Tuesday 15 September 2015

दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनाव का संकेत

एक मामूली सा तिनका हवा के रुख पता देता है। दिल्ली विश्वविद्यालय और दिल्ली में स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के चुनाव परिणाम सुशिक्षित युवाओं के बौद्धिक प्रवृत्ति की पहचान कराते हैं। पिछले साल दिल्ली में युवाओं के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आशा की किरण थे और दिल्ली में भाजपा की असाधारण सफलता में इस युवा शक्ती का विशेष योगदान था लेकिन 8 महीने बाद दिल्ली के प्रांतीय चुनावों में एक नया दृश्य सामने आया। इस बार यह युवा नरेंद्र मोदी का दामन झटक कर अरविंद केजरीवाल से लिपट गए थे। यही कारण था कि भाजपा ने जहां सभी संसदीय क्षेत्रों में सफलता प्राप्त की थी वहीं 'आप' ने 70 में से 67 सीटों पर अपना ध्वज लहरा दिया था। इतने कम समय में ऐसी बड़ी क्रांति की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था।
 दिल्ली में आजकल केजरीवाल का बोलबाला है। अपनी पार्टी के अंदर वह सारे विरोधियों को ठिकाने लगा चुके हैं। केंद्र के षडयंत्रों पर भी काफी हद तक काबू पा चुके हैं इसलिए यह उम्मीद की जा रही थी कि किशोरों की आंखों के तारे अरविंद केजरीवाल का जादू विश्वविद्यालय चुनाव में सिर चढ़कर बोलेगा और कांग्रेस व भाजपा का सफ़ाया कर देगा लेकिन अफसोस कि वो भ्रम भी टूट गया। कॉलेज के छात्रों ने अरविंद केजरीवाल से अपना रुख फेर लिया और दोबारा उन्हीं राजनीतिक दलों की ओर आकर्षित हो गए जिन पर अतीत में विश्वास किया करते थे।
 जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय निवासी संस्था है इसलिए इसमें दिल्ली से बाहर के छात्रों की संख्या अधिक होगी और दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में स्थानीय छात्रों की भरमार होना स्वाभाविक है। इसलिए इन परिणामों से इस बात का भी अनुमान लगाया जा सकता है कि दिल्ली के भीतर और बाहर का छात्र समुदाय किस को कितना महत्व देता है। दिल्ली में चूंकि केंद्र सरकार भाजपा की है और राज्य सत्ता 'आप' के हाथों में है इसलिए उम्मीद यह की जा रही थी असली प्रतिस्पर्धा उन्हीं दोनों दलों के छात्र संगठनों क्रमशः अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) और छात्र युवा संघर्ष समिति (सीवाईएसएस) के बीच होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
दिल्ली विश्वविद्यालय में एबीवीपी का बोलबाला रहा है। पिछले दो सालों से वह चारों महत्वपूर्ण पदों (अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव और संयुक्त सचिव) पर काबिज रही है। इस बार फिर वही हुआ कि उसने यह चारों सीटें जीत लीं। सीवाईएसएस न केवल अपना खाता खोलने में नाकाम रही बल्कि वह चार में से केवल एक स्थान पर दूसरे नंबर पर रही शेष तीनों पदों के लिए एबीवीपी को कांग्रेस की छात्र संगठन एनएसयूआई को पछाड़ना पडा। एनएसयूआई ने सचिव का पद आपसी लड़ाई के कारण गंवाया। एनएसयूआई के नामांकित  उम्मीदवार अमित शेरावत को 10 हजार से अधिक और विद्रोही उम्मीदवार अमित चौधरी को 9 हजार से अधिक वोट मिले जबकि एबीवीपी की अंजलि राणा केवल 14 हज़ार वोट प्राप्त करके सफल हो गईं।
डीयूएसयू का अध्यक्ष पद बड़े आराम से सत्येंद्र आवाना के पास आगया। उन्होंने एनएसयूआई के प्रदीप विजयन को 6 हजार से अधिक के अंतर से पराजित कर दिया। उपाध्यक्ष पद पर सीयूएसएस ने एबीवीपी को नाकों चने चबवा दिए। सीयूएसएस की गरिमा राणा को केवल 755 वोटों के मामूली अंतर से हार मिली। इस पद पर 'आप' ने अपनी उपस्थिति का एहसास जोरदार तरीके पर दिलाया। सचिव पद पर एबीवीपी की अंजलि राणा ने 4 हजार 6 सौ वोटों के अंतर से और सहसचिव के पद पर चरपाल यादव ने 6 हजार के अंतर से एनएसयूआई के उम्मीदवारों को हराकर साबित कर दिया कि छात्रों ने फिर एक बार भगवा झंडा उठा लिया है और कांग्रेस उनसे लोहा लेने की कोशिश कर रही है। छात्र समुदाय के अन्दर झाड़ू का दूर-दूर तक पता नहीं है।
इन शिक्षा केन्द्रों के और राज्य चुनाव अभियान में भी एक समानता है। पिछली बार नरेंद्र मोदी यह भूल गए थे कि वे प्रधानमंत्री हैं और दिल्ली के चुनावों में पार्टी को सफल करना उनकी जिम्मेदारी नहीं है। अमित शाह ने दिल्ली के स्थानीय नेताओं को किनारे करके प्रचार प्रसार की बागडोर अपने हाथों में ले रखी थी यही कारण है कि दिल्ली की शर्मनाक हार के लिए किसी स्थानीय नेता को नहीं बल्कि केवल मोदी और शाह को जिम्मेदार ठहराया गया । इस बार भाजपा की नेताओं ने अपने आप को चुनाव से दूर रखा हालांकि अरुण जेटली एबीवीपी से होकर राजनीति में आए हैं और भाजपा प्रवक्ता सम्बत पात्रा भी जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके हैं। इस रणनीति का फायदा यह हुआ कि जो लोग ज़मीनी सच्चाई से परिचित हैं वे सही ढंग से चुनाव लड़ कर अपनी सफलता दोहरा सके।
इसके विपरीत अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने वह गलती की जो भाजपा के नेता पिछली बार कर चुके थे। यही कारण है कि एबीवीपी के राष्ट्रीय सचिव रोहित चाहल ने अपनी सफलता का श्रेय जहां कार्यकर्ताओं के सिर बांधा वहीं आम आदमी पार्टी की रणनीति को भी अपने पक्ष में अनुकूल बताया। चाहल के अनुसार यदि केजरीवाल विज्ञापन तंत्र के बजाय बुनियादी मुद्दों पर ध्यान आकर्षित करते तो परिणाम अलग हो सकते थे। यह टिप्पणी इस बात का प्रमाण है कि प्रदर्शनी अभियान जिस तरह नरेंद्र मोदी के लिए व्यर्थ है उसी तरह केजरीवाल लिए भी बेकार है। कांग्रेस के लिए इन परिणामों में उम्मीद की किरण यह  है कि छात्र समुदाय के अंदर वह भाजपा को तो अपने पीछे नहीं कर सकी मगर 'आप' से बेशक आगे निकल गई है और सत्ताधारी दलों के प्रति युवाओं की निराशा इसके लिए लाभप्रद साबित हो रही है ।
दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनाव एक पहाड़ी नदी की तरह होते है मगर जेएनयू एक शांत तालाब के समान है। जेएनयू के परिणाम का सबसे महत्वपूर्ण पैग़ाम यह है कि देश भर से जेएनयू में अध्ययन करने के लिए आने वाले बुद्धिमान के अंदर अब तक वामपंथी विचारधारा लोकप्रिय है। जिस तरह एबीवीपी पिछले दो सालों से दिल्ली के चारों पदों पर काबिज है इसी तरह जेएनयू के इन चारों सीटों पर लाल झंडा लहराता रहा है लेकिन इस बार सबसे निचली पायदान यानी सहसचिव की कुर्सी भगवा वादियों ने जीत कर यह बता दिया कि उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। इसके अलावा उपाध्यक्ष और सचिव की लड़ाई में भी उनका उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहा।
 अध्यक्षता के लिए असली प्रतिस्पर्धा वामपंथी छात्र संगठनों के बीच थी। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के छात्र संगठन एआईएसएफ के उम्मीदवार कनख्या कुमार ने इस बार कट्टरपंथी वामपंथी एआईएसए के विजय कुमार को 67 वोट के अंतर से हरा दिया। इसके बावजूद उपाध्यक्ष पद पर शहला रशीद और महासचिव की सीट पर एआईएसए के रामा नागा फिर एक बार सफल हो गए लेकिन इन दोनों जगहों पर उन से हारने वाले उम्मीदवारों का संबंध एबीवीपी से था। संयुक्त सचिव के कम महत्वपूर्ण पद पर तो एबीवीपी के सौरभ कुमार शर्मा ने एआईएसए के हामिद रजा हरा ही दिया।
एक ही शहर में दो विश्वविद्यालयों के चुनाव परिणामों का फर्क छात्रों के विभिन्न मनोविज्ञान की अभिव्यक्ति करता है। आम कॉलेज के छात्रों का चिंतन गहरा नहीं हैं। वह हर लहर के साथ हो जाते हैं। व्यक्तित्व के झांसे में आ जाते हैं। मीडिया की मदद से उन्हें अपने काबू में करना मुश्किल नहीं है। इसके अलावा वह जल्द बाज स्वभाव के होते हैं। जितना जल्दी किसी के सर्मथक बनते हैं उतनी ही तेजी के साथ उनका मोह भंग भी हो जाते हैं। इसके विपरीत जेएनयू के छात्रों में बौद्धिक स्थिरता पाई जाती है। वह सोच समझ कर मतदान करते हैं और आसानी से किसी बरगलाने में नहीं आते।
दिल्ली विश्वविद्यालय की तरह जेएनयू में एनएसयूआई या सीयूएसएस का कहीं दूर दूर तक अता-पता न होने का यही मुख्य कारण है। जेएनयू के सैद्धांतिक वातावरण में चिंता विहीन संगठन की जगह नहीं है। एबीवीपी अपने फासीवादी विचारधारा के बावजूद एक सैद्धांतिक संगठन है। दूसरा चौंकाने वाला सच यह है कि सामवाद का आर्कषण उच्च शिक्षा स्थलों में अभी शेष है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है उसके चार में से दो उम्मीदवार मुसलमान थे जिनमें से एक ने जीत प्राप्त की और दूसरा मामूली फर्क से हार गया।
 स्टूडेंट्स इस्लामिक ओरगनाइज़ेशन (एसआईओ) जैसे सैद्धांतिक छात्र संगठन के लिए यह खुशखबरी है। जेएनयू के बुद्धिमान छात्रों अगर हिंदुत्व से प्रभावित हो सकते हैं तो इस्लाम से क्यों नहीं? जेएनयू के मुस्लिम छात्रों अगर सामवाद का झंडा उठा सकते हैं तो गैर मुस्लिम छात्र इस्लामवादी संगठन के झंडे तले चुनाव क्यों नहीं लड़ सकते?
इन उपलब्धियों के पीछे सिद्धांत के अलावा इन छात्रों संगठनों की ठोस कल्याणकारी संर्धष  भी है। एसआईओ यदि छात्रों की निस्वार्थ सेवा का बीड़ा उठाए तो कोई दूर नहीं कि वह अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवरसिटी की तरह जेएनयू में भी अपनी कामयाबी का झंडा गाड़ सकती है। एक ज़माने में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय वामपंथियों का गढ़ हुआ करता था लेकिन पिछले साल एसआईओ के अब्दुल्ला अज़ाम की अध्यक्ष पद पर सफलता ने साबित कर दिया कि यह काम मुश्किल जरूर है मगर असंभव नहीं है। इस ओर अगर कदम बढ़ाया गया तो आगे चल कर सफलता जरूर कदम चूमेगी।

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