Tuesday 8 March 2016

राष्ट्रवाद के दीपक में सांप्रदायिकता का ईंधन

दूनिया भर में राष्ट्रवाद का दीपक सांप्रदायिकता के ईंधन से जलता है। जर्मनी में हिटलर ने राष्ट्रवाद की लपटों को भड़काने के लिए यहूदियों को भस्म कर दिया। यहूदी फिलिस्तीन में स्थानीय मुसलमानों को निशाना बनाकर इजरायली राष्ट्रवाद को हवा दे रहे हैं। गुलामी के काल में देश के बुद्धिजीवियों को इस की पहचान असंभव थी लेकिन आजादी के 69 साल बाद अब पता चलने लगा है। इस तथ्य का सबूत दैनिक टेलीग्राफ के व्दारा आयोजित समारोह में बरखा दत्त का भाषण है जो सोशल मीडिया पर छाया हुआ है। इस अनुभूति का मुख्य कारण जेएनयू का घटनाक्रम हैं जहाँ भाजपा यह भूल गई कि देश भक्ति की होली सांप्रदायिकता के बिना नहीं जल सकती। अगर कन्हैया कुमार के बजाय सीधे उमर खालिद पर हाथ डाला गया होता और फिर प्रोफेसर एसएआर गिलानी को गिरफ्तार किया जाता तो क्या ऐसा बवाल मचता? इतने लेख लिखे जाते? इतना वाद-विवाद होता? कदापि नहीं।
आजकल बहुत सारे धर्मनिरपेक्ष विद्वान मुसलमानों को कन्हैया कुमार से सबक सीखने का उपदेश दे रहे हैं और उन्हें समर्थन करने वाले धार्मिक लोगों की भी कमी नहीं है हालांकि इस मौके पर हम सब को अपने गिरेबान में झाँक कर देखना चाहिए। जब एक मुस्लिम युवक को कन्हैया की तरह गद्दार करार दे कर राष्ट्रद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है तो पूरा राष्ट्र दो भागों में विभाजित हो जाता है। एक तो वह धार्मिक शुभचिंतक होते हैं जो अन्य लोगों को अत्याचार से बचाने की खातिर घोषणा कर देते हैं कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता। इस्लाम का एक शांतिपूर्ण धर्म है और हमारा उनसे कोई संबंध नहीं है। ऐसे में आरोपियों को दोषी मान लिया जाता है और उनकी सहायता करने के बजाय हाथ खींच लिया जाता है।
उनके अलावा मुस्लिम समुदाय के अंदर और बाहर धर्मनिरपेक्ष लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग मौजूद है जिसे अपनी कलम और भाषा से इस्लाम के विरोध का दुर्लभ मौका मिल जाता है। यह लोग सीधे इस्लाम के बजाय मुल्लाओं और मदरसों के खिलाफ मोर्चा खोल देते हैं और उनकी आड़ में जनता को इस्लाम से दूर करने का षडयंत्र रचते हैं। ऐसा करने से अपने गैर मुस्लिम दोस्तों की निगाह में उन लोगों की धर्मनिरपेक्षता प्रमाणित होती है। सच तो यह है कि इस समय मुस्लिम व गैर मुस्लिम धर्मनिरपेक्ष समुदाय उमर खालिद तो दूर प्रोफेसर गिलानी तक को भुला बैठा है ऐसे में एक आम मुसलमान की क्या बिसात? इस निराशाजनक स्थिति के बावजूद जब गिरफ्तार होने वाले कल्याणकारी संगठनों के प्रयत्नों से वर्षों बाद निर्दोष रिहा हो जाते हैं तो उस पर भी धर्मनिरपेक्ष लोग खुश होने के बजाए प्रशासन के सबूत जुटाने में विफलता पर खेद व्यक्त करते हैं (मानो वह लोग तो दोषी ही थे)।
इस नकारात्मक दृष्टिकोण के विपरीत सारा हिंदू समुदाय अपने मतभेद भुला कर कन्हैया कुमार के कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हो गया। मुसलमान भी विशाल ह्रदय का प्रदर्शन करते हुए समर्थन में उतरे और उसके बाद ही फासीवादी सरकार को झुकने पर मजबूर होना पड़ा। अगर कन्हैया कुमार के मामले में भी धर्मनिरपेक्ष समाज का वही रवैया होता जो मुस्लिम युवाओं के साथ होता है तो उसे भी जेल से बाहर आने में कई साल लग जाता। दीर्ध काल के बाद रिहा होने वाला कन्हैया भी गुमनामी गुफा में धकेल दिया जाता और वह इस तरह हीरो नहीं बन पाता।
बरखा दत्त ने अपने उक्त भाषण में राष्ट्रवाद के अतिरिक्त धर्मनिरपेक्षता पर भी विचार व्यक्त किया है। उन्होंने स्वीकार किया कि अतीत में यह शब्दावली उन्हें बहुत प्रिय थी लेकिन दोनों पक्ष के राजनीतिक दलों ने इसका इतना शोषण किया कि अब वह गाली बन गई है। बरखा के अनुसार राजनीतिक पार्टियों ने धर्मनिरपेक्षता और छदम धर्मनिरपेक्षता की चर्चा करके उन्हें इस शब्द के उपयोग से वंचित कर दिया है। अब वह सेकुलरिज़्म के बजाय प्लूरलिज़्म (बहुलवादी) शब्द को प्राथमिकता देने लगी हैं। धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग इसलिये हुआ कि इस में ऐसी गुंजाइश थी कि राजनीतिक दल इसका शोषण कर सकें।
धर्मनिरपेक्ष का अर्थ निधर्मी होता है इसलिए पहले तो कांग्रेस को यह सफाई पेश करनी पड़ी कि हमारी धर्मनिरपेक्षता किसी धर्म के खिलाफ नहीं है बल्कि सभी धर्मों को पालन और प्रसार के समान अवसर प्रदान करती है। यह वास्तव में एक ढकोसला है। जीवन के अन्य क्षेत्रों में तो दूर अपने पारिवारिक जीवन में भी जब मुसलमान पर्सनल लॉ का पालन करना चाहते हैं तो जितना विरोध हिंदू कट्टरवादियों व्दारा होता है वैसा ही विरोध धर्मनिरपेक्ष लोग भी करते हैं। अभी हाल में केरल के अंदर हाई कोर्ट के न्यायाधीष कमाल पाशा ने यह सवाल किया कि अगर मुसलमान पुरुष चार पत्नियां रख सकता है तो सत्री चार पति क्यों नहीं रख सकती?
इस प्रशन का सरल उत्तर तो यह है कि इस्लाम इसकी अनुमति नहीं देता लेकिन इस देश में ऐसे लाखों पुरुष हैं जिनका इस्लाम से कोई सरोकार नहीं है। उनका धर्म उन्हें एक से अधिक विवाह की इजाज़त भी नहीं देता इसके बावजूद वे एक से अधिक पत्नियों के पति हैं जैसे धर्मेन्द्र जिसने अपनी पहली पत्नी की मौजूदगी में हेमा मालिनी से शादी कर ली। अब क्या पाशा साहब हेमा से यह कहने का साहस कर सकेंगे चूंकि उनके पति ने दूसरी शादी की इसलिए वह भी ......। अगर पाशा साहब ने ऐसी मूर्खता की तो इस आयु में भी धर्मेंद्र उनका खून पी जाएंगे और हेमा मालिनी उन्हें जज से पेशकार बनवा देंगी।
धर्मनिरपेक्षता के नशे में चूर यह बुद्धिजीवी इस्लामी शरियत के अंत की मांग तो करते हैं लेकिन हिंदू कोड बिल की निन्दा नहीं करते। संघ परिवार मुस्लिम पर्सनल लॉ को कांग्रेस व्दारा मुसलमानों का तुष्टिकर्ण और वोट बैंक की राजनीति करार देता है। वह चार शादियों और 25 बच्चों का भय दिलाकर हिन्दू जनता को अपना समर्थक बनाने का प्रयत्न करता है। कुछ लोगों को लगता है कि देश की सारी सहिष्णुता का स्रोत धर्मनिरपेक्षता ही है हालांकि यह सिद्धांत तो अपनी जन्मभूमि फ्रांस के भीतर भी सहिष्णुता स्थापित नहीं कर सका। फ्रांस के अंदर जहां निर्वस्त्रता की खुली छूट है मुस्लिम महिला को हिजाब पहन कर घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं है। अगर वह ऐसा करे तो उस पर जुर्माना लगता है। तालिबान को बच्चियों की शिक्षा का दुश्मन बताया जाता है हालांकि वह सिर्फ मिश्रित शिक्षा के खिलाफ हैं फ्रांस के अंदर स्कार्फ पहन कर आने वाली छात्राओं को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ज्ञान प्राप्ती से वंचित कर दिया जाता है। धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने की खातिर वीद्यालय कैंटीन में सप्ताह में कुछ दिन केवल पोर्क रखा जाता है परंतु मुस्लिम छात्रों के भुखे रहने पर किसी को दया नहीं आती।
इस सिद्धांत ने जब तुर्की जैसे मुस्लिम देश में भी कदम जमाए तो वहाँ भी कॉलेज की छात्राओं के लिए स्कार्फ पहन कर आना वर्जित कर दिया गया। भारत के नेता पश्चिम की मानसिक गुलामी के बावजूद जमीनी वास्तविकताओं से परिचित थे। वे जानते थे कि इस देश में मुसलमान तो दूर हिन्दुओं के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप भी खतरनाक होगा इसलिए धर्मनिरपेक्षता की एक नई परिभाषा का आविष्कार किया गया और कहा गया हमारी धर्मनिरपेक्षता पश्चिम से विभिन्न है। सवाल यह है कि अगर वह अलग है तो धर्मनिरपेक्षता कैसे हुई? दरअसल उस समय हमारे नेताओं को इस का वैकल्पिक शब्द नहीं सूझा लेकिन अब बरखा दत्त ने पलूलरिज़्म (यानी विविधता) शब्द प्रस्तुत करके समस्या हल कर दी है। देखना यह है कि वह खुद इस पर कब तक कायम रहती हैं लेकिन इसमें शक नहीं कि शब्दों के उपयोग में सावधानी आवश्यक है क्योंकि प्रत्येक शब्द एक सिद्धांत और विशेष पृष्ठभूमि अपने साथ लाता है।
नेशलिज़्म (यानी राष्ट्रवाद) के विषय में बरखा दत्त ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता की तरह अब यह शब्द भी हम से छीना जा रहा है। उनके मुताबिक अब वह नेशलज़्म के बजाय पीटराईटिज़्म (देशप्रेम) के उपयोग को प्राथमिकता देंगी। बरखा दत्त ने कहा कि यह शब्द उन्होंने ने जेएनयू के आंदोलन से लिया है। कन्हैया कुमार के अनुसार राष्ट्रवाद एक पश्चिमी विचारधारा है और उन देशों में परवान चढ़ी है जहां एक राष्ट्र होता था। हमारा संविधान स्वीकार करता है कि यह देश कई राष्ट्रों का समूह है। इसलिए यहां नेशलिज़्म का अर्थ किसी एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्रों पर वर्चस्व होगा। लेकिन अगर राष्ट्रवाद के बजाय देशप्रेम को आधार बनाया जाए तो विभिन्न जातियां अपने सारे मतभेद के बावजूद देश प्रेम कर सकती हैं। ऐसे में राष्ट्रवाद या देश भक्ति का जो पहलू इस्लाम के एकेश्वरवाद से टकराता है वह भी निपट जाता है क्योंकि इस्लाम भी देश प्रेम की प्राकृतिक भावना को स्वीकार करता है।
समकालीन युग में धर्मनिरपेक्षता और नेशलिज़्म के अलावा स्वतंत्रता पर बहुत जोर दिया गया है। बरखा दत्त ने कहा देशप्रेम का अर्थ संविधान पर चलने की स्वतंत्रता ही है। स्वतंत्रता एक तो संविधान के पन्नों में है और दूसरा वास्तविक दुनिया में ।इस अंतर को अगर कोई मुसलमान बताए तो उसे पाकिस्तान समर्थक करार देकर सीमा पार जाने की सलाह वह लोग देंगे जिनका नेता बिन बुलाए लाहौर हवाई अड्डे पर उतर जाता है खैर इस विषय पर प्रसिद्ध पत्रकार निखिल वागले के भाषण की भी आज कल सोशल मीडिया में धूम है। यह महाश्य भी बरखा दत्त की तरह अच्छे-खासे धर्मनिरपेक्ष हैं और समाजवाद की ओर झुकाव रखते हैं। एक ज़माने में शिवसेना और भाजपा पर उनकी आलोचना के कारण उनका अखबार महानगर बहुत लोकप्रीय था। आगे चलकर निखिल वागले ने आईबीएन के मराठी चैनल की कमान संभाल ली और राष्ट्रीय स्तर पर चमकने लगे।
निखिल वागले ने अपने भाषण में कहा कि जेएनयू में जो कुछ हो रहा है उसकी उत्पत्ति 2011 में हुई जब पूंजीपति वर्ग ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का निर्णय लिया। जिन लोगों को जनता की राय बदलनी होती है वे टीवी चैनल के मालिकों को खरीद लेते हैं और अपने पसंदीदा उम्मीदवार के पक्ष में जनमत तय्यार कराते हैं। उन्होंने खुद अपना उदाहर्ण देते हुए कहा जब सारे चैनल यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार का पर्दाफाश कर रहे थे तो हमें सच्चा और पक्का देशभक्त माना जाता था। उस समय हम पर दबाव डाला जाता था कि हम कांग्रेस के खिलाफ तो समाचार प्रसारित करें लेकिन मोदी या भाजपा का विरोध न करें। निखिल के अनुसार उनके पास इसके प्रमाण में ईमेल मौजूद हैं। यह सिलसिला मतदान तक जारी रहा और जब काम निकल गया तो जून  2014 में इन चैनलों से जिन्हें खुद उन्होंने और सरदेसाई ने शुरू किया था इस्तीफा दे कर निकल जाने पर मजबूर किया गया। इसलिए निखिल कहते हैं सच्ची स्वतंत्रता वर्तमान नहीं है। जेएनयू की त्रासदी ने तो बस राष्ट्र को जागृति किया है और मूल संघर्ष स्वतंत्रता की बहाली है।
बरखा दत्त और निखिल वागले जैसे लोगों के विचार हमें वास्तविकता से परिचित कराते हैं और स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और देशभक्ती जैसे खोखले शब्दों की कलई खोलते हैं। जेएनयू मामला पहले परिसर चौराहे से निकल कर सोशियल मीडिया में आया। फिर टीवी और प्रिंट मीडिया व्दारा घर-घर पहुंचा। इसके बाद प्रशासन की सहायता से सरकार उसे अदालत में ले आई जहां भगवा वकीलों ने अपनी बदमाशी उस को सारी दुनिया में फैला दिया। विश्वसत्र से लेकर संसद तक में अपनी जगहंसाई करवाने के बाद सरकार ने अंततः कन्हैया को तो रिहा कर दिया लेकिन अब चर्चा नारों और विरोध की सीमा से निकल सैद्धांतिक स्तर पर पहुंच गई है। फासीवादी ताकतें इस मोर्चे पर हमेशा मुंह की खाती हैं और तर्क के बजाय गाली गलोच पर उतर आती हैं जिसके नमूने आए दिन टीवी चैनल पर होने वालि चर्चा में देखने को मिलते हैं यह और बात है कि वित्त मंत्री जेटली इस शोर शराबे को सरकार की जीत बताते हैं।
चर्चा का रुख अब उस विचारधारा की ओर मुड़ गया जिसके आधार पर यह हवाई महल निर्माण किया गया था। यह स्थिति उन इस्लामी विद्वानों को ठहर कर सोचने के लिए आमंत्रित करती है कि जो इस मकड़जाल के छल में गिरफ्तार हो चुके हैं और उसे बचाने के लिए सिर धड़ की बाजी लगाने पर तुले हुए हैं। उन्हें विचार करना चाहिए कि जो डाली खुद अपने बोझ से टूटने लगी है, जिस के कट्टर अनुयायी भी इस पर विश्वास नहीं रख पा रहे हैं वह भला हमारे किस काम आएगी? शब्दों को जब पवित्रता प्राप्त हो जाती है तो लोग उस पर कुछ कहना तो दूर सोचना भी बंद कर देते हैं लेकिन सुयोग से आजकल यह बातें चर्चा में आने लगी हैं।
शीतकालीन संसद सत्र में राजनाथ सिंह ने धर्मनिरपेक्षता को सब से आधिक शोषण किया जाने वाला  शब्द करार दिया तो उस पर बड़ा हंगामा हो गया और उसे संघ परिवार के गुप्त एजेंडे की ओर प्रगति करार दिया गया लेकिन बरखा दत्त और निखिल वागले जैसे लोगों के बारे मैं तो यह बात नहीं कही जा सकती इसलिए मुस्लिम बुद्धिजीवियों को खुले दिमाग के साथ इस पर विचार मंथन करके अपना रुख विश्वास के साथ व्यक्त करना चाहिए। यह उन का परम कर्तव्य है इस युग की बहुत बडी अवश्यक्ता भी है।

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