Wednesday 6 April 2016

ना खुदा मिला ही मिला ना विसाले सनम

 प्रधान मंत्री एक और सरकारी पिकनिक से लौट आए। मोदी जी के राजनीतिक ग्राफ को देखने के लिए उनके विदेश यात्राओं पर एक नज़र डाल लेना काफी हे। मई 2014 के अंत में शपथ ग्रहण के पशचात सब से पहले वे विदेशी दौरे की योजना बनाने में लग गए और जून के मध्य में अंतहीन '' विश्वा यात्रा ' ' पर निकल पड़े। दो साल के भीतर वे 31 देश घूम आए जबकि बराक ओबामा ने 9 सालों के अंदर केवल 52 देशों का दौरा किया और रूस के राष्ट्रपति ने तो केवल 50 देशों की सैर की।
इस बाबत आंकड़ों की समीक्षा खासी रोचक है। पहले 6 महीने यानी जून से दसम्बर 2014 में प्रधानमंत्री ने 9 देशों का दौरा किया। इस दौरान पांच राज्यों के चुनाव अभियान उनके पैरों की जंजीर बन गए और वह मन मानी न कर सके। एक साल बाद यानी जून से दिसंबर  2015 के दौरान बिहार के चुनाव अभियान के बावजूद मोदी जी के यात्राओं की संख्या 9 से बढ़कर 18 हो गई यह सौ प्रतिशत वृद्धि असाधारण थी। साल 2015 में मोदी जी ने कुल 28 दौरे किए थे यानी हर तिमाही में औसतन 7 दौरे।
इस प्रदर्शन की बदौलत उन्हें एनआरआई प्रधानमंत्री का सम्मान प्राप्त हुवा और राहुल गांधी को आवेदन करना पड़ा कि अगर कभी विदेशी दौरों से फुर्सत मिले तो अपने देश के किसानों से भी मुलाकात करने का कष्ट करें। यहां तक ​​कि सोशल मीडिया में ऐसा कार्टून भी देखने को मिला कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज मोदी जी को अलविदा करते हुए हाथ जोड़कर कह रही हैं '' भारत माता की यात्रा करने लिए धनियवाद ''। अब आइए इस वर्ष को देखें। पहले तीन महीनों में केवल 3 देशों और अगले 6 महीने में अधिक 3 देशों की परियोजना है मानो इस साल के पहले 9 महीने में केवल 6 यानी पिछले साल के पहले 9 महीनों के 20 की तुलना में तीन गुना से अधिक की गिरावट जो उनकी लोकप्रियता में जबरदस्त कमी का प्रतीक है।
इस तेजी के साथ किसी नेता का अलोकप्रिय हो जाना अपने आप में एक शोध का विषय है। इसका कारण जीजमान की बेजारी या खुद मोदी जी का इस मोह माया से मन उचाट हो जाना या दोनों हो सकता है। जहां तक ​​देश की जनता का संबंध है उनका मन न केवल प्रधानमंत्री से उचाट हो चुका है बल्कि उनके प्रवचन सुन सुन कर और तस्वीरें देखदेख वे कर अत्यंत निराश हो चुका है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जब प्रधानमंत्री मोदी इस महत्वपूर्ण यात्रा पर बेल्जियम से होते हुए बराक ओबामा और अन्य विश्व नेताओं से मुलाकात के लिए अमेरिका रवाना हो रहे थे तो उस समय टेलीविजन चैनलों पर विराट कोहली छाया हुवा था और लोग भारत वेस्ट इंडीज मैच देखने में मगन थे।
गुणवत्ता को मात्रा पर प्राधान्य प्राप्त है इसलिए इन यात्राओं का प्रभाव भी देखें। इस दौरान मोदी जी ने अमरीका का 3 बार और मध्य पूर्व के दो दौरे किए। यह दोनों क्षेत्र एक दूसरे से खासे अलग हैं इसलिए इन का विश्लेषण काफी है। मोदी जी पर चूंकि गुजरात नरसंहार के कारण अमेरिका में प्रवेश पर पाबंदी थी इसलिए उनकी पहली आमरिकी यात्रा को असहज महत्व प्राप्त हो गया। इस अवसर पर मैडिसन स्क्वायर पर होने वाले मनोरंजन कार्यक्रम में मोदी जी को रॉक स्टार के रूप में पेश किया गया। अमेरिका में रहने बसने वाले भारतीयों का जोश और विशेष रूप से गुजरातियों का जुनून देखने लायक था। भगवा कट्टरपंथियों के क्रोध का शिकार होने वालों में से एक राजदीप सरदेसाई भी थे। इसके बाद वाईट हाऊस में मोदी जी की आम सी बैठक को असाधारण बना कर पेश किया गया ।
मोदी जी ने एक साल बाद जब दूसरी बार अमेरिका के लिए निकले तो ज़माना बदल चुका था। मोदी जी का जादू केजरीवाल ने तोड़ दिया था। अच्छे दिनों की आस में नरेंद्र मोदी को चुनने वाली जनता जागृत हो कर मनमोहन सिंह का ज़माना याद कर रही थी। उन के मुख पर राजकपूर की बड़े बजट की फ्लॉप फिल्म मेरा नाम जोकर का गीत '' जाने कहां गए वो दिन '' मचल रहा था। मोदी जी के चुनाव पर खर्च होने वाले निवेश की तुलना अगर उन के प्रदर्शन से की जाए तो '' मेरा नाम मोदी'' भी बड़ी फ्लॉप निकलेगी। इसलिए बहुत संभव है कि इस समय निराश मोदी जी भी '' जाने कहां गए वो लोग '' गुनगुना रहे हैं। एक साल पहले फूल बिछाने वाला गुजरात का पटेल समुदाय अब आग बरसा रहा था। हार्दिक पटेल की रिहाई के लिए प्रदर्शन की तैयारियां चल रही थीं। पटेल समाज  मेडीसन स्कोयर के लिए दिया जाने वाला अपना चंदा वापस मांग रहा था।
 उन जमीनी तथ्यों ने दूसरे अमेरिकी दौरे को थोडा बहुत प्रतिष्ठित बना दिया। सार्वजनिक सभा से बचते हुए उद्योगपतियों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया। मेक इन इंडिया के सपने को साकार करने के लिए गूगल, फेसबुक और बिजली चालित वाहन बनाने वाली अमेरिकी कंपनी टेसला का दौरा किया गया। टेसला चूँकि अमेरिका के बाहर निर्मिती का विचार कर रही थी इसलिए उसे भारत बुलाने की प्रयत्न किया गया। इस चक्कर में वह लोग बंगलोरो भी आए लेकिन चीन को प्राथमिकता दी और मेड इन चाइना कार बनाने का फैसला किया।
फेसबुक वाले इंटरनेट बेस्किस नामक प्रोजेक्ट बाज़ार में लाना चाहते थे लेकिन दुनिया भर में इसका विरोध हो रहा था। फेसबुक के ज़ुकरबरग ने मोदी जी को अपने झांसे में लेकर भारत के बाज़ार में घुसने की कोशिश की और इसमें सफल भी हो गए लेकिन इंटरनेट की संप्रभुता के लिए सक्रिय विभिन्न गैर सरकारी संगठनों ने सरकार पर इस कदर दबाव बनाया के सरकार को उसे स्थगित करने पर मजबूर होना पड़ा। इस तरह फेसबुक बेस्किस का भी देस निकाला और मुंह काला हो गया।
मोदी जी की तीसरी अमेरिकी यात्रा शुद्ध राजनीतिक और कूटनीतिक थी। इसमें मनोरंजन या और वाणिज्यिक निशाना नहीं था। इस बार मोदी जी भाजपा के माथे पर लगा पुराना कलंक मिटाना चाहते थे। मुंबई के बाद पठानकोट हमले का आरोप मसूद अजहर पर है लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि मसूद अज़हर एक युग में भारत के भीतर जेल में था। भारत सरकार ने उसके खिलाफ कोई आरोप पत्र दाख़िल नहीं किया अंततः अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में विदेश मंत्री जसवंत सिंह खुद अपहरण विमान के बदले उन्हें काबुल छोड़ आए। इस बार मोदी जी ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में  मसूद अजहर को आतंकवादी करार देने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। 15 में से 14 सदस्यों को अपना सर्मथक बना लिया लेकिन चीन ने अपेक्षानुसार प्रस्ताव को वीटो कर दिया।
जैश मुहम्मद को 2001 में आतंकवादी घोषित कर दिया गया है लेकिन 2008 में मुंबई हमले के बाद जब मसूद अजहर पर प्रतिबंध का प्रस्ताव किया गया था तो चीन ने इसे वीटो कर दिया था। पिछले साल भारत की ओर अबदुल रहमान लखवी पर कार्रवाई करने के लिये पाकिस्तान को मजबूर करने के लिए जो अभियान चलाया गया उसे भी चीनी वीटो के कारण विफल होना पड़ा, फिर भी प्रधानमंत्री का इस बार आशावादी होना अद्भुत था। उन्हें चाहिए था कि पहले चीन को राजी करते इसके बाद 14 के बजाय अन्य 7 सदस्य भी साथ होते तो काम चल जाता लेकिन हमारे प्रधानमंत्री यदि ऐसी समझदारी दिखाने लगें तो उन बेचारों का क्या होगा जिनका काम मोदी जी के नित नए कार्टून बनाकर लोगों को हँसाना है।
मसूद अजहर पर प्रतिबंध लगाने में होने वाली कूटनीतिक विफलता को छिपाना के लिए पहले तो ढकी छिपी शैली में चीन और पाकिस्तान को आतंकवादियों का संरक्षक बताया गया लेकिन बाद में संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू अपने आप को नाम लेने से भी नहीं रोक सके। इस तरह मसूद अजहर का तो बाल बांका नहीं हुआ मगर चीन और पाकिस्तान के साथ संबंधों में जो सुधार आया था उस पर ओस पड  गई। मुंबई की भाषा में इसे कहते हैं '' खाया पिया कुछ नहीं गिलास फोड़ा बारह आना। ''
मोदी सरकार की विदेश नीति के कारण पाकिस्तान तो दूर नेपाल नामक एकमात्र पूर्व हिंदू राष्ट्र भी चीन की गोद में चला गया है। नेपाल में मोदी जी ने दो दौरे किए परंतु यह पड़ोसी देश वर्तमान में दुश्मन बना हुआ है। चीन और नेपाल के बीच रेलवे ट्रैक बिछाई जा रही है और उम्मीद है कि भविष्य में चीनी वस्तुओं नेपाल से होकर बे रोकटोक भारत के बाजार में फैल जाएंगी और हम लोग मेक इन इंडिया की जय माला जपते रह जाएंगे।
अमेरिका के लिए चीन ही सब से बड़ा खतरा है। चीन के खिलाफ अमेरिकी प्रशासन भारत का उपयोग करना चाहता है। हिंदुस्तान का चीन से संघर्षरत हो जाना अमरीका के हित में है इसलिए वह हमें उकसाता हैं और हम उनके दाम धोखे में आ जाते हैं। इस अवसर पर दो प्रशन ऐसे हैं जिन पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। पहला तो यह कि चीन के साथ बेहतर संबंध भारतीय जनता के पक्ष में उपयोगी है या नहीं? तथा अमेरिका कितना विश्वसनीय सहकारी है? चीन हमारा पड़ोसी देश है और यह कटु सत्य है कि वह आर्थिक और सैन्य दृष्टि से श्रेष्ठ है। पिछले कुछ वर्षों के भीतर भारत चीनी व्यापार में अच्छी खासी प्रगति हुई और भारत के भीतर चीन निवेश का ईरादा भी रखता है जो दोनों देशों की जनता के लाभ में है ऐसे में किसी तीसरे को प्रसन्न करने के लिए खुद अपना नुकसान कर लेना कहां की समझदारी है?
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि अमेरिका ने अपने हर मित्र की पीठ में छुरा घोंपा है। अफगानिस्तान में अलकाईदा को साथ लेकर सोवियत संघ का मुकाबला किया और फिर उसका दुश्मन बन गया। ईरान के विरूध सद्दाम हुसैन का समर्थन किया और बाद में सत्ता छीन कर फांसी के फंदे तक पहुंचा दिया। सीरिया में मुजाहिदीन की पहले हिमायत की और आगे चलकर वहाँ आईएसएस को उतार दिया जो बशार बजाय नुस्रा का सर कुचलने लगी। इस का नवीनतम उदाहरण खुद सऊदी अरब है जहां मोदी जी ने अमेरिका से वापसी में उतरे थे।
मध्य पूर्व में शाह ईरान के बाद अमेरिका ने उसके खिलाफ धर्मयुद्ध छेड़ दिया। इस युद्ध में मुजाहिदीन खल्क से लेकर सद्दाम हुसैन तक सब को मैदान में उतारा गया। परमाणु हथियारों का बहाना बनाकर ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लागू कर दिया गया लेकिन सारे उपाय विफल हो गए। इस दौरान अमेरिका ने यह महसूस किया कि अब ईरान की ओर से पहले जैसा वैचारिक खतरा नहीं है इसलिए ईरान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया गया। मस्कत के अंदर बातचीत शुरू हुई और लंबी बहस के बाद ईरान ने परमाणु ईंधन पर सीमित प्रतिबंध स्वीकार कर लिया। इस तरह अमेरिकी प्रशासन को आर्थिक प्रतिबंध समाप्त करने का औचित्य मिल गया।
मध्य पूर्व के अंदर सऊदी अरब हर परिस्थिती में अमेरिका का सहयोगी बना रहा बना रहा लेकिन ईरान के साथ संबंधों का सुधारने से पहले उसे पूछा तक नहीं गया। अमेरिका के इस व्यव्हार से अरब व्दीप के सारे सहयोगी अमेरिका से नाराज हो गए और उनका विश्वास अमेरिका के ऊपर से उठ गया। इस संबंध में अरबों के अंदर गंभीर चिंता है। मोदी जी को उससे सीख लेनी चाहिए। पिछले साल के मोदी ने अमीरात का दौरा किया उस से सऊदी यात्रा की तुलना भी आवश्यक है। यमन में समर्थन न मिलने से यह दोनों देश पाकिस्तान से नाराज है। इसी तनाव ने मोदी जी की यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया है।
मोदी जी जब अबूधाबी पहुंचे थे तो हुवाई अड्डे पर उनका स्वागत रक्षा मंत्री मोहम्मद बिन जाइद ने किया था लेकिन रियाद में उनके स्वागत के लिए शहर के राज्यपाल आए। इसके बाद मोदी जी को शेख जाइद मस्जिद दिखलाई गई। रियाद शहर में भी बहुत सारी मस्जिदें हैं लेकिन उन्हें वहाँ नहीं लेजाया गया। अबूधाबी में मोदी जी ने एक श्रम शिविर के भी दर्शन किया लेकिन सऊदी अरब में अधिक संख्या के बावजूद वह भारतीय श्रमिकों से मुलाकात न कर सके। एक पांच सितारा होटल में विशिष्ट लोगों के संबोधन पर उन्हें संतुष्ट होना पड़ा जबकि दुबई के अंदर एक स्टेडियम में भारतीय जनता के जनसमूह को उन्होंने संबोधित किया था।
अमीरात के दौरे पर मोदी जी का सबसे बड़ा नाटक अबूधाबी में बनने वाले एक मंदिर परियोजना पर खुशी व्यक्त करना था। स्वामी नारायण मंदिर को दो साल पहले निर्माण की अनुमति मिल चुकी थी लेकिन मोदी जी और उनके भक्तों ने यह भ्रम फैलाने की कोशिश की यह मंदिर उनके प्रयतनों से बन रहा है। सऊदी अरब के अंदर तो यह कल्पना ही कठिन थी। यह अंतर पिछले साल और इस साल की लोकप्रीयता का प्रतीक है।
अभी हाल में प्रधानमंत्री ने दिल्ली के अंदर विश्व सूफी सम्मेलन के नाम जो नाटक किया उस में वहाबियत का खूब जमकर विरोध हुआ। सल्फ़ियत को आईएसएस का स्रोत करार दिया गया और हरमैन शरीफ़ैन को सऊदी अरब के चंगुल से मुक्त करने का संकल्प दोहराया गया। ऐसी सभा के आयोजन करवाने के बाद भी अगर मोदी जी सऊदी अरब से उम्मीद रखें कि उनके साथ गर्मजोशी का प्रदर्शन हो तो यह सरासर मूर्खता है। वह तो खैर 'अमेरिका के प्रेम और पाकिस्तान द्वेष में यह दौरा रद्द नहीं हुआ वरना संभव है कि वैश्विक सूफी सम्मेलन के बाद भारत और सऊदी अरब के संबंध बिगड़ जाते।
इस बात की संभावना है कि मोदी जी ने सऊदी सरकार को विश्वास दिला दिया हो कि वह जनता को मूर्ख बनाने के लिए एक लोकतांत्रिक तमाशा था लेकिन इस दौरे के कारण मोदी जी को बरेलवी विचारधारा के जिन उलेमा और जनता का जो थोड़ा बहुत समर्थन प्राप्त हो गया था वह उस पर पूरी तरह पानी फिर गया है। एक साथ दो नावों में सवार होने की कोशिश में मोदी जी की लुटिया आए दिन इसी तरह डूबती रहती है क्योंकि त्वरित लाभ को वह सब कुछ समझते हैं। उनके अंदर दूरदर्शिता का अभाव है। दोस्त और दुश्मन में भेद किए बिना विरोधी पक्षों को खुश करने की कोशिश में वह दोनों को नाराज़ कर देते हैं। सउदी अरब हमेशा से भारत का मित्र रहा 2010 में मनमोहन ने वहां की यात्रा भी की परंतु प्रशन है कि प्रधान मंत्री वहां से क्या भेंट लाए? अगले दिन पेट्रोल के भाव में 2 रूपए और डीजल की 1 रूपया वृध्दि की घोषणा पर जो उनको धन्यवाद देना चाहता है शौक से दे।
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