Tuesday 22 March 2016

गौ माता के रक्षक या भारत माता के भक्षक

क्या यह केवल संयोग है कि बिहार चुनाव से 14 दिन पहले पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में दादरी के स्थान पर गाय के नाम मोहम्मद अखलाक की हत्या कर दी गई और पश्चिम बंगाल में चुनाव से 16 दिन पहले लातेहार में गौ रक्षा समिति के लोगों ने मोहम्मद मजलूम और इनायतुल्लाह का क़त्ल करके शव पेड़ से लटका दिया। दोनों त्रासदियों के बाद कई दिनों तक केंद्रीय भाजपा सरकार के मुख पर ताला पड़ा रहा। झारखंड के मामले में तो पहले दो दिनों तक किसी राजनीतिक दल के नेता की हिम्मत नहीं हुई कि वह मरनेवालों के परिजनों को सांत्वना दे। राहुल जी दो बार हैदराबाद तो हो आए मगर लातेहार न जा सके। गुलाम नबी आजाद ने एक पत्र लिख कर चुप्पी साध ली। मुसलमानों के मसीहा समझे जाने वाले लालू और नीतीश तो दूर ममता बनर्जी और येचुरी तक कमाल उदासीनता का प्रदर्शन करते रहे और भारत माता की जय के खिलाफ गर्दन कटाना वालों का भी कोई बयान सामने नहीं आया। जेएनयू के मामले गला फाड़ फाड़ कर बोलने वालों को क्यों सांप सूंघ गया, जबकि इस बार तो मामला गौमांस का भी नहीं बल्कि बैलों व्यापार का था।
हमारे देश में सारा हंगामा राजनीतिक हित के मद्देनजर होता है और चुप्पी भी इसी उद्देश्य से साधी जाती है। गैर भाजपा दलों का गला शायद इस डर ने घोंट दिया कि कहीं इस त्रासदी का लाभ उठाकर भाजपा पश्चिम बंगाल में मैदान न मार ले। दो दिनों तक मीडिया में गूंजने के बाद यह घटना राजनीतिज्ञों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हुई। मजबूर हो कर एक एक करके लोगों ने बोलना शुरू किया। इसके बावजूद सीताराम येचुरी के अलावा जिन्हों ने दो वाक्यों का टविट करके निंदा की किसी पार्टी के प्रमुख ने अपनी जुबान नहीं खोली। हर किसी ने अपने प्रवक्ता के कंधे पर बंदूक रखकर मगरमच्छ के आंसू बहाने को काफी समझा। इन सारे बयानों पर नजर डालने से एक बात साफ नजर आती है कि भाजपा को सरकार को तो सब ने दोषी ठहराया और जी भर के लानत मलामत भी की लेकिन म्रतकों के परिजनों से किसी ने सहानुभूति व्यक्त नहीं की। हत्यारों को सजा देने की मांग तो दूर किसी ने उनकी ऐसी निंदा भी नहीं की जैसी कि की जानी चाहिये थी।
पीड़ितों के घर सिर्फ कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और झारखंड विकास मोर्चा (जनतांत्रिक) के नेता पहुंचे। बाबूलाल मरांडी (जो भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री भी रहे हैं) ने दोनो परिवारों के लिए प्रति 50 हजार की सहायता की घोषणा की। मरांडी ने बताया दोनों पर घर चलाने की जिम्मेदारी थी। 35 वर्षीय मजलूम के घर में 8 लोग हैं और 15 वर्षीय इनायतुल्लाह के पिता विकलांग हैं। बाबूलाल मरांडी के इस कदम को राजनीतिक संधीसाधक समझने का कोई कारण नहीं है इसलिए यह बात स्वीकार करनी पड़ती है कि भाजपा से निकलने के बाद उन लोगों में भी मानवता जागती है लेकिन जब तक वह उसके अंदर रहते हैं उम्मीद की कोई किरण नहीं फूटती। इस लिए प्रधानमंत्री को चाहिए कि सूफीवाद की शांति के संदेश से सारे जग को प्रकाशमय करने से पहले खुद अपने घर को इस से रौशन करों। वर्तमान में संघियों के ह्रदय से अधिक अंधेरी कहीं और नहीं है।
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सुखदेव भगत ने दिवंगतों के घर वालों से मुलाकात के बाद भाजपा को खूब बुरा भला कहा और इस त्रासदी की विस्तृत रिपोर्ट बनवा कर अपनी पार्टी के केंद्रीय नेताओं, राज्य के मुख्य सचिव और डीजीपी को रवाना करने का संकल्प किया। जाहिर है वे सब लोग जानते हैं कि यह सब किस का किया धरा है और क्यों? इसलिए वह रिपोर्ट कूड़ेदान की भेंट हो जाएगी। भगत ने राज्य सरकार से मुआवजा और मृतक की पत्नी के लिए राशन की दुकान बनवा कर देने का मांग की ताकि वह अपना घर चला सके। भगत ने शायद मुख्यमंत्री रघोबर दास का वक्तव्य नहीं पढ़ा वरना यह मांग न करते।
रघोबर दास को जब इस निर्मम हत्या की सूचना मिली तो उन्हें मृतकों सहानुभूति नहीं हुई बल्कि उन्हें याद आया कि झारखंड में भी उत्तराखंड के समान पशुओं को अन्य राज्य में ले जाने पर प्रतिबंध है इसलिए यह तस्करी का मामला हो सकता है। काश कि मुख्यमंत्री यह भी बता देते कि इस कानून में तस्कर की सजा खुलेआम फांसी है और इस सजा को लागू करने की ठेका हम ने गवरक्षा समिति को दे रखा है। जिस भगवा परिवार के रंगरूट ऐसी क्रूरता का प्रदर्शन करें और नेता उस का औचित्य प्रदान करें तो उन्हें गुलाम नबी आजाद से नाराज होने के बजाए उन को धन्यवाद देना चाहिए कि आजाद ने आरएसएस को आईएसएस के समान घोषित किया।
 इस परिस्थिति में लंबी रहस्यमय चुप्पी के बाद इस तरह के बयान दे कर भाजपा हिंदू आतंकवादियों को यह संदेश देती है कि तुम जो जी में आए करो हमारे होते तुम्हारे बाल बांका नहीं होगा इसलिए कि अनूप भरता राय जैसे पुलिस अधिकारी हमारे कब्जे में हैं। इस मामले में पांच लोगों को गिरफ्तार किया गया है और तीन आरोपी फरार हैं। एक गिरफ्तार और दूसरे भागोडे आरोपी का संबंध गौ रक्षा समिति से है। गिरफ्तार मिथिलेश प्रसाद साहू के चाचा दिलीप कुमार के अनुसार वह स्थानीय बजरंग दल का मुखिया है। मृतकों के परिजनों ने बताया कि हर साल बालूनाथ गांव में जहां यह हत्या हुई गौ कथा का आयोजन करके घ्रणा फैलाने का काम किया जाता है।
राजनीतिक दलों के दो मुख्य समस्याएं होती हैं। चुनाव में किसी तरह सफल हो जाना और सत्ता प्राप्ति के बाद अपने समर्थकों को खुश रखना। इस समस्या का सरल समाधान तो यह है कि राष्ट्रीय संसाधनों को जनता के कल्याण पर खर्च किया जाए जिससे अपने पराए सब खुश हो जाएं और जनता में पैठ बढ़े लेकिन ऐसा करने में निजी हित और उन निवेशकों का लाभ आड़े आ जाता है जिनके सहयोग से चुनाव लड़ा जाता है। भाजपा के पास इसका दूसरा हल यह है कि ठोस काम करने के बजाय अपने समर्थकों के अंदर सांप्रदायिक भावनाओं को बढ़ावा दो और कारणवश जब वह दंगा कर बैठें तो उन्हें सुरक्षा प्रदान करके खुश कर दो। भाजपा ने हत्यारों के साथ नरमी कर के खुद को उनका मसीहा तो साबित कर दिया है, लेकिन इसकी कीमत मुसलमानों से वसुल की। इसका सबूत सांप्रदायिक दंगों के आँकड़े हैं। पूर्व मुख्यमंत्री मरांडी के अनुसार झारखंड में 2014 के अंदर सांप्रदायिक दंगों की संख्या 15 थी जो 2015 में वह  बढ़कर 55 हो गई। क्या इसी का नाम सबका साथ और सबका विकास है।
फासीवादी दल तो ऐसे अवसरों पर इसलिए चुप्पी साध लेते हैं कि हिन्दू बहुमत खुश रहे मगर  तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों के मुख पर इसलिए ताला पड़ जाता है कि कहीं उनकी निंदा से हिन्दू बहुमत नाराज न हो जाए। इस प्रकार अनेक मतभेद के बावजूद लोकतंत्र में सारी राजनीतिक पार्टियां अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ अन्याय करने वालों के समर्थक व सहायक बन जाती हैं। कांग्रेस ने भी आजकल हिंदुओं को खुश करने की खातिर भगवा वस्त्र धारण कर लिया है।
जेएनयू में उसने पहले तो प्रदर्शनकारियों का खुल कर समर्थन किया मगर बाद में उसे नारा न लगाने वालों तक सीमित कर दिया। महाराष्ट्र में एम आई एम के विधायक के निलंबन पर कांग्रेस ने भाजपा से अधिक देश भक्ति का प्रदर्शन किया। मध्य प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस के तिवारी जी ने भारत माता की जय का समर्थन करके भाजपा वालों को चौंका दिया। गुजरात में गाय को राष्ट्र माता बनाने के लिए प्रदर्शन करने वाले एक युवक ने आत्महत्या कर ली उसके समर्थन में भाजपा के बजाय कांग्रेसियों ने विधानसभा में नारे लगाए। वाघेला ने घोषणा किया कि अगर भाजपा पहल करे तो कांग्रेस को वह अपने साथ पाएगी। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि भारत माता के भक्तों में उसकी अत्याचार पीडित बच्चों की खबर लेने वाला कोई नहीं है और बजरंग दल के आतंकवादी तो भारत माता की संतान को गौमाता के चरणों में बलिदान करने पर तुले हुए हैं।
 झारखंड का लातेहार जिला नक्सल बारी आंदोलन से प्रभावित है। पिछले महीने माओवादियों ने जिले के सदर थाने में नीवाड़ी पंचायत कार्यालय को विस्फोट से उड़ा दिया। इस धमाके से पूरा भवन ध्वस्त हो गया और सारे उपकरण बर्बाद हो गए। इसके बाद उन लोगों ने दो मोबाइल टॉवरस को भी आग लगा दी। विरोध प्रर्दशन सप्ताह के अंतर्गत प्रदर्शन के दौरान नक्सलियों ने नारेबाजी करने के बाद इस की जिम्मेदारी भी स्वीकार की लेकिन उनसे लोहा लेने के लिए कोई देशभक्त भारत माता की रक्षा करने के लिए अपने बिल से बाहर नहीं आया। निहत्तों पर घात लगाकर हल्ला करने वालों से किसी वीरता की अपेक्षा व्यर्थ है। इस घटना से एक दिन पहले गृहमंत्री ने माओवादियों से अपील की थी यदि वह हिंसा का रास्ता छोड़ दें तो सरकार उनसे बातचीत के लिए तैयार है। अगर वह अपना रास्ता बदल दें और फिर रोज़ी रोजगार के लिए पशुओं का व्यापार शुरू कर दें तो क्या गृहमंत्री गारंटी देंगे कि उनके संघ परीवार वाले उनकी हत्या कर के शव पेड़ से नहीं लटकाएँगे। राजनाथ अपराधियों को सज़ा दिलाना तो दूर झूठे मुंह कम से कम इस क्रूरता की निंदा ही कर देंगे। माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई पर प्रशासन की प्रशंसा करने वाले गृहमंत्री को क्या कभी मज़लूम और इनायत के हत्यारों को सजा दिलवाने की भी खुशी प्राप्त होगी?
एक साल से इस क्षेत्र में पशु व्यापारियों को डराया धमकाया जा रहा है। पिछले 6 महीने में 5 बार धमकियां मिल चुकी हैं। इसके बावजूद पुलिस अधिकारी अनूप भरता राय कहते हैं पिछले एक साल में किसी संगठन के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज नहीं हुई। शिकायत तो उसी समय दर्ज होगा जब इसके लिए शांतिपूर्ण माहौल हो ताकि लोग निडर होकर आगे आ सकें और अगर इसके बावजूद पुलिस शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दे तो बेचारे गांव वाले क्या कर सकते हैं? एक सवाल यह भी है कि क्या पुलिस विभाग शिकायत दर्ज होने के बाद ही हरकत में आता है? जो निर्दोष मुसलमान वर्षों तक जेल में रहने के बाद बाइज़्ज़त बरी हो जाते हैं उनके खिलाफ शिकायत कौन दर्ज करवाता है? इन निर्दोष लोगों का नाम तो किसी शिकायत के बिना ही जैश और लश्कर से जोड़ दिया जाता है और उनका मीडिया ट्रायल शुरू हो जाता है।
लातेहार जिले में जिस दिन यह घटना घटी उस दिन मानवाधिकार आयोग ने मानवाधिकार के लिए काम करने वाले प्रह्लाद प्रसाद नामक एक कार्यकरता की मौत पर झारखंड के  मुख्य सचिव, जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधिक्षक को दो सप्ताह के भीतर कार्रवाई के निर्देश दिए। प्रसाद टोरी रेलवे साईडिंग निर्माण के कारण होने वाले पर्यावरणीय की क्षति का विरोध कर रहे थे। इस हत्या की किसी ने शिकायत नहीं दर्ज कराई बल्कि अखबार में प्रकाशित समाचार के मद्देनजर आयोग ने यह सराहनीय कदम उठाया। आश्चर्य इस पर है कि एक अज्ञात खबर की ओर तो आयोग ने ध्यान आकर्षित किया लेकिन मीडिया में भूकंप उत्पन्न करने वाली खबर आयोग की नजरों से ओझल रही। संभवत: यह प्रहलाद और मजलूम के नाम में अंतर के कारण हो। इस प्रकार के भेदभाव की अपेक्षा संघ परिवार से तो की जाती है लेकिन मानवाधिकार आयोग को यह व्यवहार शोभा नहीं देता।
प्रशासन इसे चोरी डकैती की वारदात बताकर रफा-दफा करना चाहता है। इसमें शक नहीं कि चोर और डाकेत भी कभी कभार अपने शिकार को मारने पर मजबूर हो जाते हैं लेकिन उनके शव पेड़ से लटकाने की परेशानी कोई नहीं उठाता। इसलिए कि ऐसा करने में उन्हें कोई फायदा तो नहीं है हाँ पकड़े जाने का खतरा ज़रूर होता है इसलिए वह घटनास्थल से फौरन भागने का प्रयत्न करते हैं। यह पशुता तो भगवा साम्प्रदायिकता का पहचान चिन्ह है। कांग्रेसी प्रतिनिधिमंडल में शामिल शमशेर आलम ने घटनास्थल का दौरा करने के बाद इस अनुमान की पुष्टि करते हुए आरोप लगाया कि यह हत्या अचानक नहीं हुई बल्कि सुनियोजित षडयंत्र का परिणाम था। लूटने की नीयत से हमला करने वाले मार तो  सकते हैं लेकिन शव को पेड़ पर नहीं लटका सकते। उन के अनुसार पुलिस मामले को दबा रही है।
पशु चोरों की ऐसी क्रूरता के पशचात या तो उस क्षेत्र में यह व्यापार ठप हो जायेगा या व्यापारी अपना रास्ता बदल देंगे। दोनों स्थिती में चोरों का नुकसान है। अगर व्यापार ही ठप्प हो जाए तो लूटा किसे जाएगा? तथा व्यापारी रासता बदल दें तो किसी दूसरे के क्षेत्रों में जाकर डाका डालना भी आसान काम नहीं है। चोरों का भी नेताओं की भांति अपना अपना प्रभाव क्षेत्र होता है। वह किसी गैर को अपने क्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देते और अगर कोई प्रयास करे तो बेतकान भौंकने लगते हैं। इस खेल में मोदी जी जैसा कोई शामिल हो जाए तो बात और है कि मुरली जी को वाराणसी से उठाकर कानपुर में फेंक दिया और खुद काशी विश्वनाथ मंदिर के पुरोहित बन बैठे।
राजनीतिक दलों के बहुसंख्यकों का तुष्टिकरण चुनाव में कभी उनके काम आता है और कभी नहीं भी आता लेकिन ये लोग हिंदुओं को खुश करने में किस हद तक सफल हो रहे हैं इसका अनुमान गुजरात से आने वाले आंकड़ों से लगाया जा सकता है, जहां पिछले 14 साल से भाजपा सत्तारूढ़ है। इस राज्य में धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर धर्म परिवर्तन में बाधा खड़ी करने के लिए धर्म परिवर्तन करने वालों को सरकार से अनुमति लेनी पडती है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार धर्म बदलने की खातिर विनंती करने वालों में सबसे अधिक 1753 हिंदू हैं तो 57 मुसलमान, 42 ईसाई और 4 पारसी। इन सरकारी आंकड़ों के विपरीत गुजरात के दलित संगठन के अध्यक्ष जयंत मानकनिया के अनुसार धर्म परिवर्तन के इच्छुक हिंदुओं की संख्या 50 हजार है और कुछ साल पहले राजकोट में एक लाख हिन्दुओं ने बौद्ध मत स्वीकार किया था। विश्व हिंदू परिषद के बडबोले नेता प्रवीण तोगड़िया की नाक के नीचे अगर हिन्दूत्वा की प्रयोगशाला समझे जाने वाले गुजरात की यह स्थिति है तो अन्य स्थानों पर इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। गौ माता के रक्षक या राक्षसों को इन तथ्यों से सीख लेनी चाहिए।

No comments:

Post a Comment