Tuesday 5 January 2016

पठानकोट का आतंकवादी हमला

4  जनवरी (2015) की शाम साढ़े चार बजे दूसरी बार यह खबर आई कि सारे आतंकवादी मारे जा चुके हैं। इसी के साथ यह भी बताया गया कि अंततः 60 घंटे के बाद यह ऑपरेशन समाप्त हो चुका है जिस में सेना के 7 जवान और 6 आतंकवादी मारे गए (जिस तरह पहले 4 के बजाय 5 के मारे जाने का दावा किया गया था इस तरह बाद में 6 की संख्या घटकर 5 पर आ गई)। इससे दो घंटे पहले यानी ढाई बजे एक और चौंकाने वाला समाचार आया आया। पंजाब पुलिस ने बताया कि उसने राजधानी चंडीगढ़ से सटे मोहाली में नशिले पदार्थ के तीन स्मगलर्स को गिरफ्तार कर लिया है जिनके पास पाकिस्तानी सिम कार्ड्स के अतिरिक्त पाकिस्तान में बनी स्वचालित राइफल और अन्य हथियार भी था। पुलिस अधिकारी जीपीएस भुल्लर ने दावा किया कि उनका पठानकोट के आतंकवाद से कोई संबंध नहीं है। सामान्य रूप से तस्कर  सीमा पार संपर्क करने के लिए पाकिस्तानी सिम कार्ड का उपयोग करते हैं। इस गिरोह को पोलिस पहले ही भंग कर चुकी है।
पठानकोट वायु सेना के अड्डे पर होने वाला यह हमला वास्तव में निंदनीय है लेकिन यह कई ज्वलंत प्रशनों को जन्म देता है? जरा सोचिए कि अगर इस गिरफ्तारी के बजाय मुठभेड़ हो जाती तो टेलीविजन के पर्दे पर हमें क्या कुछ देखने को मिलता और अखबारों में हम क्या पढ़ते। पहले तो उन बदमाशों की नागरिकता बदल जाती और वह भारतीय से पाकिस्तानी बन जाते। इसके बाद उनके सीमा पार करने की जानकारी का विवरण प्रसारित होने लगता। लश्कर या जैश से उनका संबंध मिल जाता। फोन के विवरण से पता चल जाता कि उन का किस संघटन से संबंध है और उसका सरगना कौन है? यह भी मालूम हो जाता है कि वे कहाँ हमला करने वाले थे? संभवतः भारत के अंदर उन के संपर्कों की चित्र सहित जानकारी प्रसारित हो जाती और कुछ अखबार वाले पाकिस्तान में उनके सगे संबंधों से मुलाकात करने के लिए पहुँच जाते लेकिन अफसोस कि पुलिस ने उन्हें मामूली तस्कर बताकर टीवी चैनलों को एक सनसनीखेज खबर से और जनता को जबरदस्त मनोरंजन से वंचित कर दिया।
यह खेद का विषय है कि हमले से 80 घंटे बाद भी एक अनिश्चितता बनी हुई है। आतंकवादी कार्रवाई के अंत से संबंधित लाख मतभेद के बावजूद इसकी आरंभ पर सारे लोग सहमत हैं। इस में संदेह नहीं कि अनेक स्रोतों से कार्रवाई की भनक प्रशासन को 24 घंटे पहले मिल चुकी थी। शुक्रवार एक जनवरी को एक अद्भुत खबर ने पाठकों को चौंका दिया कि जम्मू पठानकोट रोड पर एक उच्च पुलिस अधिकारी सलवेन्दर सिंह का कुछ अज्ञात लोगों ने गाड़ी सहित अपहरण कर लिया। जब तक कि सलवेन्दर नहीं मिला था यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि या तो चोर उन्हें उठा कर ले गए हैं या यह आतंकवादियों की हरकत है। कार पर नीली बत्ती लगी हुई थी इसलिए इसके दुरुपयोग की आशंका भी जताई गई थी। इसके बाद सलवेन्दर पुलिस के हत्थे चढ़ गया और उसने बताया कि उसे मित्र और रसोईये सहित अपहरणकर्ताओं ने कार से नीचे फेंक दिया।
सलवेन्दर सिंह की कहानी पूरी फिल्मी लगती है। यह उच्च अधिकारी गुरदासपूर के मंदिर में दर्शन के लिए जाता है लेकिन इसके साथ सुरक्षा कर्मी के बजाए व्यापारी दोस्त राजेश वर्मा और रसोईया मदन गोपाल होता है। रात में यात्रा के दौरान इस की कार पर लगी नीली बत्ती बंद होती है। आतंकवादी अनजाने में उसे पकड़ लेते हैं। उसकी पगड़ी से उसके हाथ पैर बांध देते हैं और इस की कार को लेकर फरार हो जाते हैं। भागने से पहले वह उसे बिना कोई हानि पहुंचाए कार से फेंक देते हैं लेकिन उसके दोस्त और रसोईये को मारना पीटना नहीं भूलते। अपहरणकर्ता उसका मोबाइल ले भागते हैं और इस पर आने वाल फोन से उन्हें पता चलता है कि यह किस की कार है। वह उसे मारने के लिए वापस आते हैं लेकिन ख्वाजा अजमेरी पर आस्था उसकी जान बचा देती है। मदन गुप्ता के अनुसार जब एक घंटा पैदल चलने के बाद सलवेन्दर सिंह एक पुलिस थाने से अपने उच्च अधिकारी को फोन करता है तो वह उसे घर जाकर दूसरे दिन कार्यालय आने की सलाह देते हैं। एक पुलिस अधिकारी की शिकायत पर उसके सीनियर्स की इस प्रतिक्रिया ने तो बॉलीवुड को भी शर्मिंदा कर दिया?
उपरोक्त जानकारी फर्जी नहीं हैं बल्कि सलवेन्दर सिंह के बयान पर आधारित हैं। सलवेन्दर सिंह के इस बयान पर आम पाठक तो दरकिनार एनआईए ने भी विश्वास नहीं किया और 4 जनवरी को 6 घंटों तक उस से पूछताछ की। उसका सीमावर्ती क्षेत्र में जाना संदेह जनक है। सुरक्षा कर्मी की अनुपस्थिति भी सारे बयान को संदिग्ध बना देती है। जिन आतंकवादियों ने पहले टैक्सी ड्राइवर एकाग्र सिंह की हत्या कर दी उनका सलवेन्दर और उसके साथियों को जिंदा छोड़ देना आश्चर्य जनक है। पुलिस कार की मदद से बड़ी आसानी से आतंकवादियों का अपने लक्ष्य से आधे किलोमीटर तक पहुंच जाना भी संयोगवश नहीं लगता। सलवेन्दर की ओर से दी जाने वाली चेतावनी पर ध्यान नहीं देने के कारण भी कम रोचक नहीं है। वह एक महिला पुलिसकर्मी से छेडखानी की शिकायत पर स्थानांतरित किया गया था इसलिए आतंकवाद से संबंधित उस के संदेह को गंभीरता से नहीं लिया गया। एनआईए के अनुसार वह अपना बयान बदलता रहा है।
जिस समय इस अद्भुत घटना की खबर अखबारों (नेट संस्करण) में सजी उसी के साथ पाठकों ने यह भी पढ़ा कि प्रधानमंत्री मौसम परिवर्तन (कलाईमीट चेंज) जैसे सटीक वैज्ञानिक विषय पर अपनी पुस्तक उच्च सरकारी अधिकारियों को दे रहे हैं। एक साधारण राजनीतिज्ञ लिए कलाईमीट चेंज पर किताब लिखना तो दरकिनार उसको पूर्णरूप से समझना भी कठिन है। मैं खुद 30 साल से पर्यावरण की क्षेत्र में काम करने के बावजूद इस बारे में बहुत सारे पहलू नहीं समझ पाया हूँ लेकिन फिर मैं ऐसा प्रधानमंत्री भी तो नहीं हूं जो प्रांतीय चुनाव में भाषण करता फिरता हो और दुनिया भर की यात्रा से जिसे फुर्सत न मिले। इस दौरान वह कविता संग्रह भी प्रकाशित कर दे और अपने शुभचिंतकों पर किताब भी लिख डाले। उस महा मानव के लिए पंजाब की इस मामूली घटना पर ध्यान देना कितना कठिन है?
शनिवार की सुबह पठानकोट सैन्य छावनी पर हमला हो गया। जिस प्रधानमंत्री ने नेपाल के प्रधानमंत्री को यह सूचना दी थी कि उनके देश में जबरदस्त भूकंप आया है उसे निश्चित ही देश में घटने वाली इस गंभीर घटना की सूचना मिल गई होगी ऐसे में उसे चाहिए था कि पंजाब का जाता। अगर वहाँ जाने की साहस नहीं था तो कम से कम दिल्ली में बैठकर उसकी कमान संभालता लेकिन वह तो उत्तर के बजाय दक्षिण में मैसूर चला गया? प्रधानमंत्री तो दूर किसी केंद्रीय मंत्री ने पठानकोट जाने का साहस नहीं किया। हमले के चार दिन बाद रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को ख्याल आया कि उन्हें वायु सेना की छावनी में जाकर अपने सैनिकों की खबर लेनी चाहिए। गुरदासपुर हमले के समय भी यही हुआ था कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह को उसी दिन सीमा सुरक्षा दल के समारोह में भोपाल जाना था। इस महत्वपूर्ण घटना के बावजूद गृहमंत्री ने अपनी यात्रा को स्थगित करना जरूरी नहीं समझा था।
हमारे सैनिक जब अपनी जान की बाजी लगा कर राष्ट्र की सुरक्षा कर रहे थे और देश की जनता टेलीविजन पर उन दृश्यों को देख रही थी देश का प्रधानमंत्री मैसूर की हसीन वादियों में मौज कर रहा था। पहले तो प्रधानमंत्री ने गणपति सच्चिदानंद आश्रम में एक चिकित्सालय का उद्घाटन किया और फिर ललिता पैलेस होटल में चैन की नींद सो गए। दूसरे दिन सत्तूर मठ शताब्दी समारोह में भक्तों को संबोधित किया और वार्षिक विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करने के लिए मानसगंगोतरी विश्वविद्यालय में चले गए। इसके बाद गुन्टूर में भारत एरोनोटिकल्स के नए कारखाने का शिलान्यास रखा और फिर शाम में बेंगलूर के अंदर पांच दिवसीय योग विश्व सम्मेलन का उद्घाटन कर दिल्ली लौटे।
प्रधानमंत्री जब इन समारोहों में भाषण कर रहे थे बेंगलुरु निवासी राष्ट्रीय सुरक्षा बल कमांडो 35 वर्षीय लेफ्टिनेंट कर्नल निरंजन कुमार ने पठानकोट में अपना प्राण बलिदान कर दिया। प्रधानमंत्री के मन में बनगलूरू के अंदर यह ख्याल भी नहीं आया कि निरंजन के परिवार जनों की संवेदना की जाए। यह वही नरेंद्र मोदी हैं जो 26 नवंबर को ताज हमले के समय अहमदाबाद से सीधे मुंबई आकर इस में प्राण गंवाने वाले हेमंत करकरे के घर पहुंच गए थे। (यह और बात है कि उनकी पत्नी ने गुजरात के मुख्यमंत्री से मुलाकात नहीं की और वह बेरंग लौटे)। यह तब की बात है जब एक मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री बनना था लेकिन अब उसकी आवश्यकता नहीं है। सवाल यह उठता है कि क्या प्रधानमंत्री ने शनिवार दोपहर से रविवार रात तक जिन गतिविधियों में अपना कीमती समय व्यतीत किया क्या वह आवश्यक थीं और उन में मामूली सा परिवर्तन करके लेफटिनंट कर्नल निरंजन के घर जाना जरूरी नहीं  था? क्या यह काबुल से सीधे दिल्ली आने बजाय लाहौर से होते हुए आने ज्यादा कठिन था?
दिल्ली वापस आने के बाद प्रधानमंत्री ने एक उच्च स्तरीय बैठक की अध्यक्षता की जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत दवोल तो मौजूद थे लेकिन गृहमंत्री राजनाथ सिंह नदारद थे। इस बैठक में विदेश मंत्रालय के सचिव एस जय शंकर को भी बुलाया गया था मगर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज गायब थीं। इन के अतिरिक्त दो गैर निर्वाचित विशवासू मंत्री मनोहर परिकर और अरुण जेटली जरूर मौजूद थे। इस महत्वपूर्ण बैठक में रक्षा मंत्री की उपस्थिती तो समझ में आती है लेकिन वित्त मंत्री का क्या काम? बाद में पता चला के अगले दिन से सरकार का बचाव करने की जिम्मेदारी अरुण जेटली को सौंपनी थी इसलिए उन्हें कष्ट दिया गया। इस नाजुक घड़ी में भी राष्ट्रीय सुरक्षा के सीधे जिम्मेदार गृहमंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री की अनुपस्थिति गंभीर अविश्वास के वातावरण का खुला संकेत है।
गृह मंत्रालय पिछले डेढ़ महीने से पाकिस्तानी एजेंटों को देश के कोने कोने में ढूँढता फिर रहा है और उसने आईएसआई के लिए काम करने वाले 14 जासूसों को गिरफ्तार करने का दावा भी किया जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल हैं बल्कि सैनिक भी हैं। इस तरह मानो पाकिस्तान के खिलाफ माहौल गरमा रहा था कि मोदी जी ने पाकिस्तान की अचानक यात्रा कर हवा की दिशा बदल दी परंतु अभी सुखद बर्फबारी रूकी भी नहीं थी कि आसमान से शोले बरसने लगे और देखते देखते सारे किए धरे पर पानी फिर गया। जैसे ही कोई आतंकवादी घटना घटती है मीडिया तुरंत बिना किसी प्रमाण के उसे पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ, धार्मिक नेता, सेना प्रमुख, आईएसआई, तालिबान, अलकाईदा, जैश और लश्कर से जोड़ देता है लेकिन जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के आनुसार वह अतीत के अनुभवों से कोई सबक नहीं सीखता। इस स्थिति पर कटाक्ष करते हुए एक पाकिस्तानी राजदूत ने दिल्ली में  कहा था कि आप लोग तो मौसम की खराबी के लिए भी आईएसआई को दोषी ठहरा देते हैं।
इस हमले के मूल कारणों में न केवल एक दिन पहले से घटना चक्र की अनदेखी का योगदान है बल्कि 16 महीने पहले रची जाने वाले षडयंत्र को नजरअंदाज करना भी शामिल है। पुलिस ने इस छावनी की जानकारी पाकिस्तान तक पहुंचाने के आरोप में 30 अगस्त 2014 को जोधपुर के रहने वाले सैनिक सुनील कुमार को गिरफ्तार किया था। राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित इस गंभीर मामले को इतना हल्का लिया गया कि पुलिस समय पर उसका चालान तक जमा नहीं करा सकी और उसे जमानत मिल गई। यह उसी प्रशासन का कारनामा है जिस ने याकूब मेमन की फांसी के लिये आधी रात में न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक दी थी। संयोग से राजस्थान और महाराष्ट्र दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार थी। यदि सुनील कुमार का नाम मुसलमानों जैसा होता तो संभव है इसे गंभीरता से लिया जाता।
अफगानिस्तान कुछ छिटपुट घटनाओं की व्यतिरिक्त दीर्घकाल से भारत के लिए सुरक्षित देश था लेकिन प्रधानमंत्री के सफल दौरे का असर यह हुआ कि मजार शरीफ में भारतीय दूतावास पर हमले के बाद जलालाबाद में भी हो गया इस तरह मानो पठानकोट से लेकर अफगानिस्तान तक असुरक्षा का वातावर्ण बन गया। संघ परिवार के पास इस स्थिति के तीन समाधान हैं। अव्वल तो राजी-खुशी या जोर जबरदस्ती से अखंड भारत बनाकर पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश को भारत में शामिल कर लेना और जब यह हो जाए तो बेचारे श्रीलंका, नेपाल और बर्मा की क्या बिसात वह अपने आप चले आएंगे फिर अखंड भारत के सारे निवासियों को सांस्कृतिक हिंदू घोषित कर देना लेकिन अगर इसके बाद भी इस तरह की घटना घटे तो ये बेचारे उस का आरोप किस पर लगाएंगे क्योंकि उस काल्पनिक युग में न मुसलमान मौजूद होगा और न पाकिस्तान?
 एक समाधान यह भी सुझाया जाता था कि पाकिस्तान में मौजूद आतंकवादी अड्डों को बमबारी करके नष्ट कर दिया जाए लेकिन पठानकोट में कार्रवाई की लंबाई का औचित्य यह पेश किया जा रहा है कि कम से कम क्षती पहुंचे। उक्त बमबारी में यह कैसे संभव हो सकेगा? इस सवाल का जवाब तो अमेरिका के पास भी नहीं है। पिछले साल संघ परिवार के कई नेताओं ने अपने विरोधियों को पाकिस्तान चले जाने का सुझाव दिया था। उनके इस उपदेश का भारत में केवल प्रधानमंत्री ने पालन किया और वह अचानक पाकिस्तान की यात्रा करके चले आए लेकिन उनकी पिछे पाकिस्तानी आतंकवादी भी बिन बुलाए भारत आ धमके। इस आने जाने का जो परिणाम निकला उसे सारी दुनिया देख रही है कि तीन बार अभियान उन्मूलन की घोषणा के बावजूद अनिश्चित वातावर्ण है और गोलीबारी की छिटपुट आवाजें सुनाई दे रही हैं। पाकिस्तान को सबक सिखाने का राग अलापने वालों से आतंकवाद पर काबू पाने के लिए पाकिस्तान से सहयोग की भाषा पर सीताराम येचुरी जैसा नेता भी आश्चर्य से सवाल करता है कि 56 इंच वाली सरकार को यह क्या हो गया?

2 comments:

  1. It's a superbly logic stimulating post mortem done..

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  2. It's a superbly logic stimulating post mortem done..

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