Monday 25 January 2016

अमित शाह का पुन: राज्य अभिषेक

अमित शाह फिर एक बार भाजपा के अध्यक्ष बन गए। इससे पहले उन्हें राजनाथ सिंह के गृह मंत्री बन जाने के कारण बीच में अध्यक्षता की कुर्सी संभालनी पड़ी थी लेकिन इस बार वह प्रथानुसार चुने गए हैं। वेंकैया नायडू ने इस अवसर पर कहा कि फिलहाल हम में सबसे प्रतिभाशाली यही व्यक्ति है। प्रशन यह है कि अगर सब से अधीक प्रतिभाशाली का यह हाल है तो कम क्षमता वाले कैसे होंगे क्षमताहीन की दशा क्या होगी? अमित शाह की क्या यह साधारण उपलब्धि है कि जिस समय वे अध्यक्ष नहीं बने थे तो उत्तर प्रदेश में '' हर हर मोदी घर घर मोदी '' के नारे लगते थे। अब उसी उत्तर प्रदेश में '' गो बेक मोदी गो बेक मोदी '' की घोषणा हो रही है। मोदी जी मैक इन इंडिया की माला जपते हुए चीन में बनी ई रिक्शा बांटते फिरते हैं और जिस रोहित वीमोला की आत्महत्या का विरोध करने वालों को सुब्रमण्यम स्वामी आवारा कुत्ते के कह कर पुकारते हैं मोदी जी उसकी मौत पर टसवे बहाते हैं।
अमित शाह को अध्यक्ष पद पर नियुक्त करने का यह औचित्य दिया गया था कि उनके नेतृत्व में उत्तर प्रदेश के अंदर भाजपा ने 80 में 72 सीटों पर जीत दर्ज कराई है। यदि सफलता या विफलता कसौटी है तो उन्हें इस बार हटा दिया जाना चाहिए था क्योंकि उपचुनाव और ग्राम पंचायत में उत्तर प्रदेश के भीतर भाजपा को करारी हार झेलनी पड़ी है। वह न केवल मोदी जी के अपने चुनावी क्षेत्र बल्कि उनके दत्तक गांव में भी हार चुकी है।
उत्तर प्रदेश तो खैर दूर की बात है अमित शाह और नरेंद्र मोदी के गुजरात में कांग्रेस ने कस्बों और गांवों में भाजपा को धूल चटा दी है। पश्चिम बंगाल में जहां लंबे-चौड़े सपने सजाए जा रहे थे सारे ख्वाब बिखर गए हैं। दिल्ली में जो कुछ हुआ वह क्या कम था कि बिहार से भी वह मुंह की खाकर लौटे हैं और अपने साथ मोदी जी की भी मिट्टी पलीद करवा दी है। इसके बावजूद उनका फिर से निर्वाचित हो जाना इस बात का संकेत है कि वह पिछली बार भी प्रधानमंत्री के विश्वास और निष्ठा के कारण चुने गए थे और इस बार भी उनकी सफलता के पीछे वही चापलूसी संचालित है। देश में प्रचलित वर्तमान विवेकहीन राजनीतिक व्यवस्था से कोई और अपेक्षा असंभव है।
अमित शाह को विभिन्न राज्यों में भाजपा सरकार स्थापित करवाने का श्रेय दिया जाता है, इस दोवे का पोल खोलना भी आवश्यक है। इस अवधि में राज्य स्तर पर भाजपा को सबसे बड़ी सफलता हरियाणा में मिली। हरियाणा के अंदर सत्तारूढ़ कांग्रेस के विरोध की जबरदस्त लहर थी। उस समय राष्ट्रीय स्तर पर मोदी जी की का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था क्यों कि मोदी जी के हसीन सपनों का खुमार अभी उतरा नहीं था। लोकदल के प्रमुख चौटाला जेल से पैरोल पर चुनावी अभियान के लिए बाहर आए थे और 'आप' भी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जबरदस्त हार से बौखलाइ हुई थी। इन कारणों का लाभ भाजपा को अपने बलबूते पर पहली बार प्रांतीय सत्ता मिल गई लेकिन इसका श्रेय कभी मोदी जी तो कभी शाह जी को दिया जाता रहा है। इस तरह कल्याण जी आनंद जी की इस जोड़ी ने खूब मजे किये लेकिन आगे चलकर न पार्टी का कल्याण कर सके और न जनता को आनंद प्राप्त हुवा।
हरियाणा के साथ ही महाराष्ट्र में चुनाव हुआ। महाराष्ट्र के अंदर अमित शाह की सर्वोच्च प्राथमिकता तो यह थी कि अपने बलबूते पर शिवसेना की सहायता के बिना सरकार का गठन  किया जाए। इसके लिए उन्होंने शरद पवार और उनके भतीजे अजीत पवार को सिंचाई घोटाले का डर दिला कर ब्लेक मेल किया। यह साजिश सफल रही और राकांप ने कांग्रेस से रिश्ते तोड लिये। इस से प्रेरित हो कर शाह ने भी ठाकरे की पीठ में खंजर भोंक दिया लेकिन भाजपा को स्पष्ट बहुमत दिलाने में सफल नहीं हुए।
शाह जी की दूसरी प्राथमिकता यह थी कि राकांपा के सहयोग से विश्वास मत प्राप्त करने के बाद शिवसेना को तोड़ दिया जाए और उसके बागी गुट को साथ लेकर सरकार का गठन किया जाए जैसा कि कांग्रेस ने भुजबल के ज़माने में किया था लेकिन शाह जी अपनी इस उद्देश्य में भी नाकाम रहे। जब देखा कि शिवसेना के गढ़ में कोई दरार नहीं पड़ रही है तो उस से प्रधानमंत्री का अपमान करने के लिए सार्वजनिक क्षमा याचना की मांग की गई। उद्धव ठाकरेने उसे भी ठुकरा दिया तो भाजपा ने मजबूरन झुक कर उसके साथ सरकार बनाली।
महाराष्ट्र और केंद्र में शिवसेना भाजपा की साझा सरकार तो है परंतु उनके आपसी रिश्ते बेहद तनावपूर्ण है। शिवसेना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना और तिरस्कार का कोई अवसर नहीं गंवाती। पाकिस्तान के विषय में शिवसेना के आक्रामक व्यवहार के आगे कांग्रेस की आलोचना भी फीकी नज़र आती है। विभिन्न शहरों के नगर निगम चुनाव में ये दोनों दल एक दूसरे खिलाफ लड़ते हैं और खूब जूतम पीज़ार के बाद फिर से गले मिल जाते हैं लेकिन अक्सर शिवसेना का पलड़ा भारी रहता है। अब तो कांग्रेस ने भी भाजपा के गढ़ विदर्भ में घुसकर उसे पराजित करना शुरू कर दिया है। महाराष्ट्र के अंदर कमल की पत्तियां तेजी के साथ बिखर रही हैं लेकिन शाह जी को कुछ सुझाई नहीं दे रहा है?
इस बीच झारखंड में चुनाव हुए। शाह जी को विश्वास था कि झामुमो और कांग्रेस के मतभेद का फायदा उसे मिलेगा और भाजपा बहुमत पा जाएगी लेकिन वह भी नहीं हो सका। 88 सदस्यों वाले विधानसभा के दंगल में शाह साहब 44+ का नारा बुलंद करके उतरे थे लेकिन उनका रथ 37 पर रूक गया। भाजपा की सहयोगी पार्टी एजेएस ने 8 में 5 सीटों पर जीत दर्ज करवाई इसके बावजूद 2 की कमी रह गई जिसे निर्दलीय सदस्यों की मदद से पूरा किया गया और मरते पड़ते सरकार बन गई। बिहार की तरह का गठबंधन यदि झारखंड में भी हो जाता तो कांग्रेस और झामुमो मिलकर भाजपा को आसानी से धूल चटा सकते थे लेकिन ख़ैर उस समय अमित शाह के सितारे जोरों पर थे इसलिए किसी तरह नैया पार लग गई ।
इसके बाद कश्मीर चुनाव की घोषणा हुई। इस बार अमित शाह को यह खुशफहमी थी कि कश्मीर घाटी के अंदर भाजपा का खाता खुल जाएगा लेकिन मोदी और शाह की जोड़ी फिर नाकाम रही। जम्मू के अंदर वास्तव में भाजपा ने अभूतपूर्व सफलता दर्ज कराई और इस बात की संभावना थी कि पीडीपी, नेकां और कांग्रेस के बिखराव का फायदा उठाकर वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी। ऐसा न हो सका और वह पीडीपी की तुलना में 2 सीटों से पिछड़ गई। शाह जी पीडीपी को केंद्र में चारा डाल कर जम्मू कश्मीर पर अपना मुख्यमंत्री थोपना चाहते थे लेकिन मुफ्ती मोहम्मद सईद ने उस षडयंत्र को नाकाम भी किया और भाजपा का स्थायी राष्ट्रपति शासन लागू करने का बहाना भी नहीं दिया। एक लंबे इंतजार के बाद निराश होकर भाजपा उपमुख्यमंत्री पद पर राजी हो गई।
 मुफ्ती साहब के निधन के बाद उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती ने बीजेपी लिए अधिक संकट खड़े कर दिए और उप मुख्यमंत्री पद को खत्म करने पर तुल गईं। दरअसल महबूबा मुफ्ती के सामने नीतीश कुमार का उदाहरण है। भाजपा से संबंध तोड़ने के बाद संसदीय चुनाव में नीतीश कुमार का घाटा जरूर हुआ लेकिन प्रांतीय स्तर न केवल वह अपनी सत्ता बचाने में सफल रहे बल्कि राज्य चुनाव में भी उन्होंने भाजपा को बुरी तरह पराजित किया। नीतीश कुमार अगर भाजपा का साथ न छोड़ते तो उनका हश्र उद्धव ठाकरे से बुरा होता।
मतलब निकल जाने पर भाजपा अपने सहयोगियों के साथ कैसा दुर्व्यवहार करती है यह जानने के लिए हरियाना में बंसीलाल के बेटे कुलदीप बिश्नोई की हालत देख लो।  2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने हरियाणा जनहित दिल के साथ गठबंद्धन करके हिसार सीट उन्हें दी लेकिन जब दुष्यंत चौटाला से वे हार गए तो तीन महीने बाद राज्य चुनाव में उनके साथ गठबंधन तो दूर बैठक तक नहीं की। महबूबा मुफ्ती ने अगर इन घटनाओं से सबक ले कर भाजपा से नाता तोड़ लिया तो शाह जी को एक और झटका लगेगा।
अरुणाचल प्रदेश में शाह जी ने कांग्रेस में फूट डालकर सत्ता हथियाने का विफल प्रयत्न किया। अरुणाचल प्रदेश चीन की सीमा से सटा राज्य है जिसमें राजनीतिक स्थिरता का असाधारण महत्व है लेकिन अफसोस कि शाह जी इस की गंभीरता को समझे बिना वहाँ जोड़-तोड़ में लगे हुए हैं। अरुणाचल प्रदेश की कुल 60 सीटों में से 47 कांग्रेस के पास हैं। भाजपा ने 21 कांग्रेसी सदस्यों को बरगला कर अपने साथ कर लिया, जबकि कांग्रेस का दावा है कि उसके पास रिश्वतखोरी के सबूत हैं इस तरह भाजपा के ग्यारह सदस्यों ने कांग्रेसी बागियों के साथ बहुमत का दावा कर दिया।
इस षडयंत्र में राज्यपाल को शामिल कर के समय से पूर्व विद्रोही उपसभापति को निर्देश दे कर विधान सभा का विशेष सत्र बुलवाया गया जबकि कांग्रेस उसे हटा चुकी थी। इस डिप्टी स्पीकर ने विधानसभा हॉल के बजाय एक सामुदायिक केंद्र में बैठक आयोजित कर मुख्यमंत्री को निलंबित कर दिया। राज्यपाल की इस धांधली को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई तो जस्टिस ऋषिकेश राय ने यह स्वीकार किया कि राज्यपाल का निर्णय  संविधान की धारा 174 और 175 के खिलाफ हैं। फिर एक हंगामी संसदीय बैठक में अरुणाचल प्रदेश के अंदर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की गई जिस पर प्रणब मुखर्जी ने स्पष्टीकरण मांगा लिया यानी अप्रत्यक्ष नकार दिया। कांग्रेस राष्ट्रपति शासन के खिलाफ भी अदालत में जा रही है। अरुणाचल के राज्य मंत्री किरण रजिजु और शाह जी को अभी तक तो इस खेल में केवल अपमान हाथ लगा है और आगे भी यही संभावना है, इसलिए कि राज्य सभा के अंदर भाजपा अल्पमत में है, इसलिए यह अध्यादेश पारित ही नहीं हो पाएगा।
भाजपा का दोष यह है कि वे अपनी गलती से सबक नहीं सीखती। पिछले वर्ष गणतंत्र दिवस के मौके पर ओबामा को बुलाकर दिल्ली के मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश की गई लेकिन इसमें बुरी तरह नाकाम रहने के बावजूद इस साल फ्रांस के राष्ट्रपति होलंडी की मदद से पंजाब के चुनाव जीतने की मूर्खता दोहराई जा रही है। किसी फ्रेंच आरकीटिक के डिजाइन बनाने का बहाना बना कर होलंडी को राजनीतिक उद्देश्य से चंडीगढ़ गढ ले जाया गया है। चंडीगढ़ गढ के जिस 'रॉक गार्डन' में मोदी और होलंडी की मुलाकात हुई है उस के निर्माता नेक चंद के बेटे अनुज सैनी को वहां से निकालकर भाजपा ने यह बता दिया कि वह भारत वासियों की कैसी अवहेलना करती है हालांकि सैनी ने इस समारोह के आयोजन बहुत मेहनत की थी। नेक चंद ने यह उद्यान अपने निजी जमीन पर लगा कर अपना सारा जीवन उसे सजाने संवारने में झोंक दिया। इसीलिए शायद अनुज सैनी को कहना पड़ा कि '' मुझे ऐसा लगा कि मानों मैं अपने घर से निकाल दिया गया हूं। ''
चंडीगढ़ हरियाणा के साथ साथ पंजाब का भी राजधानी है लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि फ़्रानकोयस होलंडी का स्वागत करने के लिए केवल राज्यपाल, हरियाणा के मुख्यमंत्री और भाजपा की सांसद किरण खेर ही हवाई अड्डे पर आए। एक भी सिख वहां मौजूद नहीं था। होना तो यह चाहिए था पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल भी आते लेकिन वे बीमारी के कारण नहीं आसके तो उनके बेटे उप मुख्यमंत्री सुखबीर को आना चाहिए था लेकिन वे भी नहीं आए। प्रधानमंत्री का स्वागत करने के लिए अकाली दल के खाध्य मंत्री कैरोन को नियुक्त किया गया जो भाजपा और अकाली दल के बीच पनपने वाले तनाव का स्पष्ट प्रमाण है। मोदी जी शायद इसीलिए प्रकाश सिंह बादल से मुलाकात के लिए अस्पताल गए। फ्रांस के अंदर सिख छात्रों को पगड़ी पहन कर स्कूल जाने की अनुमति नहीं है जिसके खिलाफ वे विरोध करते रहे हैं। अकाली दल की होलंडी से दूरी का एक कारण यह भी है कि वे अपने मत मतदाताओं को नाराज नहीं करना चाहता लेकिन भाजपा ने अपनी मूर्खता से सिखों के जख्मों पर नमक लगा दिया है।
भाजपा के अपनी गलती से सबक नहीं सीखने का एक और उदाहरण आंध्र प्रदेश में सामने आया। सुना है रोहित की फांसी के बाद जब हंगामा हुआ तो प्रधानमंत्री ने मंत्री बंदारू दतात्रेय से इस्तीफा लेने का मन बना लिया था लेकिन आरएसएस आड़े आ गई। बंदारू संघ के पुराने सेवक हैं और उन्हें मंत्री बनाने की सिफारिश नागपुर से आई थी। संघ का मानना है कि रोहित के बहाने एबीवीपी को घेरा जा रहा है और नंत्री के इस्तीफे से वह हतोत्साहित होगी। मोदी जी ने संघ की मान ली नतीजा यह हुआ कि उनके उत्तर प्रदेश दौरे पर रोहित का ग्रहण लग गया। आश्चर्य की बात यह है कि इतना कुछ होने के बावजूद लखनऊ में प्रधानमंत्री के खिलाफ नारे लगाने वाले छात्रों के साथ वही व्यवहार हुआ जो रोहित और उसके साथियों के साथ किया गया था। अब अगर उनमें से कोई कुछ कर गुज़रे तो इसका सीधा आरोप प्रधानमंत्री पर आएगा। संघ परिवार को कैवल जख्मों पर नमक लगाना आता है मरहम नहीं, वरना यह न होता कि कुलपति अप्पा राव को छुट्टी पर भेजने के पशचात रोहित को सजा देने वाले विपिन श्रीवास्तव को उनकी जगह बिठाया जाता। श्रीवास्तव पर तो 2008  में आत्महत्या करने वाले सेंथल कुमार को परेशान करने का भी आरोप है।
इस साल जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनमें सफलता की संभावना बहुत कम है इसलिए समझदारी तो इस में थी कि इस अवसर पर अध्यक्षता की बागडोर किसी और थमा दी जाती। ऐसा करने पर भी परिणाम लगभग वही आता लेकिन लोग सोचते कि अगर पार्टी की कमान अमित शाह के हाथों में होती तो यह दिन देखना न पड़ता और इस कठिन परिस्थिती में भी वे कोई न कोई चमत्कार कर ही देते। इस तरह मार्ग दर्शन समिति के प्रत्याशी को बलि का बकरा बनाने का दुर्लभ अवसर मोदी जी ने गंवा दिया। अगर ऐसा होता तो दो साल बाद शाह जी को वापस लाने की मांग जोरशोर से आती और आगामी राष्ट्रीय चुनाव के मौके पर पार्टी की कमान शाह जी के हाथों में होती लेकिन अब तो यह संभावना भी है कि इन दो सालों में हाथ आने वाली असफलताओं के लिए शाह जी जिम्मेदार ठहरा कर उनकी छुट्टी कर दी जाए और प्रधानमंत्री हाथ मलते रह जाएं।
अमित शाह के फिर आध्यक्ष चुने जाने पर भाजपा मुख्यालय में खुशी की लहर दौड़ गई है। ऐसा कम ही होता है भाजपा की खुशियों में मुसलमान भी शामिल होते हों लेकिन इस बार यह होना चाहिए। शाह जी ने अपनी डेढ़ वर्षीय प्रदर्शन से यह साबित कर दिया है कि भाजपा के भगवा ध्वज को पाताल के अंदर दफन करने की जो क्षमता उनमें है किसी और में नहीं है। अटल जी को भाजपा का मुखौटा कहा जाता था लेकिन सौभाग्य से अमित शाह के चेहरे पर कोई नकाब नहीं है? उन पर बिल्डर्स से फिरौती वसूली से लेकर ईन्काऊंटर (हत्या) तक का आरोप है। उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था। वह जेल की हवा खा चुके हैं और अपने राज्य से तड़ी पार होने का सौभाग्य भी उन्हें प्राप्त है। राजनीतिक प्रभाव से जो 'क्लीन' चिट उन्हों ने वर्तमान में प्राप्त कर रखी है वह परास्त होने पर 'डर्टी' भी हो सकती है। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि शाह जी पुनः अध्यक्ष बन जाएं तो क्या मोदी जी को दोबारा सफल करवा सकेंगे? और अगर नहीं (जिस की संभावना है) तो जब मोदी जी सत्ता से वंचित कर दिए जाएंगे तो शाह जी को जेल जाने से कौन बचाएगा?

Saturday 23 January 2016

गाय हमारी माता है आगे कुच्छ नहीं आता है (व्यंग)

विख्यात कवि अल्लामा इकबाल की प्रसिध्द  काव्य प्रार्थना ''लब पे आती है दुआ'' के बारे में कहा जाता है कि वह उर्दू साहित्य की सब से लोकप्रिय कविता है। लेकिन उसके बाद निश्चित ही इस्माइल मेरठी की '' हमारी गाय '' का नंबर आता होगा। उर्दू भाषा का कौन सा ऐसा पाठक है जो ''रब का शुक्र अदा कर भाई जिसने हमारी गाय बनाई '' से परिचित ना हो। इस्माइल मेरठी को अगर गाय उन सारे गुणों आभास होता जिन का आविष्कार भारत वासियों ने कर रखा है तो वह एक कविता पर समाधान करने के बजाय इस विषय पर “मधुशाला”  जैसी पुस्तक “गौशाला” लिख मारते।
“मधुशाला” के संबंध में भगवा सेना के लोग यहां तक कहते हैं कि यदि हरिवंश राय बच्चन ने “मधुशाला” के बजाए “गौशाला” नामक कविता संग्रह की रचना की होती तो वे ना केवल अपने सुपुत्र बिग बी से अधिक लोकप्रीय होते बल्कि हम पंडित नेहरू से उन के निकटतम संबंधों के बावजूद भारत रत्न से सम्मानित कर देते। वैसे अमिताभ बच्चन के लिये अब भी अवसर है वे अगर “मधुशाला” का नवीन रीमिक्स “गौशाला” किसी से लिखवा लें (जैसा कि प्रधान मंत्री करते रहते हैं) और अपने नाम से प्रकाशित कर दें तो उस को पढे बिना ही पुरूस्कारित कर दिया जाएगा। इस प्रकार उन्हें अपने पिताश्री से महान कवि कहलाने का सम्मान प्राप्त हो जाएगा जैसे कि मोदी जी कुच्छ समय बाद अटल जी से बडे कवि कहलाएंगे। वैसे शिक्षा मंत्री अपनी सास (रा स्व सं) के तुष्टीकर्ण के लिये उसे पाठ्य क्रम में भी शामिल कर सकती हैं।
प्रधान मंत्री चूंकि गुजरात की पावन धर्ती के सुपुत्र हैं इस लिये सुना है वे आज कल गुजरात ही में जन्मे राष्ट्र पिता महात्मा गांधी को श्रध्दांजली देने के लिये नाथूराम गोडसे के गुरू क्रांति वीर विक्रम सावरकर को भारत रत्न पुरूस्कार से सम्मानित करने पर विचार कर रहे हैं। तरंतु यदि गौहत्या के संबंध में सावरकर के क्रांतिकार विचारों पर उन की नजर पड जाए तो निश्चित ही उन्हें पुर्नविचार करना पडेगा। सावरकर के ख्याल में गाय का वध करने से बडा अत्याचार उस का दूध पीना है इस लिये कि गाय दूध हमारे लिये नहीं बल्कि अपने बछडे के लिये देती है इस लिये दूध पर पहला अधिकार उस का है। गाय के बछडे को वंचित कर के उस का दूध खुद पी जाना दोनों पर अत्याचार है। सावरकर शायद नहीं जानते थे कि गाय को माता कहने के पीच्छे क्या षडयंत्र है?
बात गाय के उपयोगिता की चल रही थी बीच में भारत रत्न आ गया वैसे भारत वर्ष में गाय किसी अनमोल रत्न से कम कहां है? जहां तक गाय के दूध का प्रशन है उस से तो सारा जग परिचित है। उस के अंदर जो शक्ती और सम्रध्दी है उसका अनुमान लगाने के लिये लालू या मुलायम को देख लेना काफी है। इसके अलावा गोमूत्र के जितने लाभ बाबा रामदेव जानते हैं उनका अगर ठीक से प्रचार हो जाए तो न जाने कितनी दवाओं की कंपनियों पर ताला पड जाए और अस्पताल बंद हो जाएं क्यूंकि लोग घर बैठे बिना शुल्क स्वस्थ हो जाया करेंगे।
बडे चाव से गाय का दूध पीने वालों ने भी उसके गोबर को आंगन और दीवार पुतने का साहस नहीं किया होगा। अटल जी के युग में मानव संसाधन का मंत्री पद डॅ। मुरली मनोहर जोशी के पास था। कहने को वे प्राध्यापक थे परंतु सुना है राजकारण में व्यस्त रहने के कारण वे केवल वेतन लेने की हद तक अपना परम कर्तव्य निभाते थे। जोशी जी का एक मात्र अविष्कार यह था दीवार पर गोबर पोतने से प्रमाणु किरण (Radioactive rays) की क्षति से सुरक्षा संभव है। वह तो अच्छा हुवा के इस की प्रसिध्दी नहीं हुई वरना उन्हें नोबल प्राईज मिल जाता और भाजप के मार्ग दर्शन मंडल को चार चांद लग जाते।
बिहार चुनाव में जब सारे उपाय विफल हो गए तो भाजपा के अंतिम पोस्टर में गाय दिखाई गई परंतु ना गाय संघ के झांसे में आई और ना मतदाता आए। अब की बार इस बात की उम्मीद थी कि तमिलनाडु चुनाव के पहले ही पोस्टर में बैल नज़र आ जाए। गाय की प्रशंसा के साथ उक्त कविता में यह भी है कि '' बछडे उसके बैल बनाए जो खेती के काम में आए। '' परंतु बैल को भारत और दुनिया के अन्य देशों में खेती के अलावा खेल के मैदान में मनोरंजन का साधन भी बनाया जाता है। इस को धूल चटा कर लोग अपनी वीरता के झंडे गाड़ते हैं जिसे तमिलनाडु में '' जल्ली कटू” 'कहा जाता है और महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, हरियाणा और पंजाब में बैल गाड़ियों की दौड़ आयोजित की जाती है।
बैल के इस उपयोग को पशु अधिकार के लिए संघर्ष करने वाले अन्याय मानते हैं और उसका अंत चाहते हैं। भारतीय संसद न सिर्फ वोट देने वाले मनुष्य का बल्कि गूंगे बहरे जानवरों के मौलिक अधिकारों का भी ख्याल करती है। पर्यावरण मंत्रालय ने  1991 में एक आदेश पत्र जारी करके भालू, बंदर, शेर, तेंदवा, चीता और कुत्ते के प्रशिक्षण और प्रदर्शन पर रोक लगा दी। सर्कस वालों के संगठन ने दिल्ली हाई कोर्ट में इसे चुनौती दी लेकिन न्यायालय ने मानव का तर्क खारिज कर जानवरों के पक्ष में फैसला सुनाया।  2011 के अंदर इस आदेश पत्र में संशोधन कर के विशेष रूप से बैल भी शामिल कर दिया गया इस तरह मानो तमिलनाडु में पोंगल के अवसर पर जल्ली कटू की रस्म पर प्रतिबंध लग गया।
जल्ली कटू के खिलाफ इस संशोधन को भी न्यायालय में चुनौती दी गई लेकिन अदालत ने मई  2014 में अपने फैसले को उचित ठहरा दिया। मई  2014 तो खैर नई सरकार के गठन का महीना था इसलिए किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया।  2015 गौमाता का साल था, इसलिए किसी को बैल का ख्याल नहीं आया लेकिन अप्रैल  2016 के अंदर तमिलनाडु के राज्य चुनाव होने वाले हैं इसलिए अचानक पोंगल और जल्ली कटू के बैलों को महत्व प्राप्त हो गया। सारे राजनीतिक दल सशक्त थ्योर जाति के तुष्टीर्कण में लग गए जिसे त्रीचुरापल्ली, मदुराई, थनी, पदोकोटाई और डिंडीगुल जिले का भाग्य विधाता समझा जाता है जहां यह त्यौहार बडे उत्साह के साथ मनाया जाता है। इन लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध प्रदर्शन करते हुए अलनगनालोर और पालाम्मीदो के राजमार्ग को बंद कर दिया और धमकी दी कि अगर सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला नहीं बदलता तो वे अपने राशन कार्ड्स और मतदाता पहचान पत्र वापस कर देंगे। जिस का सीधा अर्थ है कि चुनाव का बहिष्कार करेंगे।
आम दिनों में तो इस तरह की धमकियों से नेता प्रभावित नहीं होते परंतु चुनाव को निकट देख कर डेढ़ साल बाद अचानक केंद्र सरकार नींद से जाग गई और उसने 7 जनवरी को एक नया आदेश पत्र जारी करके जल्ली किटू में बैलों पर लगा प्रतिबंध उठा दिया। इस आदेश पत्र पर रोक लगाने के लिए पशु अधिकारों के लिए काम करने वाले विभिन्न संगठनों ने मिलकर कर अदालत में गुहार लगाई बल्कि सरकार पर 2014 के सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का उल्लंघन करने का आरोप लगा कर अदालत की अवमानना की शिकायत भी कर दी।
सरकारी आदेश पत्र के समर्थन में भाजपा तमिलनाडु के अध्यक्ष सुन्दर राजन ने बड़ी सफाई से स्वीकार कर लिया कि अप्रैल में होने वाले चुनाव के मद्देनजर भाजपा के लिए यह अनिवार्य है कि वद जनता के साथ नजर आए। उन्होंने कहा कि इस प्रतिबंध को समाप्त करना चुनाव में भाजपा के लिए उपयोगी साबित होगा। अपनी साफ गोई के कारण सुन्दर राजन बधाई के पात्र हैं लेकिन उन्हें क्या पता था कि न्यायालय इस आदेश पत्र को सरकार के मुंह पर दे मारेगा और लेने के देने पड जाएंगे।
सुन्दर राजन ने यह खुलासा भी किया कि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने इस प्रतिबंध को समाप्त करवाने के लिए पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर के साथ कई बैठकें कीं। काश के अमित शाह प्रकाश जावडेकर पर समय बर्बाद करने के बजाय न्यायाधीशों को प्रभावित करने का प्रयत्न करते लेकिन ऐसा लगता है वहां भी उन की दाल नहीं गल रही है। पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि ने प्रधानमंत्री से कहा कि वह तुरंत अध्यादेश जारी करके तमिलनाडु में जल्ली कटू का आयोजन सुनिश्चित करें।
मुख्यमंत्री जय ललिता ने प्रधानमंत्री को याद दिलाया कि पोंगल का त्योहार 14 जनवरी से शुरू हो रहा है इसलिए जल्ली कटू से संबंधित तमिलनाडु की जनता की भावनाओं पर ध्यान देना बेहद महत्वपूर्ण है। सवाल यह है कि इन सार्वजनिक भावनाओं का ख्याल राजनीतिक दलों को 4 साल बाद क्यों आ रहा है। अदालत जल्ली कटू को संस्कृति और सभ्यता का हिस्सा नहीं मानती उसने आदेश पत्र के खिलाफ की जाने वाली अपील का जवाब देने के लिए सरकार को चार सप्ताह का समय दिया है और दो सप्ताह के अंदर उसे रद्द कर दिया।
सरकार के इस फैसले से भाजपा के अंदर भी एक महाभारत छिड़ गई है। इन्सान से अधिक पशुओं से सहानुभूति रखने वाली केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने सरकारी निर्णय के खिलाफ अदालत के फैसले की सराहना की। मेनका के अनुसार यह पश्चिमी परंपरा है इस में जानवर और इंसान की जान भी जाती है। मकर संक्राती के अवसर पर पेड़ पौधों की पूजा होनी चाहिए लेकिन जानवरों पर अत्याचार किया जाता है। गाय बैल किसानों के लिए उपयोगी जानवर हैं उनकी सुरक्षा होनी चाहिए। मेनका के इस बयान पर भाजपा के सहयोगी दल पीएमके के अध्यक्ष राम दोस ख आग बबूला हो गए और उन्होंने मेनका को जल्ली कटू का इतिहास और तमिलनाडु की संस्कृति के अध्ययन की नसीहत कर डाली। उन्होंने भाजपा से स्पष्टीकरण मांगा कि क्या वह मेनका की समर्थक है?
राम दोस के आक्रोश के बावजूद जो लोग जल्ली कटू का विवरण जानते हैं वह अदालत के फैसले से सहमत होंगे। अव्वल तो यह कोई धार्मिक समारोह नहीं है दूसरे इस में शामिल होने वाले बैलों का मानसिक संतुलन बिगाड़ने के लिए उन्हें जबरन शराब पिलाई जाती है। उन्हें जोश दिलाने की खातिर मारा पीटा जाता है। उन्हें सुई चुभाई जाती हैं। उनकी पूंछ मरोड़ी जाती है बल्कि उनकी आँखों और गुप्तांग पर मिर्च रगड़ने से भी परहेज नहीं किया जाता।
1960  में संविधान के अंदर संशोधन करके पशुओं को मानव अत्याचार से बचाने के लिए कानून बनाया गया। न्यायालय ने अपने फैसले में पशुओं के पांच मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया है। इसमें सबसे पहले भूख, प्यास और सम्मिश्रण आहार से मुक्ति, इस के पश्चात भय और थकान, भौतिक और मौसम की तकलीफ से बचाव, घाव और बीमारी से सुरक्षा और उनके दिनचर्या के व्यवहार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता शामिल है। जल्ली कटू के हंगामे में बैलों जमीन पर गिरा कर उपरोक्त सभी अधिकारों का हनन मात्र मनोरंजन के लिए किया जाता है।
न्यायालय ने अपने निर्णय में पशु अधिकार को संवैधानिक दर्जा देने की सिफारिश भी की है। अन्य देशों का उदाहरण दे कर सरकार से आग्रह किया गया है कि वह जानवरों के आत्म सम्मान की सुरक्षा सुनिश्चित करे। ऐसे में सरकार का दायित्व है कि वह अदालत की सिफारिशों पर गंभीरता से विचार करे और इसे लागू करने का प्रयत्न करे इसके विपरीत एक तरफ यह सरकार गाय को माता का दर्जा दे कर परम पूज्य ठहराती है और दूसरी ओर उस के भाई, पिता व बेटे के साथ अमानवीय व्यवहार का मार्ग प्रशस्त करती है।
संघ परिवार यदि वाकई गाय का हमदर्द होता तो जल्ली कटू प्रथा पर प्रतिबंध लगवाता लेकिन वोट की लालच में इस प्रतिबंध को उठा कर उसने अपने चेहरे पर पड़ी पाखंड की नकाब नोच कर फेंक दी है। यह निंदनीय सत्य है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ाते हुए तमिल नाडु और आध्र प्रदैश के विभिन्न शहरों में जल्ली कटू का त्योहार जोर शोर मनाया गया। किसी ने इसे रोकने टोकन का साहस नहीं किया।
भारत में गाय की न केवल पूजा की जाती है बल्कि प्राकृतिक आपदाओं से अपने आप को सुरक्षित रखने के लिए गाय का बैल के साथ विवाह भी रचा दिया जाता है। दो साल पूर्व इंदौर की एक ऐसी ही शादी में 5 हजार लोगों ने भाग लिया और उस पर दस लाख रुपये खर्च किया गया। इस शादी में न केवल मंत्र पढ़े गए बल्कि दूल्हे और दुल्हन ने अग्नि के फेरे भी लिए तथा अपने समृद्ध वैवाहिक जीवन के लिए शुभकामनाएं भी प्राप्त कीं।
यह सब तो आम जनता के बखेड़े हैं राजनेता वोट पाने के लालसा में गाय के नाम पर भावनात्मक शोषण करते हैं। यह और बात है कि जब गाय को उन के घिनौने उद्देश्य का पता चल जाता है तो उस के थन सूख जाते हैं और राजनीतिज्ञ हाथ मलते रह जाते हैं। राजनीतिक दलों की यह हालत देख कर बचपन का एक जोक याद आता है। परिक्षा में गाय पर निबंध लिखने को कहा गया तो एक चालाक विद्यर्थी ने लिखा “गाय हमारी माता है आगे कुच्छ नहीं आता है”  शिक्षक ने बिहार के मत दाता के समान “बैल हमारा बाप है नम्बर देना पाप है” लिख कर शून्य दे दिया।
(इस व्यंग लेख का उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुंचाना नहीं है, अगर अनजाने में ऐसा हुवा हो तो मैं बिनाशर्त क्षमा याचना करता हूँ)

Thursday 21 January 2016

रोहित की आत्महत्या का दोषी कौन?

रोहित वामोला की आत्महत्या ने राष्ट्रीय राजनीति में हलचल मचा दी है। अगस्त के महिने में जब स्वतंत्रता दिवस मनाने की तैयारी चल रही थी हैदराबाद में रोहित सहित अंबेडकर स्टूडेंट्स यूनियन के पांच सदस्यों को पुलिस ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं पर हमला करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। जनवरी में गणतंत्र दिवस से पहले रोहित आत्महत्या कर ली। ऐसे में अरविंद केजरीवाल का इस आत्महत्या को लोकतंत्र और सामाजिक समानता की हत्या करार देते हुए केंद्रीय मंत्री बंदारू दत्तात्रेय की बरख़ास्तगी और प्रधानमंत्री से माफी की मांग उचित प्रतीत होती है।
निसंदेह इन दोनों छात्र संगठनों के कार्यकर्ताओं के बीच झड़प हुई थी। सच तो यह है कि एबीवीपी ने पहले एसए के समारोह पर धावा बोला और फिर एबीवीपी के अध्यक्ष ने फेसबुक पर एसए को देशद्रोही गुंडे लिखा। बाद में लिखित माफी मांग कर उसने मामला रफा-दफा करवाया। आगे चलकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक सदस्य ने षडयंत्र कर रोहित और उसके साथियों पर उसे घायल करने का निराधार आरोप लगा दिया। इसके समर्थन में उसने अपेनडिक्स ऑपरेशन के नकली कागजात लगा दिए।
केंद्रीय मंत्री बंदारू दत्तात्रेय को भी बाद में जोश आ गया और उन्हों ने स्मृति ईरानी को पत्र लिखा कि विश्वविद्यालय जातिवाद, उग्रवाद और देशद्रोही राजनीति का अड्डा बन गया है इसलिए तत्काल कार्रवाई की जाए। बंदारू ने अपने पत्र में झूठ का सहारा लेते हुए कहा कि वह छात्र याकूब मेमन पर बनाई वृत्तचित्र देख रहे थे हालांकि ऐसी किसी फिल्म का अस्तित्व ही नहीं है। यह केवल सांप्रदायिकता को हवा देने वाला आरोप था। हकीकत तो यह है कि छात्र मुजफ्फरनगर दंगों पर बनी फिल्म देख रहे थे जिसमें भाजपा के कई नेता आरोपी हैं और उन में से एक केंद्रिय मंत्री बना हुआ है। इसलिए एबीवीपी की नाराजगी समझ में आती है लेकिन उसे याकूब मेमन से जोड़ना खुली धोका धडी है।
इस घटना के बाद भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय विधान परिषद के सदस्य रामचंद्रन ने उपकुलपति से मुलाकात करके विश्वविद्यालय प्रशासन पर दबाव बनाया जिस के चलते दो ब्राह्मण प्रोफेसर्स पांडे और शर्मा की जांच समिति बनाई गई। प्रारंभिक रिपोर्ट में शोध समिति ने रोहित और उसके साथियों को निर्दोष पाया लेकिन अंतिम निर्णय उनके खिलाफ निकला और पांचों को निलंबित करके हॉस्टल से निकाल दिया गया।
इस अन्याय के फलस्वरूप मेरिट लिस्ट से प्रवेश लेने वाले एक पी.एच.डी. के छात्र रोहित को 21 दिसंबर के दिन हासटल खाली करना पडा। वह बेचारा इस दुष्टाचार के बाद विश्वविद्यालय गेट के बाहर एक तम्बू में रहने के लिये मजबूर हो गया और अंततः उसने अपने दोस्त के कमरे में आकर जान दे दी। रोहित ने अपनी वसीयत में ज़रूर लिखा है की उस की आत्महत्या के लिए वह खुद जिम्मेदार है तथा उसके दोस्तों या दुश्मनों को परेशान नहीं किया जाए लेकिन यह भी तथ्य है निलंबन के बाद उसने उप कुलपति को लिखा था वे उनके लिए जहर या सुंदर से फंदे की व्यवस्था कर दें। इस वाक्य से अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि रोहित को आत्महत्या की ओर ढकेलने के जिम्मेदारी किस पर है?
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस मार्कंडेय काटजू के पास उस आत्म हत्या का कारण निम्नानुसार हैं '' अक्सर गैर दलित (अपने सहपाठी दलित छात्र) को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हैं। उन्हें इंसान नहीं समझते, उन पर व्यंग्य करते हैं, उनका उपहास उड़ाते हैं बल्कि उन के साथ दुर्व्यवहार से भी संकोच नहीं करते। यह राष्ट्रीय स्तर पर लज्जास्पद है। जब तक यह सामंती मानसिकता नहीं बदलती हमारा देश प्रगति नहीं कर सकता। ''
 दलित समाज के विरूधद इस अत्याचार में अगर छात्रों के साथ सत्तारूढ़ राजनेता और प्रशासन भागीदार हो जाए तो स्थिति बिगड़ती चली जाती है। केवल हैदराबाद विश्वविद्यालय के अंदर पिछले दस वर्षों में आठ छात्रों ने आत्महत्या की है और लगातार इस तरह का वातावर्ण बनाया जाता है कि दलित छात्र या तो भाग जाएं या ऐसा अत्यंत कदम उठाने के लिए मजबूर हो जाएं।
हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में दिसंबर के अंदर छात्रों ने मांस महोत्सव के आयोजन का निर्णय लिया। मानव अधिकारों दिवस के अवसर पर यह व्यवस्था2011, 2012  और  2014 में हो चुकी है लेकिन उसका कोई खास विरोध नहीं हुआ था। इस साल भाजपा के विधान परिषद सदस्य राजा सिगं इसे रोकने के लिए मरने मारने पर उतर आए। अदालत ने प्रतिबंध लगाया पुलिस की जबरदस्त व्यवस्था की गई फिर भी वह समारोह सफल रहा। यह उल्लेखनीय है डॉ। अंबेडकर छात्रावास के छात्रों ने इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था और उसके बाद ही अपनी विफलता पर पर्दा डालने के लिए भगवा ब्रिगेड ने रोहित और उसके साथियों को निलंबित करवाया।
आंध्र प्रदेश देश इन राज्यों में से एक है जहाँ गाय और बछडे के वध पर तो प्रतिबंध है लेकिन बैल और अन्य जानवरों के वध करने की अनुमति है और इस का उल्लंघन करने वाले के लिए सजा भी केवल एक हजार रुपये है। आंध्र प्रदेश से हजारों टन बड़े जानवर का मांस दुनिया भरके देशों में निर्यात किया जाता है।   चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री गुलाबी क्रांति का उल्लेख करते थे और उन्हें हर बड़े जानवर का मांस गाय का दिखता था। इस गुलाबी क्रांति को हरित क्रांति में बदलने के लिए उन्होंने जनता से वोट मांगा लेकिन चुनाव में सफल होते ही वह मांस भैंस का हो गया और फिर क्या था भगवा क्रांति गुलाबी गुलाबी हो गई। मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद भारत विश्व का सब से बडा बीफ निर्यात करने वाला देश बन गया।
हमारे समाज की यह विडंबना है कि एक तरफ संविधान और अदालत पशु तक के अधिकारों के संरक्षण की गारंटी देता है तथा राजनीतिज्ञ गाय जैसे जानवर को राष्ट्रमाता ठहरा कर सामान्य जनता की भावनाओं का शोषण करते हैं दूसरी ओर इंसानों के साथ जानवरों से भी बुरा व्यवहार किया जाता है । पिछले वर्ष दिल्ली के नजफगढ़ में एक मरी हुई गाय को ले जाने वाले नगर पालिका के ठेकेदार दलित शंकर को मुसलमान समझकर गौहत्या के आरोप में मार दिया गया और कोई कुच्छ ना बोला। हरयाणा में पुलिस थाने के भीतर एक दलित युवा की हत्या पर केंद्रीय मंत्री वी के सिंग बोले अगर गली के कुत्ते पर कोई पत्थर चला दे तो हम पर आरोप लग जाता है। यह वाक्य संघ की मानसिक्ता का प्रतीक है।
इस दोगली राजनीति के कारण हैदराबाद में रोहित रामलो जैसे होनहार छात्र के आत्महत्या कि दिल दहलाने वाली घटना घटती है। इस त्रासदी में न केवल कुलपति बल्कि केंद्रीय श्रम मंत्री दित्तात्रेय बंडारू के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई है। रोहत की आत्महत्या के खिलाफ होने वाले विरोध की आग फैलती जा रही है। 12 दलित अध्यापकों ने भी अपना त्याग पत्र दे दिया है। उन शोलों की तपिश बंदारू से आगे निकल कर स्मृति ईरानी और नरेंद्र मोदी के दामन को छू रही है। देखना यह है जल्द ही आयोजित होनेवाले प्रांतीय चुनाव पर इसका क्या प्रभाव पडता है इसालिए कि सारे विपक्षी राजनीतिक दल इसे अपने पक्ष में भुनाने के लिए सक्रिय हो गए हैं।

Tuesday 12 January 2016

मुफ्ती मोहम्मद सईद के पश्चात जम्मू कशमीर की राजनीति

मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ कश्मीर की राजनीति का एक महत्वपूर्ण अध्याय बंद हो गया। इसमें शक नहीं कि शेख अब्दुल्ला के बाद वे घाटी के सबसे लोकप्रिय नेता थे। मुफ्ती साहब ने अपनी राजनीतिक जीवन अधिकतर समय कांग्रेस में बिताया। कांग्रेस का साथ छोड़ कर वीपी सिंह के साथ जन मोर्चा में जाने के फैसले ने उन्हें देश का पहला मुस्लिम गृहमंत्री बनाया फिर वह कांग्रेस में लौटे लेकिन बाद में पीडीपी की स्थापना की। यह फैसला भी लाभदायक रहा और वह तीसरे स्थान पर होने के बावजूद 2002 में कांग्रेस की सहायता से मुख्यमंत्री बन गए।  2014 में उनकी पार्टी को सबसे ज्यादा सीटें प्राप्त हो गईं और उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना ली। इस तरह मानो सारी राजनीतिक विचारधाराओं के साथ सत्ता संचालन का श्रेय उन्हें प्राप्त हुवा ।
 2014 के चुनाव परिणामों ने राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को और जम्मू कश्मीर में पूरी दुनिया को चौंका दिया। उस बार जम्मू और कश्मीर जैसे भगवा और हरे रंग में विभाजित हो गए थे। जम्मू की तीन सीटें भाजपा ने तो घाटी की तीनों सीटें पीडीपी के हिस्से में चली गईं। महाराष्ट्र और हरियाणा के प्रांतीय चुनाव में भाजपा ने खुद अपने बलबूते पर सफलता के झंडे गाड़ कर सारे राजनैतिक दलों को भयभीत कर दिया था। इसके बाद जब जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों की घोषणा हुई तो मुफ्ती साहब ने कहा केवल पीडीपी ही राज्य में बीजेपी के विजय रथ को रोक सकती है। उन्होंने दावा किया था चूंकि कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस की शक्ति टूट चुकी है इसलिए भाजपा और पीडीपी के बीच सीधा मुकाबला है और भाजपा का सत्ता में आना देश व प्रदेश दोनों के लिए हानिकारक है। महबूबा मुफ्ती ने भाजपा के साथ जाने से साफ इनकार कर दिया था लेकिन फिर बाप-बेटी और बाप-बेटे की सरकार के अंत की घोषणा करने वाले प्रधानमंत्री ने भाई भाई की सरकार बना ली जिसमें एक के सिर पर भगवा पगड़ी तो दूसरे के सिर पर हरी टोपी थी।
 2002 से लेकर  2014 तक के चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो बहुत रोचक खुलासे होते हैं। 2002 में नेशनल कांफ्रेंस ने 28 सीटें पर जीत हासिल की थी और पीडीपी 16 सीटों पर कामयाब हुई थी जबकि 2014 के आते-आते यह हुआ कि नेशनल कांफ्रेंस 15 तो पीडीपी 28 पर पहुंच गई। इस बीच पीडीपी की सीटों में बराबर वृद्धि देखने को मिला  2008 में उसे 21 सीटें मिली थीं। इसके वोट अनुपात भी क्रमिक 14.5 से 18.5 और फिर 22 प्रतिशत तक जा पहुंचा इसके विपरीत नेशनल कांफ्रेंस की सीटें 2002 और 2008 में समान यानी 28 थी मगर इस मतदाताओं का अनुपात 28 प्रतिशत से घटकर 23.5  प्रतिशत हो चुका था और इस बार तो वह 20 प्रतिशत पर है। कांग्रेस की हालत भी नेशनल कांफ्रेंस से अलग नहीं है। उसकी सीटों की संख्या 20 से 17 और अब केवल 12 है। कांग्रेस के वोट का अनुपात 26 से घटकर 20 से होता हुआ अब 15 पर पहुंच चुका है इस तरह जहां पीडीपी को नेशनल कांफ्रेंस की कमजोरी ने फायदा पहुंचाया वहीं भाजपा ने कांग्रेस की विफलता को भुनाया।
भाजपा की राजनीतिक यात्रा भी बेहद दिलचस्प है। 1996 में कांग्रेस को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब उसके विधायकों की संख्या 26 से घटकर 7 पर आ गई। उस समय पीडीपी मौजूद नहीं थी इसलिए कांग्रेस की विफलता का बड़ा लाभ नेशनल कांफ्रेंस को मिला जो 40 से 57 पर पहुंच गई। भाजपा भी 2 से बढ़कर 8 पर जा पहुंची और कांग्रेस 7 पर सिमट गई। इस तरह मानो घाटी के मुसलमानों ने नर्सिम्हा राव को बाबरी मस्जिद की शहादत की सजा दे दी।  2002 में कांग्रेस ने खुद को संभाला और फिर 20 पर पहुंची मगर भाजपा को 1 पर पहुंचा दिया। इस चुनाव के बारे में कहा जाता है कि नेशनल कांफ्रेंस के विरोध में आरएसएस ने भी कांग्रेस का साथ दिया था।
2002 में पीडीपी और कांग्रेस के बीच यह समझौता हुआ था कि मुख्य मंत्री का कार्यकाल वितरित किया जाएगा इस लिए 2005 में गुलाम नबी आजाद को मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन उनके कार्यकाल में भाजपा ने अमरनाथ ट्रस्ट की जमीन का मुद्दा उठाकर सांप्रदायिकता को खूब हवा दी बल्कि कश्मीर और दिल्ली का रास्ता बंद कर दिया इस तरह कश्मीर से दिल्ली आकर बिकने वाले फलों के ट्रक रास्ते में रोक दिए गए। यह रणनीति भाजपा के लिए उपयोगी साबित हुई और उस ने 2008 में 9 प्रतिशत वोट हासिल करके 11 सीटें जीत लीं और कांग्रेस से 6 की दूरी पर आ गई जबकि कांग्रेस के पास अब भी 20 प्रतिशत वोट थे। इस बार कांग्रेस ने नेशनल कांफ्रेंस के समर्थन की घोषणा कर दी। 2014 में नेशनल कांफ्रेंस ने 3.5 प्रतिशत  वोट गंवाए जिनमें से 2.5 तो पीडीपी की झोली में चले गए और एक प्रतिशत भाजपा के हिस्से में आ गए। उधर कांग्रेस को 5 फीसदी वोटों का नुकसान हुआ जो सभी के बीजेपी को मिल गया। इसके अलावा सभी क्षेत्रीय दलों के वोट बटोर कर भाजपा ने सर्वाधिक 23 प्रतिशत वोट हासिल कर लिए लेकिन दुर्भाग्य से उसकी सीटों की संख्या 22 प्रतिशत वोट पाने वाली पीडीपी से 3 कम थी।
भाजपा के पास केंद्र सरकार थी इसलिए उसका विचार था कि वह पीडीपी को केंद्र में मंत्रीपद देकर जम्मू कश्मीर पर अपना मुख्यमंत्री थोपने में सफल हो जाएगी लेकिन मुफ्ती मोहम्मद सईद ने उस सपने को धूल में मिला दिया और कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई। जब यह रणनीति विफल हो गई तो भाजपा वालों ने आधे कार्यकाल के लिए मुख्य मंत्री पद की मांग की। मुफ्ती साहब इसके लिए भी राजी नहीं हुए। पहले तो भाजपा ने राज्यपाल का शासन लगा कर अप्रत्यक्ष रूप से शासन करने का प्रयत्न किया मगर दिल्ली की हार के पश्चात   उप मुख्यमंत्री के पद पर राजी हो गई लेकिन यह शर्त लगा दी कि मुख्य मंत्री के पद पर महबूबा मुफ्ती नहीं बल्कि मुफ्ती मोहम्मद सईद खुद विराजमान होंगे।
मुफ्ती साहब के निधन तक तो भाजपा ने किसी तरह अपने आप को रोके रखा लेकिन अब उनकी आकांक्षाएं फिर से जवान हो गई हैं और वे फिर आधे कार्यकाल के लिए मुख्य मंत्री पद की मांग करने लगे हैं। सामान्य परंपरा यह है कि यदि मुख्यमंत्री का निधन हो जाए तो राज्यपाल का शासन नहीं लगाया जाता, बल्कि सब से वरिष्ठ मंत्री इस पद को संभाल लेता है इस तरह होना तो यह चाहिए था कि उप मुख्यमंत्री डॉ निर्मल कुमार मुख्य मंत्री का पद संभाल लेते और महबूबा मुफ्ती के शपथ ग्रहण के बाद उनके हाथों में सत्ता सौंप देते लेकिन शायद न पीडीपी को यह स्वीकार्य था और न भाजपा इसके लिए तयार थी। भाजपा इस अवसर का लाभ उठाकर अपनी शर्तें मनवाने की फिराक में है लेकिन अब तक इस उद्देश्य में उसे सफलता नहीं मिली और अंततः राज्यपाल शासन लगा दिया गया। महबूबा से मामलों को तय करने के लिए श्रीनगर आने वाले भाजपा के कश्मीर निरीक्षक राम माधव ने अपने विधायकों को वापस जम्मू जाने की अनुमति दे दी है।
भाजपा के दबाव को कम करने के लिए महबूबा मुफ्ती ने एक छोड़ चार शर्तें सामने रख दी हैं। अव्वल तो वह उप मुख्यमंत्री पद को खत्म करके डाक्टर निर्मल कुमार को राज्यमंत्री की सुविधाएं प्रदान करना चाहती हैं। प्रमुख मंत्रालय जो भाजपा ने हथिया लिये थे उनके समान वितर्ण कि मांग कर रही है। सारे विवादास्पद मुद्दों पर भाजपा से आश्वासन और केंद्र की सहायता में वृद्धि भी चाहती हैं। एक के जवाब में चार शर्तों से भाजपा बौखला गई है। यही कारण है कि भाजपा वाले मौखिक समर्थन की घोषणा तो करते हैं लेकिन अभी तक राज्यपाल को औपचारिक पत्र नहीं लिखा।
जम्मू कश्मीर के अंदर फिर एक बार राजनीतिक अनिश्चितता उत्पन्न हो गई है। इस में वृद्धि सोनिया गांधी के श्रीनगर दौरे से हुई। वैसे जब मुफ़्ती साहब दिल्ली में इलाज करा रहे थे तो उस समय भी तो सोनिया जी उनसे मिलने के लिए अस्पताल गई थीं लेकिन उस में कोई राजनीतिक रंग नहीं था। श्रीनगर की बैठक को महत्व दिया जा रहा है और एक नई राजनीतिक समिकर्ण की अटकलें लगई जा रही हैं। भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने भी इस स्थिति में श्रीनगर का दौरा किया। कहने को महबूबा मुफ्ती अपने पिता के शोक में सत्ता की बागडोर नहीं संभाल रही हैं। सोनिया और गडकरी उन्हें सांत्वना दे रहे हैं लेकिन इन राजनीतिक नेताओं की बातों पर अब कोई विश्वास नहीं करता।
वर्तमान में कश्मीर के भीतर चार संभावनाएं हैं प्रथम यह कि भाजपा और पीडीपी फिर से मन मिटाव करके साथ हो जाएं। भाजपा आधे कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री पद का आग्रह छोड़ दे और महबूबा मुफ्ती उप मुख्यमंत्री के पद पर डॉ अनिल कुमार को बहाल कर दें। इस मामले में बाधा यह है कि महबूबा मुफ्ती 11 महीने में भाजपा के लक्षण देख चुकी हैं। उन्हें इस बात का एहसास भी है कि मुफ्ती साहब की सारी बुद्धि और कार्यकुशलता के बावजूद पीडीपी की लोकप्रियता में गिरावट आई है। अति संभव है चुनाव से पहले भाजपा हिंदू मतदाताओं के प्रलोभन के लिये अधिक तीर्व भूमिका ले। ऐसे में घाटी के अंदर पीडीपी की हवा उखड़ जाएगी और वो न घर की रहेगी न घाट की। इसलिए महबूबा मुफ्ती सावधान हैं और संभव है यह रूठेने मनाने का सिलसिला लंबा हो जाए।
एक संभावना यह है कि पीडीपी और कांग्रेस एक साथ हो जाएं लेकिन तब भी साधारण बहुमत के लिए एक और विधायक की जरूरत होगी जिसे किसी निर्दलीय की मदद से पूरा करना पड़ेगा। इस स्थिति का लाभ यह है कि भाजपा से नाता तोड़ कर मेहबूबा मुफ्ती किसी न किसी हद तक अपनी छवि सुधार सकेंगी और कांग्रेस के आत्मविश्वास में भी वृद्धि होगी। यह भी हो सकता है कि भाजपा और नेशनल कांफ्रेंस एक साथ हो जाएं। वाजपेयी सरकार में उमर अब्दुल्ला केंद्रीय मंत्री और फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री रहे हैं लेकिन यह मूर्खता उन्हें महंगी पड़ी। लंबे समय के बाद अब्दुल्ला परिवार को सत्ता से वंचित कर दिया गया और मुफ्ती परिवार का उत्थान हुआ। फारूक अब्दुल्ला दूसरी बार अतीत की गलती दोहराएँ इस की संभावना कम है। मुफ्ती मोहम्मद सईद की लोकप्रियता का गिरता हुआ ग्राफ भी वे देख चुके हैं। मोदी जी और अटल जी की भाजपा का अंतर भी वे जानते हैं।
केंद्र सरकार के लिए मुश्किल नहीं है कि विधानसभा भंग करके दोबारा चुनाव करवा दे। भाजपा को अगर यह फैसला एक साल पहले करना होता तो बहुत सुविधाजनक था। प्रधानमंत्री की लोकप्रियता के सहारे वह सदस्यों की संख्या 25 से बढ़ाकर 35 तक ले जाने का सपना देख सकती थी लेकिन दिल्ली और बिहार के बाद संभावना है कि यह संख्या घटकर 15 से 20 के बीच आ जाए और कांग्रेस के सदस्य भी 15 से 20 के बीच हो जाएं। उधर घाटी में संभव है पीडीपी को मुफ्ती साहब के निधन से कुछ सहानुभूति मिले लेकिन फिर भी उस के सदस्य 20 के आसपास ही होंगे और नेशनल कांफ्रेंस भी इतने ही उम्मीदवारों को जिताने में सफल हो जाएगी। फिर से चुनाव का आयोजन भाजपा और टीडीपी के बजाय विपक्ष के लिए लाभप्रद होगा और अगर विरोधियों ने चुनाव से पहले हुए गठबंधन बना लिया तब तो उन्हें आराम से बहुमत मिल जाएगी इस लिये भाजपा वालों से ऐसी मूर्खता की अपेक्षा करना उचित नहीं है।
कश्मीर के अंदर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कारण भाजपा ऐसी अछूत पार्टी बन चुकी है कि कोई उसके पास आना नहीं चाहता क्योंकि सारे लोग जानते हैं भाजपा के साथ उनकी नय्या भी डल झील में ऐसे डूबे होगा की इसका ठोर ठिकाना नहीं मिलेगा। दुर्भाग्यवश भाजपा की यह स्थिति एक ऐसे समय में हुई जबकि उसे अन्य दलों से अधिक अनुपात में वोट मिले हैं और उस के सदस्यों की संख्या भी लगभग 30 प्रतिशत है। भाजपा के विधायक सोच रहे होंगे कि काश वह किसी और पक्ष में होते तो बड़े इत्मीनान से सत्ता के फल भोगते। इन नेताओं का दुख भी बजा है इसलिए सारे सैद्धांतिक दावों के बावजूद उनका मुख्य उद्देशय सत्ता सुख के अलावा कुछ और नहीं होता। इसका सबसे बड़ा प्रमाण कश्मीर की राजनीति है।
घाटी के अंदर मुसलमानों के दो प्रमुख समस्याएं हैं जिन्हें पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस उठाती रहती है। अव्वल तो एएफपीएसए कानून जिसके तहत सुरक्षा बलों को असाधारण संरक्षण प्राप्त है जिस के चलते आतंकवाद की समाप्ती के नाम पर समान नागरिक सरकारी आतंकवाद का शिकार होते हैं। इसके अलावा भाजपा की फासीवाद के कारण लोकतंत्र और सद्भाव का रोना भी रोया जाता है। भाजपा की दृष्टि से संविधान की धारा 370 महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसके अंत की खातिर उनके अनुसार जनसंघ के प्रथम अध्यक्ष शयामा प्रसाद मुखर्जी ने अपना  बलिदान दिया। दूसरा मुद्दा पाकिस्तान से आने वाले प्रवासियों की नागरिकता है। ये लोग हिंदू हैं भाजपा उनसे सहानुभूति जता कर उन के स्वधर्मी वोटरस को रिझाती है और सोचती है कि अगर उन्हें नागरिकता मिल जाए तो वह भाजप के सच्चे और पक्के समर्थक बन जाएंगे। यह सब चुनाव अभियान की बातें हैं लेकिन फिलहाल भाजपा और उसके विरोधी अपने सिद्धांत और विचारधारा को त्याग कर सत्ता के जोड़-तोड़ में लगे हुए हैं। सत्ता प्राप्ति की खातिर सिद्धांतों के बजाय संधीसाधू सौदेबाजी हो रही है।
जम्मू कश्मीर से बाहर कम लोग जानते हैं कि मुफ्ती मोहम्मद सईद की पार्टी पीडीपी का निशान कलम दवात है। इस पार्टी के कातिब ए तकदीर मुफ्ती मोहम्मद सईद थे और अब उनके साथ यह कलम टूट गया है। उनके अंतिम संस्कार में यूं तो बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया जिन में गृहमंत्री राजनाथ सिंह भी शामिल थे लेकिन प्रतिभागियों की संख्या अपेक्षा से कम थी। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि दवात की स्याही बहुत हद तक सूख चुकी है। मुफ्ती साहब की उत्तराधिकारी महबूबा मुफ्ती के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस स्याही की मात्रा को बहाल करना है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंदर कलम का उपयोग नेता करता है मगर स्याही प्रदान करने की मजदूरी जनता जनार्दन करते हैं। जिस नेता के पास जितनी स्याही होती इस का कलम उसी तेजी के साथ चलता है और जब स्याही सूख जाती है तो कलम बेकार हो जाता है। वास्तव में यह राजनीतिक स्याही खत्म नहीं होती बल्कि दूसरी दवात में प्रस्थान कर जाती है और जिस किसी के दवात में पदार्पण करती है उसका कलम फरफर चलने लगता है।
कलम दवात किसी राजनीतिक दल का निशान तो हो सकता है लेकिन इसका महत्व तो आम लोग जानते हैं। इस तथ्य का खुला प्रमाण अफजल गुरु के सुपुत्र गालिब की असाधारण उपलब्धि है। गालिब गुरू ने दसवीं कक्षा की परीक्षा में 95 प्रतिशत अंक प्राप्त करके ग्रेड ए प्लस में कामयाबी दर्ज कराई। गालिब ने सभी पांच पर्चों में ए प्लस हासिल किया। अफजल गुरु की फांसी और परिजनों की अनुपस्थिति में रातों रात अंतिम संस्कार के बाद उनकी पत्नी तबस्सुम गुरु ने कहा था। हम आम लोग हैं सरल जीवन बिताना चाहते हैं। हमारा राजनीति से कोई लेना देना नहीं है लेकिन उनके बेटे ने सिध्द कर दिया कि वह बहुत खास पिता की होनहार सुपुत्र हैं।
 अपने पिता की शहादत के बाद गालिब ने कहा था मैं डॉक्टर बनना चाहता हूँ। मेरे पिता को इस बात का पता था इसलिए मैं जब भी उनसे मुलाकात के लिए जेल में जाता वह हमेशा मुझे मेहनत करने का उपदेश देते। इस परीक्षा में गालिब ने अपने दिवंगत पिता के सपने को साकार करके दिखा दिया। पिता की फांसी से 6 महीने पहले जब उसकी मुलाकात जेल में अफजल गुरु से हुई तो उन्होंने कुरान और विज्ञान की पुस्तक उसे उपहार में दी। गालिब गुरु ने अपने पिता के उपहार न केवल ह्रदय में बल्कि आचर्ण में ढाल कर दिखा दिया। एक प्रेमल पिता के आज्ञाकारी पुत्र ने अपनी मेहनत और लगन से साबित कर दिया कि ؎
हम जिंदगी की जंग में हारे जरूर हैं
लेकिन किसी महाज पे पसपा नहीं हुए
महाजः मोर्चे
पसपाः पीछे हटना

Monday 11 January 2016

مفتی محمد سعید:اک دھوپ تھی جو ساتھ گئی آفتاب کے


مفتی محمد سعید کے ساتھ کشمیر کی سیاست کا ایک اہم باب بند ہوگیا ۔ اس میں شک نہیں کہ شیخ عبداللہ کے بعدان کا شمار وادی کے مقبول ترین رہنماوں ہوگا۔ مفتی صاحب نے اپنی سیاسی زندگی کا طویل ترین عرصہ کانگریس میں گذارہ ۔ کانگریس کا ساتھ چھوڑ کر وی پی سنگھ کے ساتھ جن مورچہ میں جانے کے فیصلے نے انہیں ملک کا پہلا مسلم وزیرداخلہ بنا یا  اس کے بعد وہ کانگریس میں لوٹے مگر پھر کنارہ کشی اختیار کرکے پی ڈی پی قائم کی۔ یہ فیصلہ بھی ان کیلئےنیک فال ثابت ہوا اوروہ تیسرے نمبر پر ہونے کے باوجود؁۲۰۰۲ میں کانگریس کی مدد سے  وزیراعلیٰ کے عہدے پر متمکن ہوگئے۔ ؁۲۰۱۴ میں ان کی جماعت کو سب سے زیادہ نشستیں حاصل ہو گئیں اور انہوں نے بی جے پی کے ساتھ مل کر حکومت قائم کرلی۔ اس طرح گویا ساری سیاسی جماعتوں کے ساتھ اقتدار میں رہتے ہوئےانہوں نے اپنی زندگی کا سفر تمام کیا۔  اس موقع پر یہ ضرب المثل شعر( ترمیم کے ساتھ) یاد آتا ہے؎
مفتی تمہارے ساتھ عجب حادثہ ہوا تم چل دئیے  تمہارا زمانہ پچھڑ گیا
؁۲۰۱۴ کے انتخابی نتائج نے جہاں قومی سطح پرخود بی جے پی کو چونکا دیا وہیں جموں کشمیر میں  بھی ساری دنیا کو حیرت زدہ کردیا ۔ اس مرتبہ جموں اور کشمیر گویا زعفرانی اور سبز رنگ میں مکمل طور پر تقسیم ہوگئے تھے۔ جموں کی تین نشستیں بی جے پی تو وادی کی تینوں نشستیں پی ڈی پی کے حصے میں چلی گئیں۔  مہاراشٹر اور ہریانہ کے صوبائی انتخاب میں بی جے پی نے خود اپنے بل بوتے پرکامیابی کے جھنڈے گاڑ کر ساری سیای جماعتوں  خوفزدہ کردیا تھا۔  اس کے بعد جب جموں کشمیر میں ریاستی انتخابات کا اعلان ہوا تو مفتی صاحب نے کہاصرف پی ڈی پی ہی  ریاست میں بی جےپی کی پیش رفت کو روک سکتی ہے۔ انہوں نے دعویٰ کیا تھا چونکہ کانگریس اور نیشنل کانفرنس کی طاقت ٹوٹ چکی ہے اس لئے بی جے پی اور پی ڈی پی کے درمیان سیدھا مقابلہ ہے اور بی جے پی کا اقتدار میں آنا ملک و صوبہ دونوں کیلئے نقصان دہ ہے۔ محبوبہ مفتی نے بی جے پی کے ساتھ جانے سے صاف انکار کردیا تھا مگر پھر باپ بیٹی اور باپ بیٹے کی سرکار کے خاتمہ کا اعلان کرنے والے وزیراعظم نے بھائی بھائی کی سرکار بنا لی جس میں ایک کے سر پر زعفرانی پگڑی تو دوسرے کے سر پر ہری ٹوپی تھی ۔
؁۲۰۰۲ سے لے کر ؁۲۰۱۴ تک کے انتخابی نتائج پر نظر ڈالیں  تو نہایت دلچسپ انکشافات ہوتے ہیں ۔ ؁۲۰۰۲ میں نیشنل کانفرنس نے ۲۸ نشستیں پر کامیابی حاصل کی تھی اور پی ڈی پی ۱۶ نشستوں پر کامیاب ہوئی تھی جبکہ ؁۲۰۱۴ کے آتے آتے یہ ہوا کہ نیشنل کانفرنس ۱۵ پر تو  پی ڈی پی ۲۸ پر پہنچ گئی ۔ اس بیچ پی ڈی پی کی نشستوں میں برابر اضافہ دیکھنے کو ملا ؁۲۰۰۸ میں اسے ۲۱ نشستیں ملی تھیں ۔ اس کے ووٹ کا تناسب بھی بتدریج ۵ء۱۴ سے ۵ء۱۸ اور پھر ۲۲ فیصد تک جاپہنچا  اس کے برعکس گوکہ نیشنل کانفرنس کی نشستیں ؁۲۰۰۲ اور ؁۲۰۰۸ میں یکساں یعنی ۲۸ تھیں مگر اس رائے دہندگان کا تناسب ۲۸ فیصد سے گھٹ کر ۵ء۲۳ فیصد ہوچکا تھا  اور اس بار تو ۲۰ فیصد پر ہے۔ کانگریس کی حالت بھی نیشنل کانفرنس سے مختلف نہیں ہے۔ اس کی نشستوں  کی تعداد۲۰ سے۱۷ اور اب صرف ۱۲ ہے۔  کانگریس کے ووٹ کا تناسب ۲۶ سے گھٹ کر ۲۰ سے ہوتا ہوا اب ۱۵ پر پہنچ چکا ہے اس طرح جہاں پی ڈی پی کو نیشنل کانفرنس کی کمزوری نے فائدہ پہنچایا وہیں بی جے پی نے کانگریس کی ناکامی سے استفادہ کیا۔
بی جے پی کا سیاسی سفر نہایت دلچسپ ہے ۔ ؁۱۹۹۶ میں  کانگریس کو سب سے بڑا جھٹکا اس وقت لگا  اس کے ارکان اسمبلی کی تعداد ۲۶ سے گھٹ کر ۷ پر آگئی ۔ اس وقت چونکہ  پی ڈی پی موجود نہیں تھی اس لئے کانگریس کے انحطاط   کابڑافائدہ نیشنل کانفرنس کو ملا جو ۴۰ سے ۵۷ پر پہنچ گئی ۔ بی جے پی بھی ۲ سے بڑھ کر ۸ پر جا پہنچی  اور کانگریس ۷ پر سمٹ گئی۔ اس طرح گویا وادی کے مسلمانوں نے نرسمہاراو ٔ کو بابری مسجد کی شہادت کی سزا دے دی ۔  ؁۲۰۰۲ میں کانگریس نے اپنے آپ کو سنبھالا اور پھر سے ۲۰ پر پہنچی مگر بی جے پی کو ۱ یک پر پہنچا دیا ۔ اس الیکشن کے بارے میں کہا جاتا ہے کہ نیشنل کانفرنس کی مخالفت میں آرایس ایس نے بھی کانگریس کا ساتھ دیا تھا۔
 ؁۲۰۰۲ میں پی ڈی پی اور کانگریس کے درمیان یہ معاہدہ ہوا تھا کہ وزارت اعلیٰ کی  مدت کار کو تقسیم کیا جائیگا اس لئے؁۲۰۰۵ میں غلام نبی آزاد کو وزیراعلیٰ بنایا گیا  لیکن اس عرصے میں بی جے پی نے امرناتھ ٹرسٹ کی زمین کا مسئلہ اٹھا کر فرقہ واریت  کو خوب ہوا دی بلکہ کشمیر اور دہلی کا راستہ بند کردیا اس طرح کشمیر سے دہلی آکر بکنے والے پھلوں کے ٹرک راستے میں روک دئیے گئے ۔  یہ حکمت عملی بی جے پی کیلئے کار آمد ثابت ہوئی اور اس نے؁۲۰۰۸ میں۹ فیصد ووٹ حاصل کرکے۱۱ نشستیں جیت لیں اور کانگریس سے ۶ کے فاصلے پر آگئی حالانکہ کانگریس کے پاس اب بھی ۲۰ فیصد ووٹ تھے۔  اس بار کانگریس نے نیشنل کانفرنس کی حمایت کا اعلان کیا ۔؁۲۰۱۴ میں نیشنل کانفرنس نے ۵ء۳ ووٹ گنوائے جن میں سے ۵ء۲ تو پی ڈی پی کی جھولی میں چلے گئے اور ایک فیصد بی جے پی کے حصے میں آگئے ۔ ادھر کانگریس کو ۵ فیصد ووٹ کا نقصان ہوا جو سب کا سب  بی جےپی کو مل گیا ۔ اس کے علاوہ تمام علاقائی جماعتوں کے بھی ووٹ بٹورکر بی جے پی نے سب سے زیادہ ۲۳ فیصد ووٹ حاصل کرلئے مگر بدقسمتی سے اس کی نشستوں  کی تعداد ۲۲ فیصد ووٹ پانے والی پی ڈی پی سے ۳ کم تھی ۔
بی جے پی کے سر پرچونکہ  مرکز ی حکومت کا آشیرواد تھا اس لئے اس کا خیال تھا  کہ وہ پی ڈی پی کو مرکز میں وزارت کا قلمدان دے کر جموں کشمیرپراپنا وزیراعلیٰ مسلط کر نے میں کامیاب ہو جائیگی  لیکن اس خام خیالی کو مفتی محمد سعید نے خاک میں ملا دیا اور کوئی جلدبازی نہیں دکھائی ۔ جب یہ حربہ ناکام ہو گیا تو بی جے پی والوں نے نصف مدت کیلئے وزارت اعلیٰ کے عہدے کا مطالبہ کیا ۔ مفتی صاحب اس کیلئے بھی راضی نہیں ہوئے ۔ بی جے پی والوں کا دماغ چونکہ آسمان میں تھا اس لئے وہ گورنر راج لگا کر بلاواسطہ حکومت کرنے لگےمگردہلی کی شکست سے عقل ٹھکانے آگئی تو وہ نائب وزیراعلیٰ کے عہدے پر راضی ہوگئی لیکن یہ شرط لگا دی کہ وزارت اعلیٰ کی کرسی پر محبوبہ مفتی نہیں بلکہ مفتی محمد سعید خود براجمان ہوں گے ۔
مفتی صاحب کے انتقال تک تو بی جے پی نےکسی طرح اپنے آپ کو روکے رکھا لیکن اب  ان کی امنگیں پھر سے جوان ہوگئی ہیں اور وہ دوبارہ نصف مدت کیلئے وزارت اعلیٰ کے عہدے کا مطالبہ کرنے لگے ہیں ورنہ عام روایت تو یہ ہے کہ اگر وزیراعلیٰ کا انتقال ہوجائے تو گورنر راج نہیں لگایا جاتا بلکہ سب سے سینئر وزیرعارضی طور اس عہدے کو سنبھال لیتا ہے اس طرح ہونا تو یہ چاہئے تھا کہ نائب وزیراعلیٰ ڈاکٹر نرمل کمار وزارت اعلیٰ کا عہدہ سنبھال لیتے  اور محبوبہ مفتی کی حلف برداری کے بعد ان کے ہاتھوں میں اقتدار سونپ دیتے لیکن شاید نہ پی ڈی پی کو یہ قابلِ قبول تھا  اور نہ بی جے پی اس کیلئے راضی تھی ۔  بی جے پی اس موقع کا فائدہ اٹھا کر اپنی شرائط منوانے کے فراق میں ہے لیکن ہنوز اس مقصد میں اسے کامیابی نہیں ملی اور بالآخر گورنر راج لگا دیا گیا۔ محبوبہ سے معاملات طے کرنے کیلئے سرینگر آنے والے بی جے پی کی کشمیرشاخ کے نگراں رام مادھو نے اپنے ارکان اسمبلی کو واپس جموں جانے کی اجازت دے دی ہے۔  
بی جے پی کے دباو کو کم کرنے کیلئے محبوبہ مفتی نے ایک چھوڑ چار شرائط سامنے رکھ دی ہیں ۔ اول تو وہ نائب وزیراعلیٰ کے عہدے کو سرے سے ختم کرکےڈاکٹر نرمل کمار کو وزیر مملکت  کی سہولیات دے کر عیش کرنے سامان فراہم کرنا چاہتے ہیں۔ اہم وزارتیں جو بی جے پی نے ہتھیا لی تھیں ان کی مساویانہ تقسیمکا مطالبہ بھی ہے ۔ سارے متنازعہ مسائل سے بی جے پی دستبرداری کی یقین دہانی  پر محبوبہ مفتی کااصرارہے اوروہ  مرکز ی امداد میں اضافہ بھی چاہتی ہیں ۔ ایک کے جواب میں چارشرائط سے  بی جے پی بوکھلا گئی ہے ۔  یہی وجہ ہے کہ بی جے پی والے زبانی حمایت کا اعلان تو کرتے ہیں لیکن ابھی تک گورنر کو باقائدہ  خط  نہیں لکھا۔
جموں کشمیر کے اندر پھر ایک بار غیر یقینی سیاسی صورتحال رونما ہوگئی ہے۔  اس میں اضافہ سونیا گاندھی کے سرینگر دورے نے کیا ۔ ویسے جب مفتی صاحب دہلی میں زیر علاج تھے تو اس وقت بھی تو سونیا جی ان کی عیادت کیلئے ہسپتال  گئی تھیں لیکن اس ملاقات میں کوئی سیاسی رنگ نہیں تھا ۔ سرینگر کی ملاقات کو اہمیت دی جارہی اور ایک نئی  سیاسی صف بندی کا قیاس آرائی شروع ہوگئی ہے۔  بی جے پی کےسابق صدر اور مرکزی وزیر نتن گڈکری  نے بھی اس  صورتحال سے خوفزدہ ہوکر سرینگر کا دورہ کیا ۔ کہنے کو محبوبہ مفتی اپنے والد کے سوگ میں اقتدار کی باگ ڈور نہیں سنبھال رہی ہیں۔ سونیا اور گڈکری ان کو پرسہ دے رہے ہیں لیکن ان سنگدل سیاسی رہنماوں کی ان باتوں پر  اب کوئی  یقین نہیں کرتا ۔  
کشمیر میں فی الحال چار امکانات ہیں اول یہ ہے کہ بی جے پی اور پی ڈی پی پھر سے من مٹاو ٔ کرکے ساتھ ہوجائیں ۔ بی جے پی نصف مدت کیلئے وزارت اعلیٰ کے عہدے کا اصرار چھوڑدے اور اور محبوبہ مفتی نائب وزیراعلیٰ کا عہدے پر ڈاکٹر انل کمار کوبحال کردیں ۔ اس معاملے میں رکاوٹ یہ ہے محبوبہ مفتی ان ۱۱ ماہ میں بی جے پی کی فتنہ سازیوں سے خوب اچھی طرح واقف ہو چکی ہیں۔ انہیں اس بات کا احساس بھی ہے کہ مفتی صاحب کی تمام تر ذہانت و ذکاوت کے باوجود پی ڈی پی کی مقبولیت میں کمی آئی ہے۔ عین ممکن ہے انتخاب سے قبل بی جے پی ہندو ووٹرس کی خوشنودی کی خاطراپنےسخت گیررویہ میں اضافہ کرے۔ ایسے  میں  وادی کے اندر پی ڈی پی کی  ہوا  اکھڑ جائیگی اور وہ نہ گھر کی ر ہےگی نہ گھاٹ کی۔ اس لئے محبوبہ مفتی محتاط ہیں  اور ممکن ہے یہ روٹھنے منانے کا سلسلہ طویل ہوجائے ۔  
ایک امکان یہ ہے کہ پی ڈی پی اور کانگریس ایک ساتھ ہوجائیں لیکن  تب بھی معمولی اکثریت کیلئے مزید ایک رکن اسمبلی کی ضرورت ہوگی  جسے کسی آزاد امیدوار کی مدد سے پورا  کرنا پڑےگا۔ اس صورتحال کا فائدہ یہ ہے کہ  بی جے پی سے ناطہ تو ڑ کرمحبوبہ مفتی کسی نہ کسی حدتک اپنی شبیہ  سدھار سکیں گی اور کانگریس کی خوداعتمادی میں بھی اضافہ ہوگا ۔  یہ  بھی ہو سکتا ہے کہ بی جے پی اور نیشنل کانفرنس ایک ساتھ ہوجائیں ۔ واجپئی حکومت میں عمر عبداللہ مرکزی وزیر اور فاروق عبداللہ وزیراعلیٰ رہے ہیں لیکن اس حماقت کا انہیں یہ خمیازہ بھگتنا پڑا کہ عرصہ دراز کے بعد عبداللہ خاندان کو اقتدار سے بے دخل کردیا گیا اور مفتی خاندان کوعروج نصیب ہوا۔ اس لئے  فاروق عبداللہ دوسری بار ماضی کی حماقت دوہرائیں اس کا امکان کم ہے ۔ مفتی محمد سعید کی مقبولیت کا گرتا ہوا گراف بھی وہ چکے ہیں نیزانہیں پتہ ہے کہ  مودی جی کی  بی جے پی  سابقہ اٹل جی والی بی جے پی سے خاصی مختلف اور ناپختہ کار ہے۔
مرکزی حکومت کیلئےیہ مشکل نہیں ہے کہ اسمبلی کو تحلیل کرکےدوبارہ انتخاب کروا دے۔   بی جے پی کو اگر یہ فیصلہ ایک سال قبل کرنا ہوتا تو نہایت سہل تھا اس لئے کہ وزیراعظم کی مقبولیت کے طفیل وہ ارکان کی تعدادکو ۲۵ سے بڑھا کر۳۵ تک لے جانے کا خواب دیکھ سکتے تھےلیکن دہلی اور بہار کے بعد قوی امکان ہے کہ یہ تعداد گھٹ کر ۱۵ سے ۲۰ کے درمیان آجائے اور کانگریس کے ارکان بھی ۱۵ سے ۲۰ کے درمیان ہوجائیں ۔ اُدھر وادی میں ممکن ہے پی ڈی پی کو مفتی صاحب کے انتقال سے کچھ ہمدردی ملے لیکن پھر بھی اس کے ارکان ۲۰ کے آس پاس ہی ہوں گے اور نیشنل کانفرنس بھی اتنے ہی امیدواروں کو جتانے میں  کامیاب ہوجائیگی ۔ دوبارہ  انتخاب کا انعقاد  بی جے پی اور ٹی ڈی پی کے بجائے حزب اختلاف کیلئے سودمند ہوں گے اور اگر مخالفین انتخاب سے قبل ا تحاد قائم کرلیتے ہیں تب تو انہیں آرام سے اکثریت مل  جائیگی اس لئےبی جے پی والوں سے ایسی حماقت کی توقع  کرنا مناسب نہیں معلوم ہوتا   ۔
کشمیر کے اندر وزیراعظم نریندر مودی کے سبب سے بی جے پی ایسی اچھوت جماعت بن چکی ہے کہ کوئی اس کے قریب آنا  نہیں چاہتا اس لئے کہ سارے لوگ جانتے ہیں بی جے پی کے ساتھ ان نیاّ بھی ڈل جھیل میں ایسے ڈوبے گی کی اس کا سراغ  نہیں ملے گا ۔ قابلِ غور بات یہ ہے کہ بی جے پی کی یہ حالت ایک ایسے وقت میں ہوئی جبکہ اسے دیگر تمام جماعتوں سے زیادہ تناسب میں ووٹ ملے ہیں اور اس کے منتخب شدہ ارکان کی تعداد بھی تقریباً ۳۰ فیصد ہے۔ بی جے پی کے ارکان اسمبلی سوچ رہے ہوں گے کہ کاش وہ کسی اور جماعت میں ہوتے تو بڑے اطمینان سے اقتدار میٹھے میٹھے پھل کھاتے ۔ان سیاستدانوں کا حزن و ملال بھی بجا ہے اس لئے تمام تر بلند بانگ نظریاتی دعووں کے باوجود ان کا مطمح نظر اقتدار کی عیش کے علاوہ  کچھ اور نہیں ہوتا  ۔ اس کا سب سے بڑا ثبوت کشمیر کی سیاست ہے۔
وادی کے اندر مسلمانوں کے دو بڑے مسائل ہیں جنہیں پی ڈی پی اور نیشنل کانفرنس اٹھاتی رہتی ہے۔ اول تو اے ایف پی ایس اے کا قانون جس کے تحت  حفاظتی دستوں کو غیر معمولی تحفظ حاصل ہے اوردہشت گردی کے قلع قمع کے نام پر آئے دن عام شہری سرکاری دہشت گردی کا شکار ہوتے ہیں ۔ اس کے علاوہ بی جے پی کی فسطائیت کے سبب جمہوریت اور ہم آہنگی کے خاتمے کا رونا بھی رویا جاتا ہے۔ بی جے پی کے نقطۂ نظر سے دستور کی دفع ۳۷۰ اہم ترین مسئلہ جس کے خاتمہ کیلئے  ان کے بقول  جن سنگھ کے اولین صدرشیاما پرساد مکرجی  نے اپنی جان گنوائی ۔ دوسرا مسئلہ پاکستان سے آنے والے مہاجرین کی شہریت کا ہے ۔ یہ لوگ ہندو ہیں  بی جے پی ان سے ہمدردی جتا کر ان کے ہم مذہبووٹرس  کو رجھاتی ہے اور سوچتی ہے کہ اگر انہیں شہریت مل جائے تو وہ ان کے سچے اور پکے حامی بن جائیں گے ۔ یہ سب انتخابی مہم کی باتیں لیکن فی الحال بی جے پی اور اس کے مخالفین اپنے اصول و نظریات کوبالائےطاق رکھ کر اقتدار کی جوڑ توڑ میں مصروف ہیں ۔اقتدار کے حصول کی خاطر اصولوں کے بجائے ابن الوقتی کی بنیاد پر سودے بازی ہورہی ہے ۔
جموں کشمیر سے باہر کم لوگ جانتے ہیں کہ مرحوم مفتی محمد سعید کی پارٹی پی ڈی پی کا نشان قلم دوات ہے۔  اس جماعت کے کاتب تقدیر مفتی محمد سعید خود تھے اور اب ان کے ساتھ یہ قلم ٹوٹ گیا ہے۔  ان کے نمازِ جنازہ میں یوں تو کثیر تعداد میں لوگوں نے شرکت کی جن میں وزیرداخلہ راجناتھ سنگھ بھی شامل تھےلیکن شرکاء کی تعداد توقع سے کم تھی ۔ یہ اس بات کی واضح  علامت  ہے کہ  دوات کی سیاہی بہت حدتک سوکھ چکی ہے۔ مفتی صاحب کی جانشین محبوبہ مفتی کے سامنے سب سے بڑا چیلنج اس سیاہی کی مقدار کو بحال کرنا ہے۔ جمہوری نظام کے اندر قلم کا استعمال رہنما کرتا ہے مگر سیاہی فراہم کرنے کی مزدوری عوام کرتے ہیں ۔ جس رہنما کے پاس جتنی سیاہی ہوتی اس کاقلم اسی تیزی کے ساتھ چلتا ہے اورجب  سیاہی خشک ہوجاتی ہے تو قلم بیکار ہوجاتا ہے۔ حقیقت میں یہ سیاسی سیاہی ختم نہیں ہوتی  بلکہ دوسری دوات میں منتقل ہوجاتی اور جس کسی کے دوات میں قدم رنجا فرماتی ہے اس کا قلم  فرفرچلنے لگتا ہے۔
قلم دوات کسی سیاسی جماعت کا نشان تو ہوسکتی ہے لیکن اس   کی ضرورت اور اہمیت تو عوام جانتے ہیں جس کا منہ بولتا ثبوت غالب گرو کی غیر معمولی کامیابی ہے۔   عوام کے حقیقی مسائل سے بے بہرہ یہ سیاسی جماعتیں جہاں کرسی کی جوڑ توڑ میں لگی ہوئی ہیں وہیں ایک اچھی خبر مرحوم  افضل گرو کے گھر سے آئی ۔ ان کےچشم و چراغ غالب گرو نے دسویں جماعت کے امتحان میں ۹۵ فیصد نمبر حاصل کرکے گریڈ اے پلس میں کامیابی درج کرائی۔ غالب نے تمام پانچ پرچوں میں اے پلس حاصل کیا ۔ افضل گرو کی بزدلانہ پھانسی اور اہل خانہ کی غیر موجودگی میں  راتوں رات تدفین کے بعد ان کی اہلیہ تبسم گرو نے کہا تھا ۔ ہم عام لوگ ہیں سادہ زندگی گزارنا چاہتے ہیں۔  ہمارا سیاست  سے کوئی تعلق نہیں ہے لیکن ان کے بیٹے نے ثابت کردیا کہ وہ بہت خاص باپ کی ہونہار اولاد ہے۔
 اپنے والد کی شہادت کے بعد غالب نے کہا تھا میں ڈاکٹر بننا چاہتا ہوں ۔ میرے والد کو اس بات کا پتہ تھا   اس لئے میں جب بھی ان سے ملاقات کیلئے جیل میں جاتا وہ ہمیشہ  مجھے محنت  کرنےکی تلقین کرتے ۔ اس امتحان میں غالب نے اپنےمرحوم والد کے خواب کو شرمندۂ تعبیر کرکے دکھا دیا ۔  اپنے والد کی پھانسی سے ۶ ماہ قبل جب اس کی ملاقات جیل میں افضل گرو سے ہوئی تو انہوں نے قرآن مجید اور ایک سائنس کی کتاب اسے تحفے میں دی ۔ غالب گرو نے اپنے باپ کے تحفہ  کو نہ صرف طاق میں سجا کر رکھا بلکہ اس کے عملی تقاضوں کو بھی پورا کردیا  ۔ایک  مظلوم ومشفق باپ کےسعادتمند  بیٹے نے اپنی محنت اور لگن   سے ثابت کردیا کہ بقول شوکت واسطی؎
ہم زندگی کی جنگ میں ہارے ضرور ہیں لیکن کسی محاذ پہ پسپا نہیں ہوئے
 



   

Tuesday 5 January 2016

पठानकोट का आतंकवादी हमला

4  जनवरी (2015) की शाम साढ़े चार बजे दूसरी बार यह खबर आई कि सारे आतंकवादी मारे जा चुके हैं। इसी के साथ यह भी बताया गया कि अंततः 60 घंटे के बाद यह ऑपरेशन समाप्त हो चुका है जिस में सेना के 7 जवान और 6 आतंकवादी मारे गए (जिस तरह पहले 4 के बजाय 5 के मारे जाने का दावा किया गया था इस तरह बाद में 6 की संख्या घटकर 5 पर आ गई)। इससे दो घंटे पहले यानी ढाई बजे एक और चौंकाने वाला समाचार आया आया। पंजाब पुलिस ने बताया कि उसने राजधानी चंडीगढ़ से सटे मोहाली में नशिले पदार्थ के तीन स्मगलर्स को गिरफ्तार कर लिया है जिनके पास पाकिस्तानी सिम कार्ड्स के अतिरिक्त पाकिस्तान में बनी स्वचालित राइफल और अन्य हथियार भी था। पुलिस अधिकारी जीपीएस भुल्लर ने दावा किया कि उनका पठानकोट के आतंकवाद से कोई संबंध नहीं है। सामान्य रूप से तस्कर  सीमा पार संपर्क करने के लिए पाकिस्तानी सिम कार्ड का उपयोग करते हैं। इस गिरोह को पोलिस पहले ही भंग कर चुकी है।
पठानकोट वायु सेना के अड्डे पर होने वाला यह हमला वास्तव में निंदनीय है लेकिन यह कई ज्वलंत प्रशनों को जन्म देता है? जरा सोचिए कि अगर इस गिरफ्तारी के बजाय मुठभेड़ हो जाती तो टेलीविजन के पर्दे पर हमें क्या कुछ देखने को मिलता और अखबारों में हम क्या पढ़ते। पहले तो उन बदमाशों की नागरिकता बदल जाती और वह भारतीय से पाकिस्तानी बन जाते। इसके बाद उनके सीमा पार करने की जानकारी का विवरण प्रसारित होने लगता। लश्कर या जैश से उनका संबंध मिल जाता। फोन के विवरण से पता चल जाता कि उन का किस संघटन से संबंध है और उसका सरगना कौन है? यह भी मालूम हो जाता है कि वे कहाँ हमला करने वाले थे? संभवतः भारत के अंदर उन के संपर्कों की चित्र सहित जानकारी प्रसारित हो जाती और कुछ अखबार वाले पाकिस्तान में उनके सगे संबंधों से मुलाकात करने के लिए पहुँच जाते लेकिन अफसोस कि पुलिस ने उन्हें मामूली तस्कर बताकर टीवी चैनलों को एक सनसनीखेज खबर से और जनता को जबरदस्त मनोरंजन से वंचित कर दिया।
यह खेद का विषय है कि हमले से 80 घंटे बाद भी एक अनिश्चितता बनी हुई है। आतंकवादी कार्रवाई के अंत से संबंधित लाख मतभेद के बावजूद इसकी आरंभ पर सारे लोग सहमत हैं। इस में संदेह नहीं कि अनेक स्रोतों से कार्रवाई की भनक प्रशासन को 24 घंटे पहले मिल चुकी थी। शुक्रवार एक जनवरी को एक अद्भुत खबर ने पाठकों को चौंका दिया कि जम्मू पठानकोट रोड पर एक उच्च पुलिस अधिकारी सलवेन्दर सिंह का कुछ अज्ञात लोगों ने गाड़ी सहित अपहरण कर लिया। जब तक कि सलवेन्दर नहीं मिला था यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि या तो चोर उन्हें उठा कर ले गए हैं या यह आतंकवादियों की हरकत है। कार पर नीली बत्ती लगी हुई थी इसलिए इसके दुरुपयोग की आशंका भी जताई गई थी। इसके बाद सलवेन्दर पुलिस के हत्थे चढ़ गया और उसने बताया कि उसे मित्र और रसोईये सहित अपहरणकर्ताओं ने कार से नीचे फेंक दिया।
सलवेन्दर सिंह की कहानी पूरी फिल्मी लगती है। यह उच्च अधिकारी गुरदासपूर के मंदिर में दर्शन के लिए जाता है लेकिन इसके साथ सुरक्षा कर्मी के बजाए व्यापारी दोस्त राजेश वर्मा और रसोईया मदन गोपाल होता है। रात में यात्रा के दौरान इस की कार पर लगी नीली बत्ती बंद होती है। आतंकवादी अनजाने में उसे पकड़ लेते हैं। उसकी पगड़ी से उसके हाथ पैर बांध देते हैं और इस की कार को लेकर फरार हो जाते हैं। भागने से पहले वह उसे बिना कोई हानि पहुंचाए कार से फेंक देते हैं लेकिन उसके दोस्त और रसोईये को मारना पीटना नहीं भूलते। अपहरणकर्ता उसका मोबाइल ले भागते हैं और इस पर आने वाल फोन से उन्हें पता चलता है कि यह किस की कार है। वह उसे मारने के लिए वापस आते हैं लेकिन ख्वाजा अजमेरी पर आस्था उसकी जान बचा देती है। मदन गुप्ता के अनुसार जब एक घंटा पैदल चलने के बाद सलवेन्दर सिंह एक पुलिस थाने से अपने उच्च अधिकारी को फोन करता है तो वह उसे घर जाकर दूसरे दिन कार्यालय आने की सलाह देते हैं। एक पुलिस अधिकारी की शिकायत पर उसके सीनियर्स की इस प्रतिक्रिया ने तो बॉलीवुड को भी शर्मिंदा कर दिया?
उपरोक्त जानकारी फर्जी नहीं हैं बल्कि सलवेन्दर सिंह के बयान पर आधारित हैं। सलवेन्दर सिंह के इस बयान पर आम पाठक तो दरकिनार एनआईए ने भी विश्वास नहीं किया और 4 जनवरी को 6 घंटों तक उस से पूछताछ की। उसका सीमावर्ती क्षेत्र में जाना संदेह जनक है। सुरक्षा कर्मी की अनुपस्थिति भी सारे बयान को संदिग्ध बना देती है। जिन आतंकवादियों ने पहले टैक्सी ड्राइवर एकाग्र सिंह की हत्या कर दी उनका सलवेन्दर और उसके साथियों को जिंदा छोड़ देना आश्चर्य जनक है। पुलिस कार की मदद से बड़ी आसानी से आतंकवादियों का अपने लक्ष्य से आधे किलोमीटर तक पहुंच जाना भी संयोगवश नहीं लगता। सलवेन्दर की ओर से दी जाने वाली चेतावनी पर ध्यान नहीं देने के कारण भी कम रोचक नहीं है। वह एक महिला पुलिसकर्मी से छेडखानी की शिकायत पर स्थानांतरित किया गया था इसलिए आतंकवाद से संबंधित उस के संदेह को गंभीरता से नहीं लिया गया। एनआईए के अनुसार वह अपना बयान बदलता रहा है।
जिस समय इस अद्भुत घटना की खबर अखबारों (नेट संस्करण) में सजी उसी के साथ पाठकों ने यह भी पढ़ा कि प्रधानमंत्री मौसम परिवर्तन (कलाईमीट चेंज) जैसे सटीक वैज्ञानिक विषय पर अपनी पुस्तक उच्च सरकारी अधिकारियों को दे रहे हैं। एक साधारण राजनीतिज्ञ लिए कलाईमीट चेंज पर किताब लिखना तो दरकिनार उसको पूर्णरूप से समझना भी कठिन है। मैं खुद 30 साल से पर्यावरण की क्षेत्र में काम करने के बावजूद इस बारे में बहुत सारे पहलू नहीं समझ पाया हूँ लेकिन फिर मैं ऐसा प्रधानमंत्री भी तो नहीं हूं जो प्रांतीय चुनाव में भाषण करता फिरता हो और दुनिया भर की यात्रा से जिसे फुर्सत न मिले। इस दौरान वह कविता संग्रह भी प्रकाशित कर दे और अपने शुभचिंतकों पर किताब भी लिख डाले। उस महा मानव के लिए पंजाब की इस मामूली घटना पर ध्यान देना कितना कठिन है?
शनिवार की सुबह पठानकोट सैन्य छावनी पर हमला हो गया। जिस प्रधानमंत्री ने नेपाल के प्रधानमंत्री को यह सूचना दी थी कि उनके देश में जबरदस्त भूकंप आया है उसे निश्चित ही देश में घटने वाली इस गंभीर घटना की सूचना मिल गई होगी ऐसे में उसे चाहिए था कि पंजाब का जाता। अगर वहाँ जाने की साहस नहीं था तो कम से कम दिल्ली में बैठकर उसकी कमान संभालता लेकिन वह तो उत्तर के बजाय दक्षिण में मैसूर चला गया? प्रधानमंत्री तो दूर किसी केंद्रीय मंत्री ने पठानकोट जाने का साहस नहीं किया। हमले के चार दिन बाद रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर को ख्याल आया कि उन्हें वायु सेना की छावनी में जाकर अपने सैनिकों की खबर लेनी चाहिए। गुरदासपुर हमले के समय भी यही हुआ था कि गृहमंत्री राजनाथ सिंह को उसी दिन सीमा सुरक्षा दल के समारोह में भोपाल जाना था। इस महत्वपूर्ण घटना के बावजूद गृहमंत्री ने अपनी यात्रा को स्थगित करना जरूरी नहीं समझा था।
हमारे सैनिक जब अपनी जान की बाजी लगा कर राष्ट्र की सुरक्षा कर रहे थे और देश की जनता टेलीविजन पर उन दृश्यों को देख रही थी देश का प्रधानमंत्री मैसूर की हसीन वादियों में मौज कर रहा था। पहले तो प्रधानमंत्री ने गणपति सच्चिदानंद आश्रम में एक चिकित्सालय का उद्घाटन किया और फिर ललिता पैलेस होटल में चैन की नींद सो गए। दूसरे दिन सत्तूर मठ शताब्दी समारोह में भक्तों को संबोधित किया और वार्षिक विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करने के लिए मानसगंगोतरी विश्वविद्यालय में चले गए। इसके बाद गुन्टूर में भारत एरोनोटिकल्स के नए कारखाने का शिलान्यास रखा और फिर शाम में बेंगलूर के अंदर पांच दिवसीय योग विश्व सम्मेलन का उद्घाटन कर दिल्ली लौटे।
प्रधानमंत्री जब इन समारोहों में भाषण कर रहे थे बेंगलुरु निवासी राष्ट्रीय सुरक्षा बल कमांडो 35 वर्षीय लेफ्टिनेंट कर्नल निरंजन कुमार ने पठानकोट में अपना प्राण बलिदान कर दिया। प्रधानमंत्री के मन में बनगलूरू के अंदर यह ख्याल भी नहीं आया कि निरंजन के परिवार जनों की संवेदना की जाए। यह वही नरेंद्र मोदी हैं जो 26 नवंबर को ताज हमले के समय अहमदाबाद से सीधे मुंबई आकर इस में प्राण गंवाने वाले हेमंत करकरे के घर पहुंच गए थे। (यह और बात है कि उनकी पत्नी ने गुजरात के मुख्यमंत्री से मुलाकात नहीं की और वह बेरंग लौटे)। यह तब की बात है जब एक मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री बनना था लेकिन अब उसकी आवश्यकता नहीं है। सवाल यह उठता है कि क्या प्रधानमंत्री ने शनिवार दोपहर से रविवार रात तक जिन गतिविधियों में अपना कीमती समय व्यतीत किया क्या वह आवश्यक थीं और उन में मामूली सा परिवर्तन करके लेफटिनंट कर्नल निरंजन के घर जाना जरूरी नहीं  था? क्या यह काबुल से सीधे दिल्ली आने बजाय लाहौर से होते हुए आने ज्यादा कठिन था?
दिल्ली वापस आने के बाद प्रधानमंत्री ने एक उच्च स्तरीय बैठक की अध्यक्षता की जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत दवोल तो मौजूद थे लेकिन गृहमंत्री राजनाथ सिंह नदारद थे। इस बैठक में विदेश मंत्रालय के सचिव एस जय शंकर को भी बुलाया गया था मगर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज गायब थीं। इन के अतिरिक्त दो गैर निर्वाचित विशवासू मंत्री मनोहर परिकर और अरुण जेटली जरूर मौजूद थे। इस महत्वपूर्ण बैठक में रक्षा मंत्री की उपस्थिती तो समझ में आती है लेकिन वित्त मंत्री का क्या काम? बाद में पता चला के अगले दिन से सरकार का बचाव करने की जिम्मेदारी अरुण जेटली को सौंपनी थी इसलिए उन्हें कष्ट दिया गया। इस नाजुक घड़ी में भी राष्ट्रीय सुरक्षा के सीधे जिम्मेदार गृहमंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री की अनुपस्थिति गंभीर अविश्वास के वातावरण का खुला संकेत है।
गृह मंत्रालय पिछले डेढ़ महीने से पाकिस्तानी एजेंटों को देश के कोने कोने में ढूँढता फिर रहा है और उसने आईएसआई के लिए काम करने वाले 14 जासूसों को गिरफ्तार करने का दावा भी किया जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल हैं बल्कि सैनिक भी हैं। इस तरह मानो पाकिस्तान के खिलाफ माहौल गरमा रहा था कि मोदी जी ने पाकिस्तान की अचानक यात्रा कर हवा की दिशा बदल दी परंतु अभी सुखद बर्फबारी रूकी भी नहीं थी कि आसमान से शोले बरसने लगे और देखते देखते सारे किए धरे पर पानी फिर गया। जैसे ही कोई आतंकवादी घटना घटती है मीडिया तुरंत बिना किसी प्रमाण के उसे पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ, धार्मिक नेता, सेना प्रमुख, आईएसआई, तालिबान, अलकाईदा, जैश और लश्कर से जोड़ देता है लेकिन जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के आनुसार वह अतीत के अनुभवों से कोई सबक नहीं सीखता। इस स्थिति पर कटाक्ष करते हुए एक पाकिस्तानी राजदूत ने दिल्ली में  कहा था कि आप लोग तो मौसम की खराबी के लिए भी आईएसआई को दोषी ठहरा देते हैं।
इस हमले के मूल कारणों में न केवल एक दिन पहले से घटना चक्र की अनदेखी का योगदान है बल्कि 16 महीने पहले रची जाने वाले षडयंत्र को नजरअंदाज करना भी शामिल है। पुलिस ने इस छावनी की जानकारी पाकिस्तान तक पहुंचाने के आरोप में 30 अगस्त 2014 को जोधपुर के रहने वाले सैनिक सुनील कुमार को गिरफ्तार किया था। राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित इस गंभीर मामले को इतना हल्का लिया गया कि पुलिस समय पर उसका चालान तक जमा नहीं करा सकी और उसे जमानत मिल गई। यह उसी प्रशासन का कारनामा है जिस ने याकूब मेमन की फांसी के लिये आधी रात में न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक दी थी। संयोग से राजस्थान और महाराष्ट्र दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार थी। यदि सुनील कुमार का नाम मुसलमानों जैसा होता तो संभव है इसे गंभीरता से लिया जाता।
अफगानिस्तान कुछ छिटपुट घटनाओं की व्यतिरिक्त दीर्घकाल से भारत के लिए सुरक्षित देश था लेकिन प्रधानमंत्री के सफल दौरे का असर यह हुआ कि मजार शरीफ में भारतीय दूतावास पर हमले के बाद जलालाबाद में भी हो गया इस तरह मानो पठानकोट से लेकर अफगानिस्तान तक असुरक्षा का वातावर्ण बन गया। संघ परिवार के पास इस स्थिति के तीन समाधान हैं। अव्वल तो राजी-खुशी या जोर जबरदस्ती से अखंड भारत बनाकर पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश को भारत में शामिल कर लेना और जब यह हो जाए तो बेचारे श्रीलंका, नेपाल और बर्मा की क्या बिसात वह अपने आप चले आएंगे फिर अखंड भारत के सारे निवासियों को सांस्कृतिक हिंदू घोषित कर देना लेकिन अगर इसके बाद भी इस तरह की घटना घटे तो ये बेचारे उस का आरोप किस पर लगाएंगे क्योंकि उस काल्पनिक युग में न मुसलमान मौजूद होगा और न पाकिस्तान?
 एक समाधान यह भी सुझाया जाता था कि पाकिस्तान में मौजूद आतंकवादी अड्डों को बमबारी करके नष्ट कर दिया जाए लेकिन पठानकोट में कार्रवाई की लंबाई का औचित्य यह पेश किया जा रहा है कि कम से कम क्षती पहुंचे। उक्त बमबारी में यह कैसे संभव हो सकेगा? इस सवाल का जवाब तो अमेरिका के पास भी नहीं है। पिछले साल संघ परिवार के कई नेताओं ने अपने विरोधियों को पाकिस्तान चले जाने का सुझाव दिया था। उनके इस उपदेश का भारत में केवल प्रधानमंत्री ने पालन किया और वह अचानक पाकिस्तान की यात्रा करके चले आए लेकिन उनकी पिछे पाकिस्तानी आतंकवादी भी बिन बुलाए भारत आ धमके। इस आने जाने का जो परिणाम निकला उसे सारी दुनिया देख रही है कि तीन बार अभियान उन्मूलन की घोषणा के बावजूद अनिश्चित वातावर्ण है और गोलीबारी की छिटपुट आवाजें सुनाई दे रही हैं। पाकिस्तान को सबक सिखाने का राग अलापने वालों से आतंकवाद पर काबू पाने के लिए पाकिस्तान से सहयोग की भाषा पर सीताराम येचुरी जैसा नेता भी आश्चर्य से सवाल करता है कि 56 इंच वाली सरकार को यह क्या हो गया?

پٹھانکوٹ کا دہشت گردانہ حملہ

۴ جنوری (؁۲۰۱۵) کی شام ساڑھے چار بجے دوسری بار یہ خبر آئی کہ سارے دہشت گرد مارے جاچکے ہیں۔اسی کے ساتھ  یہ بھی بتایا گیا کہ  بالآخر ۶۰ گھنٹوں کے بعد وہ آپریشن ختم ہوچکا ہے جس میں   ۷فوجی جوان اور ۶ دہشت گرد مارے گئے (جس طرح پہلے ۴ کے بجائے ۵ کے مارے جانے دعویٰ کیا گیا تھا اس طرح بعد میں ۶ کی تعداد گھٹ کر ۵ پر آگئی)۔ اس سے دوگھنٹے قبل یعنی ڈھائی بجے ایک اور چونکا دینے والی خبر آئی ۔ پنجاب پولس نے یہ بتایا  کہ پنجاب اس نے راجدھانی  چندی گڑھ سے متصل موہالی میںمنشیات کے تین اسمگلرس کو گرفتار ک ہےیا جن کے پاس پاکستانی سمِ کارڈس اور پاکستان میں بنی خودکار رائفل و دیگر اسلحہ بھی تھا۔  پولس آفیسر جی پی ایس بھلرّ نے دعویٰ کیا کہ ان کا پٹھانکوٹ کی دہشت گردی سے کوئی تعلق نہیں ہے ۔ عام طوراسمگلرس  اپنے سرحد پار متعلقین سے رابطہ کرنے کیلئے  پاکستانی سم کارڈ استعمال کرتے ہیں۔  یہ اس گروہ کے افراد ہیں جسےپولس پہلے ہی تحلیل کرچکی ہے۔
پٹھانکوٹ ہوائی فوج کے اڈے پر ہونے والا یہ حملہ یقیناً قابلِ مذمت ہے لیکن یہ کئی سلگتے ہوئے سوالوں کو جنم دیتا ہے؟ ذرا سوچئے کہ اگربفرض  محال  اس  گرفتاری  کے بجائے  مڈ بھیڑ ہوجاتی تو ٹیلی ویژن کے پردے پر ہمیں کیا کچھ دیکھنے کو ملتا اور اخبارات میں ہم کیا پڑھتے۔ سب سے پہلے تو ان بدمعاشوں کی شہریت بدل جاتی اور وہ ہندوستانی سے پاکستانی بن جاتے۔ اس کے بعد ان کے سرحد پار کرنے کی معلومات تفصیلات کے ساتھ نشر ہونے لگتیں ۔ لشکر یا جیش سے ان کا تعلق طشت ازبام ہوجاتا۔ ان کے فون سے جو تفصیلات برآمد ہوتیں اس سے پتہ چل جاتا کہ ان کاکس گروہ سے تعلق ہے اور اس کا سرغنہ کون ہے ؟ یہ بھی معلوم ہوجاتا کہ وہ کہاں حملہ کرنے والے تھے ؟ممکن ہےہندوستان کے اندر ان کے رابطوں کی مکمل  تفصیلات مع تصاویر نشر ہوجاتیں اور چند اخبار والے پاکستان میں ان کے اعزہ و اقرباء سے ملاقات کرنے کیلئے پہنچ جاتے لیکن افسوس کہ پولس نے کو انہیں معمولی اسمگلرس بتا کر ٹی وی چینلس کو ایک سنسنی خیز خبر اور  عوام کو زبردست تفریح سے محروم کردیا ۔
یہ نہایت افسوس کا مقام ہے کہ حملے سے۸۰ گھنٹے بعد بھی ایک  غیر یقینی صورتحال بنی ہوئی ہے ۔ دہشت گردانہ کارروائی کے اختتام سے متعلق لاکھ اختلاف کے باوجود اس کی ابتداء پر سارے لوگوں کا اتفاق ہے ۔ اس شک نہیں کہ انتہائی بارسوخ ذرائع سے  کارروائی کی بھنک انتظامیہ کو ۲۴ گھنٹے پہلے مل چکی تھی ۔ جمعہ یکم جنوری کو ایک حیرت انگیز خبر نے ساری  دنیا کو چونکا دیا کہ  جموں پٹھانکوٹ روڈ پرایک اعلیٰ پولس آفیسر سلویندر سنگھ کو کچھ نامعلوم افراد نے گاڑی سمیت اغواء کرلیا ۔ جب تک کہ سلویندر کا سراغ نہیں ملا تھا یہ قیاس آرائی کی  جارہی تھی کہ یا تو  چورانہیں اٹھالے گئے ہیں  یا دہشت گردوں کی حرکت ہے۔ گاڑی پر چونکہ نیلی بتی  لگی ہوئی تھی اس لئے اس کے غلط استعمال کا اندیشہ بھی ظاہر کیا گیا تھا ۔ اس کے بعد سلویندر پولس کے ہتھے چڑھ گیا اور اس نے بتایا کہ اس کو اغواکاروں نےدوست اور باورچی سمیت  کار سے نیچے پھینک دیا۔
سلویندر سنگھ کی کہانی پوری فلمی  لگتی ہے ۔ یہ اعلیٰ افسر گورداسپور میں مندر درشن کیلئے جاتا ہے لیکن اس کے ساتھ حفاظتی دستے کے بجائےزیورات کا تاجر دوست راجیش ورما اور باورچی  مدن گوپال ہوتا ہے۔ رات میں سفر کے دوران اس کی گاڑی پر لگی نیلی بتی بند ہوتی ہے۔ دہشت گرد انجانے میں اسے پکڑ لیتے ہیں ۔ اس کی پگڑی سے اس کے ہاتھ پیر باندھ دیتے ہیں  اور اس کی گاڑی کو لے کر فرار ہوجاتے ہیں ۔ فرار ہونے سے قبل وہ اسے بغیر کوئی زک پہنچائے گاڑی سے پھینک دیتے ہیں لیکن اس کے دوست اور باورچی کو مارنا پیٹنا نہیں بھولتے۔  اغوا کار اس کا فون لے بھاگتے ہیں اور اس پر آنے والے فون سے انہیں  پتہ چلتا ہے کہ یہ کس کی گاڑی ہے۔  وہ اسے مارنے کیلئے واپس آتے ہیں لیکن خواجہ اجمیری کی عقیدت اس کی جان بچا دیتی ہے۔  مدن گپتا کے مطابق جب ایک گھنٹے کی پیدل مسافت طے کرنے کے بعد سلویندر سنگھ ایک  پولس اسٹیشن  سے اپنے اعلیٰ افسران کو فون کرتا ہے تو وہ اس کو گھر جاکر دوسرے دن دفتر آنے کا مشورہ دیتے ہیں۔ ایک پولس افسر کی شکایت پر اس کے سینئرس کے اس  ردعمل نے تو بالی ووڈ کو بھی شرمندہ کردیاہے؟
مندرجہ بالا معلومات فرضی نہیں ہیں بلکہ سلویندر سنگھ کے بیان کی بنیاد پر پیش کی گئی ہیں ۔ سلویندر سنگھ کے اس بیان پر عام قاری تو درکنار این آئی اے نے بھی یقین نہیں کیا اور ۴ جنوری کو ۶ گھنٹوں تک اس سے تفتیش کی گئی۔ اس کا سرحدی علاقہ میں جانا سب سے پہلا شبہ پیدا کرتا ہے۔ حفاظتی دستے کی غیر موجودگی بھی سارے بیان کو مشکوک بنا دیتی ہے۔ جن دہشت گردوں نے اس سے پہلے والے ٹیکسی ڈرائیور ایکاگر سنگھ  کو ہلاک کردیا ان کا سلویندر اس کے ساتھیوں کو زندہ چھوڑ دینا باعثِ حیرت ہے ۔ پولس کار کی مدد سے بڑی آسانی کے ساتھ دہشت گردوں  اپنے ہدف سےنصف کلومیٹر تک پہنچ جانا بھی اتفاق نہیں لگتا۔ سلویندر کی جانب سے دی جانے والی وارننگ پر توجہ نہیں دینے کی وجہ بھی کم دلچسپ نہیں ہے۔ اس کو ایک خاتون پولس اہلکار کی دست درازی کی  شکایت پر منتقل کیا گیا اس لئے دہشت گردی سے متعلق اس کے شبہ کو سنجیدگی سے نہیں لیا گیا۔ این آئی اے کے مطابق وہ اپنا بیان بدلتا رہا ہے۔
جس وقت اس حیرت انگیز واقعہ کی خبر اخبارات (نیٹ ایڈیشن ) کی زینت بنی اسی کے ساتھ قارئین نے یہ بھی پڑھا  کہ وزیراعظم موسمیات کی تبدیلی (کلائمیٹ چینج) جیسے دقیق سائنسی موضوع اپنی تصنیف کردہ کتاب اعلیٰ سرکاری افسران کی خدمت میں پیش کر رہے ہیں  ۔ ایک عام سیاستداں کیلئے کلائمیٹ چینج پر کتاب لکھنا تو درکنا اس کے اسرارورموز کا سمجھنا بھی مشکل ہے۔ میں خود ۳۰ سال سے ماحولیات کی دنیا میں کام کرنے کے باوجود اس کے متعلق بہت سارے پہلو نہیں سمجھ پایا ہوں لیکن پھر میں ایسا  وزیراعظم بھی تو نہیں ہوں  جو صوبائی انتخابات میں تقریریں کرتا پھرتا ہو اور دنیا بھر کے دوروں سے جسے فرصت نہ ہو۔ اس دوران  جومہا مانو شاعری بھی کرتا ہے اپنے کرم فرماوں پر کتابیں بھی لکھتا ہے ۔ اس کیلئے  پنجاب کے ان معمولی واقعات پر توجہ دینا کس قدر دشوار ہے؟
سنیچر کی صبح پٹھانکوٹ فوجی چھاونی  پر حملہ ہوگیا ۔ جس وزیراعظم نے نیپال کے وزیراعظم کو یہ اطلاع دی تھی  کہ ان کے ملک میں زبردست زلزلہ آیا ہے اسے یقیناً اپنے ملک رونما ہونے والی اس  سنگین واردات کی خبر مل گئی ہوگی ایسے میں اسے چاہئے تھا کہ پنجاب کا رخ کرتا ۔اگر وہاں جانے کی جرأت  نہیں تھی تو کم از کم دہلی میں بیٹھ کر اس کی کمان سنبھالتا لیکن وہ تو شمال کے بجائے جنوب میں میسور چلا گیا ؟  وزیراعظم تو دور کسی مرکزی وزیر نے پٹھانکوٹ جانے کا حوصلہ نہیں دکھایا ۔  حملے کے چار دن بعد وزیردفاع منوہر پاریکر کو خیال آیا کہ انہیں  ہوائی فوج کی چھاونی میں جاکر اپنے   فوجیوں کی خیر خبر لینی چاہئے۔  گرداسپور کے حملے کے وقت بھی یہی ہواتھا کہ وزیرداخلہ راجناتھ سنگھ کو اسی دن بی ایس ایف کے جلسے میں شریک ہونے کیلئے بھوپال جانا تھا ۔ اس اہم واردات کے باوجود وزیر داخلہ نے اپنے دورے کو ملتوی کرنا ضروری نہیں سمجھا تھا۔
ہمارے فوجی جس وقت اپنی جان کا نذرانہ پیش کررہے تھے اور قوم دم بخود ٹیلی ویژن پر ان روح فرساں مناظر کو دیکھ رہی تھی ملک کا  وزیراعظم میسور کی حسین وادیوں میں قدم رنجا فرما رہا تھا۔ ۔   پہلے تو وزیراعظم نے گنپتی سچدانند آشرم میں ایک دواخانے کا افتتاح کیا اور پھر للیتا پیلس ہوٹل میں سکون کی نیند سوگئے ۔ دوسرے دن ستورّ  مٹھ میں کی صد سالہ تقریبات میں شرکت فرماکر بھکتوں سے خطاب کیا  اور سالانہ سائنس کانگریس کا افتتاح کرنے کیلئے مانسگنگوتری یونیورسٹی کے کیمپس میں چلےگئے ۔اس کے بعد   بنگلورو سے۱۰۰ کلومیٹر دورگنٹور میں  ہندوستان ائیرونوٹیکلس کے نئے کارخانےکا سنگ بنیاد رکھا اور پھر شام میں بنگلور و کے اندر پانچ روزہ یوگا  کی عالمی کانفرنس کا افتتاح کرکے دہلی لوٹ آئے ۔
وزیراعظم جس وقت ان تقریبات میں تقاریر فرما رہے تھے بنگلورو میں مقیم قومی حفاظتی دستے کمانڈو۳۵ سالہ    لیفٹنٹ کرنل نرنجن کمار نے پٹھانکوٹ میں اپنی جان وطن عزیز پر قربان کردی ۔ وزیراعظم کے دل میں  بنگلوروکے نادر بھی یہ خیال نہیں آیا کہ نرنجن کے اہل خانہ کی تعزیت کی جائے۔ یاد رہے کہ  یہ وہی نریندر مودی ہیں جو ۲۶ نومبر کے تاج حملے کے وقت احمدآباد سے سیدھے ممبئی جاکر  اس میں مارے جانے والے ہیمنت کرکرے کے گھر بھی پہنچ گئے تھے ۔ (یہ اور بات  ہے کہ ان کی اہلیہ نے گجرات کے وزیراعلیٰ سے ملاقات کرنے سے انکار کردیا تھا ) ۔ یہ اس وقت کی بات ہے  جب ایک وزیراعلیٰ کو وزیراعظم بننا تھا لیکن اب اس کی مطلق  ضرورت نہیں ہے۔ سوال یہ پیدا ہوتا ہے کہ کیا وزیراعظم نے سنیچر کی شام سے اتوار کی شام  تک جن سرگرمیوں میں اپنا قیمتی وقت صرف کیا وہ  ضروری تھیں اور انہیں اس میں کم از کم معمولی سی تبدیلی کرکےلیفٹنٹ کرنل نرنجن کے گھر نہیں جانا چاہئے تھا  ؟  کیا یہ تبدیلی کابل سے براہِ راست دہلی آنے بجائے لاہور سے ہوتے ہوئے آنے سے زیادہ مشکل تھی؟
دہلی آنے کے بعد  وزیراعظم نے  بجا طور پرایک اعلیٰ سطحی نشست کی صدارت  کی  جس میں قومی سلامتی کے مشیر اجیت دوول تو موجود تھے لیکن وزیر داخلہ راج ناتھ سنگھ ندارد تھے۔ اس میٹنگ میں وزارت خارجہ کے سکریٹری ایس  جئے شنکر کو بھی بلاگیا تھا مگر وزیرخارجہ سشما سوراج غائب تھیں۔ ان اہلکاروں کے علاوہ دو غیر منتخبہ وفادر  وزراء  منوہر  پریکر اور ارون جیٹلی ضرور موجود تھے   ۔  اس اہم نشست میں وزیردفاع کی موجودگی تو قابلِ فہم ہے لیکن وزیرخزانہ کا کیا کام ؟  بعد میں پتہ چلا چونکہ دوسرے دن سے حکومت کا دفاع کرنے کی ذمہ داری ارون جیٹلی کو سونپنی تھی اس لئے انہیں زحمت دی گئی ۔  اس نازک گھڑی میں بھی قومی سلامتی کے براہِ راست  ذمہ دار وزیرداخلہ   راج ناتھ سنگھ اور جس وزارت خارجہ کے کام کاج  پریہ حملہ سب سے زیادہ اثر انداز ہونے والا  ہے اس  کی غیر حاضری شدید باہمی عدم اعتماد کی فضا کا پتہ دیتی ہے۔
وزارتِ داخلہ گزشتہ ڈیڑھ ماہ سے پاکستانی ایجنٹوں کو ملک کے کونے کونے میں تلاش کرتا پھر رہا ہے اور اس نے آئی ایس آئی کیلئے کام کرنے والے۱۴ جاسوسوں کو گرفتار کرنے کا دعویٰ بھی کیا جس میں ہندو اور مسلمان دونوں شامل ہیں بلکہ فوجی بھی ہیں ۔  اس طرح گویا پاکستان کے خلاف ماحول گرما رہا تھا کہ مودی جی نےپاکستان کا اچانک دورہ کرکے ہوا کا رخ تبدیل کردیا لیکن ابھی خوشگوار برف باری رکی بھی نہیں تھی کہ   آسمان سے شعلے برسنے لگے اور دیکھتے دیکھتے سارے کئے دھرے پر پانی پھر گیا۔  ہمارے ذرائع ابلاغ کی  سہل پسندی کا یہ عالم  ہے  کہ جیسے ہی کوئی دہشت گردی کا واقعہ رونما ہوتا ہے وہ  فوراً  بلا کسی تحقیق و تفتیش اس کے تانے بانے پاکستانی سیاستداں ،مذہبی رہنما، فوجی سربراہ  ، آئی ایس آئی، طالبان ، القائدہ،جیش اور لشکر  سے جوڑ دیتا ہے لیکن بقول سابق وزیراعلیٰ جموں کشمیر عمر عبداللہ ہم لوگ ماضی کے تجربات  سے کوئی سبق نہیں سیکھتے۔  اس صورتحال پر طنز کرتے ہوئےایک پاکستانی سفارتکار نے دہلی کے اندر کہا تھا کہ آپ لوگ تو موسم کی خرابی کیلئے بھی آئی ایس آئی کو موردِ  الزام ٹھہرا دیتے ہیں۔
اس حملے کی بنیادی وجوہات میں نہ صرف ایک دن پہلے سے عملدرآمد ہونے والے منصوبے کی مجرمانہ چشم پوشی بلکہ ۱۶ ماہ  قبل رچی جانے والی سازش کو نظر انداز کرنا بھی شامل  ہے۔ پولس نے اس چھاونی کی معلومات پاکستان تک پہنچانے کے الزام میں ۳۰ اگست ؁۲۰۱۴ کو  جودھپور کے رہنے والے فوجی سنیل کمار کو گرفتار کیا تھا ۔ قومی سلامتی سے متعلق اس سنگین معاملے کو اس قدر ہلکا سمجھا گیا کہ پولس وقت پر اس کا چالان تک جمع نہیں کراسکی  اور اس کو ضمانت مل گئی۔  یہ اسی زمانے کی بات ہے جب انتظامیہ نے یعقوب میمن کو تختۂ دار پر پہنچانے کی خاطر آدھی رات میں عدالتِ عالیہ کے دروازے پر دستک دی تھی۔ حسن اتفاق یہ ہے راجستھان اور مہاراشٹر دونوں ریاستوں میں بی جے پی کی حکومت تھی۔  اگر سنیل کمار کا نام مسلمانوں جیسا ہوتا تو ممکن ہے اسے سنجیدگی سے لیا جاتا۔
افغانستان چند اکاّ دکاّ واقعات سے قطع نظر  ایک عرصے سے ہندوستان کیلئے محفوظ ملک تھا لیکن وزیراعظم کے کامیاب دورے کا  اثر یہ ہوا کہ مزار شریف میں ہندوستانی سفارتخانے پر حملہ کے بعد جلال آباد میں بھی ہوگیا  اس طرح گویا پٹھان کوٹ سے لے کر افغانستان تک عدم تحفظ کا ماحول بن گیا۔ سنگھ پریوار کے پاس اس کی صورتحال  کے تین حل ہیں ۔ اول تو راضی خوشی سے یا زور زبردستی سے اکھنڈ بھارت بنا کر پاکستان ، افغانستان اور بنگلہ دیش کو ہندوستان میں شامل کرلیا جائے اور جب یہ ہوجائے تو بیچارے سری لنکا، نیپال اور برما کی کیا بساط وہ اپنے آپ چلے آئیں گے نیزاکھنڈ بھارت کے سارے باشندوں کو ثقافتی ہندو  قرار دے دیا جائے لیکن اگر اس کے بعد بھی اس طرح کی واردات رونما  ہوجائے تو یہ بیچارے  اس کاالزام کس پر لگائیں گے اس لئے کہ نہ مسلمان موجود  ہوگا اور نہ پاکستان ؟
 ایک حل یہ بھی سجھایا جاتا تھا کہ پاکستان میں موجود دہشت گردی کے اڈوں کو بمباری کرکے تباہ کردیا جائے لیکن پٹھانکوٹ میں کارروائی کی طوالت کا جواز یہ پیش کیا جارہا ہے کہ کم از کم جانیں ضائع ہوں ۔ مذکورہ بمباری اس کا احتمال کیسے ہو سکےگا؟  اس سوال کا جواب تو امریکہ کے پاس بھی نہیں ہے۔  گزشتہ سال سنگھ پریوار کے کئی رہنماوں نے اپنے مخالفین کو پاکستان چلے جانے کا مشورہ دیا تھا ۔ ان کی اس درخواست پر ہندوستان میں صرف وزیراعظم نے عمل کیا اور وہ اچانک پاکستان کا دورہ کرکے چلے آئے لیکن ان کی اتباع  میں پاکستانی دہشت گرد بن بلائے ہندوستان کی جانب نکل کھڑے ہوئے۔ اس آنے جانے کا جو نتیجہ نکلا اسے ساری دنیا دیکھ رہی ہے کہ تین مرتبہ مہم  کے خاتمے دعویٰ کے باوجود یہ تحریر جاری ہے اور گولی باری کی چھٹ پٹ آوازیں سنائی دے رہی ہیں ۔  دہشت گردی پر قابو پانے کیلئے  پاکستان  پاکستان کو سبق سکھانے کا راگ الاپنے والوں کی زبان اس پر اس سے تعاون  کے نغمےسن کر سیتارام یچوری  جیسا رہنما  حیرت سے سوال کرتا ہے کہ ۵۶ انچ والی سرکار کو یہ کیا ہوگیا؟