Tuesday 29 March 2016

उत्तराखंड का नकली और पंजाब का असली संवैधानिक गतिरोध

उत्तराखंड में संवैधानिक गतिरोध का बहाना बनाकर केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रपति शासन लगवा कर लोकतंत्र की पीठ में त्रिशूल घोंप दिया। इस विवाद की शुरुआत 18 मार्च को हुई जब आर्थिक विधेयक पर विपक्ष ने मतदान की मांग की। इस मांग का कारण कांग्रेस के 9 सदस्यों का विद्रोह करके भाजपा से मिल जाना था। कांग्रेस पार्टी ने ध्वनि मत से बिल पास करवा के अधिवेशन 28 मार्च तक के लिए स्थगित कर दिया। सदन के अध्यक्ष गोविंद सिंह कंजवाल ने 9 बागी सदस्यों को कारण बताओ नोटिस देकर पूछा कि क्यों न उनके खिलाफ दल बदलू कानून के तहत कार्रवाई की जाए। जवाब से  असंतुष्ट अध्यक्ष ने विधानसभा की बैठक से दो दिन पूर्व विद्रोहियों की सदस्यता रद्द कर दी। यह कदम संविधान संगत और रीति अनुसार था। राज्यपाल ने केंद्र को तीन पत्र लिखे उनमें से किसी में भी विधानसभा भंग करने की सिफारिश नहीं की गई थी।
क्या यह सारे लोग संविधान का उल्लंघन कर रहे थे? अगर कर भी रहे थे तब भी भाजपा को चाहिए था कि एक दिन रुक कर मुख्य मंत्री हरीश रावत के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव प्रस्तुत करती। वह अगर विश्वास प्राप्त करने में विफल हो जाते तो पता चल जाता कि बहुमत किसके पास है? इसके बाद किसी और को सरकार बनाने की संधी दी जाती जब सारे विकल्प समाप्त हो जाते तो राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाता। प्रशन यह है कि केंद्र सरकार ने एक और दिन प्रतिक्षा क्यों नहीं की? उत्तराखंड विधानसभा में कुल 70 सदस्य हैं जिनमें से 36 कांग्रेसी और 28 भाजपा के हैं। इनके अतिरिक्त 3 स्वतंत्र, 2 बीएसपी  और 1 यूकेडी वालों ने पीडीएफ नाम का एक मोर्चा बना रखा है जो कांग्रेस समर्थक है। इस तरह कांग्रेस को भाजपा के 28 के मुकाबले 42 सदस्यों का समर्थन प्राप्त था। सत्ता की लालसा में भाजपा ने कांग्रेस पार्टी में फूट डाली और 9 को अपना समर्थक बना लिया।
दल बदलू कानून के तहत विद्रोही विधायकों को सदस्यता से हाथ धोना पड़ता है मगर उस में अपवाद यह है कि अगर किसी पार्टी के एक तिहाई या अधिक सदस्य विद्रोह करके अपना अलग गुट बना लें तो वे सुरक्षित रहते हैं। कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 36 थी इस लिए सदस्यता बचाने के लिए कम से कम 12 का विद्रोह अनिवार्य था। अफसोस कि वित्त मंत्री अरुण जेटली एक विशेषज्ञ वकील होने के बावजूद न कानून जानते हैं और न हिसाब या दोनों की जानकारी रखने के बावजूद आंख मूंद कर दूध पीना चाहते हैं लेकिन जब न्यायिक डंडा सिर पर पडेगा तो उन को दिन में तारे नजर आजाएंगे। जेटली जी बार-बार यह कह रहे हैं कि 18 फरवरी को आर्थिक बिल का पास होना असंवैधानिक था इसलिए राज्य सरकार के त्याग पत्र देना चाहिए था परंतु सवाल यह है कि हरीश रावत अगर इस्तीफा भी दे देते तो क्या भाजपा व्दारा उन विद्रोहियों की सहायता से बहुमत का दावा योग्य था जो संविधान के अनुसार अपनी सदस्यता गंवा बैठे हैं?
वास्तविकता यही है कि उत्तराखंड में संवैधानिक संकट का राग अलापने वाले खुद संविधान का हनन कर रहे हैं। वे दल बदलू कानून की चपेट में आने वालों पर संविधान लागू करना नहीं चाहते क्योंकि वे भाजपा के समर्थक हैं। इसका मतलब है कि भाजपा खुद को और अपने समर्थक पूर्व कांग्रेसियों को संविधान से ऊपर समझती है। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा कांग्रेस के सदस्यों को खरीदने में तो सफल हो गई लेकिन पीडीएफ की दीवार में दरार नहीं डाल सकी। 28 फरवरी को स्थिति यह थी कि 9 सदस्यों के कम हो जाने से विधायकों की कुल संख्या 61 हो गई । उन में से 27 कांग्रेस के और 6 पीडीएफ मिलाकर भाजपा के 28 से स्पष्ट बहुमत में थे। इस स्थिति से भय भीत प्रधानमंत्री अपना असम का चुनावी दौरा अधूरा छोड़कर भागे-भागे दिल्ली आए और विधानसभा के अंदर आमने सामने मुकाबला करने के बजाए पीछे से वार कर दिया।
अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस के बागी सदस्यों की संख्या एक तिहाई से अधिक थी इस लिए भाजपा को कांग्रेस का तख्ता पलटने में सफलता हुई लेकिन उत्तराखंड में वह ऐसा नहीं कर सकी। इसलिए पार्टी के सचिव विजय वरगिया ने पहले तो पुलिस आयुक्त को धमकी दी कि वह सोच लें अगर कल सरकार बदल गई तो क्या होगा? हालांकि प्रशासन से इस स्वर में बात करना किसी सभ्य पार्टी के नेता को शोभा नहीं देता। इसके बाद अध्यक्ष के इस फैसले पर नाराजगी जताई कि उन्होंने 24 घंटे के भीतर विधानसभा की बैठक क्यों नहीं बुलाई? हालांकि इस मांग की कोई संवैधानिक औचित्य नहीं है। फिर एक विशेष विमान से विद्रोही विधायकों को दिल्ली लाकर न केवल बंधक बनाए रखा बल्कि उनके साथ राष्ट्रपति भवन की यात्रा भी की।
विजय वरगिया को यह नाटक करने के बजाय कांग्रेस के 3 अधिक सदस्यों को ख़रीदना चाहिए था ताकि वह दिल बदलू कानून से बच जाते। उनक हाल तो यह था जैसे किसी टीम को अंतिम ओवर में 12 रन बनाने हों और वह 9 रन बनाकर ढेर हो जाए। वैसे विजय वरगिया के लिए अपनी विफलता के पश्चात  एक और अवसर था। चूंकि 9 सदस्यों की कमी से काँग्रेसी विधायकों की संख्या घटकर 27 हो गई थी ऐसे में अगर भाजपा वाले पीडीएफ में फूट डाल कर उन के कम से कम 3 सदस्यों को अपने साथ कर लेते तो 61 लोगों की विधानसभा में भाजपा और उसके समर्थक 31 हो जाते और वह बहुमत में आ जाती लेकिन यह भी न हो सका। पीडीएफ एकजुट रही और भाजपा 28 पर ठिठुर कर रह गई कांग्रेस ने आखिरी गेंद पर छक्का लगाकर अपना स्कोर 33 पर पहुंचा दिया।
यह विफलता भाजपा के लिए असहनीय थी। इससे पहले कि रेफरी निर्णय की घोषणा करता बीजेपी के गुंडे भारत माता की जय का नारा लगाते हुए मैदान में कूद गए और पिच को खोद दिया। इसके बाद कमेंट्री बॉक्स से घोषणा हो गई कि आरएसएस ने नहीं बल्कि आईएसएस ने धांधली की है इसलिए मैच रद्द किया जाता है। विराट कोहली का खेल देखकर ऐसा लगता है कि भारत यह टूर्नामेंट जीत जाएगा लेकिन राजनीतिक बिसात पर नरेंद्र मोदी का निराशाजनक कामकाज बेशक भाजपा को पहले ही राउंड में बाहर कर देगी।
भाजपा अगर अपने सर्वोच्च लक्ष्य में सफल हो जाती तो वह उन कांग्रेसियों को जिनके खिलाफ उसने चुनाव लड़ा था महत्वपूर्ण मंत्रालयों दे कर राज्य पर अपना मुख्यमंत्री थोप देती। इसके बाद वे सारे देशद्रोही, भ्रष्ट और अयोग्य कांग्रेसी सच्चे देशभक्त और दूध के धुले गिने जाते। हर दो मोर्चे पर विफलता के बाद भाजप ने लोकतंत्र की हत्या कर दी लेकिन विवाद अब अदालत में चला गया है। 1989 के बोमई मामले में न्यायालय का स्पष्ट निर्देश है कि बहुमत का फैसला राज्यपाल भवन या राष्ट्रपति भवन में नहीं बल्कि विधानसभा के पटल पर होगा। इस फैसले के कारण भाजपा को अदालत में मुंह की खानी पड़ेगी लेकिन आए दिन अदालत में अपमानित होने वाली पार्टी को इस से क्या फर्क पड़ता है?
केंद्र सरकार के इस विवादास्पद फैसले से पहले एक वीडियो जारी हुवा जिसमें मुख्यमंत्री हरीश रावत अपने ही पूर्व विधायकों को एक पत्रकार के माध्यम से रिश्वत की पेशकश करते हुए नजर आए। इस वीडियो को बीजेपी वाले बड़ा नैतिक मुद्दा बनाकर पेश कर रहे हैं हालांकि देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर के सारे बड़े राजनीतिक दल सिर से पांव तक भ्रष्टाचार के दलदल में धंसे हुए हैं। कांग्रेसी विद्रोह का मुख्य प्रोत्साहन धन संसाधन ही है और फिर वीडियो का क्या? जब स्मृति ईरानी जेएनयू वीडियो में कश्मीरी प्रदर्शन की आवाज डालवा सकती हैं तो विजय वरगिया क्यों नहीं कर सकते? कांग्रेस भी देवीलाल के जमाने में हरियाणा के अंदर और एन टी रामारामाराव के युग में आंध्र प्रदेश के भीतर यह षडयंत्र कर चुकी है लेकिन जब चुनाव हुए तो जनता उसे सबक सिखा दिया। भाजपा की अगर यह धारणा है कि अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में चोर दरवाजे से हाथ आने वाली सत्ता स्थाई होगी तो बहुत जल्द उस की यह खुशफहमी दूर हो जाएगी। क्योंकि बकौल शायर
आप को डुबो देगी आप ही की ये खुशफहमी आदमी की दुश्मन है आदमी की खुशफहमी
इस नकली संवैधानिक संकट के विपरीत पंजाब के अंदर पैदा होने वाला वास्तविक संवैधानिक गतिरोध भी देखें। 18 फरवरी को पंजाब विधानसभा के अंदर अकाली दल, कांग्रेस और भाजपा तीनों ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया जिसके अनुसार '' सतलज यमुना नहर को किसी भी कीमत पर किसी भी हाल में बनने नहीं दिया जाएगा। किसी भी ओर से कोई भी ऐसा फैसला स्वीकार नहीं किया जाएगा जो पंजाब की जनता को उनके वैध अधिकार से वंचित करे। '' इस प्रस्ताव में किसी से मतलब सुप्रीम कोर्ट है और कोई फैसला यानी 30 मार्च तक सतलज यमुना नहर के लिए किसानों से अधीग्रहण की गई जमीन को वापस न करने का उच्चतम न्यायालय का निर्देश है।
पंजाब  सरकार ने मात्र मौखिक जमा खर्च पर संतोष नहीं किया बल्कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन करते हुए 4 हजार एकड़ जमीन किसानों को लौटा दी। राजनीतिज्ञों ने नहर को बंद करने के लिए इस में कीचड़ डालने का काम शुरू कर दिया। प्रशासन और पुलिस इस कानून के उल्लंघन को चुपचाप देखते रहे और केंद्र सरकार आंख मूंद कर सोती रही। इस तरह मानो एक राज्य की विधानसभा के सारे सदस्यों ने सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ विद्रोह कर दिया और किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। मीडिया ने इस मुद्दे पर चर्चा करने के बजाय राष्ट्र को ''भारत माता की जय '' में उलझाए रखा जबकि यह वास्तविक और गंभीर संवैधानिक संकट देश के संघीय ढांचे के लिए बहुत बडा खतरा है।
पंजाब विधानसभा के अनुसार सतलज यमुना नहर की जरूरत न पहले कभी थी और न अब है जबकि दसियों साल पुराने समझौते के तहत यह निर्माण हुआ है। इस नहर का 85 प्रतिशत काम पूरा हो चुका है और इस पर 700 करोड रुपये खर्च हो चुके हैं, जिसका बड़ा हिस्सा हरियाणा ने दिया है। हरियाणा और पंजाब की इस महाभारत में दोनों ओर एक ही ध्रतराष्ट्र की संतान एक दूसरे से संघर्षरत है। पंजाब सरकार में भाजपा शामिल है और हरियाणा में भाजपा की अपनी सरकार है। हरियाणा के मुख्यमंत्री पंजाबी हैं और जाटों के विरोध ने उनकी नींद उड़ा रखी लेकिन पंजाब से आने वाली इस मुसीबत ने तो उन्हें मानो मृत्युशय्या पर पहुंचा दिया। इस स्थिति में वह केवल यह कह सके कि पंजाब विधानसभा का यह संकल्प न्यायालय के फैसले का खुला उल्लंघन है और हम इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जाएंगे।
सुप्रीम कोर्ट तो पहले ही हरियाणा के पक्ष में फैसला कर चुका है। उन्हें तो चाहिए था उस पर कार्रवाई के लिए केंद्र सरकार के पास जाते लेकिन खट्टर को पता है कि मोदी जी में वह दमखम नहीं है कि पंजाब सरकार को झुका सकें इस लिए वे बिनाकारण सुप्रीम कोर्ट में जाकर टाइम पास करना चाहते हैं। जो लोग सुप्रीम कोर्ट को कोई महत्व नहीं देते उनके खिलाफ न्यायालय के दरवाजे पर फिर से दस्तक देना मूर्खता नहीं तो और क्या है। भाजपा वाले अगर इस तरह जनता को मूर्ख बनाना चाहते हैं तो बहुत जल्द उन्हें दाल आटे का भाव मालूम हो जाएगा। केंद्रीय मंत्री बिरेंनद्र सिंह ने पंजाब विधानसभा के फैसले को राजनीतिक करार देते हुए आरोप लगाया कि पड़ोसी राज्य को देश के संघीय ढांचे को प्रभावित करने का कोई अधिकार नहीं है।
 पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह ने कहा कि पंजाब विधानसभा ने चूंकि संघिय ढांचे को खतरे में डाल दिया है इसलिए उसके खिलाफ हरियाणा के सारे सांसदों और विधायकों को राष्ट्रपति के सामने विरोध प्रकट करते हुए त्याग पत्र दे देना चाहिए। उन्होंने ने दोनों राज्यों में राष्ट्रपती शासन लागू करने की मांग भी की। हरियाणा में भाजपा नेता मदन मोहन मित्तल ने तो यहां तक ​​कह दिया कि चूंकि पंजाब विधानसभा के सदस्यों ने सारे कानून नियम का उल्लंघन कर दिया है इसलिए अब समस्या का एकमात्र समाधान यह है कि पंजाब और हरियाणा का पुनर्गठन किया जाए और उन का फिर से विलय कर दिया जाए।
हरियाणा के इंडियन नेशनल लोकदल के अकाली दल से घनिष्ठ संबंध रहे हैं लेकिन उस ने भी सारे रिश्ते तोड लिए हैं। लोकदल के 10 विधायकों ने तो पंजाब विधानसभा में नारे लगाते हुए हल्ला भी बोल दिया वह तो खैर पुलिस बीच में आ गई वरना हाथापाई हो जाती। इसके जवाब में पंजाब के दस कांग्रेसी विधायक हरियाणा विधानसभा में घुस गए और नारे लगाए कि एक बूंद पानी हरियाणा को नहीं देंगे। इस हंगामे में देशभक्त भगवा सिंह (शेर) दुम दबाए मूकदर्शक बने रहे। आडवाणी जी ने किसी जमाने में नकली (सियोडो) धर्मनिरपेक्षता की शब्दावली का आविष्कार किया था अब समय आ गया है कि भाजपा के खिलाफ नकली देशभक्ती के शब्द का इस्तेमाल किया जाए। यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि उत्तराखंड में एक नकली संवैधानिक संकट की ओर तो सारी प्रजा आकर्षित है परंतु उस की सीमा पर पंजाब और हरियाणा में असली संवैधानिक तूफान की ओर कोई फटक कर नहीं देखता। यही मीडिया का सबसे बड़ा कारनामा है कि वह महत्वहीन को महत्वपूर्ण और महत्वपूर्ण को महत्वहीन बना देता है।

Tuesday 22 March 2016

गौ माता के रक्षक या भारत माता के भक्षक

क्या यह केवल संयोग है कि बिहार चुनाव से 14 दिन पहले पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में दादरी के स्थान पर गाय के नाम मोहम्मद अखलाक की हत्या कर दी गई और पश्चिम बंगाल में चुनाव से 16 दिन पहले लातेहार में गौ रक्षा समिति के लोगों ने मोहम्मद मजलूम और इनायतुल्लाह का क़त्ल करके शव पेड़ से लटका दिया। दोनों त्रासदियों के बाद कई दिनों तक केंद्रीय भाजपा सरकार के मुख पर ताला पड़ा रहा। झारखंड के मामले में तो पहले दो दिनों तक किसी राजनीतिक दल के नेता की हिम्मत नहीं हुई कि वह मरनेवालों के परिजनों को सांत्वना दे। राहुल जी दो बार हैदराबाद तो हो आए मगर लातेहार न जा सके। गुलाम नबी आजाद ने एक पत्र लिख कर चुप्पी साध ली। मुसलमानों के मसीहा समझे जाने वाले लालू और नीतीश तो दूर ममता बनर्जी और येचुरी तक कमाल उदासीनता का प्रदर्शन करते रहे और भारत माता की जय के खिलाफ गर्दन कटाना वालों का भी कोई बयान सामने नहीं आया। जेएनयू के मामले गला फाड़ फाड़ कर बोलने वालों को क्यों सांप सूंघ गया, जबकि इस बार तो मामला गौमांस का भी नहीं बल्कि बैलों व्यापार का था।
हमारे देश में सारा हंगामा राजनीतिक हित के मद्देनजर होता है और चुप्पी भी इसी उद्देश्य से साधी जाती है। गैर भाजपा दलों का गला शायद इस डर ने घोंट दिया कि कहीं इस त्रासदी का लाभ उठाकर भाजपा पश्चिम बंगाल में मैदान न मार ले। दो दिनों तक मीडिया में गूंजने के बाद यह घटना राजनीतिज्ञों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हुई। मजबूर हो कर एक एक करके लोगों ने बोलना शुरू किया। इसके बावजूद सीताराम येचुरी के अलावा जिन्हों ने दो वाक्यों का टविट करके निंदा की किसी पार्टी के प्रमुख ने अपनी जुबान नहीं खोली। हर किसी ने अपने प्रवक्ता के कंधे पर बंदूक रखकर मगरमच्छ के आंसू बहाने को काफी समझा। इन सारे बयानों पर नजर डालने से एक बात साफ नजर आती है कि भाजपा को सरकार को तो सब ने दोषी ठहराया और जी भर के लानत मलामत भी की लेकिन म्रतकों के परिजनों से किसी ने सहानुभूति व्यक्त नहीं की। हत्यारों को सजा देने की मांग तो दूर किसी ने उनकी ऐसी निंदा भी नहीं की जैसी कि की जानी चाहिये थी।
पीड़ितों के घर सिर्फ कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और झारखंड विकास मोर्चा (जनतांत्रिक) के नेता पहुंचे। बाबूलाल मरांडी (जो भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री भी रहे हैं) ने दोनो परिवारों के लिए प्रति 50 हजार की सहायता की घोषणा की। मरांडी ने बताया दोनों पर घर चलाने की जिम्मेदारी थी। 35 वर्षीय मजलूम के घर में 8 लोग हैं और 15 वर्षीय इनायतुल्लाह के पिता विकलांग हैं। बाबूलाल मरांडी के इस कदम को राजनीतिक संधीसाधक समझने का कोई कारण नहीं है इसलिए यह बात स्वीकार करनी पड़ती है कि भाजपा से निकलने के बाद उन लोगों में भी मानवता जागती है लेकिन जब तक वह उसके अंदर रहते हैं उम्मीद की कोई किरण नहीं फूटती। इस लिए प्रधानमंत्री को चाहिए कि सूफीवाद की शांति के संदेश से सारे जग को प्रकाशमय करने से पहले खुद अपने घर को इस से रौशन करों। वर्तमान में संघियों के ह्रदय से अधिक अंधेरी कहीं और नहीं है।
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सुखदेव भगत ने दिवंगतों के घर वालों से मुलाकात के बाद भाजपा को खूब बुरा भला कहा और इस त्रासदी की विस्तृत रिपोर्ट बनवा कर अपनी पार्टी के केंद्रीय नेताओं, राज्य के मुख्य सचिव और डीजीपी को रवाना करने का संकल्प किया। जाहिर है वे सब लोग जानते हैं कि यह सब किस का किया धरा है और क्यों? इसलिए वह रिपोर्ट कूड़ेदान की भेंट हो जाएगी। भगत ने राज्य सरकार से मुआवजा और मृतक की पत्नी के लिए राशन की दुकान बनवा कर देने का मांग की ताकि वह अपना घर चला सके। भगत ने शायद मुख्यमंत्री रघोबर दास का वक्तव्य नहीं पढ़ा वरना यह मांग न करते।
रघोबर दास को जब इस निर्मम हत्या की सूचना मिली तो उन्हें मृतकों सहानुभूति नहीं हुई बल्कि उन्हें याद आया कि झारखंड में भी उत्तराखंड के समान पशुओं को अन्य राज्य में ले जाने पर प्रतिबंध है इसलिए यह तस्करी का मामला हो सकता है। काश कि मुख्यमंत्री यह भी बता देते कि इस कानून में तस्कर की सजा खुलेआम फांसी है और इस सजा को लागू करने की ठेका हम ने गवरक्षा समिति को दे रखा है। जिस भगवा परिवार के रंगरूट ऐसी क्रूरता का प्रदर्शन करें और नेता उस का औचित्य प्रदान करें तो उन्हें गुलाम नबी आजाद से नाराज होने के बजाए उन को धन्यवाद देना चाहिए कि आजाद ने आरएसएस को आईएसएस के समान घोषित किया।
 इस परिस्थिति में लंबी रहस्यमय चुप्पी के बाद इस तरह के बयान दे कर भाजपा हिंदू आतंकवादियों को यह संदेश देती है कि तुम जो जी में आए करो हमारे होते तुम्हारे बाल बांका नहीं होगा इसलिए कि अनूप भरता राय जैसे पुलिस अधिकारी हमारे कब्जे में हैं। इस मामले में पांच लोगों को गिरफ्तार किया गया है और तीन आरोपी फरार हैं। एक गिरफ्तार और दूसरे भागोडे आरोपी का संबंध गौ रक्षा समिति से है। गिरफ्तार मिथिलेश प्रसाद साहू के चाचा दिलीप कुमार के अनुसार वह स्थानीय बजरंग दल का मुखिया है। मृतकों के परिजनों ने बताया कि हर साल बालूनाथ गांव में जहां यह हत्या हुई गौ कथा का आयोजन करके घ्रणा फैलाने का काम किया जाता है।
राजनीतिक दलों के दो मुख्य समस्याएं होती हैं। चुनाव में किसी तरह सफल हो जाना और सत्ता प्राप्ति के बाद अपने समर्थकों को खुश रखना। इस समस्या का सरल समाधान तो यह है कि राष्ट्रीय संसाधनों को जनता के कल्याण पर खर्च किया जाए जिससे अपने पराए सब खुश हो जाएं और जनता में पैठ बढ़े लेकिन ऐसा करने में निजी हित और उन निवेशकों का लाभ आड़े आ जाता है जिनके सहयोग से चुनाव लड़ा जाता है। भाजपा के पास इसका दूसरा हल यह है कि ठोस काम करने के बजाय अपने समर्थकों के अंदर सांप्रदायिक भावनाओं को बढ़ावा दो और कारणवश जब वह दंगा कर बैठें तो उन्हें सुरक्षा प्रदान करके खुश कर दो। भाजपा ने हत्यारों के साथ नरमी कर के खुद को उनका मसीहा तो साबित कर दिया है, लेकिन इसकी कीमत मुसलमानों से वसुल की। इसका सबूत सांप्रदायिक दंगों के आँकड़े हैं। पूर्व मुख्यमंत्री मरांडी के अनुसार झारखंड में 2014 के अंदर सांप्रदायिक दंगों की संख्या 15 थी जो 2015 में वह  बढ़कर 55 हो गई। क्या इसी का नाम सबका साथ और सबका विकास है।
फासीवादी दल तो ऐसे अवसरों पर इसलिए चुप्पी साध लेते हैं कि हिन्दू बहुमत खुश रहे मगर  तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों के मुख पर इसलिए ताला पड़ जाता है कि कहीं उनकी निंदा से हिन्दू बहुमत नाराज न हो जाए। इस प्रकार अनेक मतभेद के बावजूद लोकतंत्र में सारी राजनीतिक पार्टियां अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ अन्याय करने वालों के समर्थक व सहायक बन जाती हैं। कांग्रेस ने भी आजकल हिंदुओं को खुश करने की खातिर भगवा वस्त्र धारण कर लिया है।
जेएनयू में उसने पहले तो प्रदर्शनकारियों का खुल कर समर्थन किया मगर बाद में उसे नारा न लगाने वालों तक सीमित कर दिया। महाराष्ट्र में एम आई एम के विधायक के निलंबन पर कांग्रेस ने भाजपा से अधिक देश भक्ति का प्रदर्शन किया। मध्य प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस के तिवारी जी ने भारत माता की जय का समर्थन करके भाजपा वालों को चौंका दिया। गुजरात में गाय को राष्ट्र माता बनाने के लिए प्रदर्शन करने वाले एक युवक ने आत्महत्या कर ली उसके समर्थन में भाजपा के बजाय कांग्रेसियों ने विधानसभा में नारे लगाए। वाघेला ने घोषणा किया कि अगर भाजपा पहल करे तो कांग्रेस को वह अपने साथ पाएगी। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि भारत माता के भक्तों में उसकी अत्याचार पीडित बच्चों की खबर लेने वाला कोई नहीं है और बजरंग दल के आतंकवादी तो भारत माता की संतान को गौमाता के चरणों में बलिदान करने पर तुले हुए हैं।
 झारखंड का लातेहार जिला नक्सल बारी आंदोलन से प्रभावित है। पिछले महीने माओवादियों ने जिले के सदर थाने में नीवाड़ी पंचायत कार्यालय को विस्फोट से उड़ा दिया। इस धमाके से पूरा भवन ध्वस्त हो गया और सारे उपकरण बर्बाद हो गए। इसके बाद उन लोगों ने दो मोबाइल टॉवरस को भी आग लगा दी। विरोध प्रर्दशन सप्ताह के अंतर्गत प्रदर्शन के दौरान नक्सलियों ने नारेबाजी करने के बाद इस की जिम्मेदारी भी स्वीकार की लेकिन उनसे लोहा लेने के लिए कोई देशभक्त भारत माता की रक्षा करने के लिए अपने बिल से बाहर नहीं आया। निहत्तों पर घात लगाकर हल्ला करने वालों से किसी वीरता की अपेक्षा व्यर्थ है। इस घटना से एक दिन पहले गृहमंत्री ने माओवादियों से अपील की थी यदि वह हिंसा का रास्ता छोड़ दें तो सरकार उनसे बातचीत के लिए तैयार है। अगर वह अपना रास्ता बदल दें और फिर रोज़ी रोजगार के लिए पशुओं का व्यापार शुरू कर दें तो क्या गृहमंत्री गारंटी देंगे कि उनके संघ परीवार वाले उनकी हत्या कर के शव पेड़ से नहीं लटकाएँगे। राजनाथ अपराधियों को सज़ा दिलाना तो दूर झूठे मुंह कम से कम इस क्रूरता की निंदा ही कर देंगे। माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई पर प्रशासन की प्रशंसा करने वाले गृहमंत्री को क्या कभी मज़लूम और इनायत के हत्यारों को सजा दिलवाने की भी खुशी प्राप्त होगी?
एक साल से इस क्षेत्र में पशु व्यापारियों को डराया धमकाया जा रहा है। पिछले 6 महीने में 5 बार धमकियां मिल चुकी हैं। इसके बावजूद पुलिस अधिकारी अनूप भरता राय कहते हैं पिछले एक साल में किसी संगठन के खिलाफ कोई शिकायत दर्ज नहीं हुई। शिकायत तो उसी समय दर्ज होगा जब इसके लिए शांतिपूर्ण माहौल हो ताकि लोग निडर होकर आगे आ सकें और अगर इसके बावजूद पुलिस शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दे तो बेचारे गांव वाले क्या कर सकते हैं? एक सवाल यह भी है कि क्या पुलिस विभाग शिकायत दर्ज होने के बाद ही हरकत में आता है? जो निर्दोष मुसलमान वर्षों तक जेल में रहने के बाद बाइज़्ज़त बरी हो जाते हैं उनके खिलाफ शिकायत कौन दर्ज करवाता है? इन निर्दोष लोगों का नाम तो किसी शिकायत के बिना ही जैश और लश्कर से जोड़ दिया जाता है और उनका मीडिया ट्रायल शुरू हो जाता है।
लातेहार जिले में जिस दिन यह घटना घटी उस दिन मानवाधिकार आयोग ने मानवाधिकार के लिए काम करने वाले प्रह्लाद प्रसाद नामक एक कार्यकरता की मौत पर झारखंड के  मुख्य सचिव, जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधिक्षक को दो सप्ताह के भीतर कार्रवाई के निर्देश दिए। प्रसाद टोरी रेलवे साईडिंग निर्माण के कारण होने वाले पर्यावरणीय की क्षति का विरोध कर रहे थे। इस हत्या की किसी ने शिकायत नहीं दर्ज कराई बल्कि अखबार में प्रकाशित समाचार के मद्देनजर आयोग ने यह सराहनीय कदम उठाया। आश्चर्य इस पर है कि एक अज्ञात खबर की ओर तो आयोग ने ध्यान आकर्षित किया लेकिन मीडिया में भूकंप उत्पन्न करने वाली खबर आयोग की नजरों से ओझल रही। संभवत: यह प्रहलाद और मजलूम के नाम में अंतर के कारण हो। इस प्रकार के भेदभाव की अपेक्षा संघ परिवार से तो की जाती है लेकिन मानवाधिकार आयोग को यह व्यवहार शोभा नहीं देता।
प्रशासन इसे चोरी डकैती की वारदात बताकर रफा-दफा करना चाहता है। इसमें शक नहीं कि चोर और डाकेत भी कभी कभार अपने शिकार को मारने पर मजबूर हो जाते हैं लेकिन उनके शव पेड़ से लटकाने की परेशानी कोई नहीं उठाता। इसलिए कि ऐसा करने में उन्हें कोई फायदा तो नहीं है हाँ पकड़े जाने का खतरा ज़रूर होता है इसलिए वह घटनास्थल से फौरन भागने का प्रयत्न करते हैं। यह पशुता तो भगवा साम्प्रदायिकता का पहचान चिन्ह है। कांग्रेसी प्रतिनिधिमंडल में शामिल शमशेर आलम ने घटनास्थल का दौरा करने के बाद इस अनुमान की पुष्टि करते हुए आरोप लगाया कि यह हत्या अचानक नहीं हुई बल्कि सुनियोजित षडयंत्र का परिणाम था। लूटने की नीयत से हमला करने वाले मार तो  सकते हैं लेकिन शव को पेड़ पर नहीं लटका सकते। उन के अनुसार पुलिस मामले को दबा रही है।
पशु चोरों की ऐसी क्रूरता के पशचात या तो उस क्षेत्र में यह व्यापार ठप हो जायेगा या व्यापारी अपना रास्ता बदल देंगे। दोनों स्थिती में चोरों का नुकसान है। अगर व्यापार ही ठप्प हो जाए तो लूटा किसे जाएगा? तथा व्यापारी रासता बदल दें तो किसी दूसरे के क्षेत्रों में जाकर डाका डालना भी आसान काम नहीं है। चोरों का भी नेताओं की भांति अपना अपना प्रभाव क्षेत्र होता है। वह किसी गैर को अपने क्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देते और अगर कोई प्रयास करे तो बेतकान भौंकने लगते हैं। इस खेल में मोदी जी जैसा कोई शामिल हो जाए तो बात और है कि मुरली जी को वाराणसी से उठाकर कानपुर में फेंक दिया और खुद काशी विश्वनाथ मंदिर के पुरोहित बन बैठे।
राजनीतिक दलों के बहुसंख्यकों का तुष्टिकरण चुनाव में कभी उनके काम आता है और कभी नहीं भी आता लेकिन ये लोग हिंदुओं को खुश करने में किस हद तक सफल हो रहे हैं इसका अनुमान गुजरात से आने वाले आंकड़ों से लगाया जा सकता है, जहां पिछले 14 साल से भाजपा सत्तारूढ़ है। इस राज्य में धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर धर्म परिवर्तन में बाधा खड़ी करने के लिए धर्म परिवर्तन करने वालों को सरकार से अनुमति लेनी पडती है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार धर्म बदलने की खातिर विनंती करने वालों में सबसे अधिक 1753 हिंदू हैं तो 57 मुसलमान, 42 ईसाई और 4 पारसी। इन सरकारी आंकड़ों के विपरीत गुजरात के दलित संगठन के अध्यक्ष जयंत मानकनिया के अनुसार धर्म परिवर्तन के इच्छुक हिंदुओं की संख्या 50 हजार है और कुछ साल पहले राजकोट में एक लाख हिन्दुओं ने बौद्ध मत स्वीकार किया था। विश्व हिंदू परिषद के बडबोले नेता प्रवीण तोगड़िया की नाक के नीचे अगर हिन्दूत्वा की प्रयोगशाला समझे जाने वाले गुजरात की यह स्थिति है तो अन्य स्थानों पर इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। गौ माता के रक्षक या राक्षसों को इन तथ्यों से सीख लेनी चाहिए।

Monday 14 March 2016

सियासत में नहीं है फर्क जीने और मरने का

अंग्रेजी में लिविंग का अर्थ जीना और लीविंग का मतलब जाना होता हैं। केवल मात्रा के अंतर से जीवन का आरंभ अंत में बदल जाता है। श्री श्री रवि शंकर जीने की कला सिखाते हैं और विजय माल्या जाने का कौशल प्रदर्शन करते हैं। इन दोनों का निवास बेंगलुरु में है तथा उनके बीच एक समानता भाजपा से संबंध भी है। विजय माल्या ने एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में राज्यसभा की सदस्यता ली तो उन्हें जनता दल (एस) ने 23 वोट और भाजपा ने 30 वोट प्रदान किए। उनके भागने में सांसदों को प्राप्त राजनयिक पासपोर्ट ही काम आया। इस प्रकार विभिन्न बैंकों का 900 करोड ऋण चुरा वे भाग खड़े हुए।
माल्या की भांति रविशंकर भी प्रधानमंत्री के बहुत बड़े प्रशंसक हैं और उन्हें वर्षों से योग सिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं यह और बात है कि मोदी जी की अकड़ और कठोरता आड़े आजाती है। मोदी जी को चाहिए कि वह आरएसएस की शाखाओं में लाठी के बजाय योग व्यायाम का आयोजन करवाएं ताकि कम से कम संघ परिवार की आगामी पीढ़ी इतनी लचीली हो कि योगासन कर सके। वैसे मोदी जी के फैशन प्रेम का आरएसएस पर प्रभाव पडा है। उसने खाकी निकर के बजाय पैंट पहनने का फैसला कर लिया है। वैसे कुछ लोगों का मानना है इस बदलाव में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका राबड़ी देवी ने निभाई है। उन्होंने कहा था ये लोग चड्डी पहन कर सार्वजनिक स्थलों पर आ जाते हैं उन्हें शर्म नहीं आती? हमें शर्म आती है। राबड़ी देवी के इस वाक्य में न जाने क्या जादू था कि अचानक निकर की लंबाई में वृद्धि हो गई और वह पैंट बन गई। सही बात तो यह है कि संघ परिवार की चड्डी ढीली करने में नीतीश कुमार से लेकर कन्हैया कुमार तक बिहारियों ने असाधारण योगदान दिया है।
 संघ परिवार की टोपी उछालने का काम दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने किया था और ऐसी पटखनी दी कि हिंदुत्व समर्थक राजधानी में जन सभा करना भूल गए। इसी कारण मोदी जी को श्री रविशंकर की शकर में लिपटी हुई जहर की पुड़िया लानी पड़ी लेकिन दुर्भाग्य से चीनी की यह परत देखते देखते बारिश में भीग कर यमुना में बह गई। कार्यक्रम से पूर्व सभा स्थल की तैयारी के कारण होने वाले पर्यावरण के नुकसान को लेकर कुछ लोगों ने राष्ट्रीय हरी(ग्रीन) अदालत के दरवाजे पर दस्तक दी। अदालत ने अपने विशेषज्ञों की एक टीम को नुकसान का पता लगाने की जिम्मेदारी सौंपी तो 120 करोड का अनुमान लगाया गया। श्री श्री रविशंकर को जीने की कला सिखाने के लिए उन पर कम से कम 250 करोड का जुर्माना लगाया जाना चाहिए था परंतु विभिन्न कारणों से अदालत ने 100 करोड पर समाधान कर लिया।
रविशंकर जी चूंकि जीने की कला सीख चुके हैं इसलिए उन्होंने अपने रसूख का इस्तेमाल करते हुए इस जुर्माने को घटाकर 5 करोड करवा दिया। प्रशन यह है कि अब बाकी के 115 करोड कौन खर्च करेगा? अगर सरकार करेगी तो क्यों? या फिर इस नुकसान की भरपाई ही नहीं होगी? यदि नहीं तो जीवन जीने के इस कला का धिक्कार होना चाहिए जिसने न केवल स्थानीय लोगों का बल्कि वहां रहने बसने वाले पशु पक्षियों का भी जीना हराम कर दिया। अगर एक आम नागरिक से यह सवाल किया जाए कि जीवन जीने की कला क्या है? तो वह फौरन कहेगा '' जियो और जीने दो '' लेकिन श्री रविशंकर इस तथ्य से अनजान हैं। एक ज़माने तक वह धैर्य और संयम के विशेषज्ञ माने जाते थे हालांकि वह मुखौटा मात्र था जिसे चढ़ाकर वे जनता के समक्ष आते थे। अपने भक्तों के बीच वह उसी क्रोध और आक्रोश का प्रदर्शन करते थे जो संघ परिवार की विशेषता है। यूट्यूब पर एक निजी बैठक में डॉ जाकिर नाइक को अपमान करने वाला वीडियो उसका साक्ष है।
मोदी जी ने सोचा होगा कि मारने की कला तो आरएसएस से सीख ली अब क्यों न श्री श्री रविशंकर से जीने की कला सीखी जाए? लेकिन ऐसा लगता है मोदी जी के बजाय खुद स्वामी जी उनके भक्त बन गए हैं वरना यह घोषणा ना करते कि 5 करोड जुर्माना भुगतान करने के बजाय मैं जेल जाना पसंद करूंगा। स्वामी जी को यह गलतफहमी थी कि सरकार से उनकी निकटता के कारण अदालत उनकी गीदड़ भपकी में आ जाएगी लेकिन जब सदन में इस पर हंगामा हो गया तो उन्हें आशंका हुई कि इस कठोरता के कारण प्रतिबंध न लग जाए? उस लिये जुर्माना एकमुश्त भुगतान करने के बजाए चार सप्ताह का समय मांगा गया। अदालत ने 25 लाख जमा करने की शर्त पर 3 सप्ताह की मोहलत दे दी। यह उसी तरह घूम जाऊ था जैसे भूमि अधिग्रहण विधेयक पर मोदी सरकार का था पहले अड़ना और फिर झुक जाना या ईपीएफ पर टैक्स को लेकर कर हीलों बहानों के बाद अंतत: जेटली जी का घुटने टेक देना।
वैसे बात बनाने की कला में जेटली जी प्रधानमंत्री से आगे निकल चुके हैं। विजय माल्या के निकल भागने पर जब संसद में हंगामा हुआ तो जेटली को क्वात्रोची याद आ गए। उन्होंने कहा कि कांग्रेस भी क्वात्रोची को रोकने में विफल रही थी। यह तर्क कई दिलचस्प सवालों को जन्म देता है। अव्वल तो क्या जेटली मानते हैं कि भ्रष्टाचार के मामले में कांग्रेस और भाजपा के बीच कोई अंतर नहीं है? दूसरे क्या अब भाजपा की नजर में कांग्रेस का क्वात्रोची को भागने में मदद करना वैध हो गया है? तीसरे क्या भाजपा ने कांग्रेस की मजबूरी का ख्याल करते हुए हंगामा नहीं किया था? सच तो यह है कि कांग्रेस ने क्वात्रोची और बोफोर्स मामले की जो कीमत चुकाई थी भाजपा को भी अब इसके लिए तैयार हो जाना चाहिए? याद रहे राजीव गांधी के साथ लोकसभा में 400 से अधिक सदस्य थे और बोफोर्स भ्रष्टाचार ने उन्हें सत्ता से वंचित कर दिया था इसलिए भाजपा के 275 की क्या बिसात है?
क्वात्रोची और विजय माल्या का मामला बहुत विभिन्न है। बोफोर्स की दलाली कुल 64 करोड थी जिसमें मुद्रास्फीति का अनुपात लगाया जाए तब भी वह 900 करोड नहीं बनते। अगर यह मान लिया जाए कि वह सारी राशि क्वात्रोची की जेब में चली गई थी तो राजीव गांधी के खिलाफ चलाया जाने वाला अभियान तोहमत में बदल जाता है। क्वात्रोची बेशक रिश्वत का एक सहभागी था और वह रिश्वत भी अवैध थी लेकिन एक विदेशी कंपनी की जेब से निकल कर आई थी। विजय माल्या ने तो हमारे अपने बैंकों को लूटा है। विजय माल्या की तरह क्वात्रोची सांसद नहीं बल्कि एक विदेशी नाग्रिक था। इस पर अगर मुकदमा कायम भी होता तो इटालियन सरकार का दबाव उसे छुड़ा सकता था जैसा कि केरल में इटालियन जहाज चालकों को अपने मछुआरों के हत्या की सज़ा दिलाने में मोदी सरकार विफल रही।
 विजय माल्या के मामले में कोई विदेशी दबाव नहीं बल्कि खुद अपनी सरकार का दबाव काम कर रहा था। 8 अक्तोबर 2015 को सीबीआई की ओर से निर्देश जारी हुआ कि विजय माल्या को हवाई अड्डे पर देखते ही गिरफ्तार किया जाए। माल्या साहब उस समय ब्रिटेन में ऐश कर रहे थे। लौटने से पहले उन्हों ने इस निर्देशपत्र को बदलवा दिया और अब उन्हें गिरफ्तार करने के बजाय नजर रखने की ताकीद की गई। सीबीआई के अनुसार गिरफ्तारी का पंजीकरण एक जूनियर अधिकारी की चूक थी हालांकि वह फैसला दुरूस्त था। अगर उसी समय माल्या को गिरफ्तार कर लिया जाता तो आज जेटली जी को यह न कहना पड़ता कि बैंक ने अदालत से संपर्क करने में देरी की। जीटली जी यह न बताएं कि बैंक वालों ने क्या नहीं किया बल्कि यह वर्णन दें कि उनकी सरकार ने क्या किया? और अगर कुछ नहीं किया तो 900 करोड में से कितना हिस्सा उनकी अपनी तिजोरी में जमा हो गया। विजय माल्या  अक्तोबर के बाद 3 बार विदेशी यात्रा पर गए और चौथी बार ललित मोदी की तरह हमेशा के लिए फरार हो गया।
विजय माल्या की ही तरह भाजपा ने ललित मोदी के साथ भी कमाल दयालुता का प्रदर्शन किया। राजस्थान के मुख्यमंत्री विजय राजे सिंधिया ने ललित मोदी को भागने में सुविधा प्रदान करने के लिए शपथपत्र दिया। विदेश मंत्री सुषमा सवाराज ने मानवीय आधार पर ललित मोदी भागने का औचित्य प्रदान किया। संसद में इस मुद्दे पर हंगामे के बाद सरकार ने बड़े गाजे-बाजे से गिरफ्तार करने का संकल्प दोहराया लेकिन जो मोदी सरकार पिछले 6 महीने से ललित मोदी के खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस जारी करवाने में नाकाम रही है वह भला विजय माल्या को क्या वापस लाएगी? वैसे अगर सरकार विजय माल्या को वापस लाने में सफल भी हो जाए तो उसका क्या बिगाड़ लेगी? छोटा राजन पहले ही सरकार की हिरासत में ऐश कर रहा है। उसका बाल बांका नहीं हुवा विजय माल्या के साथ भी यही होगा।
श्री श्री रविशंकर को जीने की कला सिखाने के लिए तीन फुटबॉल ग्राउंड के बराबर का मंच बनाना पड़ा और उस पर 35 हजार साज़िंदों को बिठाना पड़ा इसके बावजूद उनके इस तमाशे में शरीक होने के लिए दुनिया भर से कोई महत्वपूर्ण हस्ती आने के लिए तैयार नहीं हुई। मजबूरन दुनिया के सबसे भ्रष्ट शासक  मुगाबे को मुख्य अतिथि बनाया गया लेकिन जब मोदी जी के सलाहकारों ने मंच को असुरक्षित घोषित किया तो '' मोगामबो डर गया '' और दिल्ली से वापस चला गया। राष्ट्रपति ने देखा कि इस कार्यक्रम के आयोजकों ने अधिकांश विभागों से अनुमति नहीं ली है और पर्यावरण को बहुत क्षति पहुचा रहे हैं तो वे भी कन्नी काट गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने आप को रोक नहीं सके और उन्होंने अपने लिए अलग मंच बनवा कर भाग लिया। मोदी जी ने उसे कला और संस्कृति का कुंभ मेला घोषित कर दिया। हिंदू ह्रदयसम्राट के अलावा अगर कोई और यह हरकत करता तो संघ परिवार इस बयान को लेकर आसमान सिर पर उठा लेता। हिंदू धर्म के अपमान का बहाना बनाकर देश भर में आतंक फैला देता।
 मोदी जी ने अपने संबोधन में कहा कि अगर हम हर चीज की आलोचना करेंगे तो विश्व हमारा सम्मान कैसे करेगी? इस से पता चलता है कि प्रधानमंत्री पर्यावरण के विनाश को कोई महत्व नहीं देते। उन के निकट कानून का हनन सामान्य बात है। प्रधानमंत्री को ज्ञात होना चाहिए कि सारी दुनिया में देश का सम्मान तो दरकिनार दिनोंदिन अपमान हो रहा है। इस बदनामी के लिए कोई और नहीं बल्कि उनका अपना संघ परिवार जिम्मेदार है अगर यह सिलसिला बंद हो जाए तो बिना किसी तमाशे के राष्ट्र का नाम रोशन हो जाएगी। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में भारतीय संस्कृति पर गर्व व्यक्त करते हुए कहा कि वह श्री श्री रविशंकर के आभारी हैं कि उन्होंने उसे सारी दुनिया में फैला दिया है।
मोदी जी ने पिछले दिनों इतने विदेशी दौरे किए कि यमुना के किनारे भी उन्हें आभास नहीं हुआ कि वह विदेश में नहीं बल्कि खुद अपने देश में भाषण कर रहे हैं और तथ्य यह है कि स्वामी जी ने अपनी संस्कृति का निर्यात करने के बजाय दुनिया भर के कलाकारों को यहां प्रस्तुत किया है जो उनकी सभ्यता से भारतीयों को प्रभावित कर रहे हैं। प्रतिभागियों का यह हाल है कि वह भंगड़ा के बजाय अफ्रीकी नाच की धुनों पर थिरक रहे हैं। मोदी जी जब अमेरिका गए थे तो उन्होंने लोगों को इकट्ठा करने के लिए किसी कथक न्रतकी के बजाय रॉक डांसर को बुलाया इसके बावजूद कोई अंग्रेज नहीं फटका अब चूंकि भारत में भी जनता ने मोदी जी की सभाओं में आना छोड़ दिया है इसलिए दुनिया भर में नाचने गाने वालों को इकट्ठा करके जनसभा की जा रही है लेकिन बुरा हो बरसात का कि उसने रंग में भंग डाल दिया। शायद आजकल अदालत तो दूर प्रकृति भी सरकार से त्रस्त है।
श्री श्री हरि के अनुसार इस नौटंकी में शरीक होने के लिए कुल 36 हजार कलाकारों को देश-विदेश से बुलाया गया। उन भाग्य के मारों को आंधी आए या तूफान सभा स्थल पर आना ही था। अख़बारों के अनुसार पहले दिन जब प्रधानमंत्री ने भाषण किया तो केवल 40 से 50 हजार के बीच लोग मौजूद थे। मतलब कार्यक्रम के प्रतिभागियों की संख्या पैसे देकर बुलाए जाने वाले कलाकारों की तुलना में एक चौथाई भी नहीं थी। दूसरे दिन सुबह नेतृत्व शिविर कार्यक्रम को श्री रविशंकर ने यह कह कर टाल दिया कि जब लोग ही नहीं हैं तो क्या फायदा। बाद में करीब के एक हॉल में 300 लोगों को इकट्ठा करके अर्थव्यवस्था पर चर्चा शुरू हुई तो सरकार के खिलाफ शिकायत का दफतर खुल गया।
एक अन्य कार्यक्रम में सत्ता से बेदखल विदेशी राजनीतिज्ञ उपस्थित थे। उनमें से एक फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति वेलिपिन ने कहा कि अफगानिस्तान, इराक और लीबिया में सैन्य हस्तकक्षेप एक मूर्खता थी बल्कि आतंकवाद के खिलाफ छेड़ी जाने वाली इस लड़ाई बजाय खुद एक बहुत बड़ी मूर्खता है। अब सवाल यह उठता है कि मोदी जी उठते बैठते आतंकवाद के खिलाफ जिस विश्व युद्ध में शरीक होने की घोषणा करते हैं वह क्या है?
इस विश्व सांस्क्रतिक मेले का उच्चतम शिखर तब आया जब पाकिस्तान से आने वाले मुफ्ती सईद अहमद खान के भाषण के पश्चात जोश में आकर स्वामी जी ने गृहमंत्री की उपस्थिती में पाकिस्तान जिंदाबाद की घोषणा कर दी। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंदर पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे की अफवाह फैलाकर बवंडर मचाने वाले सारे भक्त स्वामी जी के नारे पर तालियां पीटते रहे हालांकि यह तो उनके लिए सिर पीट लेने का अवसर था। भारतीय जनता पार्टी को अब जीने की कला सीखने के बजाय आर्ट ऑफ रनिंग यानी भागने की कला सीखनी चाहिए। इसलिए कि प्रधानमंत्री ने खुद स्वीकार किया है जब सत्ता और सरकार विफल हो जाती है तो इस तरह के मेलों ठेलों की जरूरत पडती है। इस बयान के बाद इन लोगों को अब अपने जाने की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।
आर्ट ऑफ रनिंग लिए वैसे भाजपा आत्मनिर्भर है। इसे किसी स्वामी जी के बजाय श्रीमती हेमा मालिनी और सौभाग्यवती स्मृति ईरानी से मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए। कुछ महीने पहले राजस्थान में हेमा मालिनी की गाड़ी ने एक कार को टक्कर मारकर उस में एक बच्चे की हत्या कर दिया और पिता को ज़खमी कर दिया। हेमा मालिनी के लिए विशेष सवारी का आयोजन किया गया और उन्हें एक प्रतिष्ठित निजी अस्पताल में पहुंचा दिया गया ताकि तुरंत प्लास्टिक सर्जरी हो सके और मरने वाले बच्चे और इसके घायल पिता को सरकारी दवाखाने में ले जाकर डाल दिया गया जहां उनका को पूछने वाला कोई नहीं था।
हेमा मालिनी की तबीयत संभली तो उन्होंने ट्वीट करके बच्चे की मौत पर अफसोस व्यक्त किया लेकिन इसके लिए पिता को दोषी ठहराते हुए कह दिया कि यदि वह ट्रफिक के नियमों का सम्मान करता तो बच्चे को न गंवाता। इस प्रकार हेमाजी ने यह साबित कर दिया कि ट्रफिक के नियमों की वह पुलिस से अधिक विशेषज्ञ हैं। पुलिस ने हेमा के चालक को हिरासत में ले रखा था और यह बात तय है कि प्रशासन किसी वीआईपी के चपरासी पर भी खूब सोच समझकर हाथ डालता है। हेमा मालिनी तो खैर अब सास की भूमिका निभाने लायक हो गई हैं लेकिन भाजपा की तेज तर्रार बहू उनसे दो कदम आगे निकल गईं। आगरा राजमार्ग पर जब उनके काफिले की एक गाड़ी ने मोटर साइकिल पर सवार डॉक्टर रमेश नागर को टक्कर मारी तो उनके बच्चे रोते रहे लेकिन बेरहम स्मृति पर इसका कोई प्रभाव नहीं पडा।
वह दुर्धटनास्थल से भाग खड़ी हुईं। घायलों की मदद करने के बजाय यह मानने से इनकार कर दिया कि टक्कर मारने वाली कार उनके काफिले में शामिल थी तथा कैलाशवासी डॉ नागर की बेटी से एफआईआर में एक फर्जी गाड़ी का नंबर लिखवा दिया। उन गतिविधियों को देखकर ऐसा लगता है कि बहुत जल्द भाजप का अर्थ '' भागो जनता पीटेगी '' हो जाएगा। उस समय पार्टी के नेता ललित मोदी और विजय माल्या के पदचिन्हों पर करोडों का घोटाला करके फरार हो जाएंगे और जनता चैन का श्वास लेगी।

Tuesday 8 March 2016

राष्ट्रवाद के दीपक में सांप्रदायिकता का ईंधन

दूनिया भर में राष्ट्रवाद का दीपक सांप्रदायिकता के ईंधन से जलता है। जर्मनी में हिटलर ने राष्ट्रवाद की लपटों को भड़काने के लिए यहूदियों को भस्म कर दिया। यहूदी फिलिस्तीन में स्थानीय मुसलमानों को निशाना बनाकर इजरायली राष्ट्रवाद को हवा दे रहे हैं। गुलामी के काल में देश के बुद्धिजीवियों को इस की पहचान असंभव थी लेकिन आजादी के 69 साल बाद अब पता चलने लगा है। इस तथ्य का सबूत दैनिक टेलीग्राफ के व्दारा आयोजित समारोह में बरखा दत्त का भाषण है जो सोशल मीडिया पर छाया हुआ है। इस अनुभूति का मुख्य कारण जेएनयू का घटनाक्रम हैं जहाँ भाजपा यह भूल गई कि देश भक्ति की होली सांप्रदायिकता के बिना नहीं जल सकती। अगर कन्हैया कुमार के बजाय सीधे उमर खालिद पर हाथ डाला गया होता और फिर प्रोफेसर एसएआर गिलानी को गिरफ्तार किया जाता तो क्या ऐसा बवाल मचता? इतने लेख लिखे जाते? इतना वाद-विवाद होता? कदापि नहीं।
आजकल बहुत सारे धर्मनिरपेक्ष विद्वान मुसलमानों को कन्हैया कुमार से सबक सीखने का उपदेश दे रहे हैं और उन्हें समर्थन करने वाले धार्मिक लोगों की भी कमी नहीं है हालांकि इस मौके पर हम सब को अपने गिरेबान में झाँक कर देखना चाहिए। जब एक मुस्लिम युवक को कन्हैया की तरह गद्दार करार दे कर राष्ट्रद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है तो पूरा राष्ट्र दो भागों में विभाजित हो जाता है। एक तो वह धार्मिक शुभचिंतक होते हैं जो अन्य लोगों को अत्याचार से बचाने की खातिर घोषणा कर देते हैं कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता। इस्लाम का एक शांतिपूर्ण धर्म है और हमारा उनसे कोई संबंध नहीं है। ऐसे में आरोपियों को दोषी मान लिया जाता है और उनकी सहायता करने के बजाय हाथ खींच लिया जाता है।
उनके अलावा मुस्लिम समुदाय के अंदर और बाहर धर्मनिरपेक्ष लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग मौजूद है जिसे अपनी कलम और भाषा से इस्लाम के विरोध का दुर्लभ मौका मिल जाता है। यह लोग सीधे इस्लाम के बजाय मुल्लाओं और मदरसों के खिलाफ मोर्चा खोल देते हैं और उनकी आड़ में जनता को इस्लाम से दूर करने का षडयंत्र रचते हैं। ऐसा करने से अपने गैर मुस्लिम दोस्तों की निगाह में उन लोगों की धर्मनिरपेक्षता प्रमाणित होती है। सच तो यह है कि इस समय मुस्लिम व गैर मुस्लिम धर्मनिरपेक्ष समुदाय उमर खालिद तो दूर प्रोफेसर गिलानी तक को भुला बैठा है ऐसे में एक आम मुसलमान की क्या बिसात? इस निराशाजनक स्थिति के बावजूद जब गिरफ्तार होने वाले कल्याणकारी संगठनों के प्रयत्नों से वर्षों बाद निर्दोष रिहा हो जाते हैं तो उस पर भी धर्मनिरपेक्ष लोग खुश होने के बजाए प्रशासन के सबूत जुटाने में विफलता पर खेद व्यक्त करते हैं (मानो वह लोग तो दोषी ही थे)।
इस नकारात्मक दृष्टिकोण के विपरीत सारा हिंदू समुदाय अपने मतभेद भुला कर कन्हैया कुमार के कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हो गया। मुसलमान भी विशाल ह्रदय का प्रदर्शन करते हुए समर्थन में उतरे और उसके बाद ही फासीवादी सरकार को झुकने पर मजबूर होना पड़ा। अगर कन्हैया कुमार के मामले में भी धर्मनिरपेक्ष समाज का वही रवैया होता जो मुस्लिम युवाओं के साथ होता है तो उसे भी जेल से बाहर आने में कई साल लग जाता। दीर्ध काल के बाद रिहा होने वाला कन्हैया भी गुमनामी गुफा में धकेल दिया जाता और वह इस तरह हीरो नहीं बन पाता।
बरखा दत्त ने अपने उक्त भाषण में राष्ट्रवाद के अतिरिक्त धर्मनिरपेक्षता पर भी विचार व्यक्त किया है। उन्होंने स्वीकार किया कि अतीत में यह शब्दावली उन्हें बहुत प्रिय थी लेकिन दोनों पक्ष के राजनीतिक दलों ने इसका इतना शोषण किया कि अब वह गाली बन गई है। बरखा के अनुसार राजनीतिक पार्टियों ने धर्मनिरपेक्षता और छदम धर्मनिरपेक्षता की चर्चा करके उन्हें इस शब्द के उपयोग से वंचित कर दिया है। अब वह सेकुलरिज़्म के बजाय प्लूरलिज़्म (बहुलवादी) शब्द को प्राथमिकता देने लगी हैं। धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग इसलिये हुआ कि इस में ऐसी गुंजाइश थी कि राजनीतिक दल इसका शोषण कर सकें।
धर्मनिरपेक्ष का अर्थ निधर्मी होता है इसलिए पहले तो कांग्रेस को यह सफाई पेश करनी पड़ी कि हमारी धर्मनिरपेक्षता किसी धर्म के खिलाफ नहीं है बल्कि सभी धर्मों को पालन और प्रसार के समान अवसर प्रदान करती है। यह वास्तव में एक ढकोसला है। जीवन के अन्य क्षेत्रों में तो दूर अपने पारिवारिक जीवन में भी जब मुसलमान पर्सनल लॉ का पालन करना चाहते हैं तो जितना विरोध हिंदू कट्टरवादियों व्दारा होता है वैसा ही विरोध धर्मनिरपेक्ष लोग भी करते हैं। अभी हाल में केरल के अंदर हाई कोर्ट के न्यायाधीष कमाल पाशा ने यह सवाल किया कि अगर मुसलमान पुरुष चार पत्नियां रख सकता है तो सत्री चार पति क्यों नहीं रख सकती?
इस प्रशन का सरल उत्तर तो यह है कि इस्लाम इसकी अनुमति नहीं देता लेकिन इस देश में ऐसे लाखों पुरुष हैं जिनका इस्लाम से कोई सरोकार नहीं है। उनका धर्म उन्हें एक से अधिक विवाह की इजाज़त भी नहीं देता इसके बावजूद वे एक से अधिक पत्नियों के पति हैं जैसे धर्मेन्द्र जिसने अपनी पहली पत्नी की मौजूदगी में हेमा मालिनी से शादी कर ली। अब क्या पाशा साहब हेमा से यह कहने का साहस कर सकेंगे चूंकि उनके पति ने दूसरी शादी की इसलिए वह भी ......। अगर पाशा साहब ने ऐसी मूर्खता की तो इस आयु में भी धर्मेंद्र उनका खून पी जाएंगे और हेमा मालिनी उन्हें जज से पेशकार बनवा देंगी।
धर्मनिरपेक्षता के नशे में चूर यह बुद्धिजीवी इस्लामी शरियत के अंत की मांग तो करते हैं लेकिन हिंदू कोड बिल की निन्दा नहीं करते। संघ परिवार मुस्लिम पर्सनल लॉ को कांग्रेस व्दारा मुसलमानों का तुष्टिकर्ण और वोट बैंक की राजनीति करार देता है। वह चार शादियों और 25 बच्चों का भय दिलाकर हिन्दू जनता को अपना समर्थक बनाने का प्रयत्न करता है। कुछ लोगों को लगता है कि देश की सारी सहिष्णुता का स्रोत धर्मनिरपेक्षता ही है हालांकि यह सिद्धांत तो अपनी जन्मभूमि फ्रांस के भीतर भी सहिष्णुता स्थापित नहीं कर सका। फ्रांस के अंदर जहां निर्वस्त्रता की खुली छूट है मुस्लिम महिला को हिजाब पहन कर घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं है। अगर वह ऐसा करे तो उस पर जुर्माना लगता है। तालिबान को बच्चियों की शिक्षा का दुश्मन बताया जाता है हालांकि वह सिर्फ मिश्रित शिक्षा के खिलाफ हैं फ्रांस के अंदर स्कार्फ पहन कर आने वाली छात्राओं को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ज्ञान प्राप्ती से वंचित कर दिया जाता है। धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने की खातिर वीद्यालय कैंटीन में सप्ताह में कुछ दिन केवल पोर्क रखा जाता है परंतु मुस्लिम छात्रों के भुखे रहने पर किसी को दया नहीं आती।
इस सिद्धांत ने जब तुर्की जैसे मुस्लिम देश में भी कदम जमाए तो वहाँ भी कॉलेज की छात्राओं के लिए स्कार्फ पहन कर आना वर्जित कर दिया गया। भारत के नेता पश्चिम की मानसिक गुलामी के बावजूद जमीनी वास्तविकताओं से परिचित थे। वे जानते थे कि इस देश में मुसलमान तो दूर हिन्दुओं के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप भी खतरनाक होगा इसलिए धर्मनिरपेक्षता की एक नई परिभाषा का आविष्कार किया गया और कहा गया हमारी धर्मनिरपेक्षता पश्चिम से विभिन्न है। सवाल यह है कि अगर वह अलग है तो धर्मनिरपेक्षता कैसे हुई? दरअसल उस समय हमारे नेताओं को इस का वैकल्पिक शब्द नहीं सूझा लेकिन अब बरखा दत्त ने पलूलरिज़्म (यानी विविधता) शब्द प्रस्तुत करके समस्या हल कर दी है। देखना यह है कि वह खुद इस पर कब तक कायम रहती हैं लेकिन इसमें शक नहीं कि शब्दों के उपयोग में सावधानी आवश्यक है क्योंकि प्रत्येक शब्द एक सिद्धांत और विशेष पृष्ठभूमि अपने साथ लाता है।
नेशलिज़्म (यानी राष्ट्रवाद) के विषय में बरखा दत्त ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता की तरह अब यह शब्द भी हम से छीना जा रहा है। उनके मुताबिक अब वह नेशलज़्म के बजाय पीटराईटिज़्म (देशप्रेम) के उपयोग को प्राथमिकता देंगी। बरखा दत्त ने कहा कि यह शब्द उन्होंने ने जेएनयू के आंदोलन से लिया है। कन्हैया कुमार के अनुसार राष्ट्रवाद एक पश्चिमी विचारधारा है और उन देशों में परवान चढ़ी है जहां एक राष्ट्र होता था। हमारा संविधान स्वीकार करता है कि यह देश कई राष्ट्रों का समूह है। इसलिए यहां नेशलिज़्म का अर्थ किसी एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्रों पर वर्चस्व होगा। लेकिन अगर राष्ट्रवाद के बजाय देशप्रेम को आधार बनाया जाए तो विभिन्न जातियां अपने सारे मतभेद के बावजूद देश प्रेम कर सकती हैं। ऐसे में राष्ट्रवाद या देश भक्ति का जो पहलू इस्लाम के एकेश्वरवाद से टकराता है वह भी निपट जाता है क्योंकि इस्लाम भी देश प्रेम की प्राकृतिक भावना को स्वीकार करता है।
समकालीन युग में धर्मनिरपेक्षता और नेशलिज़्म के अलावा स्वतंत्रता पर बहुत जोर दिया गया है। बरखा दत्त ने कहा देशप्रेम का अर्थ संविधान पर चलने की स्वतंत्रता ही है। स्वतंत्रता एक तो संविधान के पन्नों में है और दूसरा वास्तविक दुनिया में ।इस अंतर को अगर कोई मुसलमान बताए तो उसे पाकिस्तान समर्थक करार देकर सीमा पार जाने की सलाह वह लोग देंगे जिनका नेता बिन बुलाए लाहौर हवाई अड्डे पर उतर जाता है खैर इस विषय पर प्रसिद्ध पत्रकार निखिल वागले के भाषण की भी आज कल सोशल मीडिया में धूम है। यह महाश्य भी बरखा दत्त की तरह अच्छे-खासे धर्मनिरपेक्ष हैं और समाजवाद की ओर झुकाव रखते हैं। एक ज़माने में शिवसेना और भाजपा पर उनकी आलोचना के कारण उनका अखबार महानगर बहुत लोकप्रीय था। आगे चलकर निखिल वागले ने आईबीएन के मराठी चैनल की कमान संभाल ली और राष्ट्रीय स्तर पर चमकने लगे।
निखिल वागले ने अपने भाषण में कहा कि जेएनयू में जो कुछ हो रहा है उसकी उत्पत्ति 2011 में हुई जब पूंजीपति वर्ग ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का निर्णय लिया। जिन लोगों को जनता की राय बदलनी होती है वे टीवी चैनल के मालिकों को खरीद लेते हैं और अपने पसंदीदा उम्मीदवार के पक्ष में जनमत तय्यार कराते हैं। उन्होंने खुद अपना उदाहर्ण देते हुए कहा जब सारे चैनल यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार का पर्दाफाश कर रहे थे तो हमें सच्चा और पक्का देशभक्त माना जाता था। उस समय हम पर दबाव डाला जाता था कि हम कांग्रेस के खिलाफ तो समाचार प्रसारित करें लेकिन मोदी या भाजपा का विरोध न करें। निखिल के अनुसार उनके पास इसके प्रमाण में ईमेल मौजूद हैं। यह सिलसिला मतदान तक जारी रहा और जब काम निकल गया तो जून  2014 में इन चैनलों से जिन्हें खुद उन्होंने और सरदेसाई ने शुरू किया था इस्तीफा दे कर निकल जाने पर मजबूर किया गया। इसलिए निखिल कहते हैं सच्ची स्वतंत्रता वर्तमान नहीं है। जेएनयू की त्रासदी ने तो बस राष्ट्र को जागृति किया है और मूल संघर्ष स्वतंत्रता की बहाली है।
बरखा दत्त और निखिल वागले जैसे लोगों के विचार हमें वास्तविकता से परिचित कराते हैं और स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और देशभक्ती जैसे खोखले शब्दों की कलई खोलते हैं। जेएनयू मामला पहले परिसर चौराहे से निकल कर सोशियल मीडिया में आया। फिर टीवी और प्रिंट मीडिया व्दारा घर-घर पहुंचा। इसके बाद प्रशासन की सहायता से सरकार उसे अदालत में ले आई जहां भगवा वकीलों ने अपनी बदमाशी उस को सारी दुनिया में फैला दिया। विश्वसत्र से लेकर संसद तक में अपनी जगहंसाई करवाने के बाद सरकार ने अंततः कन्हैया को तो रिहा कर दिया लेकिन अब चर्चा नारों और विरोध की सीमा से निकल सैद्धांतिक स्तर पर पहुंच गई है। फासीवादी ताकतें इस मोर्चे पर हमेशा मुंह की खाती हैं और तर्क के बजाय गाली गलोच पर उतर आती हैं जिसके नमूने आए दिन टीवी चैनल पर होने वालि चर्चा में देखने को मिलते हैं यह और बात है कि वित्त मंत्री जेटली इस शोर शराबे को सरकार की जीत बताते हैं।
चर्चा का रुख अब उस विचारधारा की ओर मुड़ गया जिसके आधार पर यह हवाई महल निर्माण किया गया था। यह स्थिति उन इस्लामी विद्वानों को ठहर कर सोचने के लिए आमंत्रित करती है कि जो इस मकड़जाल के छल में गिरफ्तार हो चुके हैं और उसे बचाने के लिए सिर धड़ की बाजी लगाने पर तुले हुए हैं। उन्हें विचार करना चाहिए कि जो डाली खुद अपने बोझ से टूटने लगी है, जिस के कट्टर अनुयायी भी इस पर विश्वास नहीं रख पा रहे हैं वह भला हमारे किस काम आएगी? शब्दों को जब पवित्रता प्राप्त हो जाती है तो लोग उस पर कुछ कहना तो दूर सोचना भी बंद कर देते हैं लेकिन सुयोग से आजकल यह बातें चर्चा में आने लगी हैं।
शीतकालीन संसद सत्र में राजनाथ सिंह ने धर्मनिरपेक्षता को सब से आधिक शोषण किया जाने वाला  शब्द करार दिया तो उस पर बड़ा हंगामा हो गया और उसे संघ परिवार के गुप्त एजेंडे की ओर प्रगति करार दिया गया लेकिन बरखा दत्त और निखिल वागले जैसे लोगों के बारे मैं तो यह बात नहीं कही जा सकती इसलिए मुस्लिम बुद्धिजीवियों को खुले दिमाग के साथ इस पर विचार मंथन करके अपना रुख विश्वास के साथ व्यक्त करना चाहिए। यह उन का परम कर्तव्य है इस युग की बहुत बडी अवश्यक्ता भी है।

Tuesday 1 March 2016

धन की और मन की बात

'कभी खुशी कभी गम' के निर्माता करण जौहर ने जब कहा कि इस देश में केवल प्रधानमंत्री ही मन की बात कह सकता है तो अरविंद केजरीवाल ने तुरंत 'दोस्ताना' निभाते हुए उन का समर्थन कर दिया। ऐसे में मोदी जी ने अमित शाह से आवश्य कहा होगा 'कुछ कुछ होता है' और शाह जी ने उत्तर दिया होगा 'ऐ दिल है मुश्किल' जीना यहाँ ज़रा हट के जरा बच के ये है दिल्ली मेरी जाँ। इस देश में मन की बात कहने का अधिकार जिस किसी को भी प्राप्त हो लेकिन इस पर कान ना धरने का हक़ प्रत्येक व्यक्ति के पास है और लोग प्रधानमंत्री की हद तक इस का उपयोग करते हैं। समय के साथ मोदी जी को यह एहसास हो गया है कि अब लोग महीने में एक बार भी उनके आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले भाषण तक को सुनना नहीं चाहते इसलिए इस बार वे अपने संग सचिन तेंदुलकर और विश्वनाथ आनंद को ले कर आए यह सोच कर के हो सकता है उनके कारण कुछ लोग मन की बात सुन लें। परीक्षा का मौसम शुरू हुआ चाहता है इसलिए मोदी जी ने अपने भाषण के अंत में कहा 'कल मेरी परीक्षा है। कल जब बजट पेश होगा तो 125 करोड लोग मेरी परीक्षा लेंगे और मैं बहुत आश्वस्त हूँ।
सचिन तेंदुलकर अगर किसी मैच से पहले यह दावा करे तो लोग अगले दिन खेल का स्कोरबोर्ड देखेंगे? इस लिए आईेए देखते हैं दूसरे दिन शेयर बाजार में क्या हुआ? मैच बहुत रोमांचक था पहले तो बिहार की तरह 120 अंक का उछाल आया और इसके बाद वह गिरना शुरू हुआ तो 660 अंक नीचे पहुंच गया लेकिन फिर संभलना शुरू हुआ और जब खेल की अंतिम सीटी बजी तो 152 रन से मोदी जी यह मैच हार गए। सेंसेक्स तो खैर टेस्ट मैच था लेकिन नीफटी जो फिफ्टी फिफ्टी जैसा है उसमें भी मोदी जी को 43 रनों से पराजित होना पडा। दरअसल मोदी जी की समस्या यह है कि वे राह चलती मुसीबत को विदेशी प्रमुख समझकर गले लगा लेते हैं। बजट बनाकर पेश करना वित्त मंत्री का काम है अगर मोदी जी इस बला से न लिपटते तो लोग जेटली की विफलता का मातम करते लेकिन भला हो मोदी जी की जल्दबाजी का जो उस ने वित्त मंत्री को अपमानित होने से बचा लिया।
 भोलेनाथ के भक्त मोदी जी खुद भी बहुत भोले हैं वह भी (भारत की भोली भाली जनता की तरह) अपने फायदे और नुक्सान के बीच अंतर नहीं कर पाते हैं अन्यथा यह कैसे संभव था कि स्मृति ईरानी के अभिनय से खुश होकर वह उस भाषण पर सत्यमेव मेव जयते की मुहर लगा देते जो झूट और मक्कारी का पुलिंदा था। वह तो 'झूठ मेव मरते' कहलाने का पात्र भी नहीं था। अब हाल यह है कि लोग स्मृति जी के बजाय मोदी जी की आलोचना कर रहे हैं। मोदी जी को स्मृति ईरानी की नाटक बाजी इसलिए पसंद आई कि वह खुद भी नौटंकी करते रहते हैं। दीर्घ काल के बाद पिछले दिनों प्रधानमंत्री को जब मुंबई का विचार आया तो उनकी संतुष्टी के लिए मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस ने चौपाटी पर '' मेक इन इंडिया 'का तमाशा लगा दिया। इस के उद्घाटन समारोह में भाग लेकर प्रधानमंत्री लौटे तो पंडाल में आग लग गई।
मेक इन इंडिया की आग में तेल डालने का काम प्रधानमंत्री की पत्नी श्रीमती जसोदा बेन ने उसी दिन मुंबई में प्रदर्शन करके किया। एक स्थानीय गैर सरकारी संगठन के बैनर तले विरोध प्रदर्शन में श्रीमती जसोदा बेन ने बरसात के मौसम में झुग्गियों को ध्वस्त किए जाने के खिलाफ भूख हड़ताल की जबकि प्रधानमंत्री धनवान लोगों के साथ महाभोज कर रहे थे। इन समारोहों के भीतर आखिर यह विरोधाभास क्यों है कि भरी बरसात में अपने देशवासियों की छत को बचाने के लिए प्रधानमंत्री की पत्नी को सड़क पर आकर घोषणा करनी पड़ती है मगर देशभक्त प्रधानमंत्री उनकी ओर कान धरने के बजाय विदेशी पूंजीपतियों लिए लाल कालीन बिछा कर एयर इंडिया के महाराजा की तरह हाथ जोड़ कर मुस्कुराते हैं।
मेक इन इंडिया के स्थल से अमिताभ बच्चन और आमिर खान को सही सलामत निकालने के बाद बहुत जलद आग पर काबू पा लिया गया लेकिन चौपाटी से करीब ही स्थित मुंबई शेयर बाजार में जो आग लगी हुई थी उसे देखकर कौन मूर्ख निवेशक इधर फटकने की मूर्खता करेगा। इन लपटों को तो बजट की वर्षा भी बुझा नहीं सकी। शेयर बाज़ार जल रहा है, हर रोज़ करोडों की पूंजी धूल में मिल जाती है। बजट वाले दिन वह इस साल के सबसे कम स्तर पर पहुंच गया इसके बावजूद समकालीन नीरो अर्थात अरुण जेटली चैन की बंसी बजा रहा है। यूपीए के काल में प्रधानमंत्री खुद अर्थशास्त्री थे इसके बावजूद उन्होंने ने पी चन्दम्बरम और प्रणब मुखर्जी जैसे विशेषज्ञों को वित्त मंत्री बनाया। अब हाल यह है कि चाय वाले प्रधानमंत्री का वित्त मंत्री दिल्ली क्रिकेट एसोसीएशियन में नोट खेलता है। ऐसे में अगर अर्थव्यवस्था म्रत्यु शय्या पर दम तोड़ने लगे तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है?
अरुण जेटली एक विशेषज्ञ वकील ज़रूर हैं लेकिन आर्थिक मामलों का उन्हें कोई अनुभव नहीं है इसके बावजूद आज्ञाकारी होने के कारण वह वित्त मंत्री बना दिए गए। इसमें शक नहीं कि अरुण जेटली ने ललित मोदी जैसे घोटालेबाज़ों की वकालत और नरेंद्र मोदी जैसे क्रूर शासकों की चापलूसी करके अपने निजी खजाने को समृद्ध किया है परंतु अपनी जेब भरने और देश की अर्थव्यवस्था संभालने में जमीन आसमान का अंतर है। होना तो यह चाहिए था कि कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट का लाभ उठा कर जन कल्याण की ओर ध्यान दिया जाता लेकिन ऐसा करने के लिए जो गरीब संवेदक मानसिकता आवश्यक है उस से सरकार वंचित है। केंद्र सरकार को फिलहाल अपने मतदाताओं के बजाय उन पूंजीपतियों का अरबों-खरबों का ऋण सता रहा है जिन्होंने चंदा देकर पिछले चुनाव में मोदी जी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया था। नमक का हक़ अदा करने के लिये तत्कालीन सरकार पूंजीपतियों का कर्ज माफ कर के आगामी चुनाव में अपनी सहायता सुनिश्चित बना रही है। वह तो खैर सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगाकर ऋण चुराने वालों की सूची मांग ली वरना कब का यह चोर चोर मौसेरे भाई एक दूसरे के वारे न्यारे कर चुके होते।
राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ समझे जाने वाले बैंक घाटे के संकट में हैं। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने दिसम्बर के अंत में 67 प्रतिशत घाटे का यानी 1260 करोड के नुकसान की घोषणा की। उसने यह भी बताया कि 20700 करोड ऋण का वापस आना मुश्किल है। पंजाब नेशनल बैंक, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया और अन्य बैंक भी इस तरह के घाटे से त्रस्त हैं। मामला इतना गंभीर है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा और उसने रिजर्व बैंक से उन कंपनियों की सूची तलब कर ली जिन पर 500 करोड से अधिक का कर्ज है और उन्हें सुविधा दी जा रही है। न्यायालय को इस पर चिंता है कि बिना किसी स्पष्ट मार्गदर्शन और वापसी की गारंटी के किस आधार पर सार्वजनिक बैंक और आर्थिक संस्थान राष्ट्रीय खजाने पर यह बोझ डाल रहे हैं? सरकार के आर्थिक प्रदर्शन की खरी कसौटी अगले साल के लिए आकर्षक बजट पेश कर देना नहीं बल्कि पिछले बजट पर अमल करना है इसलिए आवश्यक है कि जेटली जी के पिछले बजट की समीक्षा की जाए?
पिछले साल के बजट पर टिप्पणी करते हुए पूर्व वित्त मंत्री चिदंबरम ने कहा था कि इस बजट का अधिक झुकाव उद्योग जगत और आय कर दाता वर्ग की ओर है जबकि देश की बड़ी आबादी का हित इस बजट से गायब हैं। यह गरीब जनता न उद्योग जगत से जुड़ी है और न आयकर चुकाती है। जन कल्याण के उन क्षेत्रों में बड़ी क्रूर से कटौती की गई है जो सरकारी सहायता की अपेक्षा करते हैं। उदाहरण के लिए पिछड़ों के लिए 2014 में 43208 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे जो घटकर 30851 करोड़ रुपये हो गए। अनुसूचित जनजातियों के लिए 2014 में 26714 करोड का प्रावधान था जो घटकर 19980 करोड हो गया। बाल कल्याण बजट 18691 से घटाकर केवल 8754 करोड़ रुपये कर दिया गया। राष्ट्रीय सामाजिक सहायता, छोटे और मध्यम उद्योगों, अल्पसंख्यकों के बहु सैकटोरल विकास कार्यक्रम, पर्यावरण और वन विभाग और ग्रामीण सड़क योजना की राशि भी घटा दी गई। इसके विपरीत सरकार ने औद्योगिक टैक्स में पहले ही साल एक फीसदी यानी लगभग 20 हजार करोड़ रुपये की राहत दी और हर साल यानी 5 वर्षों तक जुमला एक लाख करोड की सुविधा देने जा रही है। इसलिए सरकार का यह दावा कि विकास होगा तो उस का लाभ सब को मिलेगा बाउले का सपना बन गया।
इस साल की अंतिम आँकड़े तो मार्च के अंत में आएंगे लेकिन दिसंबर तक यानी तीन चौथाई साल का विशलेषण भी कम रोचक नहीं है। होना तो यह चाहिए था कि सारे मंत्रालयों में लगभग 75 प्रतिशत खर्च होता लेकिन तथ्य यह है कि 10 क्षेत्रों नें आधा भी खर्च नहीं किया और 7 ने 90 प्रतिशत से अधिक खर्च कर डाला जबकि एक चौथाई साल बाकी था। विवरण से पता चलता है कि मैक इन इंडिया की दृष्टि से तकनीकी क्षमता बढ़ाने के लिये स्थापित मंत्रालय ने केवल 33 प्रतिशत खर्च किए। स्मार्ट सिटी बनाने वाले क्षेत्र ने केवल 18 प्रतिशत खर्च किए जबकि इसके तहत शहरों की गरीबी को दूर करने का विभाग भी आता है। खाद्य आपुर्ति के लाख शोर शराबे के बावजूद खाद्य मंत्रालय ने केवल 44 प्रतिशत खर्च किए। अल्पसंख्यकों के क्षेत्र को पहले ही राशि कम आवंटित की गई और इसमें भी 9 महीने के अंदर ही 38 प्रतिशत का इस्तेमाल हुआ। बड़े उद्योगों और रक्षा मामलों जैसी मंत्रालयों में 75 के बजाय 25 प्रतिशत खर्च हुआ।
इसके विपरीत कोयला, बिजली और खनिज तेल एवं गैस क्षेत्र ने 90 प्रतिशत से अधिक खर्च कर दिए। जल संचालन मंत्रालय, उड्डयन, पंचायत राज और महिलाओं और बाल कल्याण विभाग खर्चा तो 100 से अधिक 137 प्रतिशत तक पहुँच चुका था अब सवाल यह उठता है कि आखिर के 3 महीने में वह अपना काम कैसे चलाते रहे? पिछले साल बजट भाषण की शुरुआत में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कटाक्ष करते हुए कहा था ''विरासत में हमें भावनात्मक पीड़ा और निराशा मिली है '' अब यह वाक्यांश खुद उन पर चिपक गया है, जबकि आगे 3 साल बाकी हैं। निर्यात की दर एक तिहाई हो गई है और रुपया प्रतिदिन गिरता जा रहा है ऐसे में जब ये लोग अपना बोरिया बिस्तर गोल कर के जाएंगे तो राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का क्या हाल होगा इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। मनमोहन सिंह ने तो अपने कार्यकाल में सेंसेक्स को 8 हजार से 24 हजार तक उठाया था अब यह उसे कहाँ तक गिरा कर जाएंगे यह कोई नहीं जानता?
इस अवसर पर प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह अपने मन की बात पर खुद कान धरें। जैसे उन्होंने कहा था '' परीक्षा केवल आंकड़ों का खेल नहीं है बल्कि उसे उच्च लक्ष्यों से जोड़ना चाहिए।'' इसी प्रकार बजट भी मात्र आंकडों का करिश्मा नहीं है उसे भी सार्वजनिक कल्याण से जुड़ा होना चाहिये। प्रधानमंत्री ने अनुशासन का जो प्रवचन दिया है उस पर एबीवीपी वाले अगर कार्यरत हो जाएं तो शिक्षा संस्थानों में शांति स्थापित हो जाएगी। प्रधानमंत्री ने छात्रों को अच्छी तरह सोने की सलाह भी दी लेकिन साथ ही यह भी कहा परीक्षा कक्ष में न सोएँ और कम नम्बर आने पर उन्हें दोषी ना ठहराएं। अगर कोई छात्र वहां मौजूद होता तो कहता साहब परीक्षा स्थल कोई संसद तो है नहीं जहां स्मृति ईरानी की घनगरज के दौरान भी सांसद घोड़े बेचकर सोते हैं। प्रधानमंत्री का '' अपना लक्ष्य तय करके बिना किसी दबाव के खुले मन से उसे प्राप्त कर अपने आप से आगे जाने की कोशिश '' करने की नसीहत शब्दाडंबर के अलावा कुछ और नहीं है इसलिए इसे नजरअंदाज कर देना ही बेहतर है।
इस बार मन की बात के अन्य प्रतिभागियों ने तो जैसे प्रधानमंत्री को ही संबोधित किया। विश्वनाथ आनंद की सलाह कि '' अपना मन शांत रखें। अति आत्मविश्वास या उदासीनता का शिकार ना हों'' शुद्ध मोदी जी के लिए था। सी एन आर राव का उपदेश भी विशेष रूप प्रधानमंत्री के लिए था जब उन्होंने छात्रों से कहा '' परीक्षा विचलित करती है लेकिन परेशान न हों बल्कि जो कुछ बहतर हो सकता है करें। देश में बहुत अवसर और संधी है। '' यानी कल प्रधानमंत्री की कुर्सी चली भी जाए तो चाय की दुकान तो मौजूद है। राव ने यह भी कहा कि '' आप जीवन में क्या करना चाहते हैं यह तय करने के बाद उसे नहीं छोड़ें। मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं। '' मोदी जी तो पहले ही इस सलाह का पालन कर चुके हैं लेकिन जब देश की जनता उनसे छुटकारा पाने पर तुल जाएगी तो राव साहब की शुभकामनाएं किसी काम नहीं आएंगी। उस स्थिति में तो मोदी जी को मोरारी बापू के मन की बात में दिए जाने वाले प्रवचन का पालन करना होगा । मोरारी बापू ने अपने मन की बात इन शब्दों में व्यक्त कि '' यह जरूरी नहीं है कि हर कोई सफल हो इस लिए विफलता के साथ जीना सीखो। ' मोदी जी अगर बापू की यह नसीहत गाँठ में बाँध लें तो आगे चलकर वह उनके बहुत काम आएगी लेकिन आडवाणी जी को तुरंत उसका अनुसरण करना चाहिए।