Monday 9 May 2016

आसाम बंगाल चुनाव: केँग्रेस और तृणमूल की दुविधा

बिहार पूर्वी भारत का चेहरा है उसके आगे पूरब का हृदय बंगाल और फिर मस्तक में असम है। संयोग से इन तीनों राज्यों में एक के बाद एक चुनाव हो रहे है। कांग्रेस की दृष्टि से देखें तो तीनों स्थानों पर उसने अलग रणनीति अपना रखी है जिस से न केवल जनता बल्कि राजनीतिक पर्यवेक्षक तक स्तब्ध हैं। राजनीतिक दलों की मजबूरियों तो वही जानते हैं क्योंकि जिस के जूते में कील धंसी हो उसी को पीडा का अंदाज़ा होता है। यह और बात है कभी वह व्यक्ति संकट से निकलने में सफल हो जाते हैं और कभी अपनी सारी बुद्धिमानी के बावजूद नहीं निकल पाता। यह स्वाभाविक बात है कि किसी दौड़ में सारे लोग यश  नहीं प्राप्त कर सकते। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में तो रजत और कांस्य पदक पाने वाले भी असफल करार दिए जाते हैं। इस दुनिया का स्वर्ण सिद्धांत है कि सोना लाओ या घर जाओ।
बिहार में कांग्रेस एक दूसरे के जानी दुश्मन लालू और नीतीश का गठबंधन कराने के पश्चात महागठबंधन में शामिल हो गई लेकिन बंगाल में दक्षिणपंथी दलों और तृणमूल के बीच गठबंधन का प्रयत्न नहीं किया गया बल्कि वामदल के साथ साझा प्रक्रिया पर संतुष्टि जताई गई। असम में कांग्रेस से अपेक्षा थी कि वह मौलाना अजमल की एयूडीएफ के साथ एकजुट होकर चुनाव लड़ेगी ताकि भाजपा का मुकाबला किया जा सके लेकिन उसने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया। बिहार की सफलता के बाद यह रणनीति आश्चर्यजनक है लेकिन अगर गहराई में जाकर देखा जाए यही सही है।
बिहार में स्थिति यह थी कि भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव में भारी सफलता मिली थी इससे संघ परिवार के हौसले बुलंद थे। भाजपा को खुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी का समर्थन पहले ही प्राप्त था। इसमें पूर्व मुख्यमंत्री जीतन कुमार मांझी की नवजात हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा कि बढौत्री हो गई थी जिसके बारे में यह खुशफहमी पाई जाती थी कि सारे महादलित उनके साथ राजग में आ जाएंगे। यही कारण है कि मीडिया में भाजपा की सफलता का शोर सुनाई देने लगा था और सुशील कुमार मोदी को हर रोज़ मुख्य मंत्री बन जाने के सपने दिखने लगे थे।
सुशील मोदी से बड़ी समस्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की थी। अव्वल तो वह अपने नामांकन के कारण एनडीए से नीतीश कुमार के अलग होजाने की करार वाकई सजा देना चाहते थे। इसके अलावा दिल्ली की हार को अपवाद सिध्द कर के फिर एक बार अपने अजेय होने का भ्रम बाकी रखना चाहते थे। इसमें शक नहीं कि बिहार में खतरा गंभीर था और अगर तिकोना या चौकोर चुनाव होता तो भाजपा बड़े आराम से सफल हो जाती। उसे हराने के लिए व्दिपक्षी प्रतियोगिता अपरिहार्य था।
पश्चिम बंगाल में स्थिति ऐसी नहीं है। वहाँ वर्तमान में कोई बड़ा से बड़ा मोदी भक्त भी भाजपा की सत्ता का सपना नहीं देखता। प्रतियोगिता तृणमूल और वाम के बीच है जिस के अन्दर आरंभ में तृणमूल हावी था लेकिन कांग्रेस के ममता के खिलाफ कम्युनिस्टों के साथ गठबंधन से अब मौसम बदल गया है अब  मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है । पिछले संसदीय चुनाव में बीजेपी ने सबसे बड़ी छलांग लगाते हुए अपने मतदाताओं की संख्या को 4 से 17 प्रतिशत तक पहुंचा दिया था इस के बावजूद वह बिल्कुल अछूत बन कर रह गई है।
पिछले प्रांतीय चुनाव से पहले पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट सत्ता में थे। उन्हें हटाने के लिए कांग्रेस ने तृणमूल के साथ गठबंधन किया था इस बार तृणमूल के हाथों में सत्ता की बागडोर है और उसे सत्ता से बेदखल करने के लिए कांग्रेस ने कम्युनस्टों के साथ गठबंधन किया है। राष्ट्रीय स्तर पर वाम पंथियों ने कई बार कांग्रेस का समर्थन किया है, तथ्य तो यह है कि वाम दलों के आपसी कलह की वजह से कांग्रेस के साथ दोस्ताना संबंध ही हैं। एक ज़माने में सिपीआई देश में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी मगर जब पंडित नेहरू ने सोवियत संघ से दोस्ती कर ली तो कुछ कोम्रेड कांग्रेस के प्रति नरम पड़ गए। इस नरमी के प्रतिरोध में गर्म दल ने सीपीएम स्थापित कर ली जो चीन सर्मथक था। इसमें से सशस्त्र संघर्ष करने वाले नकसलबारी अलग हो गए।
कम्युनिस्ट पार्टी के इन तीन गुटों में से सबसे आधिक चुनावी सफलता माकपा को मिली लेकिन उसने बंगाल, मणिपुर और केरल में अपनी सत्ता बनाए रखने की खातिर सभी सहयोगी दलों को एक झंडे तले एक जुट किया और कांग्रेस के खिलाफ बरसों संघर्षरत रही । भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिस्टों ने कांग्रेस को बाहर से समर्थन तो किया लेकिन न सरकार में शामिल हुए और न साथ मिलकर चुनाव लड़ा। चुनाव में उनकी सबसे बड़ी दुश्मन कांग्रेस पार्टी ही रही। केरल में आज भी यह स्थिति है लेकिन पश्चिम बंगाल में तृणमूल के सत्ता में आने से राजनीतिक परिदृश्य बदल गया। अभी बंगाल की हद तक कांग्रेस पार्टी कम्युनिस्टों की प्रतिद्वंद्वी नहीं है इसलिए यह गठबंधन संभव हो सका।
बंगाल के राजनीतिक उलट फेर पर नजर डालें तो यह साफ नजर आता है कि जैसे-जैसे तृणमूल का दबदबा बढ़ता गया कांग्रेस का प्रभाव कम होता चला गया। यही संबंध भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर भी दिखाई देता है कि कम्युनिस्ट गठबंधन के पतन और भाजपा के उदय की गति समान रही है। ऐसे में कांग्रेस कम्युनिस्ट एकता के बाद होना तो यह चाहिए था कि तृणमूल कांग्रेस आगे बढ़कर भाजपा के साथ विलय कर लेती। सच तो यह है कि हर कोई यह चाहता था। डूबती भाजपा की नौका को तिनके का क्या जहाज का सहारा मिल जाता। यही कारण है कि नाराज अमित शाह ने बिगड़ कर यहाँ तक कह दिया कि ममता के पांच साल कम्युनिस्टों के 34 वर्षों से बदतर थे।
कांग्रेस भी यही चाहती थी कि तृणमूल भाजपा के साथ चली जाए ताकि मुस्लिम मतदाता तृणमूल से नाराज होकर उसकी झोली में लौट आएं। ममता के दिल में भी अरमान रहा होगा कि राज्य में भाजपा वालों को मंत्री बना कर केंद्र में एकाध मंत्रालय पर हाथ साफ कर लिया जाए वैसे भी वह खुद अटल जी की सरकार में रेलवे मंत्री रह चुकी हैं। भारतीय राजनीति में सिद्धांत और विचारधारा की मौत हो चुकी है  सारा कारोबार स्वार्थ के आधार पर फल-फूल रहा है लेकिन तृणमूल के पत्ते और भाजपा का फूल एक साथ नहीं खिल सके आख़िर क्यों?
इस सवाल का जवाब पश्चिम बंगाल में मुस्लिम मतदाताओं की जनसंख्या है। राज्य में वैसे तो मुसलमानों की आबादी 27 प्रतिशत है लेकिन वह पूरे राज्य में बिखरे हुए नहीं हैं। मध्य बंगाल की 40 सीटों में उनकी संख्या 50 प्रतिशत है। इसके अलावा कोलकाता और उसके आस पास भी बड़ी संख्या में मुसलमान रहते हैं। समग्र स्थिति यह है कि 140 सीटों पर मुसलमान 20 प्रतिशत या उस से अधिक हैं। मध्य बंगाल यानी मालदा और मुर्शिदाबाद में मुसलमान बड़े पैमाने पर कांग्रेस के समर्थक हैं लेकिन कोलकाता के परिवेश के मुसलमान तृणमूल के साथ हैं। यही क्षेत्र ममता बनर्जी का गढ़ है।
2104 के राष्ट्रीय चुनाव में इस क्षेत्र के 15 प्रतिशत मतदाता ममता को छोड़ कर भाजपा की झोली में चले गए थे लेकिन 56 प्रतिशत में यह कमी आई थी इसलिए परिणाम पर उस का प्रभाव नहीं पडा। इसमें शक नहीं कि ममता को छोड़कर जाने वाले सारे मतदाता हिन्दू समुदाय के थे इसलिए कि मोदी जी अगर बाबा रामदेव से शिर्ष आसन सीख कर सिर के बल खड़े हो जाएं तब भी आम मुसलमान उनके नेतृत्व में भाजपा की ओर आकर्षित नहीं होगा। वास्तविकता यही है कि तृणमूल को खुद अपने गढ़ में मुस्लिम मतदाताओं की नाराजगी के डर ने भाजपा के साथ जाने से रोक रखा है।
ममता बनर्जी ने भाजपा के कारण होने वाले लाभ और मुसलमानों के चले जाने से अपेक्षित नुकसान का आकलन करने के बाद ही यह फैसला किया होगा कि कम से कम चुनाव तक भाजपा से दूर रहने में भलाई है बाद में अगर कमी रह गई और भाजपा कुछ स्थानों पर सफल हो गई तो उसके साथ सौदेबाजी हो जाएगी। बंगाल की बाबत इस बात पर खासा विवाद है कि इस बार सफलता ममता को मिलेगी या वाम पंथी फिर से सत्ता में आ जाएंगे। टेलीग्राफ और एबीपी चैनल तो ममता की हार घोषित कर चुके हैं मगर एनडीटीवी अब तक आशावादी है।
वैसे ममता बनर्जी की रोष एबीपी का समर्थन करता है। कभी तो वह पुलिस और चुनाव आयोग पर बिगड़ती हैं और कभी कांग्रेस के पागल हो जाने या कम्युनिस्टों के आत्महत्या कर लेने की घोषणा करती हैं। अगर ऐसा है तो उन्हें अपने विरोधियों की इस दुर्गति पर बिगडने के बजाए खुश होना चाहिए। कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी ने ऐसा क्यों किया? ममता की समझ में नहीं आता। शायद वह समझना नहीं चाहतीं क्योंकि अगर वह अपने आप से पूछें कि उन्होंने कांग्रेस से गठबंधन क्यों किया था? और एनडीए में शामिल क्यों हुई थीं? तो सब समझ में आ जाएगी।
बंगाल चुनाव प्रचार से अमित शाह और मोदी जी बीच ही में नाक आउट होकर रिंग से बाहर आ गए। देश के सारे पर्यवेक्षक सर्वसम्मत हैं कि भाजपा के 17 प्रतिशत मतदाताओं में कमी आएगी। अब चर्चा का विषय यह है कि भाजपा जो वोट गंवाएगी वह कहां जाएंगे? ममता को उम्मीद है कि भाजपा से गठबंधन किए बिना भी मतदाताओं की घर वापसी हो जाएगी और उनकी नैया पार लग जाएगी। पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम का फैसला संयोग से उन्हीं निराश मतदाताओं के हाथों में चला गया जो पिछली बार मोदी लहर के झांसे में आ गए थे मगर अब अच्छे दिनों से निराश होकर सोच रहे हैं '' मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं। बड़ी मुश्किल में हूँ मैं किधर जाऊं।''
कोलकाता और उसके परिवेश के मतदाता अगर लौटकर तृणमूल में आ जाते हैं तो ममता बहुमत में आ जाएंगी। बंगाल के अन्य क्षेत्रों में जो कम्यूनसट मतदाता भाजपा के साथ हो गए थे वे भी वापसी के लिए पर तौल रहे हैं। अगर इन 12 प्रतिशत मतदाताओं में से आधे भी तृणमूल की ओर झुकाव महसूस करें तब भी ममता का सत्ता में आना सुनिश्चित हो जाएगा और वह 200 से अधिक सीटों पर सफल हो जाएंगी लेकिन यदि ग्रामीण मतदाता फिर से लाल झंडा थाम लें तथा नागरिक मतदाता भी कांग्रेस या कम्युनिस्ट पार्टी को पसंद करें तो तख्ता पलट जाएगा। एनडीटीवी के अनुसार 2 से 3 प्रतिशत की सविंग परिणाम को उलट पलट कर रख देगी। वर्तमान में उस का अन्दाज़ा है कि तृणमूल की संभावना 60 प्रतिशत और कम्युनिस्ट पार्टी की 40 प्रतिशत हैं लेकिन कुछ भी हो सकता है।
असम में मुसलमानों की संख्या पश्चिम बंगाल से अधिक है बल्कि कश्मीर के बाद प्रतिशत के आधार पर सबसे अधिक मुसलमान इसी राज्य में है। वहां पर मुसलमानों की एक राजनीतिक पार्टी ऑल इंडिया युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट भी है। असम में भाजपा ने अगप और बोडो फ्रंट से गठबंधन कर रखा है इसलिए उसकी सफलता की संभावना उज्जवल हो गई है इसके बावजूद कांग्रेस ने मौलाना अजमल की पार्टी के साथ गठबंधन क्यों नहीं किया? इस सवाल का जवाब भी जमीनी वास्तविकताओं में छिपा है?
फर्ज़ कीजिए कि कांग्रेस एयूडीएफ के साथ समझौता कर लेती तो क्या होता? कांग्रेस को आशंका है की ऐसे में उस का हिन्दू वोट भाजपा की झोली में चला जाता। इस तरह भाजपा के लिए  एयूडीएफ और कांग्रेसी उम्मीदवार को हराना आसान हो जाता। जिन क्षेत्रों में एयूडीएफ मजबूत है वहां कांग्रेस भाजपा के हिन्दू वोट काटे और जहां एयूडीएफ की हालत पतली है वहां के मुसलमान कांग्रेस को वोट दें तो ऐसे में अन्य हिन्दुओं को साथ लेकर कांग्रेस के लिए भाजपा को हराना सुविधाजनक हो जाएगा। इस तरह एक दूसरे के साथ गठबंधन करने के बजाय खिलाफ चुनाव लड़ने में में लाभ है अगर कमी रह जाए तो चुनाव के बाद एकता का मार्ग खुला ही है।
इस समीक्षा से पता चलता है कि बंगाल में जो मजबूरी सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को भाजपा के साथ जाने रोक रही है असम में वही बाधा सत्तारूढ़ कांग्रेस को एयूडीएफ से हाथ मिलाने से मना कर रही है। बंगाल में तृणमूल मुसलमानों की नाराजगी से बचने के लिए भाजपा से अस्थायी दूरी बनाए हुए है और असम में कांग्रेस पार्टी हिंदू मतदाताओं की खुशी की खातिर यूनाइटेड फ्रंट से किनारा किए हुए है लेकिन जिस तरह बंगाल के अंदर चुनाव के बाद तृणमूल और भाजपा का गठबंधन संभव है इसी तरह असम में कांग्रेस और एयूडीएफ का निलाप भी गठबंधन हो सकता है।
असम में आज कल जम्मू कश्मीर के भाजपा और पीडीएफ गठबंधन के समान एयुडीएफ भाजप सरकार पर भी चर्चे होने लगे हैं। एक खबर के मुताबिक बीजेपी की सहयोगी अगप कांग्रेस के साथ दोस्ती बढ़ा रही है मजबूरी में यह भी हो सकता है कि कांग्रेस बाहर से अगप, एयूडीएफ और बोडो फ्रंट के गठबंधन का समर्थन करे और भाजपा हाथ मलता रह जाए। राजनीतिक बाजार में चूंकि प्रत्येक वस्तु बिकाऊ है इसलिए हर चमत्कार संभव है।
 सत्ता पाने या जारी रखने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों को विभिन्न स्थानों पर तरह तरह की रणनीति अपनाने पर मजबूर होना पड़ता है। कहीं ये लोग हिंदुत्व के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता के नाम पर एकजुट हो जाते हैं। कहीं पर अत्याचार को खत्म करने का बहाना बनाकर आंशिक गठबंधन कर लेते हैं और कहीं अकेले चुनाव लड़ते हैं। जनता को मूर्ख बनाने के लिये कोई अच्छे दिनों के सपने दिखाता है कभी सबका साथ सबका विकास का नारा लगाता है तो कोई धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देता है। कोई प्रगतिशीलता उदारवाद का राग अलापता है। कोई भ्रष्टाचार उन्मूलन का संकल्प करता है तो कोई हिंदुत्व के संकट का रोना रोता है लेकिन यह चुनावी नारे और कस्में वादों केवल हाथी के दिखाने वाले दांतों के समान हैं।
जनता हाथी के इन सुंदर दांतों से बार बार धोखा खाते हैं और झांसे में आ जाते हैं इसलिए इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में उनके पास इसके अलावा कोई पर्याय नहीं है। इसमें शक नहीं कि इस प्रणाली में न केवल जनता बल्कि राजनीतिक दल भी मजबूर हैं लेकिन राजनीतिक दलों की मजबूरी अस्थायी होती है। उन्हें कभी न कभी, कैसे न कैसे, पूर्ण या आंशिक सत्ता नसीब हो जाता है लेकिन आम जनता का यह हाल है कि उनके हिस्से में खाली सपनों और खोखले वादों के अलावा कुछ नहीं आता फिर भी वह लोकतंत्र के नशे में बदमस्त झूमते रहते हैं ।
तमिलनाडु का उदाहरण हमारे सामने है जहां अब तक सख्त गर्मी के कारण जय ललिता सभाओं में 5 लोग मर चुके हैं। विपक्ष की शिकायत पर मानवाधिकार आयोग ने राज्य के मुख्य सचिव से स्पष्टीकरण मांगा है कि जहां गर्मी के कारण जिला प्रशासन ने जनता पर दोपहर ग्यारह से चार के बीच बाहर निकलने पर प्रतिबंध लगा रखा है ऐसे में जनसभा की अनुमति क्यों दी गई? लेकिन अंधे बहरे भक्तों और उनके संवेदन शून्य नेताओं को इस की चिंता कब है?
मुख्यमंत्री जय ललिता का हेलिकॉप्टर रात में सभा स्थल तक नहीं पहुंच सकता वह अपने स्वास्थ्य के कारण वाहन से नहीं आसकतीं इसलिए भरी दोपहर में सभा रखी जाती है। जनता अपनी जान पर खेलकर इन सभाओं में उपस्थित होते हैं और बीमार होकर घर जाते हैं बल्कि कभी-कभी उनकी लाशें ही घर पहुंचती हैं। इस चुनाव के खेल ने पूरे राष्ट्र को अपंग बना रखा है केवल राजनीतिज्ञ और उनके संरक्षक पूंजीपति हैं कि जिनके वारे न्यारे हैं। 

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