Monday 25 January 2016

अमित शाह का पुन: राज्य अभिषेक

अमित शाह फिर एक बार भाजपा के अध्यक्ष बन गए। इससे पहले उन्हें राजनाथ सिंह के गृह मंत्री बन जाने के कारण बीच में अध्यक्षता की कुर्सी संभालनी पड़ी थी लेकिन इस बार वह प्रथानुसार चुने गए हैं। वेंकैया नायडू ने इस अवसर पर कहा कि फिलहाल हम में सबसे प्रतिभाशाली यही व्यक्ति है। प्रशन यह है कि अगर सब से अधीक प्रतिभाशाली का यह हाल है तो कम क्षमता वाले कैसे होंगे क्षमताहीन की दशा क्या होगी? अमित शाह की क्या यह साधारण उपलब्धि है कि जिस समय वे अध्यक्ष नहीं बने थे तो उत्तर प्रदेश में '' हर हर मोदी घर घर मोदी '' के नारे लगते थे। अब उसी उत्तर प्रदेश में '' गो बेक मोदी गो बेक मोदी '' की घोषणा हो रही है। मोदी जी मैक इन इंडिया की माला जपते हुए चीन में बनी ई रिक्शा बांटते फिरते हैं और जिस रोहित वीमोला की आत्महत्या का विरोध करने वालों को सुब्रमण्यम स्वामी आवारा कुत्ते के कह कर पुकारते हैं मोदी जी उसकी मौत पर टसवे बहाते हैं।
अमित शाह को अध्यक्ष पद पर नियुक्त करने का यह औचित्य दिया गया था कि उनके नेतृत्व में उत्तर प्रदेश के अंदर भाजपा ने 80 में 72 सीटों पर जीत दर्ज कराई है। यदि सफलता या विफलता कसौटी है तो उन्हें इस बार हटा दिया जाना चाहिए था क्योंकि उपचुनाव और ग्राम पंचायत में उत्तर प्रदेश के भीतर भाजपा को करारी हार झेलनी पड़ी है। वह न केवल मोदी जी के अपने चुनावी क्षेत्र बल्कि उनके दत्तक गांव में भी हार चुकी है।
उत्तर प्रदेश तो खैर दूर की बात है अमित शाह और नरेंद्र मोदी के गुजरात में कांग्रेस ने कस्बों और गांवों में भाजपा को धूल चटा दी है। पश्चिम बंगाल में जहां लंबे-चौड़े सपने सजाए जा रहे थे सारे ख्वाब बिखर गए हैं। दिल्ली में जो कुछ हुआ वह क्या कम था कि बिहार से भी वह मुंह की खाकर लौटे हैं और अपने साथ मोदी जी की भी मिट्टी पलीद करवा दी है। इसके बावजूद उनका फिर से निर्वाचित हो जाना इस बात का संकेत है कि वह पिछली बार भी प्रधानमंत्री के विश्वास और निष्ठा के कारण चुने गए थे और इस बार भी उनकी सफलता के पीछे वही चापलूसी संचालित है। देश में प्रचलित वर्तमान विवेकहीन राजनीतिक व्यवस्था से कोई और अपेक्षा असंभव है।
अमित शाह को विभिन्न राज्यों में भाजपा सरकार स्थापित करवाने का श्रेय दिया जाता है, इस दोवे का पोल खोलना भी आवश्यक है। इस अवधि में राज्य स्तर पर भाजपा को सबसे बड़ी सफलता हरियाणा में मिली। हरियाणा के अंदर सत्तारूढ़ कांग्रेस के विरोध की जबरदस्त लहर थी। उस समय राष्ट्रीय स्तर पर मोदी जी की का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था क्यों कि मोदी जी के हसीन सपनों का खुमार अभी उतरा नहीं था। लोकदल के प्रमुख चौटाला जेल से पैरोल पर चुनावी अभियान के लिए बाहर आए थे और 'आप' भी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जबरदस्त हार से बौखलाइ हुई थी। इन कारणों का लाभ भाजपा को अपने बलबूते पर पहली बार प्रांतीय सत्ता मिल गई लेकिन इसका श्रेय कभी मोदी जी तो कभी शाह जी को दिया जाता रहा है। इस तरह कल्याण जी आनंद जी की इस जोड़ी ने खूब मजे किये लेकिन आगे चलकर न पार्टी का कल्याण कर सके और न जनता को आनंद प्राप्त हुवा।
हरियाणा के साथ ही महाराष्ट्र में चुनाव हुआ। महाराष्ट्र के अंदर अमित शाह की सर्वोच्च प्राथमिकता तो यह थी कि अपने बलबूते पर शिवसेना की सहायता के बिना सरकार का गठन  किया जाए। इसके लिए उन्होंने शरद पवार और उनके भतीजे अजीत पवार को सिंचाई घोटाले का डर दिला कर ब्लेक मेल किया। यह साजिश सफल रही और राकांप ने कांग्रेस से रिश्ते तोड लिये। इस से प्रेरित हो कर शाह ने भी ठाकरे की पीठ में खंजर भोंक दिया लेकिन भाजपा को स्पष्ट बहुमत दिलाने में सफल नहीं हुए।
शाह जी की दूसरी प्राथमिकता यह थी कि राकांपा के सहयोग से विश्वास मत प्राप्त करने के बाद शिवसेना को तोड़ दिया जाए और उसके बागी गुट को साथ लेकर सरकार का गठन किया जाए जैसा कि कांग्रेस ने भुजबल के ज़माने में किया था लेकिन शाह जी अपनी इस उद्देश्य में भी नाकाम रहे। जब देखा कि शिवसेना के गढ़ में कोई दरार नहीं पड़ रही है तो उस से प्रधानमंत्री का अपमान करने के लिए सार्वजनिक क्षमा याचना की मांग की गई। उद्धव ठाकरेने उसे भी ठुकरा दिया तो भाजपा ने मजबूरन झुक कर उसके साथ सरकार बनाली।
महाराष्ट्र और केंद्र में शिवसेना भाजपा की साझा सरकार तो है परंतु उनके आपसी रिश्ते बेहद तनावपूर्ण है। शिवसेना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना और तिरस्कार का कोई अवसर नहीं गंवाती। पाकिस्तान के विषय में शिवसेना के आक्रामक व्यवहार के आगे कांग्रेस की आलोचना भी फीकी नज़र आती है। विभिन्न शहरों के नगर निगम चुनाव में ये दोनों दल एक दूसरे खिलाफ लड़ते हैं और खूब जूतम पीज़ार के बाद फिर से गले मिल जाते हैं लेकिन अक्सर शिवसेना का पलड़ा भारी रहता है। अब तो कांग्रेस ने भी भाजपा के गढ़ विदर्भ में घुसकर उसे पराजित करना शुरू कर दिया है। महाराष्ट्र के अंदर कमल की पत्तियां तेजी के साथ बिखर रही हैं लेकिन शाह जी को कुछ सुझाई नहीं दे रहा है?
इस बीच झारखंड में चुनाव हुए। शाह जी को विश्वास था कि झामुमो और कांग्रेस के मतभेद का फायदा उसे मिलेगा और भाजपा बहुमत पा जाएगी लेकिन वह भी नहीं हो सका। 88 सदस्यों वाले विधानसभा के दंगल में शाह साहब 44+ का नारा बुलंद करके उतरे थे लेकिन उनका रथ 37 पर रूक गया। भाजपा की सहयोगी पार्टी एजेएस ने 8 में 5 सीटों पर जीत दर्ज करवाई इसके बावजूद 2 की कमी रह गई जिसे निर्दलीय सदस्यों की मदद से पूरा किया गया और मरते पड़ते सरकार बन गई। बिहार की तरह का गठबंधन यदि झारखंड में भी हो जाता तो कांग्रेस और झामुमो मिलकर भाजपा को आसानी से धूल चटा सकते थे लेकिन ख़ैर उस समय अमित शाह के सितारे जोरों पर थे इसलिए किसी तरह नैया पार लग गई ।
इसके बाद कश्मीर चुनाव की घोषणा हुई। इस बार अमित शाह को यह खुशफहमी थी कि कश्मीर घाटी के अंदर भाजपा का खाता खुल जाएगा लेकिन मोदी और शाह की जोड़ी फिर नाकाम रही। जम्मू के अंदर वास्तव में भाजपा ने अभूतपूर्व सफलता दर्ज कराई और इस बात की संभावना थी कि पीडीपी, नेकां और कांग्रेस के बिखराव का फायदा उठाकर वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी। ऐसा न हो सका और वह पीडीपी की तुलना में 2 सीटों से पिछड़ गई। शाह जी पीडीपी को केंद्र में चारा डाल कर जम्मू कश्मीर पर अपना मुख्यमंत्री थोपना चाहते थे लेकिन मुफ्ती मोहम्मद सईद ने उस षडयंत्र को नाकाम भी किया और भाजपा का स्थायी राष्ट्रपति शासन लागू करने का बहाना भी नहीं दिया। एक लंबे इंतजार के बाद निराश होकर भाजपा उपमुख्यमंत्री पद पर राजी हो गई।
 मुफ्ती साहब के निधन के बाद उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती ने बीजेपी लिए अधिक संकट खड़े कर दिए और उप मुख्यमंत्री पद को खत्म करने पर तुल गईं। दरअसल महबूबा मुफ्ती के सामने नीतीश कुमार का उदाहरण है। भाजपा से संबंध तोड़ने के बाद संसदीय चुनाव में नीतीश कुमार का घाटा जरूर हुआ लेकिन प्रांतीय स्तर न केवल वह अपनी सत्ता बचाने में सफल रहे बल्कि राज्य चुनाव में भी उन्होंने भाजपा को बुरी तरह पराजित किया। नीतीश कुमार अगर भाजपा का साथ न छोड़ते तो उनका हश्र उद्धव ठाकरे से बुरा होता।
मतलब निकल जाने पर भाजपा अपने सहयोगियों के साथ कैसा दुर्व्यवहार करती है यह जानने के लिए हरियाना में बंसीलाल के बेटे कुलदीप बिश्नोई की हालत देख लो।  2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने हरियाणा जनहित दिल के साथ गठबंद्धन करके हिसार सीट उन्हें दी लेकिन जब दुष्यंत चौटाला से वे हार गए तो तीन महीने बाद राज्य चुनाव में उनके साथ गठबंधन तो दूर बैठक तक नहीं की। महबूबा मुफ्ती ने अगर इन घटनाओं से सबक ले कर भाजपा से नाता तोड़ लिया तो शाह जी को एक और झटका लगेगा।
अरुणाचल प्रदेश में शाह जी ने कांग्रेस में फूट डालकर सत्ता हथियाने का विफल प्रयत्न किया। अरुणाचल प्रदेश चीन की सीमा से सटा राज्य है जिसमें राजनीतिक स्थिरता का असाधारण महत्व है लेकिन अफसोस कि शाह जी इस की गंभीरता को समझे बिना वहाँ जोड़-तोड़ में लगे हुए हैं। अरुणाचल प्रदेश की कुल 60 सीटों में से 47 कांग्रेस के पास हैं। भाजपा ने 21 कांग्रेसी सदस्यों को बरगला कर अपने साथ कर लिया, जबकि कांग्रेस का दावा है कि उसके पास रिश्वतखोरी के सबूत हैं इस तरह भाजपा के ग्यारह सदस्यों ने कांग्रेसी बागियों के साथ बहुमत का दावा कर दिया।
इस षडयंत्र में राज्यपाल को शामिल कर के समय से पूर्व विद्रोही उपसभापति को निर्देश दे कर विधान सभा का विशेष सत्र बुलवाया गया जबकि कांग्रेस उसे हटा चुकी थी। इस डिप्टी स्पीकर ने विधानसभा हॉल के बजाय एक सामुदायिक केंद्र में बैठक आयोजित कर मुख्यमंत्री को निलंबित कर दिया। राज्यपाल की इस धांधली को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई तो जस्टिस ऋषिकेश राय ने यह स्वीकार किया कि राज्यपाल का निर्णय  संविधान की धारा 174 और 175 के खिलाफ हैं। फिर एक हंगामी संसदीय बैठक में अरुणाचल प्रदेश के अंदर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की गई जिस पर प्रणब मुखर्जी ने स्पष्टीकरण मांगा लिया यानी अप्रत्यक्ष नकार दिया। कांग्रेस राष्ट्रपति शासन के खिलाफ भी अदालत में जा रही है। अरुणाचल के राज्य मंत्री किरण रजिजु और शाह जी को अभी तक तो इस खेल में केवल अपमान हाथ लगा है और आगे भी यही संभावना है, इसलिए कि राज्य सभा के अंदर भाजपा अल्पमत में है, इसलिए यह अध्यादेश पारित ही नहीं हो पाएगा।
भाजपा का दोष यह है कि वे अपनी गलती से सबक नहीं सीखती। पिछले वर्ष गणतंत्र दिवस के मौके पर ओबामा को बुलाकर दिल्ली के मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश की गई लेकिन इसमें बुरी तरह नाकाम रहने के बावजूद इस साल फ्रांस के राष्ट्रपति होलंडी की मदद से पंजाब के चुनाव जीतने की मूर्खता दोहराई जा रही है। किसी फ्रेंच आरकीटिक के डिजाइन बनाने का बहाना बना कर होलंडी को राजनीतिक उद्देश्य से चंडीगढ़ गढ ले जाया गया है। चंडीगढ़ गढ के जिस 'रॉक गार्डन' में मोदी और होलंडी की मुलाकात हुई है उस के निर्माता नेक चंद के बेटे अनुज सैनी को वहां से निकालकर भाजपा ने यह बता दिया कि वह भारत वासियों की कैसी अवहेलना करती है हालांकि सैनी ने इस समारोह के आयोजन बहुत मेहनत की थी। नेक चंद ने यह उद्यान अपने निजी जमीन पर लगा कर अपना सारा जीवन उसे सजाने संवारने में झोंक दिया। इसीलिए शायद अनुज सैनी को कहना पड़ा कि '' मुझे ऐसा लगा कि मानों मैं अपने घर से निकाल दिया गया हूं। ''
चंडीगढ़ हरियाणा के साथ साथ पंजाब का भी राजधानी है लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि फ़्रानकोयस होलंडी का स्वागत करने के लिए केवल राज्यपाल, हरियाणा के मुख्यमंत्री और भाजपा की सांसद किरण खेर ही हवाई अड्डे पर आए। एक भी सिख वहां मौजूद नहीं था। होना तो यह चाहिए था पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल भी आते लेकिन वे बीमारी के कारण नहीं आसके तो उनके बेटे उप मुख्यमंत्री सुखबीर को आना चाहिए था लेकिन वे भी नहीं आए। प्रधानमंत्री का स्वागत करने के लिए अकाली दल के खाध्य मंत्री कैरोन को नियुक्त किया गया जो भाजपा और अकाली दल के बीच पनपने वाले तनाव का स्पष्ट प्रमाण है। मोदी जी शायद इसीलिए प्रकाश सिंह बादल से मुलाकात के लिए अस्पताल गए। फ्रांस के अंदर सिख छात्रों को पगड़ी पहन कर स्कूल जाने की अनुमति नहीं है जिसके खिलाफ वे विरोध करते रहे हैं। अकाली दल की होलंडी से दूरी का एक कारण यह भी है कि वे अपने मत मतदाताओं को नाराज नहीं करना चाहता लेकिन भाजपा ने अपनी मूर्खता से सिखों के जख्मों पर नमक लगा दिया है।
भाजपा के अपनी गलती से सबक नहीं सीखने का एक और उदाहरण आंध्र प्रदेश में सामने आया। सुना है रोहित की फांसी के बाद जब हंगामा हुआ तो प्रधानमंत्री ने मंत्री बंदारू दतात्रेय से इस्तीफा लेने का मन बना लिया था लेकिन आरएसएस आड़े आ गई। बंदारू संघ के पुराने सेवक हैं और उन्हें मंत्री बनाने की सिफारिश नागपुर से आई थी। संघ का मानना है कि रोहित के बहाने एबीवीपी को घेरा जा रहा है और नंत्री के इस्तीफे से वह हतोत्साहित होगी। मोदी जी ने संघ की मान ली नतीजा यह हुआ कि उनके उत्तर प्रदेश दौरे पर रोहित का ग्रहण लग गया। आश्चर्य की बात यह है कि इतना कुछ होने के बावजूद लखनऊ में प्रधानमंत्री के खिलाफ नारे लगाने वाले छात्रों के साथ वही व्यवहार हुआ जो रोहित और उसके साथियों के साथ किया गया था। अब अगर उनमें से कोई कुछ कर गुज़रे तो इसका सीधा आरोप प्रधानमंत्री पर आएगा। संघ परिवार को कैवल जख्मों पर नमक लगाना आता है मरहम नहीं, वरना यह न होता कि कुलपति अप्पा राव को छुट्टी पर भेजने के पशचात रोहित को सजा देने वाले विपिन श्रीवास्तव को उनकी जगह बिठाया जाता। श्रीवास्तव पर तो 2008  में आत्महत्या करने वाले सेंथल कुमार को परेशान करने का भी आरोप है।
इस साल जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनमें सफलता की संभावना बहुत कम है इसलिए समझदारी तो इस में थी कि इस अवसर पर अध्यक्षता की बागडोर किसी और थमा दी जाती। ऐसा करने पर भी परिणाम लगभग वही आता लेकिन लोग सोचते कि अगर पार्टी की कमान अमित शाह के हाथों में होती तो यह दिन देखना न पड़ता और इस कठिन परिस्थिती में भी वे कोई न कोई चमत्कार कर ही देते। इस तरह मार्ग दर्शन समिति के प्रत्याशी को बलि का बकरा बनाने का दुर्लभ अवसर मोदी जी ने गंवा दिया। अगर ऐसा होता तो दो साल बाद शाह जी को वापस लाने की मांग जोरशोर से आती और आगामी राष्ट्रीय चुनाव के मौके पर पार्टी की कमान शाह जी के हाथों में होती लेकिन अब तो यह संभावना भी है कि इन दो सालों में हाथ आने वाली असफलताओं के लिए शाह जी जिम्मेदार ठहरा कर उनकी छुट्टी कर दी जाए और प्रधानमंत्री हाथ मलते रह जाएं।
अमित शाह के फिर आध्यक्ष चुने जाने पर भाजपा मुख्यालय में खुशी की लहर दौड़ गई है। ऐसा कम ही होता है भाजपा की खुशियों में मुसलमान भी शामिल होते हों लेकिन इस बार यह होना चाहिए। शाह जी ने अपनी डेढ़ वर्षीय प्रदर्शन से यह साबित कर दिया है कि भाजपा के भगवा ध्वज को पाताल के अंदर दफन करने की जो क्षमता उनमें है किसी और में नहीं है। अटल जी को भाजपा का मुखौटा कहा जाता था लेकिन सौभाग्य से अमित शाह के चेहरे पर कोई नकाब नहीं है? उन पर बिल्डर्स से फिरौती वसूली से लेकर ईन्काऊंटर (हत्या) तक का आरोप है। उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। वह जेल की हवा खा चुके हैं और अपने राज्य से तड़ी पार होने का सौभाग्य भी उन्हें प्राप्त है। राजनीतिक प्रभाव से जो 'क्लीन' चिट उन्हों ने वर्तमान में प्राप्त कर रखी है वह परास्त होने पर 'डर्टी' भी हो सकती है। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि शाह जी पुनः अध्यक्ष बन जाएं तो क्या मोदी जी को दोबारा सफल करवा सकेंगे? और अगर नहीं (जिस की संभावना है) तो जब मोदी जी सत्ता से वंचित कर दिए जाएंगे तो शाह जी को जेल जाने से कौन बचाएगा?

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