Tuesday 19 April 2016

कश्मीर जल रहा है, शोले उगल रहा है

कश्मीर में नई सरकार का गठन होते ही हिंसा फूट पड़ी। कई निर्दोष नागरिक घायल और पांच मारे गए। मृतकों के घर वालों का दुख बांटने और घायलों के जखमों पर मरहम रखने के लिए केंद्रीय मंत्री तो दूर राज्य की मुख्यमंत्री और उनका नायब तक नहीं गया। वैसे भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और विधायक सत शर्मा ने अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ऐसी हिंसा का आरोप आतंकवादियों पर लगा दिया जिसमें नागरिक सुरक्षा बलों की गोली का निशाना बने हैं। उन्होंने इस हिंसा को सेना को बदनाम करने का षडयंत भी करार दिया लेकिन सवाल यह है कि इस साजिश पर अमल किसने किया? सुरक्षा बलों से किसने कहा कि वे अंधाधुंध गोलियां चलाएं और आंसू गैस के डिब्बे इस जोर से फेंकें कि युवा की मौत हो जाए?
 इस आरोप के बाद जांच की मांग बेमतलब हो जाती है। क्या कश्मीर के अलावा देश के किसी और राज्य में सुरक्षा बलों के दमन के बाद सत्ता सीन लोग अपने राज्य के बहुसंख्यक वर्ग के खिलाफ इस तरह का बयान दे सकते हैं? इस को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि भाजप आम लोगों के नहीं सेना वोट से चुनाव जीती है वैसे जहां तक घाटी का सवाल है वहाँ सारी सीटों पर उसकी जमानत जब्त हो गई क्योंकि जनता ने उसे वोट नहीं दिया और अब देंगे भी नहीं खैर। जम्मू कश्मीर भाजपा के प्रमुख सत शर्मा जो जनता के  खून खराबे के बजाय सुरक्षाबलों की बदनामी को लेकर परेशान हैं उन्हें हरियाणा में सामने आने वाली प्रकाश सिंह पैनल की रिपोर्ट देख लेनी चाहिए।
 प्रकाश सिंह पूर्व पुलिस प्रमुख हैं और उन्हें जाट प्रदर्शनों के दौरान पुलिस विद्रोह की जांच का काम सौंपा गया था। इस पैनल के अनुसार हिंसा के दौरान भाजपा शासित हरियाणा के हर जिले में औसतन 60 से 70 पुलिस वालों ने अपने अधिकारियों के आदेश पालन करने से इनकार कर दिया था। उनमें से कई नाजुक परिस्थितियों में छुट्टी पर चले गए थे। ड्यूटी पर मौजूद जाट भी मूकदर्शक बने दुकानों, घरों बल्कि पुलिस थानों तक को लुटता और जलता हुआ देख रहे थे। आम पुलिस कांस्टेबल तो दरकिनार डीजीपी वाई पी सिंघल ने फसाद के दौरान दंगा प्रभावित क्षेत्रों की एक भी यात्रा नहीं की। शांति बहाली के बाद वे केवल एक बार मुख्यमंत्री मनोहर लाल खत्तर के साथ रोहतक गए थे। इस रिपोर्ट पर कड़ी कार्रवाई की तैयारी चल रही है क्या ऐसा करने से सुरक्षा बलों का मनोबल कम न होगाऔर यह शुभ कार्य कौन करेगा?
कश्मीर की हिंसा खत्म भी नहीं हुई थी कि गुजरात में हंगामा शुरु हो गया। इससे पहले कि पटेलों की 7 सदस्यीय समिति मुख्यमंत्री से मुलाकात करती मेहसाना जिले में पाटीदार अनामत आंदोलन समिति ने हारदिक पटेल की रिहाई को लेकर विरोध पर्दशन करने की घोषणा की। जिला प्रशासन ने प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी इसके बावजूद सरकारी आदेश का उल्लंघन करते हुए जबरदस्त जुलूस निकाला गया, जनसभा भी हुई और भीड़ ने पुलिस पर पथराव किया। इस हिंसा में एक एकजेक्युटिव मजिस्ट्रेट के हाथ की हड्डी टूट गई पांच पुलिसकर्मी और दो अधिकारी घायल हुए जबकि 25 प्रदर्शनकारियों को भी मामूली चोट आई। प्रदर्शनकारी इतने उत्ताजित थे कि इन्हों ने ग्रह मंत्री रजनी पटेल का घर फूंक दिया परंतु प्रशासन केवल लाठीचार्ज और आंसू गैस पर संतुष्ट रहा। इसके विपरीत हिन्दवारा में तो प्रदर्शनकारियों ने किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया। वहां पर पत्थरबाज़ी लिए पत्थर भी नहीं थे किसी पुलिस वाले को खराश तक नहीं आई फिर भी गोली चली और हत्याएं हुईं। प्रशन यह है कि कया एक राष्ट्र में एक विधान और एक निशान की घोषणा करने वालों को यह भेदभाव शोभा देता है? वैसे सत्ता की खातिर महबूबा मुफ्ती के साथ हाथ मिला कर भाजपा ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के तथाकथित बलिदान पर भी धूल डाल दी है।
उप मुख्यमंत्री डॉ। निर्मल सिंह तो खैर पीड़ितों से मिलने क्या जाते कश्मीरियों की शुभचिंतक मानी जाने वाली महबूबा मुफ्ती भी श्रीनगर से 69 किलोमीटर दूर हिन्दवारा जाने के बजाय दिल्ली पहुंच गईं। वहां पर उन्होंने कश्मीरियों के लिए चावल की मांग की, कर्मचारियों के वेतन के लिए वित्तीय सहायता का आश्वासन लिया और रक्षा मंत्री से मिलकर जांच के वादे सहित लौट आईं। पिछले साल मार्च तक इस तरह की 35 जांच जारी थीं उनमें कितनी वृध्दि हुई कौन जाने? विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह की जांच की रिपोर्ट तक पूरी नहीं होती इस के आधार पर किसी आरोपी को सज़ा का सवाल ही पैदा नहीं होता।
कश्मीर में ताजा विरोध प्रदर्शन का कारण एक छात्रा पर सैनिक द्वारा बलात्कार का आरोप था। होना तो यह चाहिए था इस शिकायत के आते ही पुलिस एफआईआर दर्ज करती और जांच शुरू कर देती। इसमें अगर प्रामाणिकता पाई जाती तो आरोपी को गिरफ्तार किया जाता तथा छात्र को मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के सामने अपना पक्ष स्पष्ट करने का अवसर दिया जाता है। जब यह जानकारी मीडिया में आती तो अपने आप अफवाहों का दरवाजा बंद हो जाता लेकिन हुआ यह कि छात्रा और उसके पिता को अनुचित हिरासत में ले लिया गया और लड़की को माँ से भी मिलने की अनुमति नहीं दी गई जिससे चिंताग्रस्त हो कर वे प्रेस में पहुंच गई।
यह तो ऐसा ही है जैसे एक महीने पहले राजस्थान के चित्तौड़ गढ में स्थित मेवाड़ विश्वविद्यालय में चार कश्मीरी विद्यार्थियों को अपने घर में गोमांस बनाकर खाने के आरोप में हिंदू छात्रों ने पीट दिया। विरोधी ऐसे हिंसक मुद्रा में थे कि उन्होंने खूब जमकर नारेबाजी की और परिसर के बाहर एक मांस की दुकान भी जला दी लेकिन उन्हें गिरफ्तार करने के बजाय प्रशासन ने कशमीरी छात्रों को हिरासत में ले लिया। पुलिस अधिकारी को विश्वास था कि यह गोमांस नहीं है फिर भी इसका नमूना जांच के लिए भेज दिया गया। राजस्थान में मांसाहार की अनुमति है लेकिन मेवाड़ विश्वविद्यालय के परिसर में वह निषिद्ध है। इसलिए जाहिर है कैंटीन में सिर्फ सब्जी ही परोसी जाती होगी। अब जो छात्र मांस खाना चाहें उनके लिए घर में खाना बनाने के अलावा कोई उपाय नहीं है। चूंकि राज्य में गौ हत्या पर प्रतिबंध है इसलिए अनिवार्य रूप से वे गोमांस नहीं खा सकते। लेकिन प्रशासन के आशीर्वाद से अगर बदमाशी घर में प्रवेश कर जाए तो उस पर किसका जोर चलता है? प्रशासन अगर कश्मीरी छात्रों के बजाय हमलावरों को हिरासत में लेता तो वे हतोत्साहित होते लेकिन भाजपा वाले चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकते ।
कश्मीर में जब छात्रा और उसके पिता को अवैध हिरासत में ले लिया गया तो अफवाहों को पर लग गए। आरोप सेना पर था इसलिए लोग छावनी के सामने विरोध प्रदर्शन करने के लिए पहुंचे। होना तो यह चाहिए था कि उनकी गलतफहमी दूर की जाती या मजबूरी में लाठीचार्ज करके भगा दिया जाता लेकिन उनकी बात सुनकर उन्हें विश्वास में लेने के बजाए उन पर गोलियां बरसाई गईं। इस घटना में दो लोगों की तो घटनास्थल पर मौत हो गई जिनमें एक उभरता हुआ क्रिकेट खिलाडी नईम बट था और एक महिला भी थी जो दूर खेत में काम कर रही थी बाकी युवाओं का निधन अस्पताल में हुआ। इस अत्याचार को छिपाना के लिए प्रशासन ने बहुत भोंडा तरीका अपनाया।
सेना ने अपनी सफाई में एक वीडियो पेश की जिसमें छात्र का यह बयान था कि उसके साथ सैनिक नहीं बल्कि दो अज्ञात स्थानीय छात्रों ने दुर्व्यवहार किया। वीडियो के विषय में यह दावा किया गया कि यह बयान मीडिया के सामने दिया गया है जबकि इसमें छात्र पुलिस अंकल कहकर संबोधित करती है। इससे जाहिर हो गया कि यह वक्तव्य राज्य पुलिस की हिरासत लिया गया है और ऐसी हिरासत में जो गैर कानूनी थी इसलिए उसका भला क्या महत्व? इस वीडियो सेना के हाथ लग जाना और सोशल मीडिया में फैल जाना अनगिनत संदेह को जन्म देता है। अदालत में जज ने पुलिस की अवैध हिरासत के लिए सरज़निश और तुरंत छात्रा को उसके पिता सहित उपस्थित करने का आदेश दिया। जज के सामने भी छात्रा ने सेना के बजाय दूसरे छात्रों पर बलात्कार की कोशिश का आरोप लगाया लेकिन सवाल यह उठता है कि इस में आपराधिक देरी के कारण जो 5 निर्दोष लोगों की जान गई इसके लिए कौन जिम्मेदार है?  केवल दो पुलिस कांस्टेबल को निलंबित कर देने से मरने वाले जीवित नहीं होंगे।
हिन्दवारा में जब पत्थरबाज़ी का आरोप कमजोर हो गया तो आरोप लगा की भीड़ सैन्य छावनी को आग लगाने जा रही थी हालांकि इसके पक्ष में भी कोई सबूत पेश नहीं किया गया। कश्मीर में हर विरोध को अलगाव वाद से जोड़ दिया जाता है हालांकि सुरक्षाबलों के खिलाफ हिंसा कश्मीर से कहीं अधिक पूर्वोत्तर प्रांतों और नक्सलवाद से प्रभावित आदिवासी क्षेत्रों में घटती हैं। अभी हाल में 30 मार्च को छत्तीसगढ़ गढ में नक्सलियों ने एक सैन्य ट्रक को  बारूदी सुरंग से उड़ा कर सीआरपीएफ के 7 जवानों को मार दिया। 2013 - 14 के भीतर इस एक राज्य में 53 सुरक्षा बल कर्मी माओवादियों के हाथों की मृत्यु हुई, जबकि केवल 40 सशस्त्र नक्सली मारे गए ।
कश्मीरी हिंसा मात्र अलगाव वाद के कारण नहीं है बल्कि मानवाधिकारों के हनन का विरोध पर प्रदर्शन करने वालों पर सरकारी आतंकवाद के कारण भी होती है। इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण 2010  की हिंसा थी जिसमें 100 से अधिक लोगों ने बलिदान दिया था। यह विरोध किसी विदेशी या अलगाववादी नेता के उकसाने पर नहीं हुआ था बलकि उस साल 30 अप्रैल को शहजाद अहमद, शफी लोन और रियाज अहमद नामक सोपोर के तीन युवकों को अच्छी मजदूरी का लालच देकर सेना में हमाल की नौकरी पर रखा गया और फिर उन की हत्या करके आतंकवादी करार दे दिया गया। यह हवाई आरोप नहीं हैं बल्कि 5 साल बाद सेना ने इस गंभीर अपराध में अपने 5 कर्मियों को आजीवन कारावास की सजा सुना दी। सच तो यह है कि उस प्रकार अलगाव वाद के रुझान को बढ़ावा मिलता है।
इस तथ्य को पूर्व सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह ने उक्त कांड के बाद जून 2010  में स्वीकार किया था। उन्होंने घाटी में हिंसा और विरोध प्रदर्शनों के दौरान निहत्थे युवकों पर गोलीबारी की घटनाओं के संदर्भ में कश्मीर समस्या के राजनीतिक समाधान की वकालत की थी। दैनिक 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के साथ एक साक्षात्कार में जनरल वी के सिंह ने कहा था''मेरे विचार में अब विभिन्न राजनीतिक विचारों के लोगों को एक साथ वैठ कर व्यापक बातचीत की अवश्यकता है। उन्हो ने कहा खा भारतीय सेना ने कश्मीर में आंतरिक सुरक्षा की समग्र स्थिति पर काबू तो पा लिया है लेकिन अब मुद्दों को राजनीतिक लिहाज से हल करने की जरूरत है। '' संयोग से जनरल वीके सिंह सेना से सेवानिवृत्त होने के बाद राजनीति में अपने कदम जमा चुके हैं और उप विदेश मंत्री हैं। उनके लिए राजनीतिक हल निकालने के भरपूर अवसर हैं लेकिन शायद देश हित के बजाय निजी लाभ ने उन्हें अपना पिछला बयान भुला दिया है। आजकल तो वह सिवाय विवादास्पद बयान देने के विदेश मंत्रालय का भी कोई काम नहीं करते। यह निश्चित रूप से कुसंगत का प्रभाव है।
 हिन्दवारा त्रासदी के बाद अधिक 3600 सैनिकों को रवाना करवाने वाले श्री सिंह को याद नहीं कि उन्होंने कहा था '' राज्य पुलिस को अब अधिक सक्रिय होने की जरूरत है ताकि कश्मीर में तैनात लगभग पांच लाख सैनिकों की संख्या में कमी की जा सके। '' टीवी साक्षात्कार में जनरल वी के सिंह कह चुके हैं कि सुरक्षा बल कश्मीर की बिगड़ती स्थिति पर काबू पाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। उनका कहना था कश्मीर में शांति और व्यवस्था की स्थिति बेहद तनावपूर्ण है जिसका कारण स्थानीय लोगों के भीतर विश्वास की कमी है।
 जनरल वी के सिंह जिस कश्मीरी समस्या पर चिंता व्यक्त कर रहे थे इसकी गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है मानवाधिकार की संगठनों के अनुसार कश्मीर में पिछले इक्कीस साल से जारी सशस्त्र संघर्ष के परिणामस्वरूप 80 हजार से अधिक लोग मारे गए।  इस बाबत अलगाववादियों का दावा है कि मरने वाले नागरिकों की संख्या एक लाख से अधिक है, जबकि अधिकारी 47 हजार स्वीकार करते हैं।
कश्मीर समस्या को हल करने के लिए कश्मीरियों के मनोविज्ञान को समझना भी अवश्यक है। नवंबर 2014  में सेना की गोली से दो युवक मारे गए थे। सेना ने मृतकों के घर वालों को 10 लाख मुआवजा देने की घोषणा की लेकिन आश्चर्य की बात यह कि मृतक फैसल यूसुफ के पिता यूसुफ बट और मेराज उद्दीन डार के पिता गुलाम मोहम्मद डार ने पैसे लेने से इनकार कर दिया। उनकी मांग थी कि हत्यारों को हमारे हवाले किया जाए या उन की पहचान बताई जाए। दरअसल मांग यह थी कि रुपया देकर बहलाने फुसलाने के बजाए कातिलों को सजा दी जाए। बडगाम की यह घटना राज्य की चुनाव अभियान के दौरान हुई थी।
 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव अभियान में उस त्रासदी के बाद श्ररीनगर का दौरा किया था और चुनावी सभा में वादा किया था कि वह हत्यारों को सजा बहाल करेंगे। पिछले 30 वर्षों में किसी भारतीय प्रधानमंत्री की यह पहली घोषणा थी जिस से बहुत सारी उम्मीदें की गई थीं। इस घोषणा ने यह संदेश दिया था कि वह हत्यारों को सजा दिला कर वे कश्मीरी जनता का दिल जीतना चाहते हैं लेकिन हिन्दवारा के मामले में उनकी खामोशी से पता चलता है कि वह तो केवल चुनाव जीतना चाहते थे। सत्ताधारियों की समझ में जब तक यह बात नहीं आती कि कश्मीरी जनता का विश्वास प्राप्त किए बिना कश्मीर को साथ नहीं रखा जा सकता तब तक कश्मीर घाटी में शांति स्थापित नहीं हो सकता।

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