Friday 4 September 2015

ताजा हवा बिहार की, दिल का मलाल ले गई

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मेहनत रंग लाने लगी है। उनके विरोधियों के अच्छे दिन आने लगे हैं। इसकी शुरुआत तो दिल्ली से हुई लेकिन बहुत संभव में बिहार में वह चरमसीमा पर पहुंच जाए। मोदी जी अगर छोटी दिल्ली की बड़ी हार से सबक सीख कर प्रांतीय चुनाव से किनारा कर लेते तो अच्छा था लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके। दिल्ली में भाजपा सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी थी। राष्ट्रपति शासन के चलते सत्ता अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा के हाथों में थी। विपक्ष विभाजित था। चुनाव प्रचार में भाग लेने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी और ओबामा को गणराज्य दिवस के समारोह में बुलाकर जनता को लुभाने की संधी उपलब्ध थी। केजरीवाल के दामन पर समय से पहले इस्तीफा दे कर भाग खड़े होने का दाग भी था, इसके बावजूद शाह जी और मोदी जी की गलतियों ने केजरीवाल को ऐसी सफलता प्रदान की जिसकी कल्पना भी कठिन थी।
इसके विपरीत बिहार में भाजपा कुछ समय पहले तक जद (यू) के जूनियर साथी जरूर रही परंतु कभी भी अपने बलबूते पर सत्ता ग्रहण नहीं कर सकी। उस संसदीय चुनाव को भी देखें जिसमें भाजपा ने अभूतपूर्व सफलता हासिल की तो यह बात साफ हो जाती है कि वह विपक्ष के बिखराव का परिणाम था। भारतीय जनता पार्टी को अपने दो सर्मथकों के साथ कुल मिलाकर 38.5 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि जदयू, राजद और कांग्रेस ने कुल 44.3 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। ऐसा भी नहीं है कि मोदी जी के सत्ता में आते ही मतदाताओं का झुकाव भाजपा की ओर बढ़ गया हो क्योंकि उपचुनाव में भी जहां भाजपा और लोजपा ने संयुक्त रूप से 37.9 प्रतिशत वोट हासिल किए वहीं कांग्रेस , जदयू और राजद ने मिलकर 45.6 प्रतिशत वोट प्राप्त किए। यह पिछले साल अगस्त की बात है जब मोदी जी का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था। एक साल बीत जाने के बाद भी अगर कोई यह समझता है कि उनकी लोकप्रियता में वृद्धि हुई है तो उससे बड़ा मोदी भक्त कौन हो सकता है?
बिहार के वर्तमान चुनाव अभियान की अगर पिछले साल के राष्ट्रीय चुनाव अभियान से तुलना की जाए तो एक जबरदस्त समानता दिखाई देती है। पिछले साल कांग्रेस का यह हाल था कि वह सत्ता के नशे में चूर कोई विशेष रणनीति के बगैर पारंपरिक शैली में सभाएं कर रही थी। इस दौरान उसने कोई नया सहयोगी तो दरकिनार पुराने सहयोगियों का भी साथ छोड़ दिया था। इसके विपरीत भाजपा ने अपने चुनावी रणनीति के लिए प्रशांत किशोर जैसे बुद्धिमान प्रोफेशनल की सेवा ले रखी थीं जो विविध तरीकों से अभियान की योजना कर रहा था और मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा इस पर कार्यवंत थी। इस दौरान हर छोटी बड़ी पार्टी से विलय करने की कोशिश भी जारी थी और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल दलों की संख्या 25 तक पहुंच गई थी।
इस बार नीतीश कुमार ने आसमान में उड़ने के बजाय जमीन से अपना काम शुरू किया। मांझी को घर भेज कर मोदी की तरह खुद कमान संभाली। लालू यादव और कांग्रेस के साथ गठबंधन को मजबूत किया। लालू यादव ने भी कमाल परिपक्वता और सूझबूझ का परिचय देते हुए नीतीश कुमार को इस महा गठबंधन का चेहरा बना खुद उसके रीढ़ की हड्डी बन गए। लालू ने अपना आहंकार बलिदान करते हुए समाजवादी को अपने हिस्से में से 5 सीटें देकर धर्मनिरपेक्ष मोर्चे को टूटने से बचा लिया। कांग्रेस को 40 सीटें देकर साथ लिया गया नितिश कुमार ने भी सत्ता में होने के बावजूद 100 सीटों पर संतोष किया। इसके बाद इन लोगों ने प्रशांत किशोर को काम पर रखा ताकि भाजपा को मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके। इसके विपरीत भाजपा ने वही पारंपरिक परोपगंडा, प्रधानमंत्री पर पूर्ण भरोसा, सभाएं और वादे शुरू कर दिए जिन पर पहले तो लोगों ने अनजाने में विश्वास कर लिया था लेकिन अब कोई नहीं करता। प्रधानमंत्री ने एक के बाद एक तीन रैलियां कीं जिनके प्रभाव को नीतीश लालू और सोनिया ने पटना के एक महारैली द्वारा खत्म कर दिया।
भारतीय जनता पार्टी फिलहाल कई मोर्चे पर एक साथ जूझ रही है। कांग्रेस की मनमोहन सरकार दस वर्षों में जितनी बदनाम हुई थी मोदी सरकार इस एक साल के कार्यकाल में उससे अधिक अपमानित हो चुकी है। भाजपा के पास कोई मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं है और जनता जानती है कि मोदी जी दिल्ली का सिंहासन छोड़ कर बिहार की सत्ता संभालने के लिए नहीं आएंगे। भारतीय जनता पार्टी के अंदर मुख्यमंत्री की कुर्सी के अनेक महत्वाकांक्षी हैं और उनकी नाराजगी से बचने के लिए वह अपना उम्मीदवार घोषित करने से कतरा रही है। अनंत कुमार ने जब कहा कि प्रधानमंत्री के नाम पर वोट मांगा जाएगा तो सुशील मोदी नाराज़ हो गए मगर 80 वर्षीय सीपी ठाकुर ने कह दिया कि वह इस पद पर जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार हैं। पटना से भाजपा के सांसद शत्रुघ्न सिन्हा उसके लिए बडा सिरदर्द बने हुए हैं। उन्होंने याकूब मेमन सहित कई मुद्दों पर पार्टी का विरोध करने के बाद नीतीश कुमार को बिहार के संरक्षक तक करार दे दिया।
नीतीश कुमार ने इस बीच एक ऐसी चाल चली जिसने भाजपा के कई मोहरे उलट दिये। अरविंद केजरीवाल को सर्मथक के रूप सें बिहार बुला कर पेश करना कई मायनों में महत्वपूर्ण है। नीतीश पर यह आरोप है कि वे भ्रष्ट लालू का साथ हो गए हैं लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले केजरीवाल का सर्मथन उस आरोप को कमजोर कर देता है। केजरीवाल शहरी क्षेत्रों में खासे लोकप्रिय हैं इसलिए उनके समर्थन का असर भाजपा के शहरी मध्य वर्ग के मतदाताओं को प्रभावित कर सकता है। इस बार बिहार के हर चुनाव क्षेत्र में 8 से 10 हजार युवा मतदाता हैं केजरीवाल उन के आकर्षण का केंद्र है। यह मतदाता जाति भेद को कम महत्व देते हैं ऐसे में जो तथाकथित सवर्ण भाजपा का साथ छोड़ने के कारण नीतीश से दूर हो गए हैं उनमें से कुछ केजरीवाल के माध्यम से करीब आ सकते हैं। केजरीवाल और नीतीश कुमार के बीच कोई सौदेबाजी नहीं बल्कि निस्वार्थ दोस्ती है। नीतीश ने दिल्ली चुनाव में केजरीवाल के समर्थन के बदले कुछ नहीं मांगा यही केजरीवाल ने भी किया और फिर दुश्मन का दुश्मन तो दोस्त होता ही है।
भाजपा ने इस दौरान जितन राम मांझी और पप्पू यादव को भी अपने पास लाने की कोशिश की लेकिन सच तो यह है कि नए सहयोगी तो दूर पुराने साथी राम विलास पासवान और उपिंदर सुशवाहा भी भाजपा से नाराज चल रहे हैं। पहले तो उन्हें भाजपा की घोषणा 'अबकी बार भाजपा सरकार' 'पर आपत्ति है। उनका कहना है कि भाजपा के बजाय इस नारे में एनडीए होना चाहिए। उन्हें यह शिकायत भी है कि भाजपा सीटों के बंटवारे को बिना कारण टाल रही है। इससे भाजपा की नीयत पर शंका होती है और तैयारी भी प्रभावित हो रही है। खुशवाहा ने भाजपा को पहले की तरह केवल 102 सीटों पर चुनाव लड़ने की सलाह दी है जब कि भाजपा कम से कम 160 सीटों पर लड़ना चाहती है। इस खाई को पाटने के लिए 31 अगस्त को अमित शाह के नेतृत्व में सहयोगी दलों की एक बैठक विफल हो चुकी है। यदि भाजपा 150 पर भी राजी हो जाए तो शेष 90 सीटों चार दलों में कैसे विभाजित किया जाएगा? इसलिए कि लोजपा 75 सीट चाहती है रालोस पार्टी का 66 पर दावा है और मांझी की 'हम' को 40 चाहिये। इस बंदरबांट में जो गुल खिलेंगे इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
भाजपा समर्थक दलों में भी मुख्य मंत्री पद को लेकर अच्छे खासे मतभेद हैं। मांझी मुख्यमंत्री रह चुके हैं इसलिए अपने आप को वे इस पद का सबसे अधिक हकदार समझते हैं। रामविलास पासवान ने मुसलमानों को मूर्ख बनाने के लिए फिर एक बार मुस्लिम मुख्यमंत्री का शोशा छोड दिया है। उपिंदर खशवाहा चाहते हैं कि राम विलास पासवान को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाकर पेश किया जाए। इन तमाम मतभेदों के बावजूद सारे समर्थक का इस बात पर सहमत है कि मुख्यमंत्री भाजपा का न हो। एलजीपी के रामचंद्र पासवान भाजपा पर विधान परिषद के चुनाव में उनके उम्मीदवार को हराने का आरोप लगा चुके हैं और कह चुके हैं कि हमारे कार्यकर्ता इस दुर्व्यवहार को ठंडे पेट बर्दाश्त नहीं करेंगे।
भाजपा का सबसे बड़ा हथियार नीतीश कुमार सरकार की विफलता का प्रचार है लेकिन दुर्भाग्यवश नितिश कि दस वर्षीय सत्ता में आठ साल भाजपा की भागीदारी है। भाजपा बार-बार यह कह रही है नीतीश और लालू की दोस्ती अपवित्र अवसरवाद है। इसलिए कि उन्होंने भाजपा से नाता तोड़ लिया लेकिन नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ आने से पहले लालू का साथ छोड़ा था तो क्या वह गंगा की तरह पवित्र बंधन था। क्या राम विलास पासवान का जो एक समय तक भाजपा के कडे विरोधी रहे हैं लालू को छोड़ कर भाजपा के साथ आ जाना अवसरवाद नहीं है? क्या जनता को मूर्ख बनाना उतना सहज है जितना भाजपा समझती है। गडकरी ने कहा था बिहार के खून में जातिवाद है लेकिन फिलहाल गुजरात में जो हो रहा है उसके समक्ष बिहार तो बिल्कुल बौना नजर आ रहा है। मोदी जी बिहार को गुजरात बनाने चले थे मगर गुजरात को बिहार बना कर रख दिया है। मोदी सोच रहे होंगे कि हारदिक पटेल अगर बिहार विधानसभा चुनाव के बाद विरोध करता तो अचछा था इस अवसर पर संघर्ष आरंभ करके उसने भाजपा के ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी है।
इन सभी तथ्यों के बावजूद महा गठबंधन की सबसे बड़ी संपत्ति मोदी जी की मूर्खताएं हैं जो वे एक के बाद एक किये चले जारहे हैं जैसे महारैली के दिन 'मन की बात' में भूमि अधिग्रहण विधेयक पर अपनी हार स्वीकार करके उन्होंने विरोधियों को अपनी धुनाई का दुर्लभ अवसर प्रदान कर दिया। सारे ही बड़े नेताओं के भाषण में इसका जिक्र था और उसके द्वारा यह साबित किया गया कि मोदी गरीब किसानों की जमीन छीन कर पूंजीपतियों को देना चाहते थे। विपक्ष ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया और अपना पक्ष बदलने पर मजबूर कर दिया। अगर नरेंद्र मोदी अपने पद की गरिमा को दांव पर लगा कर बिहार के दंगल में नहीं कूदते तो महारैली में इस तरह की आलोचना के पात्र नहीं बनते। प्रधानमंत्री के जिम्मे चुनावी अभियान चलाने तथा विदेशी दौरे के अलावा भी बहुत सारे काम हैं और सच तो यह है जिन प्रदर्शनी कार्यों में मोदी जी अपना कीमती समय बर्बाद कर रहे हैं वह सिरे से उनकी जिम्मेदारी ही नहीं है।
 चुनाव प्रचार पर निगाह डालें तो नीतीश कुमार उसी रणनीति पर चल रहे हैं जो मोदी जी ने गुजरात में अपना रखी थी। मोदी जी बार बार गुजरात की जनता के स्वाभिमान की दुहाई देते थे। उनका आरोप था कि दिल्ली की सरकार गुजरात के सारे लोगों को (दंगों की पृष्ठभूमि में) हत्यारा और बलात्कारी समझती है। या गुजरातियों का अपमान है और वह इसे खतम करने के लिए खड़े हुए हैं इसलिए जन समर्थन के हकदार हैं। मोदी जी अपने ऊपर लगने वाले हर आरोप को बड़ी चालाकी से जनता के सिर मढ़ा कर उनका भावनात्मक शोषण करते थे। इस तरह मोदी जी ने तीन बार गुजरात की जनता को मूर्ख बनाया। अब उन्हें चाहिए कि वह अपने प्रतिद्वंद्वी को ऐसा करने का मौका न दें लेकिन ऐसा करने के लिए बुद्धि और विवेक की आवश्यकता होती है।
मोदी जी ने पहले तो डीएनए की बात कहकर नीतीश कुमार को बिहारियों का अपमान करार देकर 'शब्द वापस लो' आंदोलन चलाने का अवसर दिया। इसके बाद मोदी जी ने बिहार पैकेज की घोषणा कुछ इस तरह से की मानो नीलामी हो रही है। इसे लालू जी ने बिहारियों का अपमान करार देते हुए कह दिया कि 'बिहारी टिकाऊ है बिकाऊ' नहीं है। मोदी जी ने बिहार को बीमारु कहा तो नीतीश कुमार ने बिहार की तुलना गुजरात से कर के साबित कर दिया कि कई मामलों में बिहार गुजरात से बेहतर है। मोदी जी ने नीतीश कुमार को याचक कहकर उन पर व्यक्तिगत हमला किया तो उसे भी बिहारियों के अपमान से जोड़ दिया गया। सवाल किया गया कि क्या मोदी जी का केंद्र सरकार से अपना हक़ मांगना याचना था। मोदी जी के अपमानजनक व्यवहार ने पटना रैली को स्वाभिमान रैली बना दिया।
स्वाभिमान रैली के बाद मोदी जी अपनी चौथी रैली करने के लिए भागलपुर पहुंचे। पहले यह रैली 30 अगस्त को होनी थी लेकिन चूंकि उसी दिन पटना में महारैली घोषित हो गई भाजपा ने उसे दो दिन के लिए स्थगित कर दिया। इस रैली से पहले नीतीश कुमार ने ट्वीट कर को प्रधानमंत्री को और सीना पीटने और नए वादों के बजाय पुराने वादों की तारीख बताने के लिए कहा इसके जवाब मोदी जी 2019 की तारीख दे दी। इस बार मोदी जी ने नाटक बाजी तो कम की मगर अगले 5 वर्षों के लिए 3 लाख 74 हजार करोड का आश्वासन देने से नहीं चूके। उन्होंने स्वास्थ्य के विषय में बिहार के  2005 के बाद पिछड़ने का उल्लेख किया और भूल गए कि इस दौरान भाजपा सत्ता में भागीदार थी। मोदी की रैली के बारे कांग्रेसी नेता अली अनवर ने कहा पटना जैसी रैली करने के लिए प्रधानमंत्री को पुनरजन्म लेना होगा। उस दिन मोदी की किस्मत ही खराब थी कि रैली से पहले बारिश हो गई और उसके बाद शेयर बाजार 700 अंक गिर गया। इसी के साथ एक असफल रैली की खबर भी मीडिया से उतर गई।
पिछले चुनाव में मोदी ने अपने आप को चाय वाले के रूप में पेश किया था और नीतीश को अहंकारी बताते हुए उन पर केंद्र सरकार की मदद को ठुकराने का, उनके साथ अपना भोज रद्द करने का और मांझी की प्लेट से निवाला छीन लेने का आरोप लगाया । इसके जवाब में नीतीश कुमार ने खुद को एक गरीब स्वतंत्रता सेनानी का बेटा बनाकर पेश किया। उन्होंने बिहार के इतिहास में क्रांतिकारियों का हवाला देते हुए कहा कि जिन के पुर्वजों ने राष्ट्र के लिए कोई योगदान नहीं किया वह हमारे डीएनए को बुरा भला कह रहे हैं। दिल्ली चुनाव के समय भाजपा को केजरीवाल के गोत्र में अराजकता का उल्लेख काफी महंगा पड़ा था लेकिन बिहार में फिर उसी गलती को दोहराया जा रहा है। नीतीश कुमार ने मोदी जी के 14 महीने में सारी दुनिया की सैर कर लेने के बाद बिहार का रुख करने पर भी कटाक्ष किया। चुनाव में चमत्कार होते रहते हैं इसलिए इन सभी तथ्यों के बावजूद अगर भाजपा बिहार में जीत जाती है तो वह एक चमत्कार ही कहलाएगा।
 अटल जी की चुनावी हार से बीजेपी ऐसा करारा झटका लगा था कि वह दस साल पीछे चली गई और यही कारण है कि दस साल बाद फिर से सत्ता में आ गई लेकिन ऐसा लगता है कि मोदी की हार इतनी भयानक होगी कि भाजपा कम से कम 50 साल पीछे जनसंघ के युग में पहुंच जाएगी। कमल के फूल में कुल पांच पंखुड़ियां हैं जिनमें एक को उन्होंने पहले ही साल में नोच कर फेंक दिया है। अपने कार्यकाल के अंत तक सारी पंखुड़ियां एक एक करके झड़ जाएंगी और फिर संघ परिवार के नीकरधारी भक्त जनसंघ वाला दीपक लेकर ढूंढने निकलेंगे और कीचड़ में खड़े डंठल को देखकर पूछेंगे यहाँ जो कमल बाबू हुवा करते थे वह कहाँ गायब हो गए? लोग कहेंगे एक ठो जुमलेश्वर बाबू आए रहे जो उन्हें दस लाख के कोट में टांक कर ले गए।

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