन गए।
कनैह्या के साथ यह किया गया कि पहले उस के भाषण के पीछे कश्मीर के प्रदर्शन के नारे जोड़े गए। इसके बाद दो बार अदालत के अंदर पुलिस की निगरानी में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की धज्जियां उड़ाते हुए उसे संघ के गुंडों ने पीटा। तिहाड़ जेल में अफजल गुरु के कमरे में उसे कैद किया गया और नतीजा यह हुआ कि कनैह्या कुमार युवाओं की आंखों का तारा बन गया। कनैह्या को जिस तरह देश द्रोही घोषित किया गया था उसी तरह डॉक्टर ज़ाकिर नायक को आतंकवादी करार दिया गया। डॉ जाकिर नायक इस्लाम के एक बुद्धिमान उपदेशक हैं। अंग्रेजी बोलने वाले युवाओं में वह बेहद लोकप्रिय हैं। बड़ी मेहनत से उन्होंने अपना टीवी चैनल स्थापित किया है जो दुनिया की कई भाषाओं में और विभिन्न देशों में देखा जाता है।
 डॉ जाकिर नायक को अव्वल तो बांग्लादेश के आक्रमणकारियों से जोड़कर खतरनाक आतंकवादी साबित करने की कोशिश की गई लेकिन आगे चल कर हर विस्फोट से उन्हें इस तरह जोड़ा जाने लगा कि आशंका पैदा हो गई कहीं उनके जन्म से पहले उत्पन्न होने वाले देश विभाजन का आरोप भी डॉक्टर साहब पर ना लगा दिया जाए। ये आरोप इतने बोदे थे कि सारी दुनिया में जगहंसाई का कारण बने।      उदहार्ण के तौर पर एक बांग्लादेशी आतंकवादी का फेसबुक पर उन्हें फोलों करना। फेसबुक पर अनुकरण करने वालों के आधार पर अगर लोगों को दोषी ठहराया जाने लगे तो शायद ही कोई महत्वपूर्ण राजनीतिक नेता या सेलिब्रिटी जेल के बाहर दिखे इसलिए कि हर आतंकवादी या बदमाश जिसे चाहे फेसबुक पर पसंद कर सकता है और इस मामले में किसी का किसी पर कोई जोर नहीं है। बांग्लादेश का ही एक और आतंकवादी श्रद्धा कपूर के पीछे पडा हुवा था और उस से मुलाकात भी कर चुका था तो क्या श्रद्धा की भी जांच होगी बल्कि कश्मीर में हिजबुल मुजाहिदीन का कमांडर बुरहान वाणी के फेसबुक पेज पर सेहवाग की तस्वीरें भी मिलती हैं तो विरेंद्र सेहवाग को भी गिरफ्तार किया जाएगा?
डॉ जाकिर नायक पर एक आरोप यह है कि हाफिज सईद की वेबसाइट पर उनके संस्थान का लिंक मौजूद था। अगर आईआरएफ की साइट पर हाफिज सईद का लिंक मौजूद होता तब तो जाकिर नायक को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं है। इसके अलावा एक वीडियो क्लिप को शरारत करके संदर्भ से काट कर इस तरह पेश किया जा रहा है मानो वह आतंकवाद के समर्थक हैं। वास्तविकता तो यह है कि अगर उसे पूरा देखा जाए तो पता चलता है कि वह आतंकवाद के खिलाफ है और यू ट्यूब पर आतंकवाद की निंदा में डॉ जाकिर नायक के कई वीडियो मौजूद हैं। डॉ जाकिर नायक का दोष केवल यह है कि उनके आगे प्रधान मंत्री के गुरु श्री श्री रविशंकर अपना आर्ट ऑफ लिविंग भूल जाते हैं और ऐसा अनेक लोगों के साथ होता है। उनके खिलाफ जो रपट लिखवाई जा रही है इस विषय में अकबर इलाहाबादी बादी किया खूब कहा है ؎
रकीबों ने रपट लिखवाई है जा जा के थाने में कि अकबर नाम लेता है खुदा उस जमाने में
एनडीटीवी पर शेखर गुप्ता जैसे प्रसिद्ध पत्रकार के साथ डॉ जाकिर नायक का वाक दी टॉक वाला साक्षात्कार किसे याद नहीं। इसके बावजूद मीडिया ने उन्हें खतरनाक आतंकवादी साबित करने की सुपारी ले रखी थी। मीडिया में जो आग लगी हुई थी उसमें राजनाथ सिंह से किरन रजिजो तक और नायडू से लेकर फडनवीस तक सब तेल डाल रहे थे। इस तरह की मूर्खता से डॉ जाकिर नायक का तो कुछ नहीं बिगड़ा लेकिन संभव है स्मृति ईरानी की तरह उनमें से किसी की कुर्सी डांवा डोल हो जाए।
भाजपा वाले बार बार यह भूल जाते हैं कि शीशमहल के बासी दूसरों की ओर पत्थर नहीं उछालते। महाराष्ट्र भाजपा के बहुत दीग्गज नेता एकनाथ खड़से पर दाउद इबराहीम के साथ लगातार संपर्क का आरोप मुंबई पुलिस ने लगाया है। महाराष्ट्र में गृह मंत्रालय का कलमदान खुद मुख्यमंत्री फडनवीस के पास है। वह इस आरोप की जांच करवाकर तथ्यों को सामने क्यों नहीं लाते? सरकार एकनाथ खड़से की धमकी क्यों डर जाती है कि अगर उन्होंने ज़ुबान खोली तो राजनीतिक भूकंप पैदा हो जायेगा? संघियों को याद रखना चाहिए कि जिनकी अपनी चड्डी ढीली होती है वह दूसरों की धोती नहीं खींचते।
उक्त धमकी के अंदर जो बातें गुप्त हैं उन से हट कर देखें तो साध्वी प्रज्ञा आतंकवाद के आरोप में अब तक जेल के अंदर है और उन्हें जमानत देने से अदालत ने इंकार कर दिया है। राजनाथ से लेकर पृथ्वीराज चव्हाण तक न जाने किस किस भाजपा नेता के साथ प्रज्ञा की तस्वीरों से गूगल अटा पड़ा है। समझौता एक्सप्रेस विस्फोट की जिम्मेदारी लेने वाले असीमानंद को मोदी और भागवत के साथ हाथ मिलाते और गले मिलते हुए हर अखबार की वेबसाइट पर देखा जा सकता है। रास्वसंघ के नेता इंद्रेश कुमार पर एन आई ए आतंकवाद में लिप्त होने के गंभीर आरोप लगा चुकी और उन्हें संघ परिवार ने मुसलमानों की रिझाने की जिम्मेदारी दे रखी है।
गुजरात के दंगों का असली अपराधी वैसे तो इस दुनिया की अदालत से अब तक बचा है लेकिन इस नरसंहार के लिए जिन लोगों को विभिन्न अदालतें सजा सुना चुकी हैं उन्हें देखें। क्या उनमें कोई ऐसा भी है जो प्रधानमंत्री का मन पसंद ना हो? जो खुलेआम उन्हें अपना आदर्श न मानता हो? और जो संघ के पालन पोषण या शरण में ना हो? ये सारी बातें किसी जांच की मोहताज नहीं हैं। इस का प्रमाण अनगिनत समाचार लेख, न्यायिक बहस, गवाहों के बयान, जजों के फैसले और स्टिंग ऑपरेशन के वीडियो में फैला हुवा है। बाबू बजरंगी जैसे लोग प्रधानमंत्री को श्रद्धांजलि देने में बिल्कुल संकोच नहीं करते। नरोदा पाटिया के अंदर नरसंहार कि दोषी अदालत से आजीवन कारावास की सजा पाने वाली माया कोन्दानी को दंगे के बाद मंत्रालय से सम्मानित वाला अगर उस के अपराध में भागीदार नहीं है तो किसी का फेसबुक पर किसी के पिछे आना क्या मायने रखता है ?
महाराष्ट्र सरकार ने जब डॉ जाकिर नायक की जांच करने का फैसला किया तो उसे इस काम में 9 विभिन्न टीमों को लगाना पड़ा। इसका एक कारण तो यह है कि सरकारी अधिकारी काम बहुत धीमे करते हैं और दूसरा कारण यह है कि सामग्री बहुत अधिक थी। दैनिक हिन्दू के अनुसार चार दिनों की मेहनत के बाद महाराष्ट्र की खुफिया विभाग ने फिलहाल डॉक्टर ज़ाकिर नायक को क्लीन चिट दे दी है। यह क्लीन चिट इस मामले में अलग है कि आम तौर पर यह काम सरकार के दबाव में किया जाता था इस बार दबाव के खिलाफ किया गया है। विश्वसनिय सूत्रों के हवाले से हिंदू ने खबर दी है कि डॉ नायक के आगमन पर उनको न तो गिरफ्तार करना संभव है और न संभावना है। डॉ नायक के सभी साहित्य और वीडियो को देखने के बाद यह साबित तो नहीं हो सका कि आतंकवाद का कोई तत्व शामिल है इस लिए अब देखा जा रहा है कि उन्होंने किसी की भावना को आहत तो नहीं किया? और यह पता लगाने की कोशिश की जा रही है कि आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार होने वाले कौन कौन से युवा डॉक्टर साहब से प्रभावित थे हालांकि इस शोध का अदालत में कोई महत्व नहीं है वहाँ सार्वजनिक भावनाओं को नहीं वास्तविकता को प्राधान्य दिया जाता है। इससे पहले न्यायालय व्दारा सरकार की कई बार खिंचाई हो चुकी है।
 बांग्लादेश आतंकवादियों से संबंध पर पुर्वी अटॉर्नी जनरल सोली सोराब जी का रुख है कि पहले निष्पक्ष जांच हो और फिर नियमों को लागू किया जाए न कि पहले। ऐसा लगता है कि सोराब जी मीडिया के शत्रुतापूर्ण रवैये पर टिप्पणी फ़रमा रहे थे। धार्मिक घृणा के सवाल पर महाराष्ट्र के पूर्व एडवोकेट जनरल ने स्पष्ट किया कि अपने धर्म का पालन करना और प्रचार भारत के अंदर इंसान का मौलिक अधिकार है। हर कोई अपने धर्म को दूसरे से बेहतर कह सकता परंतु विभिन्न समुदायों के बीच झगड़ा लगाने से यह मौलिक अधिकार छिन जाता है। वरिष्ठ कानून विशेषज्ञ अमित देसाई इस बात पर जोर देते हैं कि किसी बयान को संदर्भ से काटकर नहीं बल्कि समग्र रुप से देखना चाहिए।
 प्रधानमंत्री ने घृणित भाषण को समाज के लिए हानिकारक बताया। इस बाबत विशेषज्ञों का कहना है कि अदालत में भाषण के सिद्ध शब्दों के साथ प्रेक्षक के इरादे पर भी ध्यान दिया जाता है। अगर किसी का  जान बूझकर नहीं बल्कि अनजाने में मन आहत हुआ हो और ध्यान दिलाने पर वक्ता माफी मांग ले तो अदालत उसके साथ नरमी का व्यवहार करती है। जिस समय डॉ जाकिर नायक को लेकर हंगामा बरपा था 9 महीने के बाद हारदिक पटेल की रिहाई का रास्ता साफ हो रहा था। हारदिक पटेल ने तलवार हाथ में लेकर जिस तरह बलपूर्वक व्यवस्था को तहस-नहस करने की घोषणा की थी वह सब को याद है। बाद में बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क उठी थी। इसीलिए उस पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया लेकिन अब वह भी स्वतंत्र हो रहा है ऐसे में किसी ऐसे व्यक्ति को आतंकवादी करार देने की कोशिश जिसके चाल चरित्र से कभी भी शांति भंग होने का खतरा उतपन्न न हुआ हो एक मूर्खता से अधिक कुछ और नहीं है।
डॉ नायक का मामला ऐसे समय में उठाया गया जब मीडिया के पास कोई भडकाऊ विषय नहीं था। उसके सामने पहली खबर तो प्रधानमंत्री के विदेशी दौरे की थी। अब देश के लोग इन तमाशों से इतना ऊब चुके हैं कि अफ्रीका तो दर किनार अमेरिकी दौरे पर भी ध्यान नहीं देते। दूसरा बड़ा आरोप कांग्रेस ने यह लगाया कि सरकार 45,000 हजार करोड के दूरसंचार घोटाले पर पर्दा डाल रही है। कांग्रेस की यूपीए सरकार ने 6 टेलीफोन कंपनियों पर 2006 से 2009 के बीच सरकारी बकाया भुगतान करने में कोताही के लिए जांच का आदेश दिया था। भाजपा ने विपक्ष के रूप में इस के कारण सरकारी खजाने के अनुमानित नुकसान पर खूब हंगामा किया था और कांग्रेस के ऊपर भ्रष्टाचार में लिप्त होने का आरोप जड़ दिया था। उस समय यह खबर सभी मीडिया पर छाई हुई थी।
 इस विवाद पर अब महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट आ चुकी है और उस ने उन चार वर्षों में 12 हजार करोड से ज्यादा बकाया को स्वीकार कर लिया है अगर इन बकायाजात का  2016 तक का अनुमान लगाया जाए तो यह राशि 45000 हजार करोड बन जाती है। पहले जो लोग सरकारी खजाने के नुकसान पर शोक कर रहे थे वह खजाने के मालिक बने हुए हैं लेकिन सरकार इस राशि को जुर्माना सहित वसूल करने के बजाय पूंजीपतियों को सुविधा देने की कोशिश कर रही है। सरकार का ऐसा करना भ्रष्टाचार की अप्रत्यक्ष संरक्षण के समान है। कांग्रेस का आरोप है कि और इस तरह सरकार मित्र कंपनियों को सजा से बचाया जा रहा है और उनके अपराध का समर्थन किया जा रहा है। जब से नई सरकार सत्ता में आई है मीडिया में भ्रष्टाचार के आरोप उछाले नहीं दबाए जाते हैं। ऐसा लगता है डॉ जाकिर नायक के मामले को इस भ्रष्टाचार से ध्यान हटाने के लिए बड़ी चतुराई से इस्तेमाल किया गया लेकिन जब कश्मीर हिंसा की बड़ी खबर सामने आ गई तो वह भी काफूर हो गया।
वैसे यह भी एक सत्य है कि पिछले कुछ वर्षों के भीतर भारत की हद तक डॉ नायक का काम मांद पड़ने लगा था। इस दौरान कोई बड़ा सम्मेलन, प्रसिद्ध चर्च का आयोजन नहीं हुआ था। खाड़ी देशों में मिलने वाले पुरूस्कारों के अलावा उनके बारे में कोई खबर मीडिया में नहीं दिख रही थी लेकिन मीडिया की वर्तमान शरारत और सरकार की मूर्खता ने डॉ जाकिर नायक को फिर एक बार प्रसिद्धि की बुलंदियों पर पहुंचा दिया है। उनके पीस चैनल पर भारत में वैसे भी पाबंदी थी। कुछ केबल ऑपरेटरों के अलावा कोई नेटवर्क इसे प्रसारित नहीं कर रहा था इस लिए पहुँच सीमित थी लेकिन अब जो यह हंगामा खड़ा किया गया इसके बारे में जानने वालों की संख्या में असाधारण वृद्धि हुई है।
यह नए लोग अवश्य इंटरनेट या यू ट्यूब पर जाकर यह पता करने की कोशिश करेंगे कि आखिर सच्चाई क्या है? वे डॉक्टर नायक के वीडियो देखेंगे तो उनके सामने एक अलग व्यक्ति आएगी और दर्शक उनके द्वारा इस्लाम धर्म से भी परिचित होंगे। इस बात का प्रबल संभावना है कि अंततः यह संघर्ष बहुतों को इस्लाम के करीब करने में मददगार साबित हो लेकिन इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि इस दौरान देश में एक वर्जित चैनल के संस्थापक और मालिक सारे राष्ट्रीय चैनलों पर चर्चा का विषय बना रहा बल्कि छाया रहा। इसमें शक नहीं कि इन चार दिनों में राष्ट्रीय मीडिया पर किसी खल नायक का नहीं बल्कि एक महा नायक राज करता रहा।

Tuesday 5 July 2016

बरिकज़ट: करार मुझे नहीं है कि बेकरार हुं मैं

ब्रिटेन के यूरोपियन यूनियन से अलग होने के फैसले ने पश्चिमी जगत में हलचल मचा दी। ब्रिटेन के इस जनमत ने यूरोप के समृद्धि, सहिष्णु औ रसमानता के अग्रणी ब्रिटेन के चेहरे को बेनकाब कर दिया। महान ब्रिटेन विभिन्न दृष्टि से टूटाफूटा दिखाई देने लगाहै। युवा, शिक्षित और आर्थिक रूप से समृद्ध वर्ग युरोपी युनियन का समर्थक था जबकि वृध्द अवकाश प्राप्त वर्ग, कम पढ़े लिखे लोग और दरिद्र जनता ने विरोध किया था। इस निष्कर्ष से यह स्पष्ट हो गया कि समाज में किस वर्ग को बहुमत प्राप्त है। इस भेदभाव की वजह साफ है।यूरोपीय संघमें भाग लेने से उत्तरार्द्ध वर्ग का फायदा हुआ और दुसरा घटक घाटे में रहा। हर वर्ग ने फैसला अपने हितों के अनुसार किया न तो युवकों ने बुजुर्गों की राय का सम्मान किया और न बुजुर्गों ने अपनी आगामी पीढ़ी के भविष्य की खातिर बलिदान देना अवश्यक समझा।

इस जनसंग्रह में यह भी दिखाई दिया कि जनता का विश्वास बड़े राजनीतिक दलों से उठ गया है। वह गंभीर निराशा का शिकार हैं। उन्हें अपनी नौकरी का डर सता रहा है इसलिए दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों के समर्थनको रद्द कर दिया गया। गठबंधन का समर्थन प्रधानमंत्री सहित सारे बड़े नेता कर रहे थे जब कि इस का विरोध करने वालों में सब से आगे ब्रिटेन में डोनाल्ड ट्रम्प कहलाने वाले लंदन शहर के पूर्व मेयर बोरिस जॉनसन और अतिवादी दल यूकेएलपी था।

ग्रेट ब्रिटेन के भौगोलिक बखिए भी इस बार उधेड़ दिए गए।ब्रिटेन दरअसल लंदन, वेल्श, स्कॉटलैंड और आयरलैंड के विलय का नाम है। इन चार में से दो स्कॉटलैंड और आयरलैंड ने गठबंधन के पक्ष में राय दी। स्कॉटलैंड की जनता और नेता यूरोपीय संघ के साथ गठबंधन को इतना महत्व देते हैं कि वे इस के लिए ब्रिटेन से नाता तोड़ने के लिए तैयार हैं। इसलिए स्कॉटलैंड के अलग हो जाने का खतरा बढ़ गया है। पिछले साल आयरलैंड ने बहुत कम से ब्रिटेन के साथ रहने का फैसला किया था लेकिन यूरोपीय संघ के साथ संबंध के विषय में यह अंतर बहुत बढगया है। अब खतरा है कि ब्रिटेन न केवल यूरोपीय संघ की सदस्यता से वंचित होजाए बल्कि स्काटलैंडऔरआयरलैंडसेभीहाथधोबैठे।

यूरोपीय देश दशकों तक आपस में संघर्ष रत रहे हैं। खूनखराबामें उन की बराबरी कोई नही कर सकता।भूत काल में समय-समय पर युद्ध उन्मूलन के लिए गठबंधन के प्रयत्न होते रहे हैंलेकिनवहदेरतक टिक नहीं पाए।1910     में इस तरह की एक प्रयत्न से इस बात की उम्मीद बंध गई थी कि अब लड़ाई नहीं होगी लेकिन फिर एक के बाद दो महायुद्ध में लाखों जानें नष्ट हुईं।इस के बाद थके हारे यूरोप ने 1945   में संयुक्त राष्ट्र द्वारा शांति स्थापित करने की कोशिश की और फिर आगे बढ़ कर यूरोपीय संघ बनाकर आर्थिक समृद्धि का सपना देखा लेकिन वह साकार होता दिखाई नहीं देता।

युद्ध के बाद यूरोप में यह हुआ कि राजाओं की जगह लोकतांत्रिक नेताओंने लेली मगर जनता दमन शोषण की चक्की में पिसते रहे। विश्व व्यापार की खुलीमंडीने पूंजी पतियों कोलूटखसूट की खुली छूट दे दी नतीजा यह है हुवा कि जनता का आक्रोश राष्ट्रीय चुनाव में भी व्यक्त होने लगा। भावनात्मक शोषण करनेवाले प्रबुद्ध नेताओं की चिकनी चुपड़ी बातों अब जनता नहीं अती क्यों कि राजनीति और पूंजीवाद की साठगांठ ने उनका जीना दूभर कर दिया है। पश्चिम का हर अंतरराष्ट्रीय गठबंधन असमानता का शिकार रहा है। संयुक्त राष्ट्र में मुट्ठीभर देश वीटो की सहायता से अपनी मनमानी करते हैं। यूरोपीय संघ में जर्मनी और फ्रांस जैसे समृद्ध देश अनेक आर्थिक सुधार अन्य सदस्यों देशों पर थोपते रहते हैं जिससे उनका अपना लाभ और दूसरों का नुकसान होता है। इस आर्थिक गुलामी की चपेट में कमजोर वर्ग आते हैं यही कारण है कि उन्होंने घोषणा की'' हमें अपने देश वापस चाहिए'' तथा सफलता के बाद इसे''ब्रिटेन की स्वतंत्रता'' का नाम दिया।

पश्चिमी शासकों द्वारा लगाए जाने वाले मानव कल्याण,समानता और समृद्धि के खुशनुमा नारे इसलिए खोखले ठहरते हैं कि उनमें ईमानदारी के बजाय स्वार्थ छुपा होता है। धर्मनिरपेक्षता के उन समर्थकों के स्थाई मूल्यों का अभाव होता है इसलिए वह मौका पाते ही शोषण में जुट जाते हैं। उनके पास ईश्वरीय गुणवत्ता नहीं होती इसलिए अवसरवादी नियमों की सहायता से अपने लक्ष्य प्राप्त करते है। मानव अधिकारों को हनन रोकने वाली पर लौकिक आस्था विलुप्त होने के कारण उन्हें अपनी ग़लती का बोध नहीं होता।ये लोग ना केवल दूसरे देशों का शोषण करते हैं बल्कि खुद अपनी जनता को भी नहींबखशते। बरिकज़िट इस रवैये के विरूध प्रकट होने वाली प्रतिक्रिया है।

अप्रैल में ऑस्ट्रिया के अंदर राष्ट्रपति चुनाव का आयोजन हुआ। इसके पहले चरण में अतिवादी दक्षिणपंथी फ्रीडम पार्टी के उम्मीदवार होफरने जबरदस्त जीत दर्ज कराते हुए सबसे अधिक 35 प्रतिशत वोट हासिल किए। दूसरे नंबर पर गरीन नाम की नई पार्टी के उम्मीदवार बेलन को 21 प्रतिशत वोट मिले। एक स्वतंत्र उम्मीदवार ग्रेस 19 प्रतिशत वोट हासिल करके तीसरे स्थान पर आया और पिछले साठ सालों से अदलबदल कर सत्ता की बागडोर संभालने वाले सोशल डेमोक्रेटिक और प्यूपिलस पार्टी के उम्मीदवारों को 11 प्रतिशत पर समाधान करना पड़ा। ऑस्ट्रिया के संविधान में राष्ट्रपति पद के के लिए 50 प्रतिशत से अधिक मत अनिवार्य हैं इसलिए दूसरे चरण में केवल पहले दो उम्मीदवार मैदान में थे। मईके अंदर होने वाले दूसरे दौर में भी पहले होफर को 51 दशमलव 9 प्रतिशत वोट मिले लेकिन जब डाक के वोट गिने गए तो बेलन 50दशमलव3 वोट से सफल हो गए। इस तरह यूरोप पहले अतिवादी दक्षिणपंथी प्रमुखसे बालबाल बच गया।

 ऑस्ट्रिया में मतदाताओं का वितरण बिल्कुल ब्रिटेन की तरह थी। कम पढ़ेलिखे, दरिद्र और गांवों के लोग होफर के साथ थे और नगरों में रहने वाला हृष्टपुष्ट शिक्षित वर्ग बेलन के साथ था। वर्तमान में राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी दल जनता की आर्थिक विकटता का अपने पक्ष में उपयोग कर रहे हैं और उन्हें सफलता मिलने लगी है। होफर भी यूरोपीय संघ से निराश है। वह प्रवासियों के खिलाफ आवाज उठाता है और इस्लाम के खिलाफ जहर उगलता है। वह जनता को यह समझाने की कोशिश करता है कि उनकी बेरोजगारी के लिए मुस्लिम प्रवासी जिम्मेदार हैं। हालांकि विश्व बाजार जब से खुला है औद्योगिक उत्पादकता चीन व कोरिया जैसे देशों की ओर चली गई इस से यूरोप और अमेरिका में बेरोजगारी आई। इस तथ्य को स्वीकार करना चूंकि पूंजीपति समर्पथकों को खिलाफ है इसलिए राष्ट्रवादको नाम पर एक फर्जी शत्रू के खिलाफ जनता को भड़काया और गुमराह किया जा रहा है।

फ्रीडम पार्टी जैसे दल यूरोप के विभिन्न देशों जैसे जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैंड आदि में भी पैर फैलाने लगेहैं । सभी की कार्य प्रणाली में समानता है इसलिए उनका उद्देश्य समान है। वैसे अमेरिकी चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प के दिन प्रतिदिन लोकप्रियता इसी कारण बढ रही है। वह भी पहले अमेरिका फिर वैश्विक हितों का नारालगाताहै। मुसलमानों बल्कि मैक्सिकन लोगों के खिलाफ भी आए दिन जनता की भावनाओं से खेलता है, लेकिन चीनी उत्पादों के विरूध जुबान नहीं खोलता इसलिए कि वह खुद पूंजीपति है और जानता है कि पानी कहाँ मरता है।

इसी सप्ताह फिलीपींस के अंदर सत्ता पर आसीन होने वाले डयूटरटे का भी यही हाल है। डयूटरटे इससे पहले दुवाई नामक शहर का 20 वर्षों तक मेयर था और इसके बारे में प्रसिद्ध है कि इसका अपना निजी समूह था जो तस्करों को न्यायिक फैसले के बिना मौत के घाट उतार देता था। डयूटरटेने घोषणा की है कि वह नशीली पदार्थों के तस्करों की जानकारी प्रदान करें या अपनी बंदूक से खुद उन्हें मारदें। जो तस्कर को मारकर आएगा उसे मेरी ओर से पदक दिया जाएगा। अगर इस तरह की घोषणा कोई मुस्लिम शासक करता तो इस्लाम को बदनाम करने के लिए न जाने कैसा बवाल मचा दिया जाता लेकिन सौभाग्य से डयूटरटे लोकतंत्र समर्थक ईसाई है।

पश्चिमी लोकतंत्रके प्रति सार्वजनिक अक्रोश सारी दुनिया में व्यक्त हो रहा है। बरिकज़ट के बाद नीदरलैंडके निकज़ट आ रहा है। यदि यह सिलसिला जारी रहा तो बहुत जल्द योरोपी संघ में 28 के बजाय 8 देश शेष बचेंगे लेकिन जब फ्रांस और जर्मनी में फिर से राष्ट्रवाद की बाढ आएगी तो सोवियत संघ की तरह यूरोपीय संघ का भूगोल भी हवा में भंग हो जाएगा और इतिहास का भाग बन जाएगा। यूरोप के विभिन्न देशों में राष्ट्रवादी दलों के सत्ता संभालने के बाद अवश्य फिर एक बार युद्ध का बाजार गर्म हो जाएगा। समृद्धि की उम्मीद में राष्ट्रवादियों का समर्थन करनेवाले भोली-भाली जनता नरसंहार की आग में झोंक दी जाएगी। यह कोई धारणा नहीं बल्कि यूरोप के काले इतिहास की पर्नावृत्ती है।

यह तथ्य है कि दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में सारे वादों और दावों के बावजूद धनदौलत कुछ लोगों के हाथों में सिमट रहा है और अमीर व गरीब वर्गों के बीच असमानता ओं बढ़ती जा रही है। इस प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया को पश्चिम अपनी राजनीतिक प्रणाली की विफलता के रूप में स्वीकार नहीं कर रहा है। जनता को राष्ट्रवाद का अफीम पिलाकर उनका ध्यान मूल समस्या से हटाया जा रहा है। इस्लाम के खिलाफ इतनी नफरत पैदा कर दी गई है कि जनता दयावान इस्लामी प्रणाली की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते। पश्चिमी बुद्धिजीवियोंके मन की घृणाका प्रसार मीडियासे हो रहा है। इस वातावर्ण ने इस्लामवादियों के हौसले पस्त कर दिए हैं और उनकेआत्मविश्वास में कमी इस्लाम को एक वैकल्पिक जीवनप्रणाली के रूपमें पेश करने में रुकावट बन रही है।

वर्तमानमें पश्चिम के बुद्धिजीवी दो प्रकार के हैं। एक कार वैया उनकी अज्ञानता का प्रतीक है और दूसरा जानते बूझते अनदेखी कर रहा हैं। इस प्रवृत्ती को रोगी और चिकित्सक के उदाहरण से समझा जा सकता है। जब कोई डॉक्टर बीमारी की पहचान करने में विफल हो जाता है तो वह दर्दनाशक दवाओं का सहारा लेता है। ऐसा करने से रोग का इलाज नहीं होता लेकिन रोगी की पीड़ा कम हो जाती है। वह इस खुशफहमी का शिकार हो जाता है कि स्वस्थ हो रहा है जब कि वास्तव में अंदर ही अंदर बीमारी उसे खोखला कर रही होती है। लोकतांत्रिक चुनाव से फिलहाल यही काम लिया जा रहा है। इस के माध्यम से जनता का क्रोध व्यक्त हो जाता है। अस्थायी सपनों और उम्मीदों के सहारे वह अपने दुख दर्द भूल कर अच्छे दिनों के सपने संजोता है परंतु हालात नहीं बदलते और वह बार बार निराशा का शिकार होता रहताहैं। यह अनभिज्ञ डॉक्टरों व्दारा भोले-भाले मरीजों की दुर्दशाकी दुखभरी कहानी है।

दूसरी श्रेणी के चिकित्सक बीमारी और इलाज दोनों से परिचित है लेकिन इस्लाम का सीधा साधा इलाज उनके व्यक्तिगत हितों से टकराता है। मेडिकल की दुनिया में पाया जाने वाला भ्रष्टाचार अब कोई ढकी छुपी बात नहीं है। प्रत्येक टेस्ट पर कमीशन है इसलिए बिना कारण महंगे महंगे सीटी स्कान आदि भी कराए जाते हैं। इस में मरीज की मजबूरी का फायदा उठाकर जांच करने और कराने वाले मिल कर रोगी की जेब खाली कर लेते हैं। अस्पताल और दवा बनाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियां भी यही करती हैं। चिकित्सा बीमा का फलता फूलता व्यवसाय इसी गोरखधंधे का हिस्सा है। इस से मरीज़ के अलावा हर किसी के वारे न्यारे होते हैं। राजनीतिक स्तर पर जब शोषण हदों से गुजर जाता और सामान्य जनता विद्रोह पर उतारू हो जाती है जिस का दह न तो राष्ट्रवाद की आग में किया जाता है। अपने ही देश के अंदर या बाहर के काल्पनिक दुश्मन से भयभीत करके अपने काले करतूतों पर पर्दा डाला जाता है।

ब्रिटेन जनमत संग्रह औरऑस्ट्रियाके चुनाव नतीजों में समानता है। फिलपीन और भारत का सत्ता परिवर्तन एक जैसा है। अमेरिका चुनाव प्रचार भी उसी दिशा में बढ रहा है। सारे बड़े राजनीतिक दलों के समर्थन के बावजूद ब्रिटेन की जनता का अलग होने का निर्णय लेना या ऑस्ट्रिया के राष्ट्रपति चुनाव में वर्षों तक शासन करने वाले पक्षों का चौथे और पांचवें स्थान पहुँचजाना। अमरीका में डोनाल्ड ट्रम्प जैसे अपारंपरिक राजनीतिक व्यक्ति का राष्ट्रपतिपद के लिए सशक्त उम्मीदवार बन जाना और फिलीपींस में असंवैधानिक हत्या (एनकाउंटर) समर्थक डेट्रायट के राष्ट्रपति या भारत में नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बन जाना एक ही रोग के विभिन्न लक्षण हैं। उनमें से किसी देश में इस्लामी जागरूकता नहीं है और यह सब की सब पश्चिमी लोकतंत्र पर वर्षों से प्रतिबद्ध हैं। इन सभी स्थानों पर दक्षिणपंथी उग्रवादियों की लोकप्रियता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। इन सारे देशोंमें मुसलमानों के विरूध असहिष्णुता बढ रही है।

इस मामले को माँ और बच्चे के उदाहरण से भी समझा जा सकता है।  छोटा बच्चा जब भूखा होता है तो रोता है। माँ जब उसे अपने सीने से लगा कर उस की भूख मिटाती है तो वह आराम से सो जाता है लेकिन अगर माँ ने मजबूरी में नहीं बल्कि दुनिया के लोभ लालच में अपने ऊपर अनावश्यक काम ओढ़ रखे हों तो बच्चों को खिलौनों सेबहलायाजाताहै।अनावश्यक कामों में व्यस्त माँ बच्चों की देखभाल करने में असमर्थ रहती है। ऐसे में बच्चे अनदेखी का शिकार हो जाते हैं या आया के हवाले कर दिये जाते हैं। वह एक हद तक ध्यान रखती है लेकिन फिर तंग आकर बच्चे को दूध के साथ अफीम पिलाकर सुला देती है। पश्चिम के बुद्धिजीवी अपनी जनता को राष्ट्रवाद की अफीम अमृत बताकर पिलाते हैं मगर धर्म को अफीम बताया जाता है।
जब उन के सामने इस्लाम एक वैकल्पिक प्रणाली बन कर आता है तो यह मिस्र की तरह चोर दरवाजे से सेना की मदद लेकर सरकार का तख्ता पलट देते हैं। तुर्की जैसे देश यदि यह संभव नहीं हो पाता तो पर्यटन की महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्था को नष्ट करने के लिए हवाई अड्डों पर विस्फोट करवा ते हैं।विश्वभर में खुली मंडी के नाम पर आर्थिक शोषण और राष्ट्रवाद के जरिए राजनीतिक नफरत फैलाने वालों के लिए बरिकजिट में एक कडवा संदेश है।