Friday 4 September 2015

गुजरात से नेपाल तक आग और खून की होली

नेपाल को अगर हिंदू राष्ट्र होने का गौरव प्राप्त है तो गुजरात को हिंदू राज्य कहा ही जा सकता। वैसे गुजरात को हिंदुत्व की प्रयोगशाला भी कहा जाता है हालांकि राजस्थान विधानसभा में भाजपा के सदस्यों का अनुपात गुजरात से अधिक है। किसी भी प्रयोगशाला में बनने वाली दवाओं के बारे में वैज्ञानिक नहीं जानते कि उन से कौन लाभवंत होगा। जहर वाले भी यकीन के साथ नहीं कह सकते कि वह किसके खिलाफ इस्तेमाल होगा। हथियारों का उदाहरण हमारे सामने है कलाश्निकोव रूस का आविष्कार है मगर अफगान मुजाहिदीन ने इसका सबसे अच्छा उपयोग रूस के खिलाफ किया। नाटो के वस्त्र छीन कर उसके विरुध इस्तेमाल की घटनाएं भी देखने में आई हैं। क्योंकि यह दुनिया है जो इसमें आने वालों की इच्छा के अनुसार नहीं बल्कि इसे बनाने वाले की मर्जी से चलती है। 13 साल पहले घटित गुजरात दंगे के निम्नलिखित कारण तत्कालीन अराजकता के पीछे भी कार्यरत हैं:
• जनता के मन में घृणा और द्वेष भावना
• प्रशासन का भेदभाव
• राज्य सरकार का राजनीतिक हित
• केंद्र सरकार की अनदेखी
घृणा और द्वेष भावना: पटेल समाज के भीतर अन्य पिछड़ी जातियों के प्रति द्वेष बहुत पुराना है। राहुल गांधी ने अपनी प्रतिक्रिया में यही बात कही है कि मौजूदा अराजकता मोदी जी की घृणित राजनीति का निष्कर्ष है। राहुल की समस्या यह है कि वे इस मौके पर वे ना तो पटेल आंदोलन का विरोध कर सकते हैं और न समर्थन। राहुल चाहते हैं कि यह आग फैले और मोदी के किले को भस्म कर दे लेकिन वह इसका समर्थन करके अपने मतदाताओं को नाराज भी नहीं करना चाहते। भाजपा सरकार की तरह कांग्रेस भी आंदोलन की विरोधी है यही कारण है कि विधानसभा में कांग्रेस के नेता शंकर सिंह वाघेला ने मूलसमस्या पर बातें करने के बजाय प्रदर्शनकारियों पर काबू पाने में राज्य सरकार की विफलता को आड़े हाथों ले कर मुख्यमंत्री के इस्तीफे मांग की है।
पटेल समाज को हिन्दुत्व के प्रेम ने नहीं बल्कि दूसरी जातियों के द्वेष ने भाजपा का समर्थक बनाया था लेकिन केवल उनके बलबूते पर सरकार बनाना संभव नहीं थी इस लिए भाजपा ने अन्य पिछड़े वर्गों के दिल में मुसलमानों के खिलाफ नफरत पैदा करके उन्हें अपना सर्मथक बना लिया। नफरत की आग ने अस्थायी रूप से ज़ात पात का भेदभाव मिटा दिया लेकिन अब एक बार फिर वह भड़क उठी है। यही कारण है हिंसा की आंच पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाली भाजपा शांति का राग अलापने लगी है। जब तक इस आग से मुसलमानों के घर जलाकर वे अपने महल का निर्माण कर रहे थे तब तक वे हिंसा को धर्मयुध्द बताते रहे अब जबकि इस आग की लपटों के चपेट में उनका अपना सिंघासन आ गया है यह दंगाई शांतीदूत बन गए हैं।
इस स्थिति में यदि पटेल समुदाय भी यादव समाज के पदचिन्हों पर चलते हुए अपना क्षेत्रीय दल बना ले तो भाजपा, कांग्रेस और नई क्षेत्रीय पार्टी का वोट अनुपात समान हो जायेगा और गुजरात में भाजपा के पूर्ण स्वामित्व सत्ता का दीपक बुझ जाएगा । इस नई राजनैतिक परिस्थिती में मुसलिम समाज जिसका के साथ जाएगा वह राज्य करेगा ईस प्रकार गुजरात में मुसलमानों का सियासी बनबास समाप्त हो जाएगा। गुजरात की यह विशेषता है कि वहां पर सत्ताधारी पार्टी ने पिछले 15 सालों से अपने राज्य में मौजूद सबसे बड़े अल्पसंख्यक समाज के किसी आदमी को मंत्री बनाना तो दूर विधानसभा या लोकसभा चुनाव का टिकट देना भी जरूरी नहीं समझा।
प्रशासन का शत्रुतापूर्ण आर्चण: सांप्रदायिक दंगे आमतौर पर राजनीतिक संरक्षण में प्रशासन यानी पुलिस की निर्ष्कता के कारण होते हैं। कभी कभार पुलिस दंगाइयों के कंधे से कंधा मिलाकर आग और खून के इस खेल में शामिल भी हो जाती है। पुलिस की उपेक्षा का कारण उसमें शामिल मुसलमानों से नफरत करने वाले कट्टर हिंदू तत्व होते हैं। चूंकि सेना तटस्थ होती है इसलिए मुसलमान उसकी तैनाती की मांग करते हैं और यह सच भी है कि सेना के आगमन के बाद अक्सर हालात काबू में आ जाते हैं। मुसलमानों के इस मांग को यह कहकर नकार दिया जाता है कि इससे पुलिस का मनोबल गिर जाएगा। यदि ऐसा है तो इस बार गुजरात में 30 हजार पुलिसकर्मियों के होते हुए सेना को क्यों बुलाया गया और फ्लैग मार्च क्यों किया गया? सांप्रदायिक दंगों में यह तमाशा तब किया जाता है जब चिड़िया खेत चुग चुकी होती है लेकिन गुजरात में जहां यह पहले यह कभी नहीं हुआ था दूसरे ही दिन सेना को क्यों तैनात किया गया?
गुजरात के अंदर सेना की तैनाती की का कारण यह है कि पुलिस बल में पहले भी पटेल कम थे। हाल के दिनों में जो भर्ती हुई है उसमें आरक्षण के चलते अन्य जातियों का अनुपात और बढ़ गया। इन लोगों के दिलों में पटेल समाज और आंदोलन के खिलाफ नफरत है इसलिए जितना बल प्रयोग करने के लिए कहा गया था उससे कहीं अधिक हुआ। यह तथ्य पुलिस अधिकारियों ने खुद स्वीकार किया है। मुख्यमंत्री ने इस आरोप की जांच का आदेश दिया है। शाहीबाग क्षेत्र में पुलिस की ओर से की जाने वाली तोड़फोड़ की वीडियो भी लोगों ने हिंदुस्तान टाइम्स को दी है। गुजरात की पुलिस के खिलाफ कार्रवाई होगी या नहीं? और होगी भी तो क्या? यह समय ही बताएगा लेकिन पटेल समाज के तुष्टीर्कण के लिए कुछ न कुछ तो करना ही होगा इसलिए की वह मुसलमान तो हैं नहीं कि भूल कर भी भाजपा को वोट नहीं देते वह तो आर्दणीय भगवा मतदाता हैं और मुख्यमंत्री जाति भाई भी हैं।
पुलिस कार्रवाई के बाद हार्दिक पटेल ने जो बयान दिया उसे पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि मानो वह किसी मुस्लिम नेता का भाषण है। उसने कहा हम हिंसा नहीं चाहते थे मगर यह सब पुलिस के युवाओं को पीटने के कारण हुआ है। हम शांतिपूर्ण थे मगर पुलिस ने हमारे साथ आतंकवादियों का सा व्यवहार किया। हम आतंकवादी नहीं हैं। हार्दिक ने यह भी कहा कि पुलिस ने महिलाओं पर लाठियां बरसाईं उन्होंने रात साढ़े ग्यारह बजे हमारे घरों में घुसकर हमें पीटा। हार्दिक पटेल से मुसलमान यह सवाल कर सकते हैं कि क्या मोदी जी के आदर्श गुजरात में यह पहली बार हुआ है? गुजरात पुलिस को तो यही सिखाया गया है कि जो भी सरकार का दुश्मन है वह आतंकवादी है। पटेल चूंकि इस बार सरकार का विरोध कर रहे हैं इस लिये उनके साथ यह व्यव्हार हुवा। यदि पटेल समाज मुसलमानों के खिलाफ प्रशासन के शत्रुतापूर्ण रवैया का विरोध करता तो आज मुसलमानों को अपने साथ खडा पाता लेकिन हमारे देश में पीड़ितों के भीतर एक दूसरे का समर्थन करने की प्रथा नहीं है बल्कि हम लोग एक दूसरे की पीडा पर बग़लें बजाते हैं। शायद इसी लिए बारी बारी से अत्याचार का शिकार होते हैं।
राज्य सरकार का राजनीतिक हित: जीएमडीसी ग्राउंड पर तैनात सभी पुलिस वालों के निलंबन की मांग के बाद हार्दिक पटेल ने आरोप लगाया कि पोलिस अपने स्वामी (सरकार) के इशारे पर हिंसा कर के आंदोलन को पटरी से उतार रही है। पुलिस राज्य या केंद्र सरकार के इशारे पर हमारे खिलाफ कार्रवाई कर रही है। हार्दिक के अनुसार चूंकि गुजरात की सरकार को यह डर था कि हमारा आंदोलन मीडिया पर छा जाएगी इसलिए उसने हमें उकसा कर बदनाम करने के लिए यह कदम उठाया लेकिन मैं प्रशासन को बता देना चाहता हूँ कि यदि एक भी पटेल पुत्र को पीटा गया तो इसके लिए पुलिस और राज्य सरकार जिम्मेदार होगी। जो गृहराज्य मंत्री अपना घर नहीं बचा सका वह दूसरों की क्या रक्षा करेगा? यह बहुत अच्छा तर्क है कि पहले किसी का घर जलाया जाए और फिर इसी को दोषी ठहराया दिया जाए। इससे पहले यही खेल राज्य सरकार मुसलमानों के साथ खेलती थी कि उनके ऊपर होने वाले अत्याचार का आरोप उन्हीं के सिर मढ़ा दिया जाता था अब यह खुद उस के साथ हो रहा है।
भाजपा के क्षेत्रीय नेता भी अब अपने राज्य सरकार की इस मूर्खता पर पछता रहे हैं। उनके विचार में अगर हार्दिक पटेल को गिरफ्तार करना जरूरी भी था तो इस कदर जल्दी मचाने की जरूरत नहीं थी। यह बात किसी भी मामूली बुद्धि के मनुष्य की समझ में आ सकती है। उस दिन हार्दिक के साथ 60 हजार लोग थे जो दो दिन बाद 6 हजार से भी कम हो जाते। उस समय उसे हिरासत में लेना कोई मुश्किल काम नहीं था लेकिन यह तो तभी संभव था जब आनंदी बेन ठंडे दिमाग के साथ अपने सहयोगियों के साथ परामर्श करतीं लेकिन वह बेचारी भी क्या करे? उसके पास अपनी कुर्सी बचाने के लिये दिल्ली में बैठे गुरू घंटाल का आदेश पालन अनिवार्य है। इस सवाल पर विचार होना चाहिए कि दिल्ली वालों ने ऐसी मूर्खतापूर्ण सलाह क्यों दी?
केंद्र सरकार की अनदेखी: संयोग से 13 वर्ष पहले जब गुजरात में दंगा हुआ था तब भी केन्द्र में भाजपा सत्ता में थी और इस बार भी है लेकिन फर्क यह है कि उस समय का मुख्यमंत्री अब प्रधानमंत्री बन गया है। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दंगों के बाद गुजरात का दौरा किया था और भरी सभा में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राज धर्म पालन करने की सलाह दी थी। सुना है वह मोदी जी को हटाने की तैयारी कर चुके थे मगर महाजन और जेटली के कहने पर मोदी ने स्वत: इस्तीफा दे दिया और वह मोदी के बजाय इस्तीफे का विरोध करने लगे। आडवाणी जी के हस्तक्षेप ने मोदी की नैया पार लगा दी। इस बार मोदी जी ने भी हालात अनदेखी करते हुए उनके बिगड़ने का इंतजार किया और दूसरे दिन दिल्ली में बैठे बैठे एक फुसफुसा बयान प्रसारित कर दिया। अहमदाबाद आने की हिम्मत वह नहीं जुटा पाए। वैसे शांती व सदभावना का लिये यह उनका पहला बयान है अन्यथा इससे पहले उन्होंने कभी इस तरह की स्थिति में शांति संदेश नहीं दिया।
केंद्र सरकार की ओर से इस बार जो मंदबुद्धि प्रदर्शन हुआ इसकी वजह जानने के लिए आंदोलन वाले दिन गृहमंत्री और प्रधानमंत्री के कार्यक्रम सीची पर एक नज़र डाल लेना काफी हे। सुबह साढ़े दस बजे जब अहमदाबाद में लाखों लोग जमा हो चुके थे दिल्ली में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री चंद्रबाबू नायडू से बातचीत कर रहे थे। दोपहर एक बजे हार्दिक पटेल प्रदर्शनकारियों को भगत सिंह के रास्ते की सलाह दे रहे थे तो प्रधानमंत्री नेपाल के प्रधानमंत्री कोइराला के साथ वहां की स्थिति पर चर्चा कर रहे थे और उन्हें हालात को काबू में रखने के गुर सिखला रहे थे। शाम साढ़े तीन बजे पटेल समाज के लोग राज्य सरकार के खिलाफ आक्रामक योजना बना रहे थे तो उस समय दिल्ली में राजनाथ सिंह अपने घर पर पार्टी और संघ नेताओं के साथ बिहार में चुनावी रणनीति बनाने में व्यस्त थे।
राजनाथ सिंह ने मुख्यमंत्री गुजरात से संपर्क तो किया लेकिन प्रदर्शन पर मामूली चर्चा हुई। इस बाबत खुफिया एजेंसियों की जानकारी को अनदेखा किया गया और रात में गृह सचिव से रिपोर्ट तलब करने के बाद 6000 केंद्रीय सुरक्षा बल और सेना भेजी गई लेकिन तब तक 100 स्थानों पर हिंसा की घटनाएं हो चुके थे और 3500 हजार करोड से अधिक की सम्पत्ति का नुकसान हो चुका था।
संयोग से नेपाल और गुजरात एक ही समय में हिंसा का शिकार हुए। नेपाल में संविधान बनाने की प्रक्रिया जारी है और विभिन्न प्रांतों के पुनर्गठन किया जा रहा है। इसके चलते भारत की सीमाओं के निकट मैदानों में बसे थारू जनजाति के लोग इस बात को लेकर खफा हैं कि काईलाली और कंचन जयपुर जिलों को थारोहाट प्रांत में शामिल नहीं किया गया। सरकार के इस फैसले के खिलाफ वहां के लोगों ने प्रदर्शन किया जिस में 20 लोग मारे गए और 100 से अधिक घायल हो गए। वैसे तो यह नेपाल का आंतरिक मामला है इसलिए सवाल यह उठता है कि आखिर मोदी जी को इस पर बयान देने की जरूरत क्यों पेश आई?
नेपाल के उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बाम देव गौतम ने हिंसा की घटनाओं पर टिप्पणी करते हुए संसद में यह कहा कि हिंसा की इन घटनाओं में विदेशी लोग शामिल हैं। उनके अनुसार यह विदेशी षड्यंत्र का हिस्सा हैं। अपने दावे के सर्मथन में बाम देव ने वस्त्रधारी पुलिस हेड कांस्टेबल को जीवित जलाए जाने और एसएसपी को भालों से छलनी करने की वारदातों का उदाहरण दिया। यह एक महत्वपूर्ण अंतर है कि गुजरात के विपरीत जहां 8 मृतकों में से केवल एक पुलिसकर्मी है नेपाल के 20 में से 17 मृतकों का संबंध पुलिस दल से है। नेपाल के उप प्रधानमंत्री के बयान से विचलित मोदी अपने राज्य को भूल कर पड़ोसी देश की ओर आकर्षित हो गए। सूत्रों के मुताबिक मोदी जी ने नेपाली नेताओं को अपने आंतरिक मुद्दों में भारत को बेवजह खींचने से बचने की नसीहत की। इस से पहले पाकिस्तान सरकार भारत पर हस्तक्षेप और अपने घरेलू समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए उसे दोषी ठहराने का आरोप लगाती रही है अब वही काम नेपाल के खिलाफ भारत कर रहा है।
मोदी जी ने नेपाल की स्थिति पर चिंता व्यक्त करने के बाद वहां पर मरने वालों के लिए श्रद्धांजलि अर्पित की लेकिन गुजरात की स्थिति पुर उन्हों ने केवल शांति का प्रवचन दिया ना चिंता व्यक्त की और न मृतकों के साथ सहानुभूति, प्रदर्शनकारियों के लिये न सही तो कम से कम पुलिस वाले के बारे में झूठे मुंह दो बोल तो बोल ही सकते थे। मोदी जी जिस समय मगर मच्छ के आंसू बहा रहे थे उन के पीछे गांधी और पटेल के चित्र थे जब की हार्दिक कह चुके हैं गांधी, पटेल और नेहरू के रास्ते पर चलकर बहुत देख लिया लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ।
मोदी ने कोइराला से कहा कि 5 या 10 लोग किसी कमरे में बैठकर संविधान नहीं बना सकते। सभी संबंधित लोगों के साथ बैठकर बातचीत होनी चाहिए ताकि राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता की स्थापीत हो सके। अगर यही सलाह मोदी जी आनंदी बेन को देते कि हार्दिक को हिरासत में लेने की बजाय उसके साथ बातचीत करो या उसे मेरे पास भेज दो मैं उससे बात करूँगा ताकि सामाजिक सदभाव आए तो ये हंगामा क्यों होता? दरअसल दूसरों को नसीहत करना जितना आसान है खुद उस पर अमल करना खासा मुश्किल है।
हार्दिक पटेल तो खैर बहुत दूर गुजरात में आंदोलन चला रहा है नेपाल के प्रधानमंत्री को एक साथ बैठकर विचार विमर्श करने का प्रवचन देने वाले प्रधानमंत्री को 15 जून से आंदोलन करते हुए थक हार कर आमर्ण अनशन करने वाले पूर्व सैनिकों के साथ बैठ कर बातचीत करने की सद्बुध्दी भी अभी तक नहीं मिली ऐसे में बेचारा हार्दिक पटेल प्रधान मंत्री से क्या उम्मीद कर सकता है? वैसे भाजप समेत सारे राजनीतिक दलों को गुजरात के अनुभव से यह सीख ले लेना चाहिए कि घृणा दोधारी तलवार है। यह आग हवा की रुख में बदलाव के चलते विभिन्न दिशाओं में फैल सकती है। गुजरात के मुसलमान आश्चर्य से उन लोगों के घरों को जलता देख रहे हैं जो कल तक सरकारी संरक्षण में उनके घर जलाते थे। और वह सरकारी कार्यालय भी जल बुझे हैं जहां उन के विरुध्द षडयंत्र रचाए जाते थे। कुदरत का बदला शायद इसी का नाम है।⁠⁠[8/3

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