Tuesday 12 January 2016

मुफ्ती मोहम्मद सईद के पश्चात जम्मू कशमीर की राजनीति

मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ कश्मीर की राजनीति का एक महत्वपूर्ण अध्याय बंद हो गया। इसमें शक नहीं कि शेख अब्दुल्ला के बाद वे घाटी के सबसे लोकप्रिय नेता थे। मुफ्ती साहब ने अपनी राजनीतिक जीवन अधिकतर समय कांग्रेस में बिताया। कांग्रेस का साथ छोड़ कर वीपी सिंह के साथ जन मोर्चा में जाने के फैसले ने उन्हें देश का पहला मुस्लिम गृहमंत्री बनाया फिर वह कांग्रेस में लौटे लेकिन बाद में पीडीपी की स्थापना की। यह फैसला भी लाभदायक रहा और वह तीसरे स्थान पर होने के बावजूद 2002 में कांग्रेस की सहायता से मुख्यमंत्री बन गए।  2014 में उनकी पार्टी को सबसे ज्यादा सीटें प्राप्त हो गईं और उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना ली। इस तरह मानो सारी राजनीतिक विचारधाराओं के साथ सत्ता संचालन का श्रेय उन्हें प्राप्त हुवा ।
 2014 के चुनाव परिणामों ने राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को और जम्मू कश्मीर में पूरी दुनिया को चौंका दिया। उस बार जम्मू और कश्मीर जैसे भगवा और हरे रंग में विभाजित हो गए थे। जम्मू की तीन सीटें भाजपा ने तो घाटी की तीनों सीटें पीडीपी के हिस्से में चली गईं। महाराष्ट्र और हरियाणा के प्रांतीय चुनाव में भाजपा ने खुद अपने बलबूते पर सफलता के झंडे गाड़ कर सारे राजनैतिक दलों को भयभीत कर दिया था। इसके बाद जब जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों की घोषणा हुई तो मुफ्ती साहब ने कहा केवल पीडीपी ही राज्य में बीजेपी के विजय रथ को रोक सकती है। उन्होंने दावा किया था चूंकि कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस की शक्ति टूट चुकी है इसलिए भाजपा और पीडीपी के बीच सीधा मुकाबला है और भाजपा का सत्ता में आना देश व प्रदेश दोनों के लिए हानिकारक है। महबूबा मुफ्ती ने भाजपा के साथ जाने से साफ इनकार कर दिया था लेकिन फिर बाप-बेटी और बाप-बेटे की सरकार के अंत की घोषणा करने वाले प्रधानमंत्री ने भाई भाई की सरकार बना ली जिसमें एक के सिर पर भगवा पगड़ी तो दूसरे के सिर पर हरी टोपी थी।
 2002 से लेकर  2014 तक के चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो बहुत रोचक खुलासे होते हैं। 2002 में नेशनल कांफ्रेंस ने 28 सीटें पर जीत हासिल की थी और पीडीपी 16 सीटों पर कामयाब हुई थी जबकि 2014 के आते-आते यह हुआ कि नेशनल कांफ्रेंस 15 तो पीडीपी 28 पर पहुंच गई। इस बीच पीडीपी की सीटों में बराबर वृद्धि देखने को मिला  2008 में उसे 21 सीटें मिली थीं। इसके वोट अनुपात भी क्रमिक 14.5 से 18.5 और फिर 22 प्रतिशत तक जा पहुंचा इसके विपरीत नेशनल कांफ्रेंस की सीटें 2002 और 2008 में समान यानी 28 थी मगर इस मतदाताओं का अनुपात 28 प्रतिशत से घटकर 23.5  प्रतिशत हो चुका था और इस बार तो वह 20 प्रतिशत पर है। कांग्रेस की हालत भी नेशनल कांफ्रेंस से अलग नहीं है। उसकी सीटों की संख्या 20 से 17 और अब केवल 12 है। कांग्रेस के वोट का अनुपात 26 से घटकर 20 से होता हुआ अब 15 पर पहुंच चुका है इस तरह जहां पीडीपी को नेशनल कांफ्रेंस की कमजोरी ने फायदा पहुंचाया वहीं भाजपा ने कांग्रेस की विफलता को भुनाया।
भाजपा की राजनीतिक यात्रा भी बेहद दिलचस्प है। 1996 में कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब उसके विधायकों की संख्या 26 से घटकर 7 पर आ गई। उस समय पीडीपी मौजूद नहीं थी इसलिए कांग्रेस की विफलता का बड़ा लाभ नेशनल कांफ्रेंस को मिला जो 40 से 57 पर पहुंच गई। भाजपा भी 2 से बढ़कर 8 पर जा पहुंची और कांग्रेस 7 पर सिमट गई। इस तरह मानो घाटी के मुसलमानों ने नर्सिम्हा राव को बाबरी मस्जिद की शहादत की सजा दे दी।  2002 में कांग्रेस ने खुद को संभाला और फिर 20 पर पहुंची मगर भाजपा को 1 पर पहुंचा दिया। इस चुनाव के बारे में कहा जाता है कि नेशनल कांफ्रेंस के विरोध में आरएसएस ने भी कांग्रेस का साथ दिया था।
2002 में पीडीपी और कांग्रेस के बीच यह समझौता हुआ था कि मुख्य मंत्री का कार्यकाल वितरित किया जाएगा इस लिए 2005 में गुलाम नबी आजाद को मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन उनके कार्यकाल में भाजपा ने अमरनाथ ट्रस्ट की जमीन का मुद्दा उठाकर सांप्रदायिकता को खूब हवा दी बल्कि कश्मीर और दिल्ली का रास्ता बंद कर दिया इस तरह कश्मीर से दिल्ली आकर बिकने वाले फलों के ट्रक रास्ते में रोक दिए गए। यह रणनीति भाजपा के लिए उपयोगी साबित हुई और उस ने 2008 में 9 प्रतिशत वोट हासिल करके 11 सीटें जीत लीं और कांग्रेस से 6 की दूरी पर आ गई जबकि कांग्रेस के पास अब भी 20 प्रतिशत वोट थे। इस बार कांग्रेस ने नेशनल कांफ्रेंस के समर्थन की घोषणा कर दी। 2014 में नेशनल कांफ्रेंस ने 3.5 प्रतिशत  वोट गंवाए जिनमें से 2.5 तो पीडीपी की झोली में चले गए और एक प्रतिशत भाजपा के हिस्से में आ गए। उधर कांग्रेस को 5 फीसदी वोटों का नुकसान हुआ जो सभी के बीजेपी को मिल गया। इसके अलावा सभी क्षेत्रीय दलों के वोट बटोर कर भाजपा ने सर्वाधिक 23 प्रतिशत वोट हासिल कर लिए लेकिन दुर्भाग्य से उसकी सीटों की संख्या 22 प्रतिशत वोट पाने वाली पीडीपी से 3 कम थी।
भाजपा के पास केंद्र सरकार थी इसलिए उसका विचार था कि वह पीडीपी को केंद्र में मंत्रीपद देकर जम्मू कश्मीर पर अपना मुख्यमंत्री थोपने में सफल हो जाएगी लेकिन मुफ्ती मोहम्मद सईद ने उस सपने को धूल में मिला दिया और कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई। जब यह रणनीति विफल हो गई तो भाजपा वालों ने आधे कार्यकाल के लिए मुख्य मंत्री पद की मांग की। मुफ्ती साहब इसके लिए भी राजी नहीं हुए। पहले तो भाजपा ने राज्यपाल का शासन लगा कर अप्रत्यक्ष रूप से शासन करने का प्रयत्न किया मगर दिल्ली की हार के पश्चात   उप मुख्यमंत्री के पद पर राजी हो गई लेकिन यह शर्त लगा दी कि मुख्य मंत्री के पद पर महबूबा मुफ्ती नहीं बल्कि मुफ्ती मोहम्मद सईद खुद विराजमान होंगे।
मुफ्ती साहब के निधन तक तो भाजपा ने किसी तरह अपने आप को रोके रखा लेकिन अब उनकी आकांक्षाएं फिर से जवान हो गई हैं और वे फिर आधे कार्यकाल के लिए मुख्य मंत्री पद की मांग करने लगे हैं। सामान्य परंपरा यह है कि यदि मुख्यमंत्री का निधन हो जाए तो राज्यपाल का शासन नहीं लगाया जाता, बल्कि सब से वरिष्ठ मंत्री इस पद को संभाल लेता है इस तरह होना तो यह चाहिए था कि उप मुख्यमंत्री डॉ निर्मल कुमार मुख्य मंत्री का पद संभाल लेते और महबूबा मुफ्ती के शपथ ग्रहण के बाद उनके हाथों में सत्ता सौंप देते लेकिन शायद न पीडीपी को यह स्वीकार्य था और न भाजपा इसके लिए तयार थी। भाजपा इस अवसर का लाभ उठाकर अपनी शर्तें मनवाने की फिराक में है लेकिन अब तक इस उद्देश्य में उसे सफलता नहीं मिली और अंततः राज्यपाल शासन लगा दिया गया। महबूबा से मामलों को तय करने के लिए श्रीनगर आने वाले भाजपा के कश्मीर निरीक्षक राम माधव ने अपने विधायकों को वापस जम्मू जाने की अनुमति दे दी है।
भाजपा के दबाव को कम करने के लिए महबूबा मुफ्ती ने एक छोड़ चार शर्तें सामने रख दी हैं। अव्वल तो वह उप मुख्यमंत्री पद को खत्म करके डाक्टर निर्मल कुमार को राज्यमंत्री की सुविधाएं प्रदान करना चाहती हैं। प्रमुख मंत्रालय जो भाजपा ने हथिया लिये थे उनके समान वितर्ण कि मांग कर रही है। सारे विवादास्पद मुद्दों पर भाजपा से आश्वासन और केंद्र की सहायता में वृद्धि भी चाहती हैं। एक के जवाब में चार शर्तों से भाजपा बौखला गई है। यही कारण है कि भाजपा वाले मौखिक समर्थन की घोषणा तो करते हैं लेकिन अभी तक राज्यपाल को औपचारिक पत्र नहीं लिखा।
जम्मू कश्मीर के अंदर फिर एक बार राजनीतिक अनिश्चितता उत्पन्न हो गई है। इस में वृद्धि सोनिया गांधी के श्रीनगर दौरे से हुई। वैसे जब मुफ़्ती साहब दिल्ली में इलाज करा रहे थे तो उस समय भी तो सोनिया जी उनसे मिलने के लिए अस्पताल गई थीं लेकिन उस में कोई राजनीतिक रंग नहीं था। श्रीनगर की बैठक को महत्व दिया जा रहा है और एक नई राजनीतिक समिकर्ण की अटकलें लगई जा रही हैं। भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने भी इस स्थिति में श्रीनगर का दौरा किया। कहने को महबूबा मुफ्ती अपने पिता के शोक में सत्ता की बागडोर नहीं संभाल रही हैं। सोनिया और गडकरी उन्हें सांत्वना दे रहे हैं लेकिन इन राजनीतिक नेताओं की बातों पर अब कोई विश्वास नहीं करता।
वर्तमान में कश्मीर के भीतर चार संभावनाएं हैं प्रथम यह कि भाजपा और पीडीपी फिर से मन मिटाव करके साथ हो जाएं। भाजपा आधे कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री पद का आग्रह छोड़ दे और महबूबा मुफ्ती उप मुख्यमंत्री के पद पर डॉ अनिल कुमार को बहाल कर दें। इस मामले में बाधा यह है कि महबूबा मुफ्ती 11 महीने में भाजपा के लक्षण देख चुकी हैं। उन्हें इस बात का एहसास भी है कि मुफ्ती साहब की सारी बुद्धि और कार्यकुशलता के बावजूद पीडीपी की लोकप्रियता में गिरावट आई है। अति संभव है चुनाव से पहले भाजपा हिंदू मतदाताओं के प्रलोभन के लिये अधिक तीर्व भूमिका ले। ऐसे में घाटी के अंदर पीडीपी की हवा उखड़ जाएगी और वो न घर की रहेगी न घाट की। इसलिए महबूबा मुफ्ती सावधान हैं और संभव है यह रूठेने मनाने का सिलसिला लंबा हो जाए।
एक संभावना यह है कि पीडीपी और कांग्रेस एक साथ हो जाएं लेकिन तब भी साधारण बहुमत के लिए एक और विधायक की जरूरत होगी जिसे किसी निर्दलीय की मदद से पूरा करना पड़ेगा। इस स्थिति का लाभ यह है कि भाजपा से नाता तोड़ कर मेहबूबा मुफ्ती किसी न किसी हद तक अपनी छवि सुधार सकेंगी और कांग्रेस के आत्मविश्वास में भी वृद्धि होगी। यह भी हो सकता है कि भाजपा और नेशनल कांफ्रेंस एक साथ हो जाएं। वाजपेयी सरकार में उमर अब्दुल्ला केंद्रीय मंत्री और फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री रहे हैं लेकिन यह मूर्खता उन्हें महंगी पड़ी। लंबे समय के बाद अब्दुल्ला परिवार को सत्ता से वंचित कर दिया गया और मुफ्ती परिवार का उत्थान हुआ। फारूक अब्दुल्ला दूसरी बार अतीत की गलती दोहराएँ इस की संभावना कम है। मुफ्ती मोहम्मद सईद की लोकप्रियता का गिरता हुआ ग्राफ भी वे देख चुके हैं। मोदी जी और अटल जी की भाजपा का अंतर भी वे जानते हैं।
केंद्र सरकार के लिए मुश्किल नहीं है कि विधानसभा भंग करके दोबारा चुनाव करवा दे। भाजपा को अगर यह फैसला एक साल पहले करना होता तो बहुत सुविधाजनक था। प्रधानमंत्री की लोकप्रियता के सहारे वह सदस्यों की संख्या 25 से बढ़ाकर 35 तक ले जाने का सपना देख सकती थी लेकिन दिल्ली और बिहार के बाद संभावना है कि यह संख्या घटकर 15 से 20 के बीच आ जाए और कांग्रेस के सदस्य भी 15 से 20 के बीच हो जाएं। उधर घाटी में संभव है पीडीपी को मुफ्ती साहब के निधन से कुछ सहानुभूति मिले लेकिन फिर भी उस के सदस्य 20 के आसपास ही होंगे और नेशनल कांफ्रेंस भी इतने ही उम्मीदवारों को जिताने में सफल हो जाएगी। फिर से चुनाव का आयोजन भाजपा और टीडीपी के बजाय विपक्ष के लिए लाभप्रद होगा और अगर विरोधियों ने चुनाव से पहले हुए गठबंधन बना लिया तब तो उन्हें आराम से बहुमत मिल जाएगी इस लिये भाजपा वालों से ऐसी मूर्खता की अपेक्षा करना उचित नहीं है।
कश्मीर के अंदर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कारण भाजपा ऐसी अछूत पार्टी बन चुकी है कि कोई उसके पास आना नहीं चाहता क्योंकि सारे लोग जानते हैं भाजपा के साथ उनकी नय्या भी डल झील में ऐसे डूबे होगा की इसका ठोर ठिकाना नहीं मिलेगा। दुर्भाग्यवश भाजपा की यह स्थिति एक ऐसे समय में हुई जबकि उसे अन्य दलों से अधिक अनुपात में वोट मिले हैं और उस के सदस्यों की संख्या भी लगभग 30 प्रतिशत है। भाजपा के विधायक सोच रहे होंगे कि काश वह किसी और पक्ष में होते तो बड़े इत्मीनान से सत्ता के फल भोगते। इन नेताओं का दुख भी बजा है इसलिए सारे सैद्धांतिक दावों के बावजूद उनका मुख्य उद्देशय सत्ता सुख के अलावा कुछ और नहीं होता। इसका सबसे बड़ा प्रमाण कश्मीर की राजनीति है।
घाटी के अंदर मुसलमानों के दो प्रमुख समस्याएं हैं जिन्हें पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस उठाती रहती है। अव्वल तो एएफपीएसए कानून जिसके तहत सुरक्षा बलों को असाधारण संरक्षण प्राप्त है जिस के चलते आतंकवाद की समाप्ती के नाम पर समान नागरिक सरकारी आतंकवाद का शिकार होते हैं। इसके अलावा भाजपा की फासीवाद के कारण लोकतंत्र और सद्भाव का रोना भी रोया जाता है। भाजपा की दृष्टि से संविधान की धारा 370 महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसके अंत की खातिर उनके अनुसार जनसंघ के प्रथम अध्यक्ष शयामा प्रसाद मुखर्जी ने अपना  बलिदान दिया। दूसरा मुद्दा पाकिस्तान से आने वाले प्रवासियों की नागरिकता है। ये लोग हिंदू हैं भाजपा उनसे सहानुभूति जता कर उन के स्वधर्मी वोटरस को रिझाती है और सोचती है कि अगर उन्हें नागरिकता मिल जाए तो वह भाजप के सच्चे और पक्के समर्थक बन जाएंगे। यह सब चुनाव अभियान की बातें हैं लेकिन फिलहाल भाजपा और उसके विरोधी अपने सिद्धांत और विचारधारा को त्याग कर सत्ता के जोड़-तोड़ में लगे हुए हैं। सत्ता प्राप्ति की खातिर सिद्धांतों के बजाय संधीसाधू सौदेबाजी हो रही है।
जम्मू कश्मीर से बाहर कम लोग जानते हैं कि मुफ्ती मोहम्मद सईद की पार्टी पीडीपी का निशान कलम दवात है। इस पार्टी के कातिब ए तकदीर मुफ्ती मोहम्मद सईद थे और अब उनके साथ यह कलम टूट गया है। उनके अंतिम संस्कार में यूं तो बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया जिन में गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी शामिल थे लेकिन प्रतिभागियों की संख्या अपेक्षा से कम थी। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि दवात की स्याही बहुत हद तक सूख चुकी है। मुफ्ती साहब की उत्तराधिकारी महबूबा मुफ्ती के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस स्याही की मात्रा को बहाल करना है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंदर कलम का उपयोग नेता करता है मगर स्याही प्रदान करने की मजदूरी जनता जनार्दन करते हैं। जिस नेता के पास जितनी स्याही होती इस का कलम उसी तेजी के साथ चलता है और जब स्याही सूख जाती है तो कलम बेकार हो जाता है। वास्तव में यह राजनीतिक स्याही खत्म नहीं होती बल्कि दूसरी दवात में प्रस्थान कर जाती है और जिस किसी के दवात में पदार्पण करती है उसका कलम फरफर चलने लगता है।
कलम दवात किसी राजनीतिक दल का निशान तो हो सकता है लेकिन इसका महत्व तो आम लोग जानते हैं। इस तथ्य का खुला प्रमाण अफजल गुरु के सुपुत्र गालिब की असाधारण उपलब्धि है। गालिब गुरू ने दसवीं कक्षा की परीक्षा में 95 प्रतिशत अंक प्राप्त करके ग्रेड ए प्लस में कामयाबी दर्ज कराई। गालिब ने सभी पांच पर्चों में ए प्लस हासिल किया। अफजल गुरु की फांसी और परिजनों की अनुपस्थिति में रातों रात अंतिम संस्कार के बाद उनकी पत्नी तबस्सुम गुरु ने कहा था। हम आम लोग हैं सरल जीवन बिताना चाहते हैं। हमारा राजनीति से कोई लेना देना नहीं है लेकिन उनके बेटे ने सिध्द कर दिया कि वह बहुत खास पिता की होनहार सुपुत्र हैं।
 अपने पिता की शहादत के बाद गालिब ने कहा था मैं डॉक्टर बनना चाहता हूँ। मेरे पिता को इस बात का पता था इसलिए मैं जब भी उनसे मुलाकात के लिए जेल में जाता वह हमेशा मुझे मेहनत करने का उपदेश देते। इस परीक्षा में गालिब ने अपने दिवंगत पिता के सपने को साकार करके दिखा दिया। पिता की फांसी से 6 महीने पहले जब उसकी मुलाकात जेल में अफजल गुरु से हुई तो उन्होंने कुरान और विज्ञान की पुस्तक उसे उपहार में दी। गालिब गुरु ने अपने पिता के उपहार न केवल ह्रदय में बल्कि आचर्ण में ढाल कर दिखा दिया। एक प्रेमल पिता के आज्ञाकारी पुत्र ने अपनी मेहनत और लगन से साबित कर दिया कि ؎
हम जिंदगी की जंग में हारे जरूर हैं
लेकिन किसी महाज पे पसपा नहीं हुए
महाजः मोर्चे
पसपाः पीछे हटना

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