Tuesday 29 March 2016

उत्तराखंड का नकली और पंजाब का असली संवैधानिक गतिरोध

उत्तराखंड में संवैधानिक गतिरोध का बहाना बनाकर केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रपति शासन लगवा कर लोकतंत्र की पीठ में त्रिशूल घोंप दिया। इस विवाद की शुरुआत 18 मार्च को हुई जब आर्थिक विधेयक पर विपक्ष ने मतदान की मांग की। इस मांग का कारण कांग्रेस के 9 सदस्यों का विद्रोह करके भाजपा से मिल जाना था। कांग्रेस पार्टी ने ध्वनि मत से बिल पास करवा के अधिवेशन 28 मार्च तक के लिए स्थगित कर दिया। सदन के अध्यक्ष गोविंद सिंह कंजवाल ने 9 बागी सदस्यों को कारण बताओ नोटिस देकर पूछा कि क्यों न उनके खिलाफ दल बदलू कानून के तहत कार्रवाई की जाए। जवाब से  असंतुष्ट अध्यक्ष ने विधानसभा की बैठक से दो दिन पूर्व विद्रोहियों की सदस्यता रद्द कर दी। यह कदम संविधान संगत और रीति अनुसार था। राज्यपाल ने केंद्र को तीन पत्र लिखे उनमें से किसी में भी विधानसभा भंग करने की सिफारिश नहीं की गई थी।
क्या यह सारे लोग संविधान का उल्लंघन कर रहे थे? अगर कर भी रहे थे तब भी भाजपा को चाहिए था कि एक दिन रुक कर मुख्य मंत्री हरीश रावत के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव प्रस्तुत करती। वह अगर विश्वास प्राप्त करने में विफल हो जाते तो पता चल जाता कि बहुमत किसके पास है? इसके बाद किसी और को सरकार बनाने की संधी दी जाती जब सारे विकल्प समाप्त हो जाते तो राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाता। प्रशन यह है कि केंद्र सरकार ने एक और दिन प्रतिक्षा क्यों नहीं की? उत्तराखंड विधानसभा में कुल 70 सदस्य हैं जिनमें से 36 कांग्रेसी और 28 भाजपा के हैं। इनके अतिरिक्त 3 स्वतंत्र, 2 बीएसपी  और 1 यूकेडी वालों ने पीडीएफ नाम का एक मोर्चा बना रखा है जो कांग्रेस समर्थक है। इस तरह कांग्रेस को भाजपा के 28 के मुकाबले 42 सदस्यों का समर्थन प्राप्त था। सत्ता की लालसा में भाजपा ने कांग्रेस पार्टी में फूट डाली और 9 को अपना समर्थक बना लिया।
दल बदलू कानून के तहत विद्रोही विधायकों को सदस्यता से हाथ धोना पड़ता है मगर उस में अपवाद यह है कि अगर किसी पार्टी के एक तिहाई या अधिक सदस्य विद्रोह करके अपना अलग गुट बना लें तो वे सुरक्षित रहते हैं। कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 36 थी इस लिए सदस्यता बचाने के लिए कम से कम 12 का विद्रोह अनिवार्य था। अफसोस कि वित्त मंत्री अरुण जेटली एक विशेषज्ञ वकील होने के बावजूद न कानून जानते हैं और न हिसाब या दोनों की जानकारी रखने के बावजूद आंख मूंद कर दूध पीना चाहते हैं लेकिन जब न्यायिक डंडा सिर पर पडेगा तो उन को दिन में तारे नजर आजाएंगे। जेटली जी बार-बार यह कह रहे हैं कि 18 फरवरी को आर्थिक बिल का पास होना असंवैधानिक था इसलिए राज्य सरकार के त्याग पत्र देना चाहिए था परंतु सवाल यह है कि हरीश रावत अगर इस्तीफा भी दे देते तो क्या भाजपा व्दारा उन विद्रोहियों की सहायता से बहुमत का दावा योग्य था जो संविधान के अनुसार अपनी सदस्यता गंवा बैठे हैं?
वास्तविकता यही है कि उत्तराखंड में संवैधानिक संकट का राग अलापने वाले खुद संविधान का हनन कर रहे हैं। वे दल बदलू कानून की चपेट में आने वालों पर संविधान लागू करना नहीं चाहते क्योंकि वे भाजपा के समर्थक हैं। इसका मतलब है कि भाजपा खुद को और अपने समर्थक पूर्व कांग्रेसियों को संविधान से ऊपर समझती है। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा कांग्रेस के सदस्यों को खरीदने में तो सफल हो गई लेकिन पीडीएफ की दीवार में दरार नहीं डाल सकी। 28 फरवरी को स्थिति यह थी कि 9 सदस्यों के कम हो जाने से विधायकों की कुल संख्या 61 हो गई । उन में से 27 कांग्रेस के और 6 पीडीएफ मिलाकर भाजपा के 28 से स्पष्ट बहुमत में थे। इस स्थिति से भय भीत प्रधानमंत्री अपना असम का चुनावी दौरा अधूरा छोड़कर भागे-भागे दिल्ली आए और विधानसभा के अंदर आमने सामने मुकाबला करने के बजाए पीछे से वार कर दिया।
अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस के बागी सदस्यों की संख्या एक तिहाई से अधिक थी इस लिए भाजपा को कांग्रेस का तख्ता पलटने में सफलता हुई लेकिन उत्तराखंड में वह ऐसा नहीं कर सकी। इसलिए पार्टी के सचिव विजय वरगिया ने पहले तो पुलिस आयुक्त को धमकी दी कि वह सोच लें अगर कल सरकार बदल गई तो क्या होगा? हालांकि प्रशासन से इस स्वर में बात करना किसी सभ्य पार्टी के नेता को शोभा नहीं देता। इसके बाद अध्यक्ष के इस फैसले पर नाराजगी जताई कि उन्होंने 24 घंटे के भीतर विधानसभा की बैठक क्यों नहीं बुलाई? हालांकि इस मांग की कोई संवैधानिक औचित्य नहीं है। फिर एक विशेष विमान से विद्रोही विधायकों को दिल्ली लाकर न केवल बंधक बनाए रखा बल्कि उनके साथ राष्ट्रपति भवन की यात्रा भी की।
विजय वरगिया को यह नाटक करने के बजाय कांग्रेस के 3 अधिक सदस्यों को ख़रीदना चाहिए था ताकि वह दिल बदलू कानून से बच जाते। उनक हाल तो यह था जैसे किसी टीम को अंतिम ओवर में 12 रन बनाने हों और वह 9 रन बनाकर ढेर हो जाए। वैसे विजय वरगिया के लिए अपनी विफलता के पश्चात  एक और अवसर था। चूंकि 9 सदस्यों की कमी से काँग्रेसी विधायकों की संख्या घटकर 27 हो गई थी ऐसे में अगर भाजपा वाले पीडीएफ में फूट डाल कर उन के कम से कम 3 सदस्यों को अपने साथ कर लेते तो 61 लोगों की विधानसभा में भाजपा और उसके समर्थक 31 हो जाते और वह बहुमत में आ जाती लेकिन यह भी न हो सका। पीडीएफ एकजुट रही और भाजपा 28 पर ठिठुर कर रह गई कांग्रेस ने आखिरी गेंद पर छक्का लगाकर अपना स्कोर 33 पर पहुंचा दिया।
यह विफलता भाजपा के लिए असहनीय थी। इससे पहले कि रेफरी निर्णय की घोषणा करता बीजेपी के गुंडे भारत माता की जय का नारा लगाते हुए मैदान में कूद गए और पिच को खोद दिया। इसके बाद कमेंट्री बॉक्स से घोषणा हो गई कि आरएसएस ने नहीं बल्कि आईएसएस ने धांधली की है इसलिए मैच रद्द किया जाता है। विराट कोहली का खेल देखकर ऐसा लगता है कि भारत यह टूर्नामेंट जीत जाएगा लेकिन राजनीतिक बिसात पर नरेंद्र मोदी का निराशाजनक कामकाज बेशक भाजपा को पहले ही राउंड में बाहर कर देगी।
भाजपा अगर अपने सर्वोच्च लक्ष्य में सफल हो जाती तो वह उन कांग्रेसियों को जिनके खिलाफ उसने चुनाव लड़ा था महत्वपूर्ण मंत्रालयों दे कर राज्य पर अपना मुख्यमंत्री थोप देती। इसके बाद वे सारे देशद्रोही, भ्रष्ट और अयोग्य कांग्रेसी सच्चे देशभक्त और दूध के धुले गिने जाते। हर दो मोर्चे पर विफलता के बाद भाजप ने लोकतंत्र की हत्या कर दी लेकिन विवाद अब अदालत में चला गया है। 1989 के बोमई मामले में न्यायालय का स्पष्ट निर्देश है कि बहुमत का फैसला राज्यपाल भवन या राष्ट्रपति भवन में नहीं बल्कि विधानसभा के पटल पर होगा। इस फैसले के कारण भाजपा को अदालत में मुंह की खानी पड़ेगी लेकिन आए दिन अदालत में अपमानित होने वाली पार्टी को इस से क्या फर्क पड़ता है?
केंद्र सरकार के इस विवादास्पद फैसले से पहले एक वीडियो जारी हुवा जिसमें मुख्यमंत्री हरीश रावत अपने ही पूर्व विधायकों को एक पत्रकार के माध्यम से रिश्वत की पेशकश करते हुए नजर आए। इस वीडियो को बीजेपी वाले बड़ा नैतिक मुद्दा बनाकर पेश कर रहे हैं हालांकि देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर के सारे बड़े राजनीतिक दल सिर से पांव तक भ्रष्टाचार के दलदल में धंसे हुए हैं। कांग्रेसी विद्रोह का मुख्य प्रोत्साहन धन संसाधन ही है और फिर वीडियो का क्या? जब स्मृति ईरानी जेएनयू वीडियो में कश्मीरी प्रदर्शन की आवाज डालवा सकती हैं तो विजय वरगिया क्यों नहीं कर सकते? कांग्रेस भी देवीलाल के जमाने में हरियाणा के अंदर और एन टी रामारामाराव के युग में आंध्र प्रदेश के भीतर यह षडयंत्र कर चुकी है लेकिन जब चुनाव हुए तो जनता उसे सबक सिखा दिया। भाजपा की अगर यह धारणा है कि अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में चोर दरवाजे से हाथ आने वाली सत्ता स्थाई होगी तो बहुत जल्द उस की यह खुशफहमी दूर हो जाएगी। क्योंकि बकौल शायर
आप को डुबो देगी आप ही की ये खुशफहमी आदमी की दुश्मन है आदमी की खुशफहमी
इस नकली संवैधानिक संकट के विपरीत पंजाब के अंदर पैदा होने वाला वास्तविक संवैधानिक गतिरोध भी देखें। 18 फरवरी को पंजाब विधानसभा के अंदर अकाली दल, कांग्रेस और भाजपा तीनों ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया जिसके अनुसार '' सतलज यमुना नहर को किसी भी कीमत पर किसी भी हाल में बनने नहीं दिया जाएगा। किसी भी ओर से कोई भी ऐसा फैसला स्वीकार नहीं किया जाएगा जो पंजाब की जनता को उनके वैध अधिकार से वंचित करे। '' इस प्रस्ताव में किसी से मतलब सुप्रीम कोर्ट है और कोई फैसला यानी 30 मार्च तक सतलज यमुना नहर के लिए किसानों से अधीग्रहण की गई जमीन को वापस न करने का उच्चतम न्यायालय का निर्देश है।
पंजाब  सरकार ने मात्र मौखिक जमा खर्च पर संतोष नहीं किया बल्कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन करते हुए 4 हजार एकड़ जमीन किसानों को लौटा दी। राजनीतिज्ञों ने नहर को बंद करने के लिए इस में कीचड़ डालने का काम शुरू कर दिया। प्रशासन और पुलिस इस कानून के उल्लंघन को चुपचाप देखते रहे और केंद्र सरकार आंख मूंद कर सोती रही। इस तरह मानो एक राज्य की विधानसभा के सारे सदस्यों ने सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ विद्रोह कर दिया और किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। मीडिया ने इस मुद्दे पर चर्चा करने के बजाय राष्ट्र को ''भारत माता की जय '' में उलझाए रखा जबकि यह वास्तविक और गंभीर संवैधानिक संकट देश के संघीय ढांचे के लिए बहुत बडा खतरा है।
पंजाब विधानसभा के अनुसार सतलज यमुना नहर की जरूरत न पहले कभी थी और न अब है जबकि दसियों साल पुराने समझौते के तहत यह निर्माण हुआ है। इस नहर का 85 प्रतिशत काम पूरा हो चुका है और इस पर 700 करोड रुपये खर्च हो चुके हैं, जिसका बड़ा हिस्सा हरियाणा ने दिया है। हरियाणा और पंजाब की इस महाभारत में दोनों ओर एक ही ध्रतराष्ट्र की संतान एक दूसरे से संघर्षरत है। पंजाब सरकार में भाजपा शामिल है और हरियाणा में भाजपा की अपनी सरकार है। हरियाणा के मुख्यमंत्री पंजाबी हैं और जाटों के विरोध ने उनकी नींद उड़ा रखी लेकिन पंजाब से आने वाली इस मुसीबत ने तो उन्हें मानो मृत्युशय्या पर पहुंचा दिया। इस स्थिति में वह केवल यह कह सके कि पंजाब विधानसभा का यह संकल्प न्यायालय के फैसले का खुला उल्लंघन है और हम इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जाएंगे।
सुप्रीम कोर्ट तो पहले ही हरियाणा के पक्ष में फैसला कर चुका है। उन्हें तो चाहिए था उस पर कार्रवाई के लिए केंद्र सरकार के पास जाते लेकिन खट्टर को पता है कि मोदी जी में वह दमखम नहीं है कि पंजाब सरकार को झुका सकें इस लिए वे बिनाकारण सुप्रीम कोर्ट में जाकर टाइम पास करना चाहते हैं। जो लोग सुप्रीम कोर्ट को कोई महत्व नहीं देते उनके खिलाफ न्यायालय के दरवाजे पर फिर से दस्तक देना मूर्खता नहीं तो और क्या है। भाजपा वाले अगर इस तरह जनता को मूर्ख बनाना चाहते हैं तो बहुत जल्द उन्हें दाल आटे का भाव मालूम हो जाएगा। केंद्रीय मंत्री बिरेंनद्र सिंह ने पंजाब विधानसभा के फैसले को राजनीतिक करार देते हुए आरोप लगाया कि पड़ोसी राज्य को देश के संघीय ढांचे को प्रभावित करने का कोई अधिकार नहीं है।
 पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह ने कहा कि पंजाब विधानसभा ने चूंकि संघिय ढांचे को खतरे में डाल दिया है इसलिए उसके खिलाफ हरियाणा के सारे सांसदों और विधायकों को राष्ट्रपति के सामने विरोध प्रकट करते हुए त्याग पत्र दे देना चाहिए। उन्होंने ने दोनों राज्यों में राष्ट्रपती शासन लागू करने की मांग भी की। हरियाणा में भाजपा नेता मदन मोहन मित्तल ने तो यहां तक ​​कह दिया कि चूंकि पंजाब विधानसभा के सदस्यों ने सारे कानून नियम का उल्लंघन कर दिया है इसलिए अब समस्या का एकमात्र समाधान यह है कि पंजाब और हरियाणा का पुनर्गठन किया जाए और उन का फिर से विलय कर दिया जाए।
हरियाणा के इंडियन नेशनल लोकदल के अकाली दल से घनिष्ठ संबंध रहे हैं लेकिन उस ने भी सारे रिश्ते तोड लिए हैं। लोकदल के 10 विधायकों ने तो पंजाब विधानसभा में नारे लगाते हुए हल्ला भी बोल दिया वह तो खैर पुलिस बीच में आ गई वरना हाथापाई हो जाती। इसके जवाब में पंजाब के दस कांग्रेसी विधायक हरियाणा विधानसभा में घुस गए और नारे लगाए कि एक बूंद पानी हरियाणा को नहीं देंगे। इस हंगामे में देशभक्त भगवा सिंह (शेर) दुम दबाए मूकदर्शक बने रहे। आडवाणी जी ने किसी जमाने में नकली (सियोडो) धर्मनिरपेक्षता की शब्दावली का आविष्कार किया था अब समय आ गया है कि भाजपा के खिलाफ नकली देशभक्ती के शब्द का इस्तेमाल किया जाए। यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि उत्तराखंड में एक नकली संवैधानिक संकट की ओर तो सारी प्रजा आकर्षित है परंतु उस की सीमा पर पंजाब और हरियाणा में असली संवैधानिक तूफान की ओर कोई फटक कर नहीं देखता। यही मीडिया का सबसे बड़ा कारनामा है कि वह महत्वहीन को महत्वपूर्ण और महत्वपूर्ण को महत्वहीन बना देता है।

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