Sunday 13 September 2015

संघ और सरकार की संयुक्त बैठक

संघ परिवार के साथ सरकार के संयुक्त बौठक पर इतने विचार व्यक्त किये गए कि बहुत दिनों के बाद सुश्री मायावती का नाम और चित्र भी मीडिया में आगया वरना तो लोग हाथी की माया को भूल ही गए थे? मायावती ने सोचा होगा मुसलमानों को रिझाने का यह दुर्लभ अवसर है। मुलायम संघ अनेक कारणों से भाजपा के करीब होते जारहे हैं। पहले संसद में वह अचानक विपक्ष के विरोध से अलग हो गए और अब बिहार के महागठ बंधन से किनारा कर लिया। यदि शरद पवार की एनसीपी के साथ मुलायम संघ एक नया मोर्चा बनाकर बिहार के दंगल में कूद पड़ें तो संभव है घर के न घाट के जितिन राम मांझी भी उनके साथ बीजेपी की नाव को डूबने से बचाने की कोशिश में लग जाएं। ऐसे में मुसलमान अवश्य मुलायम संघ से नाराज होकर विकल्प खोजने का प्रयत्न करेंगे और मायावती के मायाजाल में फिर से फंस जाएंगे। इसलिए मुसलमानों के तुष्टीकर्ण का इस से अच्छा मौका और कोई नहीं हो सकता। मुसलमानों के मनसिकता कुछ ऐसी है कि वह अपनी प्रशंसा से भी अधिक संघ परिवार की आलोचना पर खुश होते हैं।
बहुजन समाज पार्टी की जो मुश्किल है वही समस्या भारतीय जनता पार्टी की भी है। जिस तरह मुसलमानों को खुश करना बसपा के दोबारा सत्ता में आने के लिए जरूरी है उसी तरह अपनी सरकार को बनाए रखने के लिए संघ परिवार का तुष्टीकर्ण भाजपा की मजबूरी है। मुसलमान जिस तरह भाजपा को हराने के लिए तन मन धन से जुट जाते हैं संघ के स्वयंसेवक भी भाजपा को सफल करने के लिए अपनी सारी ऊर्जा झोंक देते हैं। इन मुफ्त की सेनाओं को बहला फुसलाकर अपने साथ रखना और कुछ प्रदर्शनी कामों से उन्हें खुश करते रहना राजनीतिक दलों के अवसरवाद की अनिवार्यता है। लोकतांत्रिक प्रणाली में हर राजनीतिक दल अपने मतदाताओं सहित कार्यकर्ताओं का भावनात्मक शोषण करता है। इस तरह वे न केवल सत्ता प्राप्त करते हैं बल्कि जब सफल हो जाती हैं तो उसे सशक्त भी करते हैं।
संघ परिवार का यह आरोप कि धर्मनिरपेक्ष दल मुसलमानों के इशारे पर चलते हैं ऐसा ही है कि जैसे यह कहा जाए कि भाजपा का रिमोट कंट्रोल आरएसएस के हाथों में है। कोई धर्मनिरपेक्ष दल मुसलमानों के हित में ठोस काम नहीं करता हां उनके कार्यकाल में कुछ मुस्लिम नेताओं के वारे न्यारे जरूर हो जाते हैं। कोई मुफ्ती गृहमंत्री तो कोई सलमान विदेश मंत्री बना दिया जाता है, लेकिन आम मुसलमान की दुर्दशा पर इसका कोई विशेष असर नहीं होता। इसी तरह भाजपा के सत्ता में आते ही कुछ सुषमा और जेटली जैसे लोग समृद्ध तो हो जाते हैं लेकिन हिंदू जनता का भला नहीं होता। संघ परिवार के कुछ नेताओं के साथ सरकार के कुछ मंत्रियों का बैठना और अनचाहे प्रवचन जहर मार कर लेने को संघ के आगे सरकार का नतमस्तक होना कह देना मूर्खता है। यह और बात है कि फिल्मी अभिनेताओं की तरह राजनीतिक नेता भी इस तरह की अफवाहें अपने हित में फैलाते रहते हैं।
इसमें संदेह नहीं कि भारतीय जनता पार्टी संघ परिवार का एक अभिन्न अंग है लेकिन अब यह सुपुत्र जवान हो चुका है वह बडी आस्था के साथ अपने गुरूवर की बातें सुन तो लेता है लेकिन सभी का पालन नहीं करता। जो उसे उपयुक्त लगती हैं उन पर अमल करता है बाकी पर क्षमा मांग लेता है। सरकार में शामिल अक्सर मंत्रियों ने संघ की शाखा में प्रशिक्षण प्राप्त किया है इसलिए वे हमेशा एक दूसरे के संपर्क में रहते हैं। अटल जी और आडवाणी जी के समय में भी यही स्थिति थी और भाजपा को जब भी सत्ता मिलेगी यही होगा जो स्वाभाविक है। संघ और भाजपा एक दूसरे के लिए इसी तरह अविभाज्य हैं जैसे नेहरू गांधी परिवार और कांग्रेस या मायावती और बसपा। अंतर बस यह है कि एक सार्वजनिक कंपनी है जिस के कई शेयर होल्डर्स हैं और दूसरी परिवारिक प्राइवेट लीमीटीड संस्था। इन सभी राजनीतिक व्यापारियों प्रकृति भीतर से समान है।
ऐसे में यह प्रशन उठता है कि संघ और भाजपा ने ऐसा बड़ा तमाशा इससे पूर्व केंद्र तो दूर किसी राज्य में भी क्यों नहीं किया? यह भी सच है कि बड़े गर्व से अपने आप को प्रधान सेवक कहने वाले मोदी जी ने भी मुख्यमंत्री के रूप में इस तरह की किसी सभा में भाग नहीं लिया। दरअसल अटल जी ने रजू भैया के युग में सत्ता संभाली लेकिन सौभाग्य से बहुत जल्दी सुदर्शन सरसंघ चालक बना दिए गए। सुदर्शन अपनी भौतिक और संगठनात्मक आयु में अटल और आडवाणी से छोटे थे इस लिए सुर्दशन का उन पर जोर नहीं चलता था। मोदी और भागवत समान आयु के हैं, लेकिन अन्य मंत्री और अमित शाह उनसे खासे जूनियर हैं इसलिए भागवत को गुरु मानकर उनको साष्टांग नमस्कार कर देते हैं। इस तरह भागवत की आत्मा को शांति मिल जाती है और संघ परिवार खुशी से झूम उठता है। अटल जी की गठबंधन सरकार थी जिसमें कई संघ विरोधी दल भी शामिल थे इसलिए वह अपने समर्थकों की नाराजगी का बहाना बना कर कन्नी काट लेते थे लेकिन मोदी जी ऐसा नहीं कर सकते।
भाजपा को बाद पहली बार अपने बूते पर बहुमत प्राप्त हुवा है इसलिए स्वयंसेवकों की उम्मीदें पहले की अपेक्षा बहुत बढ़ गई हैं। अटल जी की सरकार पर राम मंदिर बनाने का दबाव था क्योंकि आडवाणी जी ने इसी आधार पर वोट मांगा था लेकिन मोदी जी पर ऐसा दबाव नहीं है। मोदी जी विकास और समृद्धि के सपने दिखला कर सत्ता में आए हैं इसलिए जनता उनसे अपने वादे निभाने की उम्मीद करती है। जैसे समय बीतता जा रहा जनअसंतोष में तेजी के साथ वृद्धि होती जा रही है। संघ के स्वयंसेवक जिन्होंने अपना खून पसीना एक करके चुनावी जीत प्राप्त की थी वे भी निराश हो रहे हैं। दरअसल उन्हीं स्वयंसेवकों को संतुष्ट करने या मूर्ख बनाने के लिए यह नाटक किया गया। केंद्रिय मंत्रियों को एक पंक्ति में भागवत के सामने दंडवत करते हुए देखकर संघ कार्यकर्ता धन्य हो गए और उन सपनों को भूल गए जिन्हें साकार करने के लिए उन्होंने अपना तन मन धन झोंक दिया था।
वेंकैया नायडू का पहले दिन यह कहना कि हमारा संघ के साथ बैठना ऐसा ही है जैसे एक बेटे का अपनी माता के पास जाना दरअसल संघ कार्यकर्ताओं का भावनात्मक शोषण था। दूसरे दिन राजनाथ बात साफ कर दी कि हम ने उनसे ना आदेश लिया और न उनके समक्ष जवाबदेही की। उनके पास जो जानकारी है उसे प्राप्त किया गया और विचार विर्मश तो किसी से भी किया जा सकता है। राजनाथ ने थिंक टैंक की बात भी कही जो मार्गदर्शन के लिए हो सकता है लेकिन वे भूल गए कि भाजपा की भी आडवाणी और जोशी जैसे लोगों वाली एक मार्गदर्शक समिति है। सरकार ने आज तक उन से किसी मुद्दे पर भी सलाह नहीं ली। इस बैठक में जहां संघ की ओर से 95 लोगों को इकट्ठा कर लिया गया और सरकार के 20 मंत्री उपस्थित थे मार्गदर्शक समिति के बुजुर्ग सदस्यों को भी कम से कम दिल रखने के लिये बुलाया  जा सकता था लेकिन स्वार्थी राजनेताओं से इस तरह की उम्मीद करना व्यर्थ है। जहां तक ​​मार्गदर्शन का प्रशन है वह तो सिरे से उद्देश्य ही नहीं था। मुसलमानों की चिंता इसलिये भी व्यर्थ है कि उनके अधिकारों के हनन में भाजपा संघ से दो कदम आगे है।
प्रधान मंत्री ने आखिरी दिन बड़े गाजे-बाजे से बैठक में उपस्थित होकर उक्त धारणा की पुष्टि कर दी। पहले तो संघ ने उन्हें अपनी सुविधानुसार आने की अनुमति देकर अपनी औकात बता दी। इसके बाद मोदी जी ने आदत के अनुरूप एक चुनावी भाषण देकर यह स्पष्ट कर दिया कि किस का महत्व क्या है? मोदी जी ने यह स्वीकार किया कि मैं आज इस स्थान पर संघ के संस्कारों की बदौलत पहुंचा हूं लेकिन यह एक द्विभाषी वाक्य है जिसका एक मतलब यह भी है कि इन संस्कारों का लाभ उठाकर मैं ने जो ऊंचाई प्राप्त कर ली है आप लोग इससे वंचित हैं। इसके बाद मोदी जी ने खुद अपनी पीठ थपथपाते हुए कहा कि सरकार ने इस दौरान कई उपलब्धियां प्राप्त की हैं और अब यह आप लोगों का काम है कि उन्हें जनता तक ले जाएं इस प्रकार वह संघ से मार्गदर्शन लेने के बजाय उसे काम में लगाकर लौट आए। अगर यह आदेश लेना है तो आदेश देना किसे कहते हैं?
इस बैठक के बाद लोग उम्मीद कर रहे थे कि संघ ने सरकार की कम से कम ललित मोदी या व्यापम जैसे मामले में खिंचाई की होगी। लेकिन पता चला कि वह तो केवल सरकार की प्रशंसा करने और उसे अधिक समय देने के अलावा कुछ और नहीं कर सका। जहां तक ​​ समय देने का सवाल है वह तो भारत की जनता ने भाजपा को दे दिया है और संघ न भी चाहे तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। राम मंदिर जैसे विवाद पर संघ प्रवक्ता ने कह दिया कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करेंगे। पाकिस्तान की ओर से सीमा पर होने वाले हमलों को लेकर संघ से कड़े रुख की उम्मीद थी लेकिन इस पर भी सरकार को पाकिस्तान के साथ बंधुत्व के वातावरण में बातचीत जारी रखने की हिदायत दी गई। सीमा पर चीनी हमले के खिलाफ संघ बराबर आग उगलता रहता था। वे अपने सदस्यों को चीन की यात्रा पर जाने तक की अनुमति नहीं देता था मगर पिछले एक साल से उसके होटों पर ताला लगा हुआ है। आजकल संघ जनता को चीनी माल उपयोग करने पर तो डांटता है मगर सरकार को आयात बंद करने की सलाह नहीं देता। इस स्थिति को देखकर ऐसा लगता है कि संघ परिवार सरकार को प्रभावित करने के बजाय उस से प्रभावित होने लगा है। ؎
शामिल पसे पर्दा भी हैं इस खेल में कुछ लोग बोलेगा कोई, होंठ हिलाएगा कोई और
यदि ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि खुद मोदी जी ने तो अभी तक कोई इफ्तार पार्टी नहीं दी बल्कि राष्ट्रपति की इफ्तार से भी कन्नी काट गए मगर संघ ने न केवल इफ्तार पार्टियों आयोजीत कीं बल्कि उलेमा की सभा तक कर डाली। भले मुसलमान उसके झांसे में नहीं आए परंतु संघ की ओर से यह आयोजन उसका सैद्धांतिक पराजय है। सच तो यह है कि संगठन चलाना या अभियान चलाकर चुनाव में सफलता प्राप्त कर लेना एक काम है और सरकार के प्रशासनिक कार्य कुशलता से संचालित करना विभिन्न काम है। मोदी सरकार की निरंतर विफलताओं को देखकर ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री के रूप में कई वर्षों का अनुभव भी नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंग और मनोहर परिकर को अच्छा प्रशासनिक नहीं बना सका।
भूमि अधिग्रहण के मामले में सरकार को मुंह की खानी पड़ी। इस बीच अश्लील वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की गई लेकिन फिर घबराकर यू टर्न ले लिया गया और अब पुणे फिल्म संस्थान के प्रमुख को लेकर वे बचाव में आ गए। गजेन्द्र चौहान को निष्क्रिय करने के प्रयत्न किये जा रहे हैं। पूर्व सैनिकों की पेंशन के मामले में सरकार की अनुभवहीनता चरम सीमा पर है। पूर्व सैनिक 84 दिनों तक विरोध करते रहे और सरकार घोड़े बेचकर सोती रही लेकिन जब देखा कि इसका नकारात्मक प्रभाव बिहार चुनाव पर पड़ सकता है तो आचार संहिता लागू होने से तीन दिन पहले जल्दबाजी में ओरोप मंजूरी की घोषणा ऐसे की के 7 में से केवल एक मांग को स्वीकार किया गया इसलिए प्रदर्शन खत्म नहीं हुआ।
यह मामला बहुत दिलचस्प है। सुबह 11 बजे पूर्व सैनिकों के प्रतिनिधियों को रक्षा मंत्री ने मुलाकात के लिए बुलाया तो इस समय स्वैच्छिक छात्रवृत्ति प्राप्त सैनिकों को इससे अलग रखने का प्रशन चर्चा में आया ही नहीं। शाम 5 बजे खुद रक्षा मंत्री परीकर ने घोषणा कि स्वैच्छिक छात्रवृत्ति प्राप्त सैनिकों को लाभ नहीं मिलेगा। उसी शाम 7 बजे फिर जब प्रतिनिधिमंडल ने रक्षामंत्री से मुलाकात की तो वे बोले न जाने वह प्रावधान कहाँ से आ गया? इससे पता चलता है कि खुद रक्षा मंत्री नहीं जानते कि वे क्या कह रहे हैं और उन्हों ने एक मामूली सी गलती से 45 प्रतिशत सैनिकों की पेंशन शहीद कर दी। बाद में प्रधानमंत्री ने कहा लोग भ्रम फैलाकर गुमराह कर रहे हैं और सारे सैनिक इससे लाभवंत होंगे जबकि यह काम उनके रक्षा मंत्री कर रहे थे। प्रधानमंत्री के अनुसार 14 महीनों से वह इस काम में लगे हुए हैं, लेकिन रक्षा मंत्री कहते हैं कि कागजात की तैयारी में दो सप्ताह से लेकर एक महीना लग सकता है।
यदि पूर्व सैनिकों को प्रधानमंत्री के आश्वासन पर भरोसा होता तो वे अपना प्रर्दशन खत्म कर देते लेकिन ऐसा नहीं हुआ। प्रदर्शनकारियों ने कहा कि हम अपनी आमरण भूक हडताल तो खत्म किए देते हैं लेकिन जब तक कि हमारि सारी मांगें न मानी जाएं और हमें लिख कर नहीं दिया जाए विरोध प्रर्दशन जारी रहेगा । सैनिकों का अविश्वास बजा है। वित्त मंत्री इसे अनुचित और अव्यावहारिक बता चुके हीं। प्रधानमंत्री के आश्वासन के बावजूद सरकारी अधिकारी कहते हैं कि जिन लोगों ने बेहतर रोजगार के लिए सेना को अलविदा कहा वह इस सुविधा के हकदार कैसे हो सकते हैं। उनमें से कोई पेंशन के अभाव का यह लाभ बतलाता है कि यह सैनिकों के सेना से निकलने में हतोत्साहित होगा।
अविश्वास के वातावर्ण की यह चरम सीमा है कि पूर्व सैनिक तक सरकार के शब्दों पर भरोसा नहीं करते ऐसे में जनता किस गिनती में आती है? संघ से सरकार की बातचीत का नाटक संघ प्रचारकों को विश्वास में ले सकता है मगर आम लोगों पर इस तमाशे का कोई असर नहीं होगा। यह बात जग जाहिर है कि पूर्व सैनिकों को पेंशन देने का फैसला संघ के कहने पर नहीं बल्कि बिहार चुनाव के कारण किया गया है। अगर चुनाव सिर पर न होते या इसमें भाजपा के हारने की संभावना न होती तो यह निर्णय कदापि न होता। संघ के कथाकथित देश भक्तों के मन में राष्ट्र गरिमा का विचार होता तो वह दिल्ली के मध्याँचल भवन में तीन दिन की सरकारी खर्च पर पिकनिक मनाने के बजाय जंतर मंतर पर जाकर पूर्व सैनिकों को विश्वास में लेते और उनका विरोध प्रतिष्ठित रूप में खत्म करवाते परंतु यहां तो मदारी का खेल हो रहा है कोई डुगडुगी बजा रहा है कोई उछल कूद रहा है राष्ट्र की चिंता ना संघ को है ना सरकार को।

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