Monday 16 May 2016

बांग्लादेश: राजनैतिक घृणा और क्रूरता की चरम सीमा

बांग्लादेश जमाते इस्लामी के अध्यक्ष मौलाना मुतीउरहमान निजामी ने अपनी शहादत (बलिदान) पेश कर के सत्यमार्ग को अधिक प्रकाशमय कर दिया है ताकि उनके बाद इस रास्ते पर चलने वालों का सफर आसान हो सके और वे अपने आप को स्वर्ग का हकदार बना सकें जिस पर सर्व प्रथम अधिकार प्राण अर्पण करने वाले शहीदों का हैं। मौलाना मुतीउरहमान जिस राजनीतिक षडयंत्र का शिकार हुए उसकी शुरुआत 2009 में हुई। बांग्लादेश में सात साल के बाद जब 2008 में चुनाव हुआ तो बेगम खालिदा जिया से वहां की जनता इसी तरह नाराज थी जैसे कि दो साल पहले मनमोहन सिंह से भारत वासी थे। परिणाम स्वरूप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह शेख हसीना वाजिद ने भी जनाक्रोष का लाभ उठा कर जीत दर्ज कराई। सत्ता प्राप्ती के पश्चात अपेक्षानुसार हसीना वाजिद ने आम जनता के कल्याण का कोई ऐसा काम नहीं किया, जिसके कारण लोग फिर से उनका चयन करते।
जिस तरह पानी से निकलते ही मछली मरने लगती है वही हाल राजनेताओं के सत्ता खोने के बाद हो जाता है इसलिए वह हर हाल में कुर्सी से चिपके रहना चाहते हैं। शेख हसीना वाजिद ने भी चुनाव से पहले इसी कारण युध्द अपराधियों का बवंडर खडा कर दिया। फासीवादी रणनीती के तहत राष्ट्रीय भावनाओं को भड़का कर फिर से चुनाव जीतने कि एक क्रूर योजना बनाई और फिर से सत्ता प्राप्त करने में सफल हो गईं लेकिन इसके बाद भी उसी व्देशपूर्ण क्रूर राजनीति का पालन कर रही हैं। यह सही है कि बांग्लादेश की जमात इसलानी पाकिस्तान के विभाजन के खिलाफ थी लेकिन वह एक राजनीतिक निर्णय था। इस सिद्धांत का पालन करने वाली और भी बहुत सारी पार्टियां पूर्व बांग्लादेश यानी पूर्वी पाकिस्तान में मौजूद थीं जैसे मुस्लिम लीग, जमीअतुल उलेमा पाकिस्तान और चीन समर्थक कम्युनिस्ट पार्टी आदि परंतु वैचारिक मतभेद के आधार पर राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए जनता को बरगलाना निंदनीय अपराध है।
 भारत की आजादी के समय कांग्रेस और मुस्लिम लीग में देश के विभाजन के मुद्दे पर मतभेद था मगर विभाजन के बाद भी मुस्लिम लीग हिंदुस्तानी राजनीति में सक्रिय है बल्कि केरल की राज्य सरकार में शामिल रही है। खान अबदुल गफ्फार खान की अवामी नेशनल पार्टी पाकिस्तान के निर्माण की वैसे ही खिलाफ थी जैसे कि जमाते इस्लामी पाकिस्तान विभाजन के विरूध्द थी लेकिन अवामी नेशनल पार्टी भी पाकिस्तान का एक प्रमुख राजनीतिक दल है और लंबे समय तक राज्य सत्ता में रही है लेकिन बांग्लादेशी प्रधानमंत्री ने परस्पर मतभेद में निराधार आरोप जोड़कर इसे राजनीतिक शत्रुता में बदल दिया।
बांग्लादेश के इतिहास को पूर्वी पाकिस्तान से अलग करके नहीं देखा जा सकता। जनरल अयूब खान की तानाशाही के खिलाफ जमाते इस्लामी ने खुलकर आंदोलन चलाया था और इसी कारण जिस तरह अब हसीना वाजिद जमात के नेताओं की दुश्मन बनी हुई हैं जनरल अयूब खान ने भी क़ादियानियत का बहाना बनाकर मौलाना मौदूदी को फांसी के फंदे तक पहुँचा दिया परंतु नियती का निर्णय आडे आ गया। अय्यूब खान के खिलाफ पाकिस्तानी लोकतांत्रिक आंदोलन, विपक्ष का संयुक्त मोर्चा और लोकतांत्रिक एक्शन कमेटी के गठन में हसीना के पिता शेख मुजीबुर रहमान और अवामी लीग भी शामिल थी।
 यह तो बांग्लादेश के स्थापना से पहले की बात है लेकिन 1980  के दशक में भी लोकतंत्र की स्थापना के लिये चलाए जाने वाले आंदोलन में बांग्लादेश नेशनल पार्टी और जमात के साथ अवामी लीग भी थी। संयोग से वह आंदोलन जिस सैन्य तानाशाह के खिलाफ चलाया गया था वह वर्तमान में संसद के भीतर हसीना वाजिद का सहयोगी बना हुआ है। जिस तरह आज अवामी लीग यह भूल गई है कि जनरल इरशाद लोकतंत्र का शत्रू था इसी तरह उस समय अवामी लीग को यह विचार नहीं आया कि वह कथाकथित युध्द अपराधियों का साथ दे रही है और जो उसके अनुसार जो युद्ध अपराधी हैं वे देश में लोकतंत्र को बढ़ावा दे रहे हैं।
बांग्लादेश के संविधान में संशोधन करके निष्पक्ष अधिकारी के तहत चुनाव कराने का प्रस्ताव जमाते इस्लामी ने पहली बार पेश किया था। जनरल इरशाद की जातिया पार्टी और अवामी लीग ने भी उसका समर्नथ किया था। अब हाल यह है कि खुद हसीना वाजिद ने संविधान के इस प्रावधान को क़दमों तले रौंद दिया है। पिछले चुनाव में इसी आधार पर बीएनपी और जमात ने चुनाव का बहिष्कार किया था जो बेहद सफल रहा था। मात्र 10 प्रतिशत मतदाताओं की भागीदारी से होने वाले हिंसक चुनावों में हसीना वाजिद पुनः सत्तारूढ़ हुईं और लोकतंत्र के पर्दे में दमनकारी योजना का प्रारंभ कर दिया।
यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि इससे पहले शेख हसीना वाजिद की पार्टी अवामी लीग को तीन बार शासन करने का अवसर मिला लेकिन इस दौरान पिता और पुत्री दोनों को कभी भी जमाते इस्लामी का युध्द अपराधों में लिप्त होना याद नहीं आया लेकिन 2010 में अचानक हसीना वाजिद को यह क्षात्कार हो गया। 1980  के बाद से जमात इस्लामी एक राजनीतिक दल के रूप में राष्ट्रिय चुनाव में भाग लेती रही है। 1991  के चुनाव में जमाते इस्लामी को संसद की 18 सीटों पर जीत मिली। उस समय किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था इसलिए अवामी लीग के अमीर हुसैन ने जमात को गठबंधन सरकार में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया था और उसके दो सदस्यों को मंत्रीपद देने का वादा किया था। तो क्या वे युध्द अपराधियों को मंत्री बना रहे थे?
जमाते इस्लामी ने सत्ता की खातिर अपने सिद्धांत का त्याग नहीं किया बल्कि अवामी लीग की पेशकश को ठुकरा दिया। सत्ता से बाहर रह कर उस ने बांग्लादेश नेशनल पार्टी का समर्थन किया। 2001 में जमात को फिर से 17 सीटों पर जीत मिली और वह बीएनपी के साथ गठबंधन सरकार में शामिल हुई। मौलाना मुतीउरहमान को कृषि व उद्योग और अली अहसन मुजाहिद को सामाजिक कल्याण मंत्री बनाया गया। इन दोनों ने अपनी कार्यकाल में असाधारण कार्यकुशलता का प्रदर्शन किया लेकिन बाद में अचानक उनका नाम युध्द अपराधियों की सूची में शामिल हो गया और एक के बाद एक दोनों शहीद कर दिए गए।
2005 के बम धमाकों में निचली अदालत के दो जज मारे गए थे तब मीडिया ने जमाते इस्लामी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था और आरोप लगाया था कि जमात हिंसा के मार्ग से सत्ता प्रशस्त कर रही है। आतंकवादियों का समर्थन और उनका उत्साह बढाने का आरोप लगाने वालों ने आगे चलकर देखा कि जमाते इस्लामी धमाकों की निंदा कर के देश भर में सार्वजनिक जनमत तय्यार किया और अपने शासनकाल में अपराधियों को सज्रा दिलवा दी। यह नहीं कि प्रज्ञा ठाकुर को मालेगांव धमाकों से मुक्त करवा दिया।
युध्द अपराधियों का इतिहास भी बड़ा रोचक है। बांग्लादेश स्थापना की लड़ाई मुख्यत: पाकिस्तानी सेना और मुक्ति बाहिनी के बीच लड़ी गई जिसमें अवामी लीग के लोग शामिल थे। उस समय पाकिस्तान प्रशासन उन्हें अलगाववादी और आतंकवादी का नाम देता था। मुक्ति बाहिनी के युवा भारत में प्रशिक्षिण लेने के बाद हथियारों से लैस होकर बांग्लादेश में इसी तरह सीमा पार कर के जाते थे जैसे कि कश्मीरी युवा आते हैं। दोनों के मुख पर स्वतंत्रता का नारा होता था। भरतीय सैन्य हस्कक्षेप के बाद में पाकिस्तानी सेना ने हथियार डाल दिए तथा युध्द बंदी बना लिए गए। इस युध्द में सबसे कम भारतीय या पाकिस्तानी सैनिक मारे गए और उनसे कुछ अधिक मुक्ति बाहिनी के लोग मरे और सबसे अधिक निहत्थे नग्रिकों की मृत्यु हुई। यह भी इतिहास का हिस्सा है कि उस कठिन काल में कई हिंदू परिवारों को जमात के लोगों ने शरण देकर सुरक्षा प्रदान की।
शेख मुजीब के शासनकाल में 1973 के अंदर संविधान में संशोधन करके युध्द अपराधियों को मौलिक अधिकारों से वंचित किया गया और संसद ने अंतरराष्ट्रीय अपराध (ट्रिब्यूनल) अधिनियम पास किया ताकि उन्हें सजा दी जा सके। शेख मुजीब की सरकार ने 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों में से केवल 195 पर युध्द अपराधों का आरोप लगाया। संयोग से उस समय बांग्लाबंधु को जमाते इस्लामी के भीतर कोई युध्द अपराधी नज़र नहीं आया। बांग्लादेश प्रधानमंत्री ने बाद में घोषणा की कि वह चाहते हैं जनता 1971 के अत्याचार और विनाश को भुलाकर एक नए युग की शुरुआत करे और विश्व को पता चले कि बांग्लादेश की लोग क्षमा करना भी जानती है।
बांग्लादेश के विदेश मंत्री ने उस समय कहा था कि बांग्लादेश की सरकार ने सद्भावना के चलते मुकदमा  नहीं चलाने का फैसला किया है। इस बात पर सहमति हुई कि युद्ध अपराधियों को भी अन्य जंगी कैदियों के साथ वापस भेज दिया जाए इस प्रकार 1974 में शिमला समझौते के तहत तथाकथित 195 युध्द अपराधी भी पाकिस्तान भेज दिए गए। शेख मुजीब ने 1973  में राष्ट्रपति आध्यादेश क्रमांक 16 व्दारा 1972  विवाद में शामिल सभी लोगों के लिए आम माफी की घोषणा कर दी इस तरह मानो युध्द अपराधियों का अध्याय बंद हो गया।
यह विडंबना है कि जहां शेख मुजीब ने पाकिस्तानी सैनिकों तक को माफ कर दिया उनकी बेटी ने अपने ही देश के निर्दोष राजनीतिक विरोधियों को फांसी दे रही हैं। जमात के पूर्व अध्यक्ष प्राध्यापक गुलाम आजम पर भी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अत्याचार का आरोप था मगर हाईकोर्ट के जज ने नागरिकता के मामले में फैसला सुनाते हुए लिखा आरोपी (गुलाम आजम) का पाकिस्तान सेना या उसके सहकारी अलबद्र या अलशम्स से कोई संबंध नहीं है। उनका स्वतंत्रता संग्राम के दौरान किए जाने वाले अत्याचारों से कोई सरोकार नहीं है। शेख हसीना वाजिद की सरकार ने न्यायालय के निर्णय के बावजूद प्रोफेसर गुलाम आजम को युध्द अपराधी घोषित कर दिया और उनका निधन जेल की सलाखों के पीछे हुआ। इस मामले में जब जज ने पूछा कि गुलाम आजम सैनिकों को कैसे आदेश दे सकते थे, जबकि उनके पास कोई सरकारी पद नहीं था तो सरकारी वकील ने कहा था वह तो उस ज़माने में हिटलर की तरह थे और हिटलर को किसी पद की जरूरत नहीं थी। अब उस मूर्ख को कौन बताए कि हिटलर व्दितीय युद्ध के समय शेख हसीना के समान राज्य प्रमुख था और शेख हसीना वर्तमान में वही सब कर रही है जो हिटलर करता था।
2004 में जब जमाते इस्लामी सरकार में शामिल थी उस समय चटगांग के अंदर चीनी हथियारों का बड़ा भंडार पकड़ा गया जिसकी कीमत पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई ने चुकाई थी। या शस्त्र हांगकांग से निकलकर सिंगापुर से होते हुए बांग्लादेश पहुंचे थे लेकिन उनका गंतव्य असम था। मामले की न्यायिक कारवाई जमात के केर्यकाल में शुरू तो हुई परंतु पूर्ण होने से पूर्व 2008 में हसीना वाजिद ने सत्ता संभाल ली और जनवरी 2009 में अपने आदमी ए एस पी मुनिरूल ईस्लाम को जांच का काम सौंप दीया। इस तरह जून 2011 में जो संशोधित आरोप पत्र दाखिल हुआ इसमें 11 नए लोगों पर आरोप लगाए गए जिनमें जमाते इस्लामी के अमीर मुतीउरहमान रहमान निजामी और बीएनपी के लुतफुजमां का नाम था।
इस प्रकार शेख हसीना वाजिद ने प्रतिशोध शुरू किया और जमात को ऐसे निराधार आरोपों में फंसाया जिनका सिरे से अस्तित्व ही नहीं था। इस मामले में कई गवाह पेश हुए किसी ने मौलाना मुतीउरहमान रहमान का नाम तक नहीं लिया लेकिन चूंकि जब वह अपराध हुआ मौलाना उद्योग मंत्री थे और उनके विभाग का एक कर्मचारी दोषी ठहराया गया था इसलिए उन्हें एक निचली अदालत मौत की सजा सुना दी। उस अदालत को यह अधिकार नहीं था क्योंकि बांग्लादेश में तस्करी की अधिकतम सजा उम्रकैद है।
जब इस से बात नहीं बनी तो युध्द अपराधों का खेल रचाया गया और एक कथाकथित अंतरराष्ट्रीय अपराधिक ट्रिब्यूनल बनाया गया। इस अदालत की विश्व भर के मानवाधिकार संगठनों ने आलोचना की है और संयुक्त राष्ट्र के अतिरिक्त एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी इस के कार्यशैली पर आपत्ति जताई है। इस मामले में न्यायाधीशों से साठगांठ के सबूत भी सामने आ चुके हैं लेकिन वैश्विक भ्रत्सना की परवाह किए बिना बांग्लादेश सरकार अपने राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में व्यस्त है।
उसने पहले जमाते इस्लामी के नेता अब्दुल कादिर मुल्ला को सारे विरोध के बावजूद शहीद किया। उनके मामले में बांग्लादेश की अदालत ने जो किया वह अद्भुत था। आम तौर पर ऊंची अदालत में निचली अदालत का फैसला बहाल होता है या सजा में कटौती होती है लेकिन ट्रिब्यूनल के उम्र कैद की सजा को सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा में बदल कर उस पर तुरंत कार्रवाई करवा दी ताकि बदले की भावना भडका कर शेख हसीना वाजिद फिर से चुनाव सफलता प्राप्त कर लें।
शहीद अब्दुल कादिर मुल्ला के बाद 22 नवंबर 2015 को शेख हसीना वाजिद ने और दो निष्पाप नेताओं अली मोहम्मद अहसान मुजाहिद और सलाहुद्दीन क़दीर चौधरी को ढाका के सेंट्रल जेल में फांसी दे दी। जमाते इस्लामी बांग्लादेश और बीएनपी के नेता पर 1971 युध्द में पाकिस्तान का समर्थन करने का आरोप था। इस घटना के डेढ़ साल बाद भी यह क्रूर साजिश जारी है जिसके तहत अमीर जमात बांग्लादेश को 17 मई की रात में शहीद कर दिया गया। मौलाना मुतिउरहमान रहमान निजामी पर पाकिस्तान से सहकार्य  का आरोप लगाया गया जबकि पांच बार लगातार संसद में निर्वाचित होने वाले और 4 वर्षों तक कृषि और उद्योग मंत्रालय संभालने वाले 25 से अधिक पुस्तकों के लेखक का वक्तव्य था "16 दिसंबर 1971 के बाद से पाकिस्तान अलग देश है और बांग्लादेश अलग। जब यह पाकिस्तान था तो हम उसके वफादार थे, अब हमारी सारी वफ़ादारियाँ बांग्लादेश के साथ हैं। '' क्या किसी व्यक्ति या समूह को अपने देश के प्रति कृतत्ज्ञता की सजा देना उचित है?
मौलाना मुतीउरहमान रहमान निजामी ने सत्ताधारी पक्ष को चेतावनी दी थी कि "अगर देश के राष्ट्र प्रेमी,  लोकतंत्र व शांति समर्थक धार्मिक दलों का रास्ता रोका गया तो परिणामस्वरूप देश में उग्रवाद जन्म लेगा।" लेकिन सरकार को देश की परवाह नहीं है बल्कि वह चाहती है कि ऐसा हो ताकि आतंकवाद की आड़ में अपने राजनीतिक विरोधियों को ध्वस्त किया जा सके। जनता के मन में किसी समूह विशेष के विरूध मीडिया की सहायता से घृणा की भावना पैदा करना और फिर निर्दोष लोगों को सजा देकर उन भावनाओं शांत करके अपने लोकप्रियता में वृद्धि करते हुए सत्ता जारी रखने का यह खेल बहुत पुराना हो चुका है। अडोल्फ़ हिटलर ने इसी रणनीति से चुनाव जीतकर अपनी सत्ता स्थापित की थी लेकिन अंततः आत्म हत्या ने उसका अंत किया।  शेख हसीना वाजिद भी उसी के पदचिन्हों पर तेजी के साथ दौड़ रही हैं कौन जाने उन का अंजाम क्या होगा परंतु इतिहास साक्षी है कि ऐसों का अंत अच्छा नहीं होता।

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