Monday 23 May 2016

चुनाव परिणाम: सुनो ममता सुनो अजमल कोई जीता कोई घायल

ओलंपिक प्रतियोगिता में चूंकि कई खेल होते हैं इसलिए विभिन्न देशों को किसी न किसी क्षेत्र में कोई न कोई पदक मिल ही जाता है ऐसा ही कुछ हाल के विधानसभा चुनाव में भी हुआ सभी दलों के हिस्से में कुछ ना कुछ आ ही गया। राजनीति में खुशी का संबंध अपनी जीत से अधिक प्रतिसपर्धी की हार से होता है इसलिए हर कोई अपनी किसी किसी न सफलता या दुश्मन के किसी न किसी विफलता पर बग़लें बजा रहा है जैसे भाजपा खुश है कि असम में सफलता मिल गई उसे इस बात की भी खुशी है कि कांग्रेस को असम के साथ केरल में भी सत्ता से वंचित होना पड़ा। कांग्रेस को इस बात की खुशी है कि वे पदोचीरी में सफल हो गई और लोकसभा चुनाव की तुलना में भाजपा मतदाता के अनुपात में हर जगह की कमी हुई। सीपीएम को खुशी है कि बंगाल में हार के बावजूद उसे केरल में सत्ता प्राप्त हो गई।
यह चुनाव पूर्व और दक्षिण भारत में हुए थे। पूर्व में भाजपा और एक क्षेत्रीय पार्टी ने जीत दर्ज कराई जबकि दक्षिण में कांग्रेस, कम्युनिस्ट और एक क्षेत्रीय पार्टी ने जीत दर्ज कराई। ईस प्रकार क्षेत्रीय पक्ष के अलावा किसी को दोहरी सफलता नहीं मिली। जय ललिता इस बात से प्रसन्न हैं कि अतीत की तुलना सीटों में कमी के बावजूद वह फिर किसी तरह बहुमत में आ ही गईं और ममता के क्या कहने कि उन्होंने न केवल अपने मतदाताओं के अनुपात बल्कि सीट भी बढा कर जबरदस्त सफलता दर्ज करवाई। इस बार मुसलमानों को न केवल असम के बाहर भाजपा की विफलता की खुशी है बल्कि वे इस बात से खुश हैं कि नव निर्वाचित मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या भाजपा के सफल होने वाले विधायकों से लगभग दोगुनी है हालांकि मौलाना बदरुद्दीन अजमल खुद चुनाव हार गए ।
असम में भाजपा की सफलता के सबसे महत्वपूर्ण कारणों में से एक सहयोगी दल हैं दूसरा कारण एक बहुत तेज तर्रार पूर्व कांग्रेसी मंत्री हेमंता बिस्वा का भाजप में शामिल होना है। भाजपा ने अपने सहयोगियों को बहुत कम सीटों पर लड़ने का मौका दिया इसके बावजूद अगप और बोडो फ्रंट ने कुल मिलाकर 26 सीटों पर जीत हासिल करके दिखा दिया कि क्षेत्रीय दलों में कितना दमखम है। भाजपा ने खुद 60 सीटों पर ऐतिहासिक जीत दर्ज कराई जबकि उसके वोट का अनुपात कांग्रेस से डेढ़ प्रतिशत कम है। कांग्रेस ज्यादा वोट के बावजूद भाजपा से आधे उम्मीदवार भी सफल न कर सकी। इसका अर्थ है कि भाजपा के समर्थक दलों का उसे फायदा मिला और वह पूर्व भारत में अपने पैर जमाने में कामयाब हो गई। कांग्रेस की इस विफलता में इसके लिए चेतावनी है। पहला सबक यह है कि सब से अधिक वोट प्राप्त कर लेना काफी नहीं है बल्कि सफलता के लिए क्षेत्रीय दलों से तालमेल बहुत जरूरी है। कांग्रेस अगर अगप या बोडो फरंट को अपने साथ लेने में सफल हो जाती तो उसकी हालत ऐसी खस्ता नहीं होती जैसी अब है।
कांग्रेस की दूसरी गलती 81 वर्षीय तरुण गोगोई को नहीं बदलना थी। कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व तो राहुल गांधी के हाथ में है लेकिन राज्य की जनता जानती है वह मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे इसलिए एक प्रभावी क्षेत्रीय नेता के बिना प्रांतीय चुनाव में सफलता असंभव है। पूर्व कांग्रेसी मंत्री को अपने साथ ले लेना भाजपा के लिए बहुत बड़े फायदे का सौदा था। हेमंता बिसवा एक ज़माने तक तरुण गोगोई के दाहिने हाथ रहे हैं लेकिन जब से तरुण गोगोई ने अपने बेटे गौरव गोगोई को राजनीति में आगे बढ़ाया तो हेमंता बिसवा नाराज हो गए और अंततः भाजपा में चले गए। अगर कांग्रेस एक साल पहले बिसवा या उन जैसे किसी युवा को मुख्यमंत्री के पद पर बैठा देती तब भी जनता को मूर्ख बनाया जा सकता था लेकिन कांग्रेस नेतृत्व के अंदर पाई जाने वाली आत्मविश्वास की कमी उस के निर्णयशक्ति को प्रभावित कर रही है।
 इस चुनाव में कांग्रेस के समान दूसरा बड़ा नुकसान मौलाना बदरुद्दीन अजमल की एयूडीएफ का हुआ। उनके विधायकों की संख्या 18 से घटकर 15 पर आ गई और वह खुद भी चुनाव हार गए ऐसे में किंग मेकर का सपना देखने वाला बेताज बादशाह दोटके का फकीर हो गया। असम जैसे राज्य में जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 30 प्रतिशत है अगर उनकी राजनीतिक पार्टी का यह हाल है तो जहां वह 10 या 15 प्रतिशत हैं उनकी अपनी राजनीतिक पार्टी का भविष्य क्या होगा?
भाजपा को प्राप्त होने वाला स्पष्ट बहुमत एयूडीएफ का सौभाग्य है। ऐसे क्षेत्रीय दल जो एक ही व्यक्ति विशेष के नाम पर चलते हैं उसके नेता का चुनाव हार जाना बहुत महत्वपूर्ण होता है। इसीलिए यूपी में अगर समाजवादी पार्टी का सफ़ाया हो जाए तब भी मुलायम सिंह यादव और उनका परिवार किसी तरह अपने आप को सफल कर लेता है। वह तो अच्छा हुआ कि कांग्रेस हार गई वरना एयूडीएफ के सदस्यों की बड़ी संख्या मौलाना अजमल की हार के बाद कांग्रेस की ओर निकल जाती बल्कि अगर भाजपा को सरकार बनाने में उनकी आवश्यकता होतो तो उसके साथ हो जाती।
दरअसल यह राजनेता मौलाना अजमल के साथ आए ही इसलिए हैं कि उनकी मदद से अपनी राजनीति चमकाएँ जब उन्हें महसूस होगा कि मौलाना की अपनी नाव डूब रही है तो वह पहले बाहर छलांग लगाएंगे और उन डूबते तिनकों का सहारा भगवा हो या हरा हो, लाल हो या पीला हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उन को तो किसी तरह सत्ता के तट पर आना होता है।
पश्चिम बंगाल में इस बार कांग्रेस पार्टी ने दक्षिणपंथी दलों के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा। कांग्रेस को इसका दोहरा लाभ हुआ यानी न सिर्फ उस वोट अनुपात बढ़ा बल्कि उसके विधायकों की संख्या में भी वृद्धि हुई और अब वह पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी विपक्षी दल है। कम्युनिस्ट बेचारे घाटे में रहे क्योंकि उनके अनुशासित मतदाताओं ने तो कांग्रेस को वोट दे दिया मगर कांग्रेस के मतदाता ममता बनर्जी की ओर मुड़ गए। ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल के सबसे बड़े अखबार आनंद बाज़ार पत्रिका, टेलीग्राफ और एबीपी चैनल को गलत साबित करते हुए असाधारण सफलता दर्ज कराई।
इन परिणामों की तुलना अगर 2011 के विधानसभा चुनाव से किया जाए तो भाजपा हर दो तरह से बेहतर स्थिति में है। इस का वोट अनुपात 4 से 10 प्रतिशत तक पहुंच गया और सदस्यों की संख्या भी एक से 3 तक जा पहुंची मगर 2014 राष्ट्रीय चुनाव के मुकाबले उस का न केवल वोट अनुपात कम हुआ बल्कि अपेक्षित सदस्यों की संख्या में भी भारी कमी हुई। इसलिए यह स्वीकार करना होगा कि बंगाल में जहां दोनों कांग्रेस पार्टियां विकास की ओर बढ रही हैं वहीं भाजपा और कम्युनिस्ट क्षय से पीड़ित हैं।
ममता बनर्जी के एक के बाद एक भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोपों और स्टिंग वीडियो के मीडिया में आने के बावजूद इतनी जबरदस्त सफलता इस बात का प्रमाण है कि जनता भ्रष्टाचार को खास महत्व नहीं देती। इस चुनाव से यह भी साबित हो गया कि अगर केंद्र सरकार किसी क्षेत्रीय पार्टी का कान मरोड़ने की कोशिश करे जैसा कि भाजपा ने तृणमूल के साथ किया था तो जनता की सहानुभूति क्षेत्रीय दल को प्राप्त हो जाती हैं। इसलिए भाजपा को भविष्य में इस का ध्यान रखना पडेगा कि इस तरह के कृत्रिम दबाव से लाभ के बजाय नुकसान होता है।
बंगाल में भाजपा की विफलता के दो कारण हैं एक तो मोदी जी का जादू का टूट रहा है और दूसरे बंगाल में भाजपा को आसाम जैसे सहयोगी नहीं मिले। अगर तृणमुल भाजपा के साथ जाने की गलती करती तो कांग्रेस की तरह भाजपा का तो जबरदस्त लाभ हो जाता लेकिन कम्युनिस्टों की तरह वे बड़े घाटे में रहती। जिस तरह कम्युनिस्टों की निकटता का कांग्रेस को फायदा मिला उसी तरह भाजपा से दूरी तृणमुल के लिए उपयोगी साबित हुई।
पश्चिम बंगाल की तरह तमिलनाडु में कांग्रेस ने द्रमुक के साथ गठबंधन किया। यहां एकता का लाभ दोनों को मिला और अतीत के लोकसभा एवं राज्य चुनाव की तुलना में उनकी हालत बेहतर हुई लेकिन यह वृध्दि उतनी नहीं थी कि जय ललिता को सत्ता से बेदखल कर सके। तमिलनाडु में डीएमके ने वही गलती की जो कांग्रेस ने असम में की थी। आज भी डीएमके का चेहरा बुजुर्ग और कमजोर करुणानिधि हैं। उनकी जगह व्यावहारिक काम करने के लिए स्टालिन को आगे बढ़ाया गया जो करुणानिधि के सुपुत्र हैं इसलिए शायद जनता ने अपनी परंपरा के खिलाफ फिर एक बार जय ललिता के गले में जय माला डाल दी।
जय ललिता का स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं है लेकिन करुणानिधि से से बेहतर है। भाजपा के वोट शेयर में मामूली यानी एक दशमलौ 6 प्रतिशत की वृद्धि हुई है लेकिन सभी 134 सीटों पर विफलता शर्मनाक हार है। भाजपा की यह स्थिति इसलिए भी हुई कि असम के विपरीत तमिलनाडु में उसके सारे सहयोगी भाग खड़े हुए और वह बंगाल की तरह बिल्कुल अछूत बन कर रह गई।
केरल से इस बार भाजपा को बड़ी उम्मीदें थीं इसलिए वहां का चुनाव बड़े जोर-शोर से लड़ा गया। इस दौरान दुर्भाग्य से एक मंदिर में आग लग गई। मोदी जी ने उस का दौरा किया तब केंद्र की ओर से ऐसी सहायता की मानो सारा काम दिल्ली की भाजपा सरकार कर रही है। देश के 10 राज्य अकाल पीड़ित हैं। कई स्थानों पर लगातार दूसरे और तीसरे साल यह स्थिति है। प्रधानमंत्री ने उनमें से किसी क्षेत्र में जाने की तकलीफ नहीं की क्योंकि वहां न चुनाव हो रहे हैं और न वे सीमा पार हैं लेकिन केरल के चुनाव ने वहां की आग को महत्वपूर्ण बना दिया।
भाजपा ने कांग्रेस पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए श्रीसंत नामक खिलाड़ी को अपना उम्मीदवार बना दिया जिस पर जुए में शामिल होने के कारण आईपीएल में रोक लगा दी गई। जब इससे भी काम नहीं चला तो मोदी जी ने केरल जैसी विकसित राज्य को सोमालिया से बदतर करार दे दिया। चुनावी नतीजों ने साबित कर दिया कि भाजपा के लिए केरल सोमालिया से बदतर है। क्योंकि सारी मशक्कत के बावजूद उसे केवल में एक विधायक की सफलता पर संतोष करना पड़ा जब कि मुस्लिम लीग को 18 सीटों पर जीत मिली। केंद्र में सत्ताधारी पार्टी का यह प्रदर्शन शर्मनाक बात है।
केरल के परिणाम अपेक्षानुसार आने का कारण वहाँ हर पांच साल बाद निराश जनता नए सत्ताधारी को सबक सिखा कर पुरानी पार्टी को सत्ता सौंप देते हैं। इस तरह चुनाव प्रक्रिया से लोगों को क्षणिक संतोष मिल जाता है। कम्युनिस्ट बेचारे पिछले राष्ट्रीय चुनाव के बाद से परेशान हैं। उनका सबसे मजबूत गढ़ पश्चिम बंगाल कब का विध्वंस हो चुका है। इसे बचाने के लिए कांग्रेस का हाथ भी उनका साथ नहीं दे सका लेकिन कम से कम केरल में उन्होंने जीत दर्ज करवा कर अपने अस्तित्व का प्रमाण दिया। इस बार अगर लाल सितारा केरल में भी डूब जाता तो इस राजनैतिक दल की लगभग मृत्यु हो जाती लेकिन नियति ने भारतीय राजनीति के इंद्रधनुष में उसे कुछ और दिन पनपने का मौका इनायत कर दिया जिस से कम्युनिस्ट नेताओं के चेहरे पर लंबे समय के बाद मुस्कान और आशा की किरण दिखी।
इस चुनाव के बाद जिस तरह मुसलमान इस बात से खुश हो रहे हैं कि भाजपा की तुलना में नौ निर्वाचित मुस्लिम विधायकों की संख्या बहुत अधिक है उसी तरह कांग्रेस भी अपनी हार के बावजूद अपने कामयाब सदस्यों की संख्या पर बग़लें बजा रही है जो भाजपा से दोगुनी है। कांग्रेस के लिए एक खुशखबरी दिल्ली नगर निगम उपचुनाव के परिणामों से भी आई। दिल्ली नगर पालिका में भाजपा को बहुमत प्राप्त है। इस बार केजरीवाल की 'आप' ने पहली बार इन चुनावों में भाग लिया और प्रारंभ में ऐसा लग रहा था कि फिर एक बार झाड़ू सारा सुपड़ा साफ कर जाएगा क्योंकि 13 में से 12 पर वह आगे चल रही थी लेकिन शाम तक दृश्य बदल गया। 'आप' को केवल 5 सफलता मिली और 4 कांग्रेस की झोली में चली गई, जबकि एक निर्दलीय तोमर भी कांग्रेस का बागी था और उसकी घर वापसी से कांग्रेस और 'आप' बराबर हो गए।
भाजपा को दिल्ली में केवल 3 पर समाधान करना पड़ा जो लज्जास्पद है लेकिन ऐसा तो पंचायत चुनावों में भी होता रहा है। इस साल उपचुनाव में भाजपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। तेलंगाना में एक सीट पर चुनाव हुआ जिस पर टीआरएस सफल रही इस पर दूसरे नंबर पर कांग्रेस थी भाजपा कहीं नहीं थी। उत्तर प्रदेश में दोनों सीटें समाजवादी ने जीत लीं जबकि अगले चुनाव महाभारत का कुरुक्षेत्र वही है। झारखंड में दो में से एक पर कांग्रेस और एक पर भाजपा जीती। गुजरात में भाजपा सफल जरूर हुई लेकिन कांग्रेस और उसके वोट के अंतर 2 फीसदी से कम था। इसके बावजूद अगर भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत का सपना देख रही है तो किसी को काल्पनिक मूर्खों के स्वर्ग में रहने से कौन रोक सकता है?

Monday 16 May 2016

बांग्लादेश: राजनैतिक घृणा और क्रूरता की चरम सीमा

बांग्लादेश जमाते इस्लामी के अध्यक्ष मौलाना मुतीउरहमान निजामी ने अपनी शहादत (बलिदान) पेश कर के सत्यमार्ग को अधिक प्रकाशमय कर दिया है ताकि उनके बाद इस रास्ते पर चलने वालों का सफर आसान हो सके और वे अपने आप को स्वर्ग का हकदार बना सकें जिस पर सर्व प्रथम अधिकार प्राण अर्पण करने वाले शहीदों का हैं। मौलाना मुतीउरहमान जिस राजनीतिक षडयंत्र का शिकार हुए उसकी शुरुआत 2009 में हुई। बांग्लादेश में सात साल के बाद जब 2008 में चुनाव हुआ तो बेगम खालिदा जिया से वहां की जनता इसी तरह नाराज थी जैसे कि दो साल पहले मनमोहन सिंह से भारत वासी थे। परिणाम स्वरूप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह शेख हसीना वाजिद ने भी जनाक्रोष का लाभ उठा कर जीत दर्ज कराई। सत्ता प्राप्ती के पश्चात अपेक्षानुसार हसीना वाजिद ने आम जनता के कल्याण का कोई ऐसा काम नहीं किया, जिसके कारण लोग फिर से उनका चयन करते।
जिस तरह पानी से निकलते ही मछली मरने लगती है वही हाल राजनेताओं के सत्ता खोने के बाद हो जाता है इसलिए वह हर हाल में कुर्सी से चिपके रहना चाहते हैं। शेख हसीना वाजिद ने भी चुनाव से पहले इसी कारण युध्द अपराधियों का बवंडर खडा कर दिया। फासीवादी रणनीती के तहत राष्ट्रीय भावनाओं को भड़का कर फिर से चुनाव जीतने कि एक क्रूर योजना बनाई और फिर से सत्ता प्राप्त करने में सफल हो गईं लेकिन इसके बाद भी उसी व्देशपूर्ण क्रूर राजनीति का पालन कर रही हैं। यह सही है कि बांग्लादेश की जमात इसलानी पाकिस्तान के विभाजन के खिलाफ थी लेकिन वह एक राजनीतिक निर्णय था। इस सिद्धांत का पालन करने वाली और भी बहुत सारी पार्टियां पूर्व बांग्लादेश यानी पूर्वी पाकिस्तान में मौजूद थीं जैसे मुस्लिम लीग, जमीअतुल उलेमा पाकिस्तान और चीन समर्थक कम्युनिस्ट पार्टी आदि परंतु वैचारिक मतभेद के आधार पर राजनीतिक लाभ प्राप्त करने के लिए जनता को बरगलाना निंदनीय अपराध है।
 भारत की आजादी के समय कांग्रेस और मुस्लिम लीग में देश के विभाजन के मुद्दे पर मतभेद था मगर विभाजन के बाद भी मुस्लिम लीग हिंदुस्तानी राजनीति में सक्रिय है बल्कि केरल की राज्य सरकार में शामिल रही है। खान अबदुल गफ्फार खान की अवामी नेशनल पार्टी पाकिस्तान के निर्माण की वैसे ही खिलाफ थी जैसे कि जमाते इस्लामी पाकिस्तान विभाजन के विरूध्द थी लेकिन अवामी नेशनल पार्टी भी पाकिस्तान का एक प्रमुख राजनीतिक दल है और लंबे समय तक राज्य सत्ता में रही है लेकिन बांग्लादेशी प्रधानमंत्री ने परस्पर मतभेद में निराधार आरोप जोड़कर इसे राजनीतिक शत्रुता में बदल दिया।
बांग्लादेश के इतिहास को पूर्वी पाकिस्तान से अलग करके नहीं देखा जा सकता। जनरल अयूब खान की तानाशाही के खिलाफ जमाते इस्लामी ने खुलकर आंदोलन चलाया था और इसी कारण जिस तरह अब हसीना वाजिद जमात के नेताओं की दुश्मन बनी हुई हैं जनरल अयूब खान ने भी क़ादियानियत का बहाना बनाकर मौलाना मौदूदी को फांसी के फंदे तक पहुँचा दिया परंतु नियती का निर्णय आडे आ गया। अय्यूब खान के खिलाफ पाकिस्तानी लोकतांत्रिक आंदोलन, विपक्ष का संयुक्त मोर्चा और लोकतांत्रिक एक्शन कमेटी के गठन में हसीना के पिता शेख मुजीबुर रहमान और अवामी लीग भी शामिल थी।
 यह तो बांग्लादेश के स्थापना से पहले की बात है लेकिन 1980  के दशक में भी लोकतंत्र की स्थापना के लिये चलाए जाने वाले आंदोलन में बांग्लादेश नेशनल पार्टी और जमात के साथ अवामी लीग भी थी। संयोग से वह आंदोलन जिस सैन्य तानाशाह के खिलाफ चलाया गया था वह वर्तमान में संसद के भीतर हसीना वाजिद का सहयोगी बना हुआ है। जिस तरह आज अवामी लीग यह भूल गई है कि जनरल इरशाद लोकतंत्र का शत्रू था इसी तरह उस समय अवामी लीग को यह विचार नहीं आया कि वह कथाकथित युध्द अपराधियों का साथ दे रही है और जो उसके अनुसार जो युद्ध अपराधी हैं वे देश में लोकतंत्र को बढ़ावा दे रहे हैं।
बांग्लादेश के संविधान में संशोधन करके निष्पक्ष अधिकारी के तहत चुनाव कराने का प्रस्ताव जमाते इस्लामी ने पहली बार पेश किया था। जनरल इरशाद की जातिया पार्टी और अवामी लीग ने भी उसका समर्नथ किया था। अब हाल यह है कि खुद हसीना वाजिद ने संविधान के इस प्रावधान को क़दमों तले रौंद दिया है। पिछले चुनाव में इसी आधार पर बीएनपी और जमात ने चुनाव का बहिष्कार किया था जो बेहद सफल रहा था। मात्र 10 प्रतिशत मतदाताओं की भागीदारी से होने वाले हिंसक चुनावों में हसीना वाजिद पुनः सत्तारूढ़ हुईं और लोकतंत्र के पर्दे में दमनकारी योजना का प्रारंभ कर दिया।
यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि इससे पहले शेख हसीना वाजिद की पार्टी अवामी लीग को तीन बार शासन करने का अवसर मिला लेकिन इस दौरान पिता और पुत्री दोनों को कभी भी जमाते इस्लामी का युध्द अपराधों में लिप्त होना याद नहीं आया लेकिन 2010 में अचानक हसीना वाजिद को यह क्षात्कार हो गया। 1980  के बाद से जमात इस्लामी एक राजनीतिक दल के रूप में राष्ट्रिय चुनाव में भाग लेती रही है। 1991  के चुनाव में जमाते इस्लामी को संसद की 18 सीटों पर जीत मिली। उस समय किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था इसलिए अवामी लीग के अमीर हुसैन ने जमात को गठबंधन सरकार में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया था और उसके दो सदस्यों को मंत्रीपद देने का वादा किया था। तो क्या वे युध्द अपराधियों को मंत्री बना रहे थे?
जमाते इस्लामी ने सत्ता की खातिर अपने सिद्धांत का त्याग नहीं किया बल्कि अवामी लीग की पेशकश को ठुकरा दिया। सत्ता से बाहर रह कर उस ने बांग्लादेश नेशनल पार्टी का समर्थन किया। 2001 में जमात को फिर से 17 सीटों पर जीत मिली और वह बीएनपी के साथ गठबंधन सरकार में शामिल हुई। मौलाना मुतीउरहमान को कृषि व उद्योग और अली अहसन मुजाहिद को सामाजिक कल्याण मंत्री बनाया गया। इन दोनों ने अपनी कार्यकाल में असाधारण कार्यकुशलता का प्रदर्शन किया लेकिन बाद में अचानक उनका नाम युध्द अपराधियों की सूची में शामिल हो गया और एक के बाद एक दोनों शहीद कर दिए गए।
2005 के बम धमाकों में निचली अदालत के दो जज मारे गए थे तब मीडिया ने जमाते इस्लामी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था और आरोप लगाया था कि जमात हिंसा के मार्ग से सत्ता प्रशस्त कर रही है। आतंकवादियों का समर्थन और उनका उत्साह बढाने का आरोप लगाने वालों ने आगे चलकर देखा कि जमाते इस्लामी धमाकों की निंदा कर के देश भर में सार्वजनिक जनमत तय्यार किया और अपने शासनकाल में अपराधियों को सज्रा दिलवा दी। यह नहीं कि प्रज्ञा ठाकुर को मालेगांव धमाकों से मुक्त करवा दिया।
युध्द अपराधियों का इतिहास भी बड़ा रोचक है। बांग्लादेश स्थापना की लड़ाई मुख्यत: पाकिस्तानी सेना और मुक्ति बाहिनी के बीच लड़ी गई जिसमें अवामी लीग के लोग शामिल थे। उस समय पाकिस्तान प्रशासन उन्हें अलगाववादी और आतंकवादी का नाम देता था। मुक्ति बाहिनी के युवा भारत में प्रशिक्षिण लेने के बाद हथियारों से लैस होकर बांग्लादेश में इसी तरह सीमा पार कर के जाते थे जैसे कि कश्मीरी युवा आते हैं। दोनों के मुख पर स्वतंत्रता का नारा होता था। भरतीय सैन्य हस्कक्षेप के बाद में पाकिस्तानी सेना ने हथियार डाल दिए तथा युध्द बंदी बना लिए गए। इस युध्द में सबसे कम भारतीय या पाकिस्तानी सैनिक मारे गए और उनसे कुछ अधिक मुक्ति बाहिनी के लोग मरे और सबसे अधिक निहत्थे नग्रिकों की मृत्यु हुई। यह भी इतिहास का हिस्सा है कि उस कठिन काल में कई हिंदू परिवारों को जमात के लोगों ने शरण देकर सुरक्षा प्रदान की।
शेख मुजीब के शासनकाल में 1973 के अंदर संविधान में संशोधन करके युध्द अपराधियों को मौलिक अधिकारों से वंचित किया गया और संसद ने अंतरराष्ट्रीय अपराध (ट्रिब्यूनल) अधिनियम पास किया ताकि उन्हें सजा दी जा सके। शेख मुजीब की सरकार ने 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों में से केवल 195 पर युध्द अपराधों का आरोप लगाया। संयोग से उस समय बांग्लाबंधु को जमाते इस्लामी के भीतर कोई युध्द अपराधी नज़र नहीं आया। बांग्लादेश प्रधानमंत्री ने बाद में घोषणा की कि वह चाहते हैं जनता 1971 के अत्याचार और विनाश को भुलाकर एक नए युग की शुरुआत करे और विश्व को पता चले कि बांग्लादेश की लोग क्षमा करना भी जानती है।
बांग्लादेश के विदेश मंत्री ने उस समय कहा था कि बांग्लादेश की सरकार ने सद्भावना के चलते मुकदमा  नहीं चलाने का फैसला किया है। इस बात पर सहमति हुई कि युद्ध अपराधियों को भी अन्य जंगी कैदियों के साथ वापस भेज दिया जाए इस प्रकार 1974 में शिमला समझौते के तहत तथाकथित 195 युध्द अपराधी भी पाकिस्तान भेज दिए गए। शेख मुजीब ने 1973  में राष्ट्रपति आध्यादेश क्रमांक 16 व्दारा 1972  विवाद में शामिल सभी लोगों के लिए आम माफी की घोषणा कर दी इस तरह मानो युध्द अपराधियों का अध्याय बंद हो गया।
यह विडंबना है कि जहां शेख मुजीब ने पाकिस्तानी सैनिकों तक को माफ कर दिया उनकी बेटी ने अपने ही देश के निर्दोष राजनीतिक विरोधियों को फांसी दे रही हैं। जमात के पूर्व अध्यक्ष प्राध्यापक गुलाम आजम पर भी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अत्याचार का आरोप था मगर हाईकोर्ट के जज ने नागरिकता के मामले में फैसला सुनाते हुए लिखा आरोपी (गुलाम आजम) का पाकिस्तान सेना या उसके सहकारी अलबद्र या अलशम्स से कोई संबंध नहीं है। उनका स्वतंत्रता संग्राम के दौरान किए जाने वाले अत्याचारों से कोई सरोकार नहीं है। शेख हसीना वाजिद की सरकार ने न्यायालय के निर्णय के बावजूद प्रोफेसर गुलाम आजम को युध्द अपराधी घोषित कर दिया और उनका निधन जेल की सलाखों के पीछे हुआ। इस मामले में जब जज ने पूछा कि गुलाम आजम सैनिकों को कैसे आदेश दे सकते थे, जबकि उनके पास कोई सरकारी पद नहीं था तो सरकारी वकील ने कहा था वह तो उस ज़माने में हिटलर की तरह थे और हिटलर को किसी पद की जरूरत नहीं थी। अब उस मूर्ख को कौन बताए कि हिटलर व्दितीय युद्ध के समय शेख हसीना के समान राज्य प्रमुख था और शेख हसीना वर्तमान में वही सब कर रही है जो हिटलर करता था।
2004 में जब जमाते इस्लामी सरकार में शामिल थी उस समय चटगांग के अंदर चीनी हथियारों का बड़ा भंडार पकड़ा गया जिसकी कीमत पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई ने चुकाई थी। या शस्त्र हांगकांग से निकलकर सिंगापुर से होते हुए बांग्लादेश पहुंचे थे लेकिन उनका गंतव्य असम था। मामले की न्यायिक कारवाई जमात के केर्यकाल में शुरू तो हुई परंतु पूर्ण होने से पूर्व 2008 में हसीना वाजिद ने सत्ता संभाल ली और जनवरी 2009 में अपने आदमी ए एस पी मुनिरूल ईस्लाम को जांच का काम सौंप दीया। इस तरह जून 2011 में जो संशोधित आरोप पत्र दाखिल हुआ इसमें 11 नए लोगों पर आरोप लगाए गए जिनमें जमाते इस्लामी के अमीर मुतीउरहमान रहमान निजामी और बीएनपी के लुतफुजमां का नाम था।
इस प्रकार शेख हसीना वाजिद ने प्रतिशोध शुरू किया और जमात को ऐसे निराधार आरोपों में फंसाया जिनका सिरे से अस्तित्व ही नहीं था। इस मामले में कई गवाह पेश हुए किसी ने मौलाना मुतीउरहमान रहमान का नाम तक नहीं लिया लेकिन चूंकि जब वह अपराध हुआ मौलाना उद्योग मंत्री थे और उनके विभाग का एक कर्मचारी दोषी ठहराया गया था इसलिए उन्हें एक निचली अदालत मौत की सजा सुना दी। उस अदालत को यह अधिकार नहीं था क्योंकि बांग्लादेश में तस्करी की अधिकतम सजा उम्रकैद है।
जब इस से बात नहीं बनी तो युध्द अपराधों का खेल रचाया गया और एक कथाकथित अंतरराष्ट्रीय अपराधिक ट्रिब्यूनल बनाया गया। इस अदालत की विश्व भर के मानवाधिकार संगठनों ने आलोचना की है और संयुक्त राष्ट्र के अतिरिक्त एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी इस के कार्यशैली पर आपत्ति जताई है। इस मामले में न्यायाधीशों से साठगांठ के सबूत भी सामने आ चुके हैं लेकिन वैश्विक भ्रत्सना की परवाह किए बिना बांग्लादेश सरकार अपने राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने में व्यस्त है।
उसने पहले जमाते इस्लामी के नेता अब्दुल कादिर मुल्ला को सारे विरोध के बावजूद शहीद किया। उनके मामले में बांग्लादेश की अदालत ने जो किया वह अद्भुत था। आम तौर पर ऊंची अदालत में निचली अदालत का फैसला बहाल होता है या सजा में कटौती होती है लेकिन ट्रिब्यूनल के उम्र कैद की सजा को सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा में बदल कर उस पर तुरंत कार्रवाई करवा दी ताकि बदले की भावना भडका कर शेख हसीना वाजिद फिर से चुनाव सफलता प्राप्त कर लें।
शहीद अब्दुल कादिर मुल्ला के बाद 22 नवंबर 2015 को शेख हसीना वाजिद ने और दो निष्पाप नेताओं अली मोहम्मद अहसान मुजाहिद और सलाहुद्दीन क़दीर चौधरी को ढाका के सेंट्रल जेल में फांसी दे दी। जमाते इस्लामी बांग्लादेश और बीएनपी के नेता पर 1971 युध्द में पाकिस्तान का समर्थन करने का आरोप था। इस घटना के डेढ़ साल बाद भी यह क्रूर साजिश जारी है जिसके तहत अमीर जमात बांग्लादेश को 17 मई की रात में शहीद कर दिया गया। मौलाना मुतिउरहमान रहमान निजामी पर पाकिस्तान से सहकार्य  का आरोप लगाया गया जबकि पांच बार लगातार संसद में निर्वाचित होने वाले और 4 वर्षों तक कृषि और उद्योग मंत्रालय संभालने वाले 25 से अधिक पुस्तकों के लेखक का वक्तव्य था "16 दिसंबर 1971 के बाद से पाकिस्तान अलग देश है और बांग्लादेश अलग। जब यह पाकिस्तान था तो हम उसके वफादार थे, अब हमारी सारी वफ़ादारियाँ बांग्लादेश के साथ हैं। '' क्या किसी व्यक्ति या समूह को अपने देश के प्रति कृतत्ज्ञता की सजा देना उचित है?
मौलाना मुतीउरहमान रहमान निजामी ने सत्ताधारी पक्ष को चेतावनी दी थी कि "अगर देश के राष्ट्र प्रेमी,  लोकतंत्र व शांति समर्थक धार्मिक दलों का रास्ता रोका गया तो परिणामस्वरूप देश में उग्रवाद जन्म लेगा।" लेकिन सरकार को देश की परवाह नहीं है बल्कि वह चाहती है कि ऐसा हो ताकि आतंकवाद की आड़ में अपने राजनीतिक विरोधियों को ध्वस्त किया जा सके। जनता के मन में किसी समूह विशेष के विरूध मीडिया की सहायता से घृणा की भावना पैदा करना और फिर निर्दोष लोगों को सजा देकर उन भावनाओं शांत करके अपने लोकप्रियता में वृद्धि करते हुए सत्ता जारी रखने का यह खेल बहुत पुराना हो चुका है। अडोल्फ़ हिटलर ने इसी रणनीति से चुनाव जीतकर अपनी सत्ता स्थापित की थी लेकिन अंततः आत्म हत्या ने उसका अंत किया।  शेख हसीना वाजिद भी उसी के पदचिन्हों पर तेजी के साथ दौड़ रही हैं कौन जाने उन का अंजाम क्या होगा परंतु इतिहास साक्षी है कि ऐसों का अंत अच्छा नहीं होता।

Monday 9 May 2016

आसाम बंगाल चुनाव: केँग्रेस और तृणमूल की दुविधा

बिहार पूर्वी भारत का चेहरा है उसके आगे पूरब का हृदय बंगाल और फिर मस्तक में असम है। संयोग से इन तीनों राज्यों में एक के बाद एक चुनाव हो रहे है। कांग्रेस की दृष्टि से देखें तो तीनों स्थानों पर उसने अलग रणनीति अपना रखी है जिस से न केवल जनता बल्कि राजनीतिक पर्यवेक्षक तक स्तब्ध हैं। राजनीतिक दलों की मजबूरियों तो वही जानते हैं क्योंकि जिस के जूते में कील धंसी हो उसी को पीडा का अंदाज़ा होता है। यह और बात है कभी वह व्यक्ति संकट से निकलने में सफल हो जाते हैं और कभी अपनी सारी बुद्धिमानी के बावजूद नहीं निकल पाता। यह स्वाभाविक बात है कि किसी दौड़ में सारे लोग यश  नहीं प्राप्त कर सकते। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में तो रजत और कांस्य पदक पाने वाले भी असफल करार दिए जाते हैं। इस दुनिया का स्वर्ण सिद्धांत है कि सोना लाओ या घर जाओ।
बिहार में कांग्रेस एक दूसरे के जानी दुश्मन लालू और नीतीश का गठबंधन कराने के पश्चात महागठबंधन में शामिल हो गई लेकिन बंगाल में दक्षिणपंथी दलों और तृणमूल के बीच गठबंधन का प्रयत्न नहीं किया गया बल्कि वामदल के साथ साझा प्रक्रिया पर संतुष्टि जताई गई। असम में कांग्रेस से अपेक्षा थी कि वह मौलाना अजमल की एयूडीएफ के साथ एकजुट होकर चुनाव लड़ेगी ताकि भाजपा का मुकाबला किया जा सके लेकिन उसने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया। बिहार की सफलता के बाद यह रणनीति आश्चर्यजनक है लेकिन अगर गहराई में जाकर देखा जाए यही सही है।
बिहार में स्थिति यह थी कि भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव में भारी सफलता मिली थी इससे संघ परिवार के हौसले बुलंद थे। भाजपा को खुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी का समर्थन पहले ही प्राप्त था। इसमें पूर्व मुख्यमंत्री जीतन कुमार मांझी की नवजात हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा कि बढौत्री हो गई थी जिसके बारे में यह खुशफहमी पाई जाती थी कि सारे महादलित उनके साथ राजग में आ जाएंगे। यही कारण है कि मीडिया में भाजपा की सफलता का शोर सुनाई देने लगा था और सुशील कुमार मोदी को हर रोज़ मुख्य मंत्री बन जाने के सपने दिखने लगे थे।
सुशील मोदी से बड़ी समस्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की थी। अव्वल तो वह अपने नामांकन के कारण एनडीए से नीतीश कुमार के अलग होजाने की करार वाकई सजा देना चाहते थे। इसके अलावा दिल्ली की हार को अपवाद सिध्द कर के फिर एक बार अपने अजेय होने का भ्रम बाकी रखना चाहते थे। इसमें शक नहीं कि बिहार में खतरा गंभीर था और अगर तिकोना या चौकोर चुनाव होता तो भाजपा बड़े आराम से सफल हो जाती। उसे हराने के लिए व्दिपक्षी प्रतियोगिता अपरिहार्य था।
पश्चिम बंगाल में स्थिति ऐसी नहीं है। वहाँ वर्तमान में कोई बड़ा से बड़ा मोदी भक्त भी भाजपा की सत्ता का सपना नहीं देखता। प्रतियोगिता तृणमूल और वाम के बीच है जिस के अन्दर आरंभ में तृणमूल हावी था लेकिन कांग्रेस के ममता के खिलाफ कम्युनिस्टों के साथ गठबंधन से अब मौसम बदल गया है अब  मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है । पिछले संसदीय चुनाव में बीजेपी ने सबसे बड़ी छलांग लगाते हुए अपने मतदाताओं की संख्या को 4 से 17 प्रतिशत तक पहुंचा दिया था इस के बावजूद वह बिल्कुल अछूत बन कर रह गई है।
पिछले प्रांतीय चुनाव से पहले पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट सत्ता में थे। उन्हें हटाने के लिए कांग्रेस ने तृणमूल के साथ गठबंधन किया था इस बार तृणमूल के हाथों में सत्ता की बागडोर है और उसे सत्ता से बेदखल करने के लिए कांग्रेस ने कम्युनस्टों के साथ गठबंधन किया है। राष्ट्रीय स्तर पर वाम पंथियों ने कई बार कांग्रेस का समर्थन किया है, तथ्य तो यह है कि वाम दलों के आपसी कलह की वजह से कांग्रेस के साथ दोस्ताना संबंध ही हैं। एक ज़माने में सिपीआई देश में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी थी मगर जब पंडित नेहरू ने सोवियत संघ से दोस्ती कर ली तो कुछ कोम्रेड कांग्रेस के प्रति नरम पड़ गए। इस नरमी के प्रतिरोध में गर्म दल ने सीपीएम स्थापित कर ली जो चीन सर्मथक था। इसमें से सशस्त्र संघर्ष करने वाले नकसलबारी अलग हो गए।
कम्युनिस्ट पार्टी के इन तीन गुटों में से सबसे आधिक चुनावी सफलता माकपा को मिली लेकिन उसने बंगाल, मणिपुर और केरल में अपनी सत्ता बनाए रखने की खातिर सभी सहयोगी दलों को एक झंडे तले एक जुट किया और कांग्रेस के खिलाफ बरसों संघर्षरत रही । भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिस्टों ने कांग्रेस को बाहर से समर्थन तो किया लेकिन न सरकार में शामिल हुए और न साथ मिलकर चुनाव लड़ा। चुनाव में उनकी सबसे बड़ी दुश्मन कांग्रेस पार्टी ही रही। केरल में आज भी यह स्थिति है लेकिन पश्चिम बंगाल में तृणमूल के सत्ता में आने से राजनीतिक परिदृश्य बदल गया। अभी बंगाल की हद तक कांग्रेस पार्टी कम्युनिस्टों की प्रतिद्वंद्वी नहीं है इसलिए यह गठबंधन संभव हो सका।
बंगाल के राजनीतिक उलट फेर पर नजर डालें तो यह साफ नजर आता है कि जैसे-जैसे तृणमूल का दबदबा बढ़ता गया कांग्रेस का प्रभाव कम होता चला गया। यही संबंध भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर भी दिखाई देता है कि कम्युनिस्ट गठबंधन के पतन और भाजपा के उदय की गति समान रही है। ऐसे में कांग्रेस कम्युनिस्ट एकता के बाद होना तो यह चाहिए था कि तृणमूल कांग्रेस आगे बढ़कर भाजपा के साथ विलय कर लेती। सच तो यह है कि हर कोई यह चाहता था। डूबती भाजपा की नौका को तिनके का क्या जहाज का सहारा मिल जाता। यही कारण है कि नाराज अमित शाह ने बिगड़ कर यहाँ तक कह दिया कि ममता के पांच साल कम्युनिस्टों के 34 वर्षों से बदतर थे।
कांग्रेस भी यही चाहती थी कि तृणमूल भाजपा के साथ चली जाए ताकि मुस्लिम मतदाता तृणमूल से नाराज होकर उसकी झोली में लौट आएं। ममता के दिल में भी अरमान रहा होगा कि राज्य में भाजपा वालों को मंत्री बना कर केंद्र में एकाध मंत्रालय पर हाथ साफ कर लिया जाए वैसे भी वह खुद अटल जी की सरकार में रेलवे मंत्री रह चुकी हैं। भारतीय राजनीति में सिद्धांत और विचारधारा की मौत हो चुकी है  सारा कारोबार स्वार्थ के आधार पर फल-फूल रहा है लेकिन तृणमूल के पत्ते और भाजपा का फूल एक साथ नहीं खिल सके आख़िर क्यों?
इस सवाल का जवाब पश्चिम बंगाल में मुस्लिम मतदाताओं की जनसंख्या है। राज्य में वैसे तो मुसलमानों की आबादी 27 प्रतिशत है लेकिन वह पूरे राज्य में बिखरे हुए नहीं हैं। मध्य बंगाल की 40 सीटों में उनकी संख्या 50 प्रतिशत है। इसके अलावा कोलकाता और उसके आस पास भी बड़ी संख्या में मुसलमान रहते हैं। समग्र स्थिति यह है कि 140 सीटों पर मुसलमान 20 प्रतिशत या उस से अधिक हैं। मध्य बंगाल यानी मालदा और मुर्शिदाबाद में मुसलमान बड़े पैमाने पर कांग्रेस के समर्थक हैं लेकिन कोलकाता के परिवेश के मुसलमान तृणमूल के साथ हैं। यही क्षेत्र ममता बनर्जी का गढ़ है।
2104 के राष्ट्रीय चुनाव में इस क्षेत्र के 15 प्रतिशत मतदाता ममता को छोड़ कर भाजपा की झोली में चले गए थे लेकिन 56 प्रतिशत में यह कमी आई थी इसलिए परिणाम पर उस का प्रभाव नहीं पडा। इसमें शक नहीं कि ममता को छोड़कर जाने वाले सारे मतदाता हिन्दू समुदाय के थे इसलिए कि मोदी जी अगर बाबा रामदेव से शिर्ष आसन सीख कर सिर के बल खड़े हो जाएं तब भी आम मुसलमान उनके नेतृत्व में भाजपा की ओर आकर्षित नहीं होगा। वास्तविकता यही है कि तृणमूल को खुद अपने गढ़ में मुस्लिम मतदाताओं की नाराजगी के डर ने भाजपा के साथ जाने से रोक रखा है।
ममता बनर्जी ने भाजपा के कारण होने वाले लाभ और मुसलमानों के चले जाने से अपेक्षित नुकसान का आकलन करने के बाद ही यह फैसला किया होगा कि कम से कम चुनाव तक भाजपा से दूर रहने में भलाई है बाद में अगर कमी रह गई और भाजपा कुछ स्थानों पर सफल हो गई तो उसके साथ सौदेबाजी हो जाएगी। बंगाल की बाबत इस बात पर खासा विवाद है कि इस बार सफलता ममता को मिलेगी या वाम पंथी फिर से सत्ता में आ जाएंगे। टेलीग्राफ और एबीपी चैनल तो ममता की हार घोषित कर चुके हैं मगर एनडीटीवी अब तक आशावादी है।
वैसे ममता बनर्जी की रोष एबीपी का समर्थन करता है। कभी तो वह पुलिस और चुनाव आयोग पर बिगड़ती हैं और कभी कांग्रेस के पागल हो जाने या कम्युनिस्टों के आत्महत्या कर लेने की घोषणा करती हैं। अगर ऐसा है तो उन्हें अपने विरोधियों की इस दुर्गति पर बिगडने के बजाए खुश होना चाहिए। कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी ने ऐसा क्यों किया? ममता की समझ में नहीं आता। शायद वह समझना नहीं चाहतीं क्योंकि अगर वह अपने आप से पूछें कि उन्होंने कांग्रेस से गठबंधन क्यों किया था? और एनडीए में शामिल क्यों हुई थीं? तो सब समझ में आ जाएगी।
बंगाल चुनाव प्रचार से अमित शाह और मोदी जी बीच ही में नाक आउट होकर रिंग से बाहर आ गए। देश के सारे पर्यवेक्षक सर्वसम्मत हैं कि भाजपा के 17 प्रतिशत मतदाताओं में कमी आएगी। अब चर्चा का विषय यह है कि भाजपा जो वोट गंवाएगी वह कहां जाएंगे? ममता को उम्मीद है कि भाजपा से गठबंधन किए बिना भी मतदाताओं की घर वापसी हो जाएगी और उनकी नैया पार लग जाएगी। पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम का फैसला संयोग से उन्हीं निराश मतदाताओं के हाथों में चला गया जो पिछली बार मोदी लहर के झांसे में आ गए थे मगर अब अच्छे दिनों से निराश होकर सोच रहे हैं '' मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं। बड़ी मुश्किल में हूँ मैं किधर जाऊं।''
कोलकाता और उसके परिवेश के मतदाता अगर लौटकर तृणमूल में आ जाते हैं तो ममता बहुमत में आ जाएंगी। बंगाल के अन्य क्षेत्रों में जो कम्यूनसट मतदाता भाजपा के साथ हो गए थे वे भी वापसी के लिए पर तौल रहे हैं। अगर इन 12 प्रतिशत मतदाताओं में से आधे भी तृणमूल की ओर झुकाव महसूस करें तब भी ममता का सत्ता में आना सुनिश्चित हो जाएगा और वह 200 से अधिक सीटों पर सफल हो जाएंगी लेकिन यदि ग्रामीण मतदाता फिर से लाल झंडा थाम लें तथा नागरिक मतदाता भी कांग्रेस या कम्युनिस्ट पार्टी को पसंद करें तो तख्ता पलट जाएगा। एनडीटीवी के अनुसार 2 से 3 प्रतिशत की सविंग परिणाम को उलट पलट कर रख देगी। वर्तमान में उस का अन्दाज़ा है कि तृणमूल की संभावना 60 प्रतिशत और कम्युनिस्ट पार्टी की 40 प्रतिशत हैं लेकिन कुछ भी हो सकता है।
असम में मुसलमानों की संख्या पश्चिम बंगाल से अधिक है बल्कि कश्मीर के बाद प्रतिशत के आधार पर सबसे अधिक मुसलमान इसी राज्य में है। वहां पर मुसलमानों की एक राजनीतिक पार्टी ऑल इंडिया युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट भी है। असम में भाजपा ने अगप और बोडो फ्रंट से गठबंधन कर रखा है इसलिए उसकी सफलता की संभावना उज्जवल हो गई है इसके बावजूद कांग्रेस ने मौलाना अजमल की पार्टी के साथ गठबंधन क्यों नहीं किया? इस सवाल का जवाब भी जमीनी वास्तविकताओं में छिपा है?
फर्ज़ कीजिए कि कांग्रेस एयूडीएफ के साथ समझौता कर लेती तो क्या होता? कांग्रेस को आशंका है की ऐसे में उस का हिन्दू वोट भाजपा की झोली में चला जाता। इस तरह भाजपा के लिए  एयूडीएफ और कांग्रेसी उम्मीदवार को हराना आसान हो जाता। जिन क्षेत्रों में एयूडीएफ मजबूत है वहां कांग्रेस भाजपा के हिन्दू वोट काटे और जहां एयूडीएफ की हालत पतली है वहां के मुसलमान कांग्रेस को वोट दें तो ऐसे में अन्य हिन्दुओं को साथ लेकर कांग्रेस के लिए भाजपा को हराना सुविधाजनक हो जाएगा। इस तरह एक दूसरे के साथ गठबंधन करने के बजाय खिलाफ चुनाव लड़ने में में लाभ है अगर कमी रह जाए तो चुनाव के बाद एकता का मार्ग खुला ही है।
इस समीक्षा से पता चलता है कि बंगाल में जो मजबूरी सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस को भाजपा के साथ जाने रोक रही है असम में वही बाधा सत्तारूढ़ कांग्रेस को एयूडीएफ से हाथ मिलाने से मना कर रही है। बंगाल में तृणमूल मुसलमानों की नाराजगी से बचने के लिए भाजपा से अस्थायी दूरी बनाए हुए है और असम में कांग्रेस पार्टी हिंदू मतदाताओं की खुशी की खातिर यूनाइटेड फ्रंट से किनारा किए हुए है लेकिन जिस तरह बंगाल के अंदर चुनाव के बाद तृणमूल और भाजपा का गठबंधन संभव है इसी तरह असम में कांग्रेस और एयूडीएफ का निलाप भी गठबंधन हो सकता है।
असम में आज कल जम्मू कश्मीर के भाजपा और पीडीएफ गठबंधन के समान एयुडीएफ भाजप सरकार पर भी चर्चे होने लगे हैं। एक खबर के मुताबिक बीजेपी की सहयोगी अगप कांग्रेस के साथ दोस्ती बढ़ा रही है मजबूरी में यह भी हो सकता है कि कांग्रेस बाहर से अगप, एयूडीएफ और बोडो फ्रंट के गठबंधन का समर्थन करे और भाजपा हाथ मलता रह जाए। राजनीतिक बाजार में चूंकि प्रत्येक वस्तु बिकाऊ है इसलिए हर चमत्कार संभव है।
 सत्ता पाने या जारी रखने के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों को विभिन्न स्थानों पर तरह तरह की रणनीति अपनाने पर मजबूर होना पड़ता है। कहीं ये लोग हिंदुत्व के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता के नाम पर एकजुट हो जाते हैं। कहीं पर अत्याचार को खत्म करने का बहाना बनाकर आंशिक गठबंधन कर लेते हैं और कहीं अकेले चुनाव लड़ते हैं। जनता को मूर्ख बनाने के लिये कोई अच्छे दिनों के सपने दिखाता है कभी सबका साथ सबका विकास का नारा लगाता है तो कोई धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देता है। कोई प्रगतिशीलता उदारवाद का राग अलापता है। कोई भ्रष्टाचार उन्मूलन का संकल्प करता है तो कोई हिंदुत्व के संकट का रोना रोता है लेकिन यह चुनावी नारे और कस्में वादों केवल हाथी के दिखाने वाले दांतों के समान हैं।
जनता हाथी के इन सुंदर दांतों से बार बार धोखा खाते हैं और झांसे में आ जाते हैं इसलिए इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में उनके पास इसके अलावा कोई पर्याय नहीं है। इसमें शक नहीं कि इस प्रणाली में न केवल जनता बल्कि राजनीतिक दल भी मजबूर हैं लेकिन राजनीतिक दलों की मजबूरी अस्थायी होती है। उन्हें कभी न कभी, कैसे न कैसे, पूर्ण या आंशिक सत्ता नसीब हो जाता है लेकिन आम जनता का यह हाल है कि उनके हिस्से में खाली सपनों और खोखले वादों के अलावा कुछ नहीं आता फिर भी वह लोकतंत्र के नशे में बदमस्त झूमते रहते हैं ।
तमिलनाडु का उदाहरण हमारे सामने है जहां अब तक सख्त गर्मी के कारण जय ललिता सभाओं में 5 लोग मर चुके हैं। विपक्ष की शिकायत पर मानवाधिकार आयोग ने राज्य के मुख्य सचिव से स्पष्टीकरण मांगा है कि जहां गर्मी के कारण जिला प्रशासन ने जनता पर दोपहर ग्यारह से चार के बीच बाहर निकलने पर प्रतिबंध लगा रखा है ऐसे में जनसभा की अनुमति क्यों दी गई? लेकिन अंधे बहरे भक्तों और उनके संवेदन शून्य नेताओं को इस की चिंता कब है?
मुख्यमंत्री जय ललिता का हेलिकॉप्टर रात में सभा स्थल तक नहीं पहुंच सकता वह अपने स्वास्थ्य के कारण वाहन से नहीं आसकतीं इसलिए भरी दोपहर में सभा रखी जाती है। जनता अपनी जान पर खेलकर इन सभाओं में उपस्थित होते हैं और बीमार होकर घर जाते हैं बल्कि कभी-कभी उनकी लाशें ही घर पहुंचती हैं। इस चुनाव के खेल ने पूरे राष्ट्र को अपंग बना रखा है केवल राजनीतिज्ञ और उनके संरक्षक पूंजीपति हैं कि जिनके वारे न्यारे हैं। 

Sunday 1 May 2016

पहली मई: महाराष्ट्र के गठन या विभाजन का दिन

विश्व स्तर पर एक मई श्रमिक दिवस है। एक युग में जब मुंबई के अंदर ट्रेड यूनियन का जोर था तो मजदूरों का यह दिन बड़े जोर शोर से मनाया जाता था लेकिन अब वह अतीत का एक भयानक सपना बन गया है। देश में जब भाषाई आधार पर राज्यों के गठन का काम शुरू हुआ तो महाराष्ट्र नाम के राज्य का अस्तित्व नहीं था। केंद्रीय प्रांत यानी सेंट्रल प्रोविंस से 8, निजाम राज्य से 5, मुंबई राज्य से गोवा और दमन के बीच का क्षेत्र और कुछ अन्य स्वतंत्र राजवाड़ों को जोड़कर मराठी भाषा बोलने वालों का एक प्रांत बनाया गया, लेकिन मुंबई को लेकर कर विवाद उतपन्न हो गया।
पंडित नेहरू चाहते थे कि मुंबई चूंकि देश की आर्थिक राजधानी है इसलिए उसे महाराष्ट्र में शामिल करने के बजाय केंद्र के तहत युनियन टेरिटरी में रखा जाए। संयोग से नेहरू जी की राय से उनके वित्त मंत्री सीडी देशमुख ने असहमति जताई। वह न केवल अग्रणी अर्थ विशेषज्ञ थे बल्कि अंग्रेजों के जमाने में रिजर्व बैंक के गवर्नर भी रह चुके थे। देशमुख साहब का विरोध इतना तीव्र था कि उन्होंने अपने महत्व पूर्ण पद से त्यागपत्र दे दिया परंतु देशमुख का इस्तीफा भी मुंबई को महाराष्ट्र का भाग नहीं बना सका और मुंबई के निवासियों को 1956 से आगे चार वर्षों तक एक जबरदस्त संघर्ष करना पड़ा जिसमें 100 से अधिक लोगों ने अपने प्राण बलिदान किये और आख़िर 1 मई 1960 को पंडित जी ने मुम्बई सहित महाराष्ट्र का गठन करके सत्ता की चाबी यशवंत राव चव्हाण को सौंप दी। वहीं से महाराष्ट्र की प्रथा का आरंभ हुआ।
अब तो यह हाल है कि मुंबई में न कपड़ा मिलें हैं और न इसमें काम करने वाले मजदूर। ट्रेड यूनियन के साथ साथ जनता ने श्रमिक दिन को भी भुला दिया है लेकिन इसमें शक नहीं कि संयुक्त महाराष्ट्र की स्थापना के आन्दोलन में मजदूरों, उनके श्रमिक संघों और उसके नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और उन्हीं के बलिदान से मुंबई शहर महाराष्ट्र की राजधानी बना जहां अब मजदूरों का दिन नहीं केवल महाराष्ट्र दिवस मनाया जाता है। इस वर्ष यह दिन जिस पार्टी के नेतृत्व में मनाया गया उस संघ परिवार ने राज्य के गठन में कोई भूमिका नहीं निभाई।
संघ परिवार की स्थापना विदर्भ में हुई उसने नागपुर को अपना मुख्यालय बनाया और पुणे में सबसे आधिक ज़हर फैलाया लेकिन मुंबई की जनता वामपंथी दलों की समर्थक बनी रही। कांग्रेस ने शिवसेना की मदद से लाल झंडे को उतारा और भाजपा ने शिवसेना के साथ गठबंधन करके मुंबई पर कब्जा जमाया। यही कारण है कि भाजपा के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस और वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का संबंध नागपुर के ब्राह्मण समाज से है साथ ही वे दोनों महाराष्ट्र विभाजन के समर्थक हैं।
इस वर्ष जबकि मुंबई में मुख्यमंत्री फडनवीस ने महाराष्ट्र दिवस के सरकारी समारोह में बुलंद बाँग दावे किए उन के अपने कार्य क्षेत्र में विदर्भ राज्य परिषद ने हर जिले में भाजपा का घोषणा पत्र जलाया। इसलिए कि भाजपा ने संसदीय चुनाव से पूर्व विदर्भ को अलग करने का वादा किया था और वह अपने  वादे से मुकर गई है इसलिए परिषद भाजपा के खिलाफ हो गई है। पहली मई के दिन महाराष्ट्र के विभाजन की मांग मुख्यमंत्री और संघ परिवार दोनों के लिये लज्जास्पद है लेकिन वर्तमान राजनीति में लाज शर्म जैसी चीजें नहीं पाई जातीं।
दो साल पहले जब भाजपा को केंद्र में सफलता मिल गई तो विदर्भ विभाजन के समर्थकों का उत्साह बहुत बढ गया। इन बेचारों ने सोचा कि अब हमारे अच्छे दिन आने ही वाले हैं और जल्द ही हमें स्वतंत्र राजेय प्राप्त हो जाएगा। वर्ष 2014 में भी विदर्भ में पहली मई को जोर-शोर से स्वतंत्र विदर्भ दिवस मनाया गया और हर जिले के मुख्यालय ध्वज फहराया गया। भाजपा वाले इस में आगे आगे थे उन्होंने सार्वजनिक भावनाओं को खूब जी भरके शोषण किया और पांच महीने बाद विधानसभा चुनावों में पहली बार शिवसेना की मदद के बिना सबसे अधिक सीटों पर जीत दर्ज कराई लेकिन जब पूरे राज्य की सत्ता हाथ आ गई तो वे विदर्भ विभाजन का नारा भूल गए।
पिछले साल शीतकालीन सत्र से पहले जब अकाल और पानी जैसे मुद्दों में फडनवीस बुरी तरह घिर गए तो उन्होंने अपने खास आदमी अटॉर्नी जनरल श्री हरि आने के माध्यम से इस मांग को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया। यह विपक्ष और अपने सहयोगी शिवसेना को भ्रमित करने का षडयंत्र था ताकि सरकार की विफलताओं को छिपाया जा सके और जनवरी में होने वाले नगर पालिका के दूसरे चरण के चुनाव राज्य सरकार की अयोग्यता के असफलता से प्रभावित न हों लेकिन ऐसा नहीं संभव ना हो सका।
महाराष्ट्र में कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री को अंतिम मुगल कहा जाता था। पृथ्वीराज चव्हाण राजनीति की दुनिया में प्रशासन से होकर आए थे मगर उन की कार्य शैली नहीं बदली इसलिए वह शुरू से अंत तक सफल राजनीतिज्ञ नहीं बन सके। वैसे आज के समय जो राजनेता झूठ, धोखा, खोखले वादे, मक्कारी, बदमाशी और भ्रष्टाचार जैसेगिणों से लैस ना हो उस की विफलता सुनिश्चित होती है इसी लिए चौहान के आने और जाने पर किसी को अफसोस नहीं हुआ। चौहान का व्यक्तित्व आर्कषक नहीं था उनके भीतर निर्णय शक्ती का अभाव था और वह अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटना नहीं जानते थे फिर भी उन्हों ने जाते जाते ग्रामीण कल्याण के मद्देनजर सभी जिलों के मुख्यालय को नगर पंचायत में बदल दिया। इस तरह 100 से अधिक नई नगर पंचायतें अस्तित्व में आ गई। इन आधुनिक नगर पंचायतों में चुनाव प्रक्रिया जारी है और तीन चरणों के अंदर 91 स्थानों के परिणाम सामने आ चुके हैं।
एक ज़माने में मुख्यमंत्री फडनवीस कहा करते थे कि किसानों को ऋण किसी हालत में माफ नहीं होगा लेकिन अब उन्हें ग्रामीण क्षेत्र में फैलने वाले रोष का पता चल रहा है। तीसरे चरण के परिणाम से स्पष्ट हो गया कि भाजपा की हवा पूरी तरह उखड़ चुकी है और अब कांग्रेस के अलावा वामपंथी दलों को भी किसानों का समर्थन मिलने लगा है। महाराष्ट्र की राजनीति में सबसे बुरा हाल राष्ट्रवादी का है। इस पार्टी का पूर्व उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल जेल में चक्की पीस रहा है अजीत पवार के सिर पर भ्रष्ट्राचार की तलवार लटक रही है। इस जर्जर हालत के बावजूद नगर निगम चुनाव के परिणाम ने साबित कर दिया कि एनसीपी का हाल सत्तारूढ़ दल से बेहतर है। इस खुलासे से संघ परीवार की नींद उड़ गई होगी।
 तीसरे चरण के चुनाव में कुल मिलाकर यह हालत है कि 102 सीटों में से कांग्रेस को 21, भाजपा और शिवसेना दोनों में से प्रत्येक को 20, स्वतंत्र और स्थानीय दलों को 36 और भाजपा को केवल 5 हाँ 5 स्थानों पर सफलता मिली। इसकी तुलना अगर संसदीय चुनाव से की जाए तो यह संख्या 50 से अधिक होनी चाहिए थी। कल्याण डोम्बिवली, नई मुंबई, बदलापुर, अम्बरनाथ, वसई, विरार और कोल्हापुर में अपनी सारी ताकत झोंक देने के बावजूद अधिकांश क्षेत्रों में भाजपा खाता भी नहीं खोल सकी। यह वही क्षेत्र है जहां भाजपा को बड़ी सफलता मिली थी।
भारतीय जनता पार्टी पर यह मुसीबत अचानक नहीं आई बल्कि पिछले साल नवंबर से जबकि राज्य सरकार अपनी पहली वर्षगांठ मनाने की तैयारी में थी जिला नगर पंचायत के नतीजों ने रंग में भंग डाल रखा है। नगर निगम चुनाव का आरंभ देवेंद्र फडनवीस ने बड़ी चालाकी से अपने और आरएसएस के गढ़ नागपुर से किया लेकिन उन्हें वहां भी मुंह की खानी पड़ी। वैसे कांग्रेस और भाजपा बराबरी पर छुटे मगर कुछ क्षेत्रों के परिणाम चौंकाने वाले थे जैसे नागपूर जिले के हनगना तालुका में राकांपा ने 11 तो भाजपा ने सिर्फ 6 सीटों पर जीत दर्ज कराई। कारंजा में कांग्रेस ने 17 में से 15 सीटें जीत लीं और भाजपा 2 पर सिकुड गई। इसी तरह मोहादी में कांग्रेस ने 17 में 12 पर कब्जा कर लिया और भाजपा 3 पर सिमट गई। भगवावादियों की खुद अपने गढ में ऐसी दुर्गति बनेगी यह किसी ने नहीं सोचा था?
इस चुनाव के दो महीने बाद यानी आज से दो महीने पहले 19 नगर पंचायतों की 345 सीटों पर मुकाबला हुआ तो उस समय तक कांग्रेस की लोकप्रियता बढ चुकी थी। उसने 105 स्थानों पर जीत दर्ज कराई थी। एनसीपी भी 80 तक पहुंच गई थी लेकिन भाजपा को कांग्रेस की तुलना में आधे से भी कम यानी 39 पर संतोष करना पड़ा। 19 में से 9 स्थानों पर कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिल गया और बाकी 10 में किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला। इसके दो महीने बाद भाजपा कांग्रेस से एक चौथाई से भी कम सीटों पर सफल हो सकी मानो नवंबर में जो समानता थी वह फरवरी में आधे से कम और अप्रैल में एक चौथाई से नीचे पहुंच गई। इस तरह की फिसलन तो शायद ही किसी पार्टी के भाग्य में आई हो।
भाजपा के इस तेजी के साथ होने वाली बरबादी का सबसे अधिक ग़म हिंदुत्व समर्थक शिवसेना और सबसे ज्यादा खुशी कांग्रेस को होनी चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ बल्कि कांग्रेस और एनसीपी से कहीं अधिक प्रसन्नता शिवसेना के हिस्से में आई। इसकी एक वजह तो राजनीतिक है दूसरी मनोवैज्ञानिक। राजनीतिक रूप से हिन्दूतवावादी मतदाता भाजपा और शिवसेना के बीच हिचकोले खाता है इसलिए आम तौर पर भाजपा के लाभ में शिवसेना का नुक्सान होता है। इसके अलावा पिछले विधानसभा चुनाव से पहले जिस तरह स्वार्थ दिखाते हुए भाजपा ने ऐन वक्त पर सेना की पीठ में खंजर घोंपा तो उसे अफजल खान याद आ गया।
चुनाव के बाद भी अवसरवाद की चरम सीमा पर भाजपा ने एनसीपी के अप्रत्यक्ष सहयोग से विश्वास मत प्राप्त किया। अंतिम समय तक शिवसेना को साथ लेने में आनाकानी करती रही यहाँ तक कि जब सारे महत्वपूर्ण मंत्रालयों पर कब्जा हो गया तो बची खुची खुर्चन सेना के सामने डाल दी। इस दौरान सेना में फूट डाल कर उसके सदस्यों को अपने साथ लेने की नाकाम कोशिश भी की गई। उस अपमान को उद्धव ठाकरे कैसे भूल सकते हैं कि नवाज शरीफ को गले लगाने वाले प्रधानमंत्री ने उनसे बैठकर मुंह फेर कर हाथ मिलाया था।
नगर निगम चुनाव नतीजों के बाद सामना अखबार ने अपने संपादकीय में उन फफोलों को फोड़ा है। मुसंडी (उत्थान) और घसरगुंडी (पतन) के शीर्षक के तहत सामना लिखता है '' राज्य में परिवर्तन की हवा इतनी जल्दी चलेगी इसका अनुमान नहीं था मगर नगर पंचायत के चुनाव में सत्ता पक्ष भाजपा की जो अपमानजनक हार हुई है वह दुखद है। जिस कांग्रेस को लोगों ने उठाकर पटखा था वह कोमा की हालत से जागरूक हो रही है। भाजपा की दुर्गत का वर्णन करने के बाद सामना ने इस गिरावट के कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखा धन व सत्ता के बदले जनसमर्थन हर बार खरीदा नहीं जा सकता। जनता के साथ धोखा और उनके अंदर पैदा होने वाली निराशा हार का मुख्य कारण है।
शिवसेना और भाजपा की महाभारत देखने पर कौरव और पांडव याद आ जाते हैं। वह भी आपस में भाई थे मगर एक दूसरे के खून के प्यासे थे। हिंदुत्ववादीयों की यह प्राचीन परम्परा है कि वह स्वंय एक दूसरे का गला काटते हैं। अनुमान यही है कि मुंबई के नगर निगम चुनाव में भी भाजपा पहले अकेले जोर आजमाइश करेगी और बाद में शिवसेना के साथ हो जाएगी। अब यह नाटक पुराना हो चुका है कि पहले खूब लड़ो और फिर बेहयाई के साथ गले मिल जाओ।
भाजपा की दुर्दशा को देखकर शरद पवार ने मध्यावधि चुनाव की अटकलें शुरू कर दी है लेकिन उस की योजना दूसरी है। भाजपा जानती है कि अनेक कारणों से उसके दोनों समर्थक घरवाली सेना और बाहर वाली राकांपा स्वतंत्र विदर्भ के पक्षधर नहीं हो सकते इसलिए जब तक पूरे राज्य पर शासन की संधी प्राप्त है संयुक्त महाराष्ट्र का नारा लगा कर हुकूमत करो और जब जनता लात मारकर भगा दे तो फिर विदर्भ की स्वतंत्रता की मांग शुरू कर दो लेकिन क्या इस खेल में भाजपा सफल हो पाएगी? संभावना कम है। भाजपा ने इसी रणनीति के तहत उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश से अलग किया लेकिन वहां की जनता ने उसे सत्ता से बेदखल कर दिया और अब वह चोर दरवाजे से सरकार बनाने की कोशिश में अदालत के अंदर जूतियां खा रही है। महाराष्ट्र में उनकी पाखंडी नीति मुंह में राम बगल में छुरी के समान है। जीभ पर संयुक्त महाराष्ट्र दिल में विदर्भ विभाजन का पाखंड नहीं चलेगा। लोग सवाल करेंगे कि जब सत्ता हाथों में थी तो धोका क्यों दिया? इस महाराष्ट्र दिवस का यही संदेश है कि इस अवसरवाद के कारण नागपुर रेशम बाग में जहां संघ का मुख्यालय है भाजपा की जमानत जब्त हो जाएगी।