Tuesday 1 March 2016

धन की और मन की बात

'कभी खुशी कभी गम' के निर्माता करण जौहर ने जब कहा कि इस देश में केवल प्रधानमंत्री ही मन की बात कह सकता है तो अरविंद केजरीवाल ने तुरंत 'दोस्ताना' निभाते हुए उन का समर्थन कर दिया। ऐसे में मोदी जी ने अमित शाह से आवश्य कहा होगा 'कुछ कुछ होता है' और शाह जी ने उत्तर दिया होगा 'ऐ दिल है मुश्किल' जीना यहाँ ज़रा हट के जरा बच के ये है दिल्ली मेरी जाँ। इस देश में मन की बात कहने का अधिकार जिस किसी को भी प्राप्त हो लेकिन इस पर कान ना धरने का हक़ प्रत्येक व्यक्ति के पास है और लोग प्रधानमंत्री की हद तक इस का उपयोग करते हैं। समय के साथ मोदी जी को यह एहसास हो गया है कि अब लोग महीने में एक बार भी उनके आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले भाषण तक को सुनना नहीं चाहते इसलिए इस बार वे अपने संग सचिन तेंदुलकर और विश्वनाथ आनंद को ले कर आए यह सोच कर के हो सकता है उनके कारण कुछ लोग मन की बात सुन लें। परीक्षा का मौसम शुरू हुआ चाहता है इसलिए मोदी जी ने अपने भाषण के अंत में कहा 'कल मेरी परीक्षा है। कल जब बजट पेश होगा तो 125 करोड लोग मेरी परीक्षा लेंगे और मैं बहुत आश्वस्त हूँ।
सचिन तेंदुलकर अगर किसी मैच से पहले यह दावा करे तो लोग अगले दिन खेल का स्कोरबोर्ड देखेंगे? इस लिए आईेए देखते हैं दूसरे दिन शेयर बाजार में क्या हुआ? मैच बहुत रोमांचक था पहले तो बिहार की तरह 120 अंक का उछाल आया और इसके बाद वह गिरना शुरू हुआ तो 660 अंक नीचे पहुंच गया लेकिन फिर संभलना शुरू हुआ और जब खेल की अंतिम सीटी बजी तो 152 रन से मोदी जी यह मैच हार गए। सेंसेक्स तो खैर टेस्ट मैच था लेकिन नीफटी जो फिफ्टी फिफ्टी जैसा है उसमें भी मोदी जी को 43 रनों से पराजित होना पडा। दरअसल मोदी जी की समस्या यह है कि वे राह चलती मुसीबत को विदेशी प्रमुख समझकर गले लगा लेते हैं। बजट बनाकर पेश करना वित्त मंत्री का काम है अगर मोदी जी इस बला से न लिपटते तो लोग जेटली की विफलता का मातम करते लेकिन भला हो मोदी जी की जल्दबाजी का जो उस ने वित्त मंत्री को अपमानित होने से बचा लिया।
 भोलेनाथ के भक्त मोदी जी खुद भी बहुत भोले हैं वह भी (भारत की भोली भाली जनता की तरह) अपने फायदे और नुक्सान के बीच अंतर नहीं कर पाते हैं अन्यथा यह कैसे संभव था कि स्मृति ईरानी के अभिनय से खुश होकर वह उस भाषण पर सत्यमेव मेव जयते की मुहर लगा देते जो झूट और मक्कारी का पुलिंदा था। वह तो 'झूठ मेव मरते' कहलाने का पात्र भी नहीं था। अब हाल यह है कि लोग स्मृति जी के बजाय मोदी जी की आलोचना कर रहे हैं। मोदी जी को स्मृति ईरानी की नाटक बाजी इसलिए पसंद आई कि वह खुद भी नौटंकी करते रहते हैं। दीर्घ काल के बाद पिछले दिनों प्रधानमंत्री को जब मुंबई का विचार आया तो उनकी संतुष्टी के लिए मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस ने चौपाटी पर '' मेक इन इंडिया 'का तमाशा लगा दिया। इस के उद्घाटन समारोह में भाग लेकर प्रधानमंत्री लौटे तो पंडाल में आग लग गई।
मेक इन इंडिया की आग में तेल डालने का काम प्रधानमंत्री की पत्नी श्रीमती जसोदा बेन ने उसी दिन मुंबई में प्रदर्शन करके किया। एक स्थानीय गैर सरकारी संगठन के बैनर तले विरोध प्रदर्शन में श्रीमती जसोदा बेन ने बरसात के मौसम में झुग्गियों को ध्वस्त किए जाने के खिलाफ भूख हड़ताल की जबकि प्रधानमंत्री धनवान लोगों के साथ महाभोज कर रहे थे। इन समारोहों के भीतर आखिर यह विरोधाभास क्यों है कि भरी बरसात में अपने देशवासियों की छत को बचाने के लिए प्रधानमंत्री की पत्नी को सड़क पर आकर घोषणा करनी पड़ती है मगर देशभक्त प्रधानमंत्री उनकी ओर कान धरने के बजाय विदेशी पूंजीपतियों लिए लाल कालीन बिछा कर एयर इंडिया के महाराजा की तरह हाथ जोड़ कर मुस्कुराते हैं।
मेक इन इंडिया के स्थल से अमिताभ बच्चन और आमिर खान को सही सलामत निकालने के बाद बहुत जलद आग पर काबू पा लिया गया लेकिन चौपाटी से करीब ही स्थित मुंबई शेयर बाजार में जो आग लगी हुई थी उसे देखकर कौन मूर्ख निवेशक इधर फटकने की मूर्खता करेगा। इन लपटों को तो बजट की वर्षा भी बुझा नहीं सकी। शेयर बाज़ार जल रहा है, हर रोज़ करोडों की पूंजी धूल में मिल जाती है। बजट वाले दिन वह इस साल के सबसे कम स्तर पर पहुंच गया इसके बावजूद समकालीन नीरो अर्थात अरुण जेटली चैन की बंसी बजा रहा है। यूपीए के काल में प्रधानमंत्री खुद अर्थशास्त्री थे इसके बावजूद उन्होंने ने पी चन्दम्बरम और प्रणब मुखर्जी जैसे विशेषज्ञों को वित्त मंत्री बनाया। अब हाल यह है कि चाय वाले प्रधानमंत्री का वित्त मंत्री दिल्ली क्रिकेट एसोसीएशियन में नोट खेलता है। ऐसे में अगर अर्थव्यवस्था म्रत्यु शय्या पर दम तोड़ने लगे तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है?
अरुण जेटली एक विशेषज्ञ वकील ज़रूर हैं लेकिन आर्थिक मामलों का उन्हें कोई अनुभव नहीं है इसके बावजूद आज्ञाकारी होने के कारण वह वित्त मंत्री बना दिए गए। इसमें शक नहीं कि अरुण जेटली ने ललित मोदी जैसे घोटालेबाज़ों की वकालत और नरेंद्र मोदी जैसे क्रूर शासकों की चापलूसी करके अपने निजी खजाने को समृद्ध किया है परंतु अपनी जेब भरने और देश की अर्थव्यवस्था संभालने में जमीन आसमान का अंतर है। होना तो यह चाहिए था कि कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट का लाभ उठा कर जन कल्याण की ओर ध्यान दिया जाता लेकिन ऐसा करने के लिए जो गरीब संवेदक मानसिकता आवश्यक है उस से सरकार वंचित है। केंद्र सरकार को फिलहाल अपने मतदाताओं के बजाय उन पूंजीपतियों का अरबों-खरबों का ऋण सता रहा है जिन्होंने चंदा देकर पिछले चुनाव में मोदी जी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया था। नमक का हक़ अदा करने के लिये तत्कालीन सरकार पूंजीपतियों का कर्ज माफ कर के आगामी चुनाव में अपनी सहायता सुनिश्चित बना रही है। वह तो खैर सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगाकर ऋण चुराने वालों की सूची मांग ली वरना कब का यह चोर चोर मौसेरे भाई एक दूसरे के वारे न्यारे कर चुके होते।
राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ समझे जाने वाले बैंक घाटे के संकट में हैं। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने दिसम्बर के अंत में 67 प्रतिशत घाटे का यानी 1260 करोड के नुकसान की घोषणा की। उसने यह भी बताया कि 20700 करोड ऋण का वापस आना मुश्किल है। पंजाब नेशनल बैंक, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया और अन्य बैंक भी इस तरह के घाटे से त्रस्त हैं। मामला इतना गंभीर है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा और उसने रिजर्व बैंक से उन कंपनियों की सूची तलब कर ली जिन पर 500 करोड से अधिक का कर्ज है और उन्हें सुविधा दी जा रही है। न्यायालय को इस पर चिंता है कि बिना किसी स्पष्ट मार्गदर्शन और वापसी की गारंटी के किस आधार पर सार्वजनिक बैंक और आर्थिक संस्थान राष्ट्रीय खजाने पर यह बोझ डाल रहे हैं? सरकार के आर्थिक प्रदर्शन की खरी कसौटी अगले साल के लिए आकर्षक बजट पेश कर देना नहीं बल्कि पिछले बजट पर अमल करना है इसलिए आवश्यक है कि जेटली जी के पिछले बजट की समीक्षा की जाए?
पिछले साल के बजट पर टिप्पणी करते हुए पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम ने कहा था कि इस बजट का अधिक झुकाव उद्योग जगत और आय कर दाता वर्ग की ओर है जबकि देश की बड़ी आबादी का हित इस बजट से गायब हैं। यह गरीब जनता न उद्योग जगत से जुड़ी है और न आयकर चुकाती है। जन कल्याण के उन क्षेत्रों में बड़ी क्रूर से कटौती की गई है जो सरकारी सहायता की अपेक्षा करते हैं। उदाहरण के लिए पिछड़ों के लिए 2014 में 43208 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे जो घटकर 30851 करोड़ रुपये हो गए। अनुसूचित जनजातियों के लिए 2014 में 26714 करोड का प्रावधान था जो घटकर 19980 करोड हो गया। बाल कल्याण बजट 18691 से घटाकर केवल 8754 करोड़ रुपये कर दिया गया। राष्ट्रीय सामाजिक सहायता, छोटे और मध्यम उद्योगों, अल्पसंख्यकों के बहु सैकटोरल विकास कार्यक्रम, पर्यावरण और वन विभाग और ग्रामीण सड़क योजना की राशि भी घटा दी गई। इसके विपरीत सरकार ने औद्योगिक टैक्स में पहले ही साल एक फीसदी यानी लगभग 20 हजार करोड़ रुपये की राहत दी और हर साल यानी 5 वर्षों तक जुमला एक लाख करोड की सुविधा देने जा रही है। इसलिए सरकार का यह दावा कि विकास होगा तो उस का लाभ सब को मिलेगा बाउले का सपना बन गया।
इस साल की अंतिम आँकड़े तो मार्च के अंत में आएंगे लेकिन दिसंबर तक यानी तीन चौथाई साल का विशलेषण भी कम रोचक नहीं है। होना तो यह चाहिए था कि सारे मंत्रालयों में लगभग 75 प्रतिशत खर्च होता लेकिन तथ्य यह है कि 10 क्षेत्रों नें आधा भी खर्च नहीं किया और 7 ने 90 प्रतिशत से अधिक खर्च कर डाला जबकि एक चौथाई साल बाकी था। विवरण से पता चलता है कि मैक इन इंडिया की दृष्टि से तकनीकी क्षमता बढ़ाने के लिये स्थापित मंत्रालय ने केवल 33 प्रतिशत खर्च किए। स्मार्ट सिटी बनाने वाले क्षेत्र ने केवल 18 प्रतिशत खर्च किए जबकि इसके तहत शहरों की गरीबी को दूर करने का विभाग भी आता है। खाद्य आपुर्ति के लाख शोर शराबे के बावजूद खाद्य मंत्रालय ने केवल 44 प्रतिशत खर्च किए। अल्पसंख्यकों के क्षेत्र को पहले ही राशि कम आवंटित की गई और इसमें भी 9 महीने के अंदर ही 38 प्रतिशत का इस्तेमाल हुआ। बड़े उद्योगों और रक्षा मामलों जैसी मंत्रालयों में 75 के बजाय 25 प्रतिशत खर्च हुआ।
इसके विपरीत कोयला, बिजली और खनिज तेल एवं गैस क्षेत्र ने 90 प्रतिशत से अधिक खर्च कर दिए। जल संचालन मंत्रालय, उड्डयन, पंचायत राज और महिलाओं और बाल कल्याण विभाग खर्चा तो 100 से अधिक 137 प्रतिशत तक पहुँच चुका था अब सवाल यह उठता है कि आखिर के 3 महीने में वह अपना काम कैसे चलाते रहे? पिछले साल बजट भाषण की शुरुआत में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कटाक्ष करते हुए कहा था ''विरासत में हमें भावनात्मक पीड़ा और निराशा मिली है '' अब यह वाक्यांश खुद उन पर चिपक गया है, जबकि आगे 3 साल बाकी हैं। निर्यात की दर एक तिहाई हो गई है और रुपया प्रतिदिन गिरता जा रहा है ऐसे में जब ये लोग अपना बोरिया बिस्तर गोल कर के जाएंगे तो राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का क्या हाल होगा इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। मनमोहन सिंह ने तो अपने कार्यकाल में सेंसेक्स को 8 हजार से 24 हजार तक उठाया था अब यह उसे कहाँ तक गिरा कर जाएंगे यह कोई नहीं जानता?
इस अवसर पर प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह अपने मन की बात पर खुद कान धरें। जैसे उन्होंने कहा था '' परीक्षा केवल आंकड़ों का खेल नहीं है बल्कि उसे उच्च लक्ष्यों से जोड़ना चाहिए।'' इसी प्रकार बजट भी मात्र आंकडों का करिश्मा नहीं है उसे भी सार्वजनिक कल्याण से जुड़ा होना चाहिये। प्रधानमंत्री ने अनुशासन का जो प्रवचन दिया है उस पर एबीवीपी वाले अगर कार्यरत हो जाएं तो शिक्षा संस्थानों में शांति स्थापित हो जाएगी। प्रधानमंत्री ने छात्रों को अच्छी तरह सोने की सलाह भी दी लेकिन साथ ही यह भी कहा परीक्षा कक्ष में न सोएँ और कम नम्बर आने पर उन्हें दोषी ना ठहराएं। अगर कोई छात्र वहां मौजूद होता तो कहता साहब परीक्षा स्थल कोई संसद तो है नहीं जहां स्मृति ईरानी की घनगरज के दौरान भी सांसद घोड़े बेचकर सोते हैं। प्रधानमंत्री का '' अपना लक्ष्य तय करके बिना किसी दबाव के खुले मन से उसे प्राप्त कर अपने आप से आगे जाने की कोशिश '' करने की नसीहत शब्दाडंबर के अलावा कुछ और नहीं है इसलिए इसे नजरअंदाज कर देना ही बेहतर है।
इस बार मन की बात के अन्य प्रतिभागियों ने तो जैसे प्रधानमंत्री को ही संबोधित किया। विश्वनाथ आनंद की सलाह कि '' अपना मन शांत रखें। अति आत्मविश्वास या उदासीनता का शिकार ना हों'' शुद्ध मोदी जी के लिए था। सी एन आर राव का उपदेश भी विशेष रूप प्रधानमंत्री के लिए था जब उन्होंने छात्रों से कहा '' परीक्षा विचलित करती है लेकिन परेशान न हों बल्कि जो कुछ बहतर हो सकता है करें। देश में बहुत अवसर और संधी है। '' यानी कल प्रधानमंत्री की कुर्सी चली भी जाए तो चाय की दुकान तो मौजूद है। राव ने यह भी कहा कि '' आप जीवन में क्या करना चाहते हैं यह तय करने के बाद उसे नहीं छोड़ें। मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं। '' मोदी जी तो पहले ही इस सलाह का पालन कर चुके हैं लेकिन जब देश की जनता उनसे छुटकारा पाने पर तुल जाएगी तो राव साहब की शुभकामनाएं किसी काम नहीं आएंगी। उस स्थिति में तो मोदी जी को मोरारी बापू के मन की बात में दिए जाने वाले प्रवचन का पालन करना होगा । मोरारी बापू ने अपने मन की बात इन शब्दों में व्यक्त कि '' यह जरूरी नहीं है कि हर कोई सफल हो इस लिए विफलता के साथ जीना सीखो। ' मोदी जी अगर बापू की यह नसीहत गाँठ में बाँध लें तो आगे चलकर वह उनके बहुत काम आएगी लेकिन आडवाणी जी को तुरंत उसका अनुसरण करना चाहिए।

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