Monday 25 April 2016

यमन शांति चर्चा की विफलता: कारण निवारण

उत्तर और दक्षिण कोरिया आज भी एक दूसरे के कट्टर शत्रू हैं लेकिन उत्तर और दक्षिण यमन का 1979  में विलय हो गया। संयोग से वह ऐतिहासिक गठबंधन कुवैत में हुआ जहां फिर एक बार युद्धरत येमेनी 37 साल बाद सुलह के लिए इकट्ठे हुए। उस मझौते में कुवैत के जिस विदेश मंत्री शेख सबा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी वह आजकल राज्य प्रमुख हैं। उस मझौते के बाद अली अब्दुल्ला सालेह यमन के प्रमुख बने थे जिन्हें होतियों ने 2004 में घायल करके साऊदी अरब भगा दिया। सालेह ने मौजूदा होती नेता अब्दुलमालिक के भाई हुसैन को मार दिया था लेकिन फिलहाल अली सालेह और होती एक साथ हैं। मौजूदा राष्ट्रपति अब्दू अलरबवह मंसूर हादी को भी सत्ता से बेदखल करके सऊदी अरब भागने पर मजबूर कर दिया गया था लेकिन वह आज कल ईडन से सरकार चला रहे हैं। इस तरह मानो यमन में फिर एक बार दो सरकारें हैं जिनमें से एक को साऊदी अरब का संरक्षण और दूसरे को ईरान का समर्थन प्राप्त है।
सऊदी और ईरान दोनों कुवैत में यमन वार्ता समर्थक थे। शांति वार्ता का उद्देश्य 13 महीने से जारी तनाव और गृहयुद्ध कि समाप्ति था. संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में आयोजित वार्ता में महासचिव के प्रतिनिधि इस्माइल अल शेख अहमद ने यमन में जारी हमलों पर खेद व्यक्त करते हुए दोनों पक्षों से अनुरोध किया था कि हिंसा उन्मूलन के लिए स्थायी समझौते में सहयोग करें। यह वार्ता इन 5 मुद्दों पर केंद्रित थी। सुरक्षा की स्थापना, सशस्त्र समूहों की वापसी, भारी हथियारों को सरकार के हवाले करना, सरकारी संस्थाओं की बहाली के लिए राजनीतिक बातचीत और कैदियों और बंदियों के बारे में एक विशेष समिति का गठन।
 अतीत के अनुभव से उम्मीद थी कि दोनों पक्ष लचीलापन दिखाते हुए संकट के समाधान में सफल होंगे। परन्तु दुरभेग्यवश ऐसा ना हो सका। होतयों का कहना था कि वह सुलह के लिए तैयार हैं मगर चूंकि वर्तमान में उनका पलड़ा भारी है इसलिए सरकार में उनकी वर्चस्व हो। इसके विपरीत सरकार का रुख था चूंकि होतयों ने बलपूर्वक कब्जा जमाया है इसलिए उन्हें (शांति भंग) का दोषी करार दिया जाए और होती हथियार डाल कर महत्वपूर्ण शहरों में सत्ता से बेदखल हो जाएं। वार्ता से पहले होती कह चुके थे कि वह अपना हथियार और भाग्य दुश्मनों यानी सरकार के हवाले नहीं करेंगे। होती चाहते थे अरब गठबंधन सेना के हवाई हमले तुरंत बंद हों। सरकार की शर्त है कि संघर्ष विराम के दौरान अधिकृत क्षेत्रों के लिए सुरक्षित मार्गों का निर्धारण, कैदियों की वापसी और विश्वास बहाली के प्रयासों को वार्ता के एजेंडे में शामिल होना चाहिए। इस तरह संदेह निसंदेह के वातावरण में बातचीत को विफल होना था सो हो गई।
इस अवसर पर अरब सहयोगियों को अपने दोस्त नुमा दुश्मन अमेरिका से सबक सीखना चाहिए जो सीरिया में सेना भेजने को चूक कहता है और बिनाकारण बरबादी से बचना चाहिए। शांति के मामले में पश्चिमि मंत्र यह है कि वह अपने प्रतिद्वंद्वी को डराने धमकाने की खातिर पहले चढ़ाई करो। यदि वह दब जाए तो उसका राजनीतिक लाभ उठाओ अन्यथा उससे सुलह कर लो। अमेरिका ने ईरान के साथ यही किया वर्षों तक संघर्ष के बाद अंततः दोस्ती कर ली लेकिन यह विनाशकारी रणनीति है जिस में हजारों लोगों की मृत्यु होती है, लाखों बेघर होते हैं और शत्रू सहित खुद अपना खजाना भी खाली हो जाता है।
इसके विपरीत मतभेद में शक्ति का उपयोग करने से पूर्व इस्लाम सुलह सफाई पर जोर देता है और उसकी विफलता के बाद यदि आवश्यक हो तो युद्ध की अनुमति देता है। ईशग्रंथ कुरआन के अनुसार ''और अगर मुसलमानों के दो गुटों में लड़ाई हो जाए तो उनके बीच सुलह करा दिया करो।'' इस से पता चलता है कि मुसलमानों के बीच आपसी लड़ाई की संभावना भी है लेकिन यह पसंदीदा नहीं है वरना यह न कहा जाता कि '' और अल्लाह और उसके रसूल की मानो और आपस में झगड़ना नहीं वरना तुम्हारे अंदर कमजोरी पैदा हो जाएगी और तुम्हारी हवा उखड़ जाएगी, धैर्य से काम लो, निश्चित रूप से अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है। '' इस आयत से पता चलता है कि अल्लाह और उसके रसूल के आज्ञापालन ही आपसी टकराव समाप्त कर सकता है वरना 'हवा उखड़ जाती' है जो जगज़ाहिर है।
उक्त श्लोक में युद्ध के बावजूद दोनों युद्धरत गुटों को मुसलमान कहकर संबोधित किया गया है। आज हमारी स्थिति यह है कि हम अपने विरोधियों को अंधाधुंध इस्लाम के दायरे से बाहर कर देते हैं। काफिर या कम से कम गुमराह तो करार दे ही देते हैं। सुलह के बाद अगर मन मिटाव हो जाए तो समस्या समाप्त हो जाती है, लेकिन यह जरूरी नहीं है। हो सकता है कि उनमें से एक पक्ष आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दे। आगर शक्तिशाली समूह के खिलाफ फैसला हो तो यह संभावना अधिक है ऐसी स्थिति के लिए मार्गदर्शन अगले भाग में है '' फिर अगर उनमें से एक (समूह) दूसरे पर ज़्यादती और सरकशी करे तो उस (समूह) से लड़ो जो दुर्व्यवहार का दोषी हो रहा है जब तक वे अल्लाह के आदेश पर लौट आए। '
युद्ध का यह आदेश सुलह के बाद फसाद करने पर है लेकिन और जब उसे अपनी गलती का एहसास हो जाए तो आदेश है ''फिर अगर वे पलट आए तो दोनों के बीच न्याय के साथ सुलह करा दो और न्याय से काम लो, निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को बहुत पसंद करता है, ''। इस आयत के बाद अल्लाह विश्वासियों को भाईचारे की हिदायत करते हुए फरमाते हैं '' बात यह है कि (सभी) विश्वासी (आपस में) भाई हैं। सो तुम अपने दो भाइयों के बीच सुलह कराया करो, और अल्लाह से डरते रहो ताकि तुम पर दया की जाए। '' यह श्लोक संदेश दे रहा है कि भाईचारे और प्रेम के बिना शांति व सुरक्षा असंभव है।
हाल वार्ता के बीच अरब सहयोगी सेनाओं ने मकला स्थान एक जबरदस्त हवाई हमला बोल दिया लेकिन वह होतयों के बजाय अलकाईदा के खिलाफ था। इस हमले में 800 से अधिक लडाके मारे गए इसी के साथ थलसेना ने मकला के स्वतंत्र होने की घोषणा कर दी। यह बहुत सोचा समझा कदम था जो होतियों के खिलाफ नहीं था वरना वार्ता तुरंत टूट जाती। यह हमला होतियों को चेतावनी देने के लिए था कि अगर वह अड़े रहे तो उन्हें भी इस तरह की बमबारी का शिकार होना पड़ेगा। सवाल यह है कि क्या इस तरह के दबाव में होती आएंगे? और इसका कोई नतीजा निकलेगा? संयोग से इन दोनों प्रशनों का उत्तर ना है। यह बमबारी एक साल से चल रही है। इसमें 7000 लोग मारे जा चुके हैं इसके बावजूद संयुक्त अरब गठबंधन की सेना राजधानी सना में प्रवेश न कर सकी इसलिए बातचीत और सुलह के बजाय धौंस धमकी का परिणाम सिवाय बर्बादी और विनाश के कुछ और नहीं निकलेगा। ईस वार्ता का ''एकमात्र लाभ संघर्ष विराम के लिये स्थापित की जाने वाली संयुक्त समिति का गठन है अगर उस ने ईमानदारी के साथ काम किया तब भी शांति और सुरक्षा के लिए किसी न किसी हद तक उपयोगी सिध्द हो सकती है।

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