Monday 23 May 2016

चुनाव परिणाम: सुनो ममता सुनो अजमल कोई जीता कोई घायल

ओलंपिक प्रतियोगिता में चूंकि कई खेल होते हैं इसलिए विभिन्न देशों को किसी न किसी क्षेत्र में कोई न कोई पदक मिल ही जाता है ऐसा ही कुछ हाल के विधानसभा चुनाव में भी हुआ सभी दलों के हिस्से में कुछ ना कुछ आ ही गया। राजनीति में खुशी का संबंध अपनी जीत से अधिक प्रतिसपर्धी की हार से होता है इसलिए हर कोई अपनी किसी किसी न सफलता या दुश्मन के किसी न किसी विफलता पर बग़लें बजा रहा है जैसे भाजपा खुश है कि असम में सफलता मिल गई उसे इस बात की भी खुशी है कि कांग्रेस को असम के साथ केरल में भी सत्ता से वंचित होना पड़ा। कांग्रेस को इस बात की खुशी है कि वे पदोचीरी में सफल हो गई और लोकसभा चुनाव की तुलना में भाजपा मतदाता के अनुपात में हर जगह की कमी हुई। सीपीएम को खुशी है कि बंगाल में हार के बावजूद उसे केरल में सत्ता प्राप्त हो गई।
यह चुनाव पूर्व और दक्षिण भारत में हुए थे। पूर्व में भाजपा और एक क्षेत्रीय पार्टी ने जीत दर्ज कराई जबकि दक्षिण में कांग्रेस, कम्युनिस्ट और एक क्षेत्रीय पार्टी ने जीत दर्ज कराई। ईस प्रकार क्षेत्रीय पक्ष के अलावा किसी को दोहरी सफलता नहीं मिली। जय ललिता इस बात से प्रसन्न हैं कि अतीत की तुलना सीटों में कमी के बावजूद वह फिर किसी तरह बहुमत में आ ही गईं और ममता के क्या कहने कि उन्होंने न केवल अपने मतदाताओं के अनुपात बल्कि सीट भी बढा कर जबरदस्त सफलता दर्ज करवाई। इस बार मुसलमानों को न केवल असम के बाहर भाजपा की विफलता की खुशी है बल्कि वे इस बात से खुश हैं कि नव निर्वाचित मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या भाजपा के सफल होने वाले विधायकों से लगभग दोगुनी है हालांकि मौलाना बदरुद्दीन अजमल खुद चुनाव हार गए ।
असम में भाजपा की सफलता के सबसे महत्वपूर्ण कारणों में से एक सहयोगी दल हैं दूसरा कारण एक बहुत तेज तर्रार पूर्व कांग्रेसी मंत्री हेमंता बिस्वा का भाजप में शामिल होना है। भाजपा ने अपने सहयोगियों को बहुत कम सीटों पर लड़ने का मौका दिया इसके बावजूद अगप और बोडो फ्रंट ने कुल मिलाकर 26 सीटों पर जीत हासिल करके दिखा दिया कि क्षेत्रीय दलों में कितना दमखम है। भाजपा ने खुद 60 सीटों पर ऐतिहासिक जीत दर्ज कराई जबकि उसके वोट का अनुपात कांग्रेस से डेढ़ प्रतिशत कम है। कांग्रेस ज्यादा वोट के बावजूद भाजपा से आधे उम्मीदवार भी सफल न कर सकी। इसका अर्थ है कि भाजपा के समर्थक दलों का उसे फायदा मिला और वह पूर्व भारत में अपने पैर जमाने में कामयाब हो गई। कांग्रेस की इस विफलता में इसके लिए चेतावनी है। पहला सबक यह है कि सब से अधिक वोट प्राप्त कर लेना काफी नहीं है बल्कि सफलता के लिए क्षेत्रीय दलों से तालमेल बहुत जरूरी है। कांग्रेस अगर अगप या बोडो फरंट को अपने साथ लेने में सफल हो जाती तो उसकी हालत ऐसी खस्ता नहीं होती जैसी अब है।
कांग्रेस की दूसरी गलती 81 वर्षीय तरुण गोगोई को नहीं बदलना थी। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व तो राहुल गांधी के हाथ में है लेकिन राज्य की जनता जानती है वह मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे इसलिए एक प्रभावी क्षेत्रीय नेता के बिना प्रांतीय चुनाव में सफलता असंभव है। पूर्व कांग्रेसी मंत्री को अपने साथ ले लेना भाजपा के लिए बहुत बड़े फायदे का सौदा था। हेमंता बिसवा एक ज़माने तक तरुण गोगोई के दाहिने हाथ रहे हैं लेकिन जब से तरुण गोगोई ने अपने बेटे गौरव गोगोई को राजनीति में आगे बढ़ाया तो हेमंता बिसवा नाराज हो गए और अंततः भाजपा में चले गए। अगर कांग्रेस एक साल पहले बिसवा या उन जैसे किसी युवा को मुख्यमंत्री के पद पर बैठा देती तब भी जनता को मूर्ख बनाया जा सकता था लेकिन कांग्रेस नेतृत्व के अंदर पाई जाने वाली आत्मविश्वास की कमी उस के निर्णयशक्ति को प्रभावित कर रही है।
 इस चुनाव में कांग्रेस के समान दूसरा बड़ा नुकसान मौलाना बदरुद्दीन अजमल की एयूडीएफ का हुआ। उनके विधायकों की संख्या 18 से घटकर 15 पर आ गई और वह खुद भी चुनाव हार गए ऐसे में किंग मेकर का सपना देखने वाला बेताज बादशाह दोटके का फकीर हो गया। असम जैसे राज्य में जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 30 प्रतिशत है अगर उनकी राजनीतिक पार्टी का यह हाल है तो जहां वह 10 या 15 प्रतिशत हैं उनकी अपनी राजनीतिक पार्टी का भविष्य क्या होगा?
भाजपा को प्राप्त होने वाला स्पष्ट बहुमत एयूडीएफ का सौभाग्य है। ऐसे क्षेत्रीय दल जो एक ही व्यक्ति विशेष के नाम पर चलते हैं उसके नेता का चुनाव हार जाना बहुत महत्वपूर्ण होता है। इसीलिए यूपी में अगर समाजवादी पार्टी का सफ़ाया हो जाए तब भी मुलायम सिंह यादव और उनका परिवार किसी तरह अपने आप को सफल कर लेता है। वह तो अच्छा हुआ कि कांग्रेस हार गई वरना एयूडीएफ के सदस्यों की बड़ी संख्या मौलाना अजमल की हार के बाद कांग्रेस की ओर निकल जाती बल्कि अगर भाजपा को सरकार बनाने में उनकी आवश्यकता होतो तो उसके साथ हो जाती।
दरअसल यह राजनेता मौलाना अजमल के साथ आए ही इसलिए हैं कि उनकी मदद से अपनी राजनीति चमकाएँ जब उन्हें महसूस होगा कि मौलाना की अपनी नाव डूब रही है तो वह पहले बाहर छलांग लगाएंगे और उन डूबते तिनकों का सहारा भगवा हो या हरा हो, लाल हो या पीला हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उन को तो किसी तरह सत्ता के तट पर आना होता है।
पश्चिम बंगाल में इस बार कांग्रेस पार्टी ने दक्षिणपंथी दलों के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा। कांग्रेस को इसका दोहरा लाभ हुआ यानी न सिर्फ उस वोट अनुपात बढ़ा बल्कि उसके विधायकों की संख्या में भी वृद्धि हुई और अब वह पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी विपक्षी दल है। कम्युनिस्ट बेचारे घाटे में रहे क्योंकि उनके अनुशासित मतदाताओं ने तो कांग्रेस को वोट दे दिया मगर कांग्रेस के मतदाता ममता बनर्जी की ओर मुड़ गए। ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल के सबसे बड़े अखबार आनंद बाज़ार पत्रिका, टेलीग्राफ और एबीपी चैनल को गलत साबित करते हुए असाधारण सफलता दर्ज कराई।
इन परिणामों की तुलना अगर 2011 के विधानसभा चुनाव से किया जाए तो भाजपा हर दो तरह से बेहतर स्थिति में है। इस का वोट अनुपात 4 से 10 प्रतिशत तक पहुंच गया और सदस्यों की संख्या भी एक से 3 तक जा पहुंची मगर 2014 राष्ट्रीय चुनाव के मुकाबले उस का न केवल वोट अनुपात कम हुआ बल्कि अपेक्षित सदस्यों की संख्या में भी भारी कमी हुई। इसलिए यह स्वीकार करना होगा कि बंगाल में जहां दोनों कांग्रेस पार्टियां विकास की ओर बढ रही हैं वहीं भाजपा और कम्युनिस्ट क्षय से पीड़ित हैं।
ममता बनर्जी के एक के बाद एक भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोपों और स्टिंग वीडियो के मीडिया में आने के बावजूद इतनी जबरदस्त सफलता इस बात का प्रमाण है कि जनता भ्रष्टाचार को खास महत्व नहीं देती। इस चुनाव से यह भी साबित हो गया कि अगर केंद्र सरकार किसी क्षेत्रीय पार्टी का कान मरोड़ने की कोशिश करे जैसा कि भाजपा ने तृणमूल के साथ किया था तो जनता की सहानुभूति क्षेत्रीय दल को प्राप्त हो जाती हैं। इसलिए भाजपा को भविष्य में इस का ध्यान रखना पडेगा कि इस तरह के कृत्रिम दबाव से लाभ के बजाय नुकसान होता है।
बंगाल में भाजपा की विफलता के दो कारण हैं एक तो मोदी जी का जादू का टूट रहा है और दूसरे बंगाल में भाजपा को आसाम जैसे सहयोगी नहीं मिले। अगर तृणमुल भाजपा के साथ जाने की गलती करती तो कांग्रेस की तरह भाजपा का तो जबरदस्त लाभ हो जाता लेकिन कम्युनिस्टों की तरह वे बड़े घाटे में रहती। जिस तरह कम्युनिस्टों की निकटता का कांग्रेस को फायदा मिला उसी तरह भाजपा से दूरी तृणमुल के लिए उपयोगी साबित हुई।
पश्चिम बंगाल की तरह तमिलनाडु में कांग्रेस ने द्रमुक के साथ गठबंधन किया। यहां एकता का लाभ दोनों को मिला और अतीत के लोकसभा एवं राज्य चुनाव की तुलना में उनकी हालत बेहतर हुई लेकिन यह वृध्दि उतनी नहीं थी कि जय ललिता को सत्ता से बेदखल कर सके। तमिलनाडु में डीएमके ने वही गलती की जो कांग्रेस ने असम में की थी। आज भी डीएमके का चेहरा बुजुर्ग और कमजोर करुणानिधि हैं। उनकी जगह व्यावहारिक काम करने के लिए स्टालिन को आगे बढ़ाया गया जो करुणानिधि के सुपुत्र हैं इसलिए शायद जनता ने अपनी परंपरा के खिलाफ फिर एक बार जय ललिता के गले में जय माला डाल दी।
जय ललिता का स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं है लेकिन करुणानिधि से से बेहतर है। भाजपा के वोट शेयर में मामूली यानी एक दशमलौ 6 प्रतिशत की वृद्धि हुई है लेकिन सभी 134 सीटों पर विफलता शर्मनाक हार है। भाजपा की यह स्थिति इसलिए भी हुई कि असम के विपरीत तमिलनाडु में उसके सारे सहयोगी भाग खड़े हुए और वह बंगाल की तरह बिल्कुल अछूत बन कर रह गई।
केरल से इस बार भाजपा को बड़ी उम्मीदें थीं इसलिए वहां का चुनाव बड़े जोर-शोर से लड़ा गया। इस दौरान दुर्भाग्य से एक मंदिर में आग लग गई। मोदी जी ने उस का दौरा किया तब केंद्र की ओर से ऐसी सहायता की मानो सारा काम दिल्ली की भाजपा सरकार कर रही है। देश के 10 राज्य अकाल पीड़ित हैं। कई स्थानों पर लगातार दूसरे और तीसरे साल यह स्थिति है। प्रधानमंत्री ने उनमें से किसी क्षेत्र में जाने की तकलीफ नहीं की क्योंकि वहां न चुनाव हो रहे हैं और न वे सीमा पार हैं लेकिन केरल के चुनाव ने वहां की आग को महत्वपूर्ण बना दिया।
भाजपा ने कांग्रेस पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए श्रीसंत नामक खिलाड़ी को अपना उम्मीदवार बना दिया जिस पर जुए में शामिल होने के कारण आईपीएल में रोक लगा दी गई। जब इससे भी काम नहीं चला तो मोदी जी ने केरल जैसी विकसित राज्य को सोमालिया से बदतर करार दे दिया। चुनावी नतीजों ने साबित कर दिया कि भाजपा के लिए केरल सोमालिया से बदतर है। क्योंकि सारी मशक्कत के बावजूद उसे केवल में एक विधायक की सफलता पर संतोष करना पड़ा जब कि मुस्लिम लीग को 18 सीटों पर जीत मिली। केंद्र में सत्ताधारी पार्टी का यह प्रदर्शन शर्मनाक बात है।
केरल के परिणाम अपेक्षानुसार आने का कारण वहाँ हर पांच साल बाद निराश जनता नए सत्ताधारी को सबक सिखा कर पुरानी पार्टी को सत्ता सौंप देते हैं। इस तरह चुनाव प्रक्रिया से लोगों को क्षणिक संतोष मिल जाता है। कम्युनिस्ट बेचारे पिछले राष्ट्रीय चुनाव के बाद से परेशान हैं। उनका सबसे मजबूत गढ़ पश्चिम बंगाल कब का विध्वंस हो चुका है। इसे बचाने के लिए कांग्रेस का हाथ भी उनका साथ नहीं दे सका लेकिन कम से कम केरल में उन्होंने जीत दर्ज करवा कर अपने अस्तित्व का प्रमाण दिया। इस बार अगर लाल सितारा केरल में भी डूब जाता तो इस राजनैतिक दल की लगभग मृत्यु हो जाती लेकिन नियति ने भारतीय राजनीति के इंद्रधनुष में उसे कुछ और दिन पनपने का मौका इनायत कर दिया जिस से कम्युनिस्ट नेताओं के चेहरे पर लंबे समय के बाद मुस्कान और आशा की किरण दिखी।
इस चुनाव के बाद जिस तरह मुसलमान इस बात से खुश हो रहे हैं कि भाजपा की तुलना में नौ निर्वाचित मुस्लिम विधायकों की संख्या बहुत अधिक है उसी तरह कांग्रेस भी अपनी हार के बावजूद अपने कामयाब सदस्यों की संख्या पर बग़लें बजा रही है जो भाजपा से दोगुनी है। कांग्रेस के लिए एक खुशखबरी दिल्ली नगर निगम उपचुनाव के परिणामों से भी आई। दिल्ली नगर पालिका में भाजपा को बहुमत प्राप्त है। इस बार केजरीवाल की 'आप' ने पहली बार इन चुनावों में भाग लिया और प्रारंभ में ऐसा लग रहा था कि फिर एक बार झाड़ू सारा सुपड़ा साफ कर जाएगा क्योंकि 13 में से 12 पर वह आगे चल रही थी लेकिन शाम तक दृश्य बदल गया। 'आप' को केवल 5 सफलता मिली और 4 कांग्रेस की झोली में चली गई, जबकि एक निर्दलीय तोमर भी कांग्रेस का बागी था और उसकी घर वापसी से कांग्रेस और 'आप' बराबर हो गए।
भाजपा को दिल्ली में केवल 3 पर समाधान करना पड़ा जो लज्जास्पद है लेकिन ऐसा तो पंचायत चुनावों में भी होता रहा है। इस साल उपचुनाव में भाजपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। तेलंगाना में एक सीट पर चुनाव हुआ जिस पर टीआरएस सफल रही इस पर दूसरे नंबर पर कांग्रेस थी भाजपा कहीं नहीं थी। उत्तर प्रदेश में दोनों सीटें समाजवादी ने जीत लीं जबकि अगले चुनाव महाभारत का कुरुक्षेत्र वही है। झारखंड में दो में से एक पर कांग्रेस और एक पर भाजपा जीती। गुजरात में भाजपा सफल जरूर हुई लेकिन कांग्रेस और उसके वोट के अंतर 2 फीसदी से कम था। इसके बावजूद अगर भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत का सपना देख रही है तो किसी को काल्पनिक मूर्खों के स्वर्ग में रहने से कौन रोक सकता है?

No comments:

Post a Comment