Sunday 1 May 2016

पहली मई: महाराष्ट्र के गठन या विभाजन का दिन

विश्व स्तर पर एक मई श्रमिक दिवस है। एक युग में जब मुंबई के अंदर ट्रेड यूनियन का जोर था तो मजदूरों का यह दिन बड़े जोर शोर से मनाया जाता था लेकिन अब वह अतीत का एक भयानक सपना बन गया है। देश में जब भाषाई आधार पर राज्यों के गठन का काम शुरू हुआ तो महाराष्ट्र नाम के राज्य का अस्तित्व नहीं था। केंद्रीय प्रांत यानी सेंट्रल प्रोविंस से 8, निजाम राज्य से 5, मुंबई राज्य से गोवा और दमन के बीच का क्षेत्र और कुछ अन्य स्वतंत्र राजवाड़ों को जोड़कर मराठी भाषा बोलने वालों का एक प्रांत बनाया गया, लेकिन मुंबई को लेकर कर विवाद उतपन्न हो गया।
पंडित नेहरू चाहते थे कि मुंबई चूंकि देश की आर्थिक राजधानी है इसलिए उसे महाराष्ट्र में शामिल करने के बजाय केंद्र के तहत युनियन टेरिटरी में रखा जाए। संयोग से नेहरू जी की राय से उनके वित्त मंत्री सीडी देशमुख ने असहमति जताई। वह न केवल अग्रणी अर्थ विशेषज्ञ थे बल्कि अंग्रेजों के जमाने में रिजर्व बैंक के गवर्नर भी रह चुके थे। देशमुख साहब का विरोध इतना तीव्र था कि उन्होंने अपने महत्व पूर्ण पद से त्यागपत्र दे दिया परंतु देशमुख का इस्तीफा भी मुंबई को महाराष्ट्र का भाग नहीं बना सका और मुंबई के निवासियों को 1956 से आगे चार वर्षों तक एक जबरदस्त संघर्ष करना पड़ा जिसमें 100 से अधिक लोगों ने अपने प्राण बलिदान किये और आख़िर 1 मई 1960 को पंडित जी ने मुम्बई सहित महाराष्ट्र का गठन करके सत्ता की चाबी यशवंत राव चव्हाण को सौंप दी। वहीं से महाराष्ट्र की प्रथा का आरंभ हुआ।
अब तो यह हाल है कि मुंबई में न कपड़ा मिलें हैं और न इसमें काम करने वाले मजदूर। ट्रेड यूनियन के साथ साथ जनता ने श्रमिक दिन को भी भुला दिया है लेकिन इसमें शक नहीं कि संयुक्त महाराष्ट्र की स्थापना के आन्दोलन में मजदूरों, उनके श्रमिक संघों और उसके नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और उन्हीं के बलिदान से मुंबई शहर महाराष्ट्र की राजधानी बना जहां अब मजदूरों का दिन नहीं केवल महाराष्ट्र दिवस मनाया जाता है। इस वर्ष यह दिन जिस पार्टी के नेतृत्व में मनाया गया उस संघ परिवार ने राज्य के गठन में कोई भूमिका नहीं निभाई।
संघ परिवार की स्थापना विदर्भ में हुई उसने नागपुर को अपना मुख्यालय बनाया और पुणे में सबसे आधिक ज़हर फैलाया लेकिन मुंबई की जनता वामपंथी दलों की समर्थक बनी रही। कांग्रेस ने शिवसेना की मदद से लाल झंडे को उतारा और भाजपा ने शिवसेना के साथ गठबंधन करके मुंबई पर कब्जा जमाया। यही कारण है कि भाजपा के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस और वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का संबंध नागपुर के ब्राह्मण समाज से है साथ ही वे दोनों महाराष्ट्र विभाजन के समर्थक हैं।
इस वर्ष जबकि मुंबई में मुख्यमंत्री फडनवीस ने महाराष्ट्र दिवस के सरकारी समारोह में बुलंद बाँग दावे किए उन के अपने कार्य क्षेत्र में विदर्भ राज्य परिषद ने हर जिले में भाजपा का घोषणा पत्र जलाया। इसलिए कि भाजपा ने संसदीय चुनाव से पूर्व विदर्भ को अलग करने का वादा किया था और वह अपने  वादे से मुकर गई है इसलिए परिषद भाजपा के खिलाफ हो गई है। पहली मई के दिन महाराष्ट्र के विभाजन की मांग मुख्यमंत्री और संघ परिवार दोनों के लिये लज्जास्पद है लेकिन वर्तमान राजनीति में लाज शर्म जैसी चीजें नहीं पाई जातीं।
दो साल पहले जब भाजपा को केंद्र में सफलता मिल गई तो विदर्भ विभाजन के समर्थकों का उत्साह बहुत बढ गया। इन बेचारों ने सोचा कि अब हमारे अच्छे दिन आने ही वाले हैं और जल्द ही हमें स्वतंत्र राजेय प्राप्त हो जाएगा। वर्ष 2014 में भी विदर्भ में पहली मई को जोर-शोर से स्वतंत्र विदर्भ दिवस मनाया गया और हर जिले के मुख्यालय ध्वज फहराया गया। भाजपा वाले इस में आगे आगे थे उन्होंने सार्वजनिक भावनाओं को खूब जी भरके शोषण किया और पांच महीने बाद विधानसभा चुनावों में पहली बार शिवसेना की मदद के बिना सबसे अधिक सीटों पर जीत दर्ज कराई लेकिन जब पूरे राज्य की सत्ता हाथ आ गई तो वे विदर्भ विभाजन का नारा भूल गए।
पिछले साल शीतकालीन सत्र से पहले जब अकाल और पानी जैसे मुद्दों में फडनवीस बुरी तरह घिर गए तो उन्होंने अपने खास आदमी अटॉर्नी जनरल श्री हरि आने के माध्यम से इस मांग को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया। यह विपक्ष और अपने सहयोगी शिवसेना को भ्रमित करने का षडयंत्र था ताकि सरकार की विफलताओं को छिपाया जा सके और जनवरी में होने वाले नगर पालिका के दूसरे चरण के चुनाव राज्य सरकार की अयोग्यता के असफलता से प्रभावित न हों लेकिन ऐसा नहीं संभव ना हो सका।
महाराष्ट्र में कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री को अंतिम मुगल कहा जाता था। पृथ्वीराज चव्हाण राजनीति की दुनिया में प्रशासन से होकर आए थे मगर उन की कार्य शैली नहीं बदली इसलिए वह शुरू से अंत तक सफल राजनीतिज्ञ नहीं बन सके। वैसे आज के समय जो राजनेता झूठ, धोखा, खोखले वादे, मक्कारी, बदमाशी और भ्रष्टाचार जैसेगिणों से लैस ना हो उस की विफलता सुनिश्चित होती है इसी लिए चौहान के आने और जाने पर किसी को अफसोस नहीं हुआ। चौहान का व्यक्तित्व आर्कषक नहीं था उनके भीतर निर्णय शक्ती का अभाव था और वह अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटना नहीं जानते थे फिर भी उन्हों ने जाते जाते ग्रामीण कल्याण के मद्देनजर सभी जिलों के मुख्यालय को नगर पंचायत में बदल दिया। इस तरह 100 से अधिक नई नगर पंचायतें अस्तित्व में आ गई। इन आधुनिक नगर पंचायतों में चुनाव प्रक्रिया जारी है और तीन चरणों के अंदर 91 स्थानों के परिणाम सामने आ चुके हैं।
एक ज़माने में मुख्यमंत्री फडनवीस कहा करते थे कि किसानों को ऋण किसी हालत में माफ नहीं होगा लेकिन अब उन्हें ग्रामीण क्षेत्र में फैलने वाले रोष का पता चल रहा है। तीसरे चरण के परिणाम से स्पष्ट हो गया कि भाजपा की हवा पूरी तरह उखड़ चुकी है और अब कांग्रेस के अलावा वामपंथी दलों को भी किसानों का समर्थन मिलने लगा है। महाराष्ट्र की राजनीति में सबसे बुरा हाल राष्ट्रवादी का है। इस पार्टी का पूर्व उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल जेल में चक्की पीस रहा है अजीत पवार के सिर पर भ्रष्ट्राचार की तलवार लटक रही है। इस जर्जर हालत के बावजूद नगर निगम चुनाव के परिणाम ने साबित कर दिया कि एनसीपी का हाल सत्तारूढ़ दल से बेहतर है। इस खुलासे से संघ परीवार की नींद उड़ गई होगी।
 तीसरे चरण के चुनाव में कुल मिलाकर यह हालत है कि 102 सीटों में से कांग्रेस को 21, भाजपा और शिवसेना दोनों में से प्रत्येक को 20, स्वतंत्र और स्थानीय दलों को 36 और भाजपा को केवल 5 हाँ 5 स्थानों पर सफलता मिली। इसकी तुलना अगर संसदीय चुनाव से की जाए तो यह संख्या 50 से अधिक होनी चाहिए थी। कल्याण डोम्बिवली, नई मुंबई, बदलापुर, अम्बरनाथ, वसई, विरार और कोल्हापुर में अपनी सारी ताकत झोंक देने के बावजूद अधिकांश क्षेत्रों में भाजपा खाता भी नहीं खोल सकी। यह वही क्षेत्र है जहां भाजपा को बड़ी सफलता मिली थी।
भारतीय जनता पार्टी पर यह मुसीबत अचानक नहीं आई बल्कि पिछले साल नवंबर से जबकि राज्य सरकार अपनी पहली वर्षगांठ मनाने की तैयारी में थी जिला नगर पंचायत के नतीजों ने रंग में भंग डाल रखा है। नगर निगम चुनाव का आरंभ देवेंद्र फडनवीस ने बड़ी चालाकी से अपने और आरएसएस के गढ़ नागपुर से किया लेकिन उन्हें वहां भी मुंह की खानी पड़ी। वैसे कांग्रेस और भाजपा बराबरी पर छुटे मगर कुछ क्षेत्रों के परिणाम चौंकाने वाले थे जैसे नागपूर जिले के हनगना तालुका में राकांपा ने 11 तो भाजपा ने सिर्फ 6 सीटों पर जीत दर्ज कराई। कारंजा में कांग्रेस ने 17 में से 15 सीटें जीत लीं और भाजपा 2 पर सिकुड गई। इसी तरह मोहादी में कांग्रेस ने 17 में 12 पर कब्जा कर लिया और भाजपा 3 पर सिमट गई। भगवावादियों की खुद अपने गढ में ऐसी दुर्गति बनेगी यह किसी ने नहीं सोचा था?
इस चुनाव के दो महीने बाद यानी आज से दो महीने पहले 19 नगर पंचायतों की 345 सीटों पर मुकाबला हुआ तो उस समय तक कांग्रेस की लोकप्रियता बढ चुकी थी। उसने 105 स्थानों पर जीत दर्ज कराई थी। एनसीपी भी 80 तक पहुंच गई थी लेकिन भाजपा को कांग्रेस की तुलना में आधे से भी कम यानी 39 पर संतोष करना पड़ा। 19 में से 9 स्थानों पर कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिल गया और बाकी 10 में किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला। इसके दो महीने बाद भाजपा कांग्रेस से एक चौथाई से भी कम सीटों पर सफल हो सकी मानो नवंबर में जो समानता थी वह फरवरी में आधे से कम और अप्रैल में एक चौथाई से नीचे पहुंच गई। इस तरह की फिसलन तो शायद ही किसी पार्टी के भाग्य में आई हो।
भाजपा के इस तेजी के साथ होने वाली बरबादी का सबसे अधिक ग़म हिंदुत्व समर्थक शिवसेना और सबसे ज्यादा खुशी कांग्रेस को होनी चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ बल्कि कांग्रेस और एनसीपी से कहीं अधिक प्रसन्नता शिवसेना के हिस्से में आई। इसकी एक वजह तो राजनीतिक है दूसरी मनोवैज्ञानिक। राजनीतिक रूप से हिन्दूतवावादी मतदाता भाजपा और शिवसेना के बीच हिचकोले खाता है इसलिए आम तौर पर भाजपा के लाभ में शिवसेना का नुक्सान होता है। इसके अलावा पिछले विधानसभा चुनाव से पहले जिस तरह स्वार्थ दिखाते हुए भाजपा ने ऐन वक्त पर सेना की पीठ में खंजर घोंपा तो उसे अफजल खान याद आ गया।
चुनाव के बाद भी अवसरवाद की चरम सीमा पर भाजपा ने एनसीपी के अप्रत्यक्ष सहयोग से विश्वास मत प्राप्त किया। अंतिम समय तक शिवसेना को साथ लेने में आनाकानी करती रही यहाँ तक कि जब सारे महत्वपूर्ण मंत्रालयों पर कब्जा हो गया तो बची खुची खुर्चन सेना के सामने डाल दी। इस दौरान सेना में फूट डाल कर उसके सदस्यों को अपने साथ लेने की नाकाम कोशिश भी की गई। उस अपमान को उद्धव ठाकरे कैसे भूल सकते हैं कि नवाज शरीफ को गले लगाने वाले प्रधानमंत्री ने उनसे बैठकर मुंह फेर कर हाथ मिलाया था।
नगर निगम चुनाव नतीजों के बाद सामना अखबार ने अपने संपादकीय में उन फफोलों को फोड़ा है। मुसंडी (उत्थान) और घसरगुंडी (पतन) के शीर्षक के तहत सामना लिखता है '' राज्य में परिवर्तन की हवा इतनी जल्दी चलेगी इसका अनुमान नहीं था मगर नगर पंचायत के चुनाव में सत्ता पक्ष भाजपा की जो अपमानजनक हार हुई है वह दुखद है। जिस कांग्रेस को लोगों ने उठाकर पटखा था वह कोमा की हालत से जागरूक हो रही है। भाजपा की दुर्गत का वर्णन करने के बाद सामना ने इस गिरावट के कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखा धन व सत्ता के बदले जनसमर्थन हर बार खरीदा नहीं जा सकता। जनता के साथ धोखा और उनके अंदर पैदा होने वाली निराशा हार का मुख्य कारण है।
शिवसेना और भाजपा की महाभारत देखने पर कौरव और पांडव याद आ जाते हैं। वह भी आपस में भाई थे मगर एक दूसरे के खून के प्यासे थे। हिंदुत्ववादीयों की यह प्राचीन परम्परा है कि वह स्वंय एक दूसरे का गला काटते हैं। अनुमान यही है कि मुंबई के नगर निगम चुनाव में भी भाजपा पहले अकेले जोर आजमाइश करेगी और बाद में शिवसेना के साथ हो जाएगी। अब यह नाटक पुराना हो चुका है कि पहले खूब लड़ो और फिर बेहयाई के साथ गले मिल जाओ।
भाजपा की दुर्दशा को देखकर शरद पवार ने मध्यावधि चुनाव की अटकलें शुरू कर दी है लेकिन उस की योजना दूसरी है। भाजपा जानती है कि अनेक कारणों से उसके दोनों समर्थक घरवाली सेना और बाहर वाली राकांपा स्वतंत्र विदर्भ के पक्षधर नहीं हो सकते इसलिए जब तक पूरे राज्य पर शासन की संधी प्राप्त है संयुक्त महाराष्ट्र का नारा लगा कर हुकूमत करो और जब जनता लात मारकर भगा दे तो फिर विदर्भ की स्वतंत्रता की मांग शुरू कर दो लेकिन क्या इस खेल में भाजपा सफल हो पाएगी? संभावना कम है। भाजपा ने इसी रणनीति के तहत उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से अलग किया लेकिन वहां की जनता ने उसे सत्ता से बेदखल कर दिया और अब वह चोर दरवाजे से सरकार बनाने की कोशिश में अदालत के अंदर जूतियां खा रही है। महाराष्ट्र में उनकी पाखंडी नीति मुंह में राम बगल में छुरी के समान है। जीभ पर संयुक्त महाराष्ट्र दिल में विदर्भ विभाजन का पाखंड नहीं चलेगा। लोग सवाल करेंगे कि जब सत्ता हाथों में थी तो धोका क्यों दिया? इस महाराष्ट्र दिवस का यही संदेश है कि इस अवसरवाद के कारण नागपुर रेशम बाग में जहां संघ का मुख्यालय है भाजपा की जमानत जब्त हो जाएगी।

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