Monday 25 April 2016

यमन शांति चर्चा की विफलता: कारण निवारण

उत्तर और दक्षिण कोरिया आज भी एक दूसरे के कट्टर शत्रू हैं लेकिन उत्तर और दक्षिण यमन का 1979  में विलय हो गया। संयोग से वह ऐतिहासिक गठबंधन कुवैत में हुआ जहां फिर एक बार युद्धरत येमेनी 37 साल बाद सुलह के लिए इकट्ठे हुए। उस मझौते में कुवैत के जिस विदेश मंत्री शेख सबा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी वह आजकल राज्य प्रमुख हैं। उस मझौते के बाद अली अब्दुल्ला सालेह यमन के प्रमुख बने थे जिन्हें होतियों ने 2004 में घायल करके साऊदी अरब भगा दिया। सालेह ने मौजूदा होती नेता अब्दुलमालिक के भाई हुसैन को मार दिया था लेकिन फिलहाल अली सालेह और होती एक साथ हैं। मौजूदा राष्ट्रपति अब्दू अलरबवह मंसूर हादी को भी सत्ता से बेदखल करके सऊदी अरब भागने पर मजबूर कर दिया गया था लेकिन वह आज कल ईडन से सरकार चला रहे हैं। इस तरह मानो यमन में फिर एक बार दो सरकारें हैं जिनमें से एक को साऊदी अरब का संरक्षण और दूसरे को ईरान का समर्थन प्राप्त है।
सऊदी और ईरान दोनों कुवैत में यमन वार्ता समर्थक थे। शांति वार्ता का उद्देश्य 13 महीने से जारी तनाव और गृहयुद्ध कि समाप्ति था. संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में आयोजित वार्ता में महासचिव के प्रतिनिधि इस्माइल अल शेख अहमद ने यमन में जारी हमलों पर खेद व्यक्त करते हुए दोनों पक्षों से अनुरोध किया था कि हिंसा उन्मूलन के लिए स्थायी समझौते में सहयोग करें। यह वार्ता इन 5 मुद्दों पर केंद्रित थी। सुरक्षा की स्थापना, सशस्त्र समूहों की वापसी, भारी हथियारों को सरकार के हवाले करना, सरकारी संस्थाओं की बहाली के लिए राजनीतिक बातचीत और कैदियों और बंदियों के बारे में एक विशेष समिति का गठन।
 अतीत के अनुभव से उम्मीद थी कि दोनों पक्ष लचीलापन दिखाते हुए संकट के समाधान में सफल होंगे। परन्तु दुरभेग्यवश ऐसा ना हो सका। होतयों का कहना था कि वह सुलह के लिए तैयार हैं मगर चूंकि वर्तमान में उनका पलड़ा भारी है इसलिए सरकार में उनकी वर्चस्व हो। इसके विपरीत सरकार का रुख था चूंकि होतयों ने बलपूर्वक कब्जा जमाया है इसलिए उन्हें (शांति भंग) का दोषी करार दिया जाए और होती हथियार डाल कर महत्वपूर्ण शहरों में सत्ता से बेदखल हो जाएं। वार्ता से पहले होती कह चुके थे कि वह अपना हथियार और भाग्य दुश्मनों यानी सरकार के हवाले नहीं करेंगे। होती चाहते थे अरब गठबंधन सेना के हवाई हमले तुरंत बंद हों। सरकार की शर्त है कि संघर्ष विराम के दौरान अधिकृत क्षेत्रों के लिए सुरक्षित मार्गों का निर्धारण, कैदियों की वापसी और विश्वास बहाली के प्रयासों को वार्ता के एजेंडे में शामिल होना चाहिए। इस तरह संदेह निसंदेह के वातावरण में बातचीत को विफल होना था सो हो गई।
इस अवसर पर अरब सहयोगियों को अपने दोस्त नुमा दुश्मन अमेरिका से सबक सीखना चाहिए जो सीरिया में सेना भेजने को चूक कहता है और बिनाकारण बरबादी से बचना चाहिए। शांति के मामले में पश्चिमि मंत्र यह है कि वह अपने प्रतिद्वंद्वी को डराने धमकाने की खातिर पहले चढ़ाई करो। यदि वह दब जाए तो उसका राजनीतिक लाभ उठाओ अन्यथा उससे सुलह कर लो। अमेरिका ने ईरान के साथ यही किया वर्षों तक संघर्ष के बाद अंततः दोस्ती कर ली लेकिन यह विनाशकारी रणनीति है जिस में हजारों लोगों की मृत्यु होती है, लाखों बेघर होते हैं और शत्रू सहित खुद अपना खजाना भी खाली हो जाता है।
इसके विपरीत मतभेद में शक्ति का उपयोग करने से पूर्व इस्लाम सुलह सफाई पर जोर देता है और उसकी विफलता के बाद यदि आवश्यक हो तो युद्ध की अनुमति देता है। ईशग्रंथ कुरआन के अनुसार ''और अगर मुसलमानों के दो गुटों में लड़ाई हो जाए तो उनके बीच सुलह करा दिया करो।'' इस से पता चलता है कि मुसलमानों के बीच आपसी लड़ाई की संभावना भी है लेकिन यह पसंदीदा नहीं है वरना यह न कहा जाता कि '' और अल्लाह और उसके रसूल की मानो और आपस में झगड़ना नहीं वरना तुम्हारे अंदर कमजोरी पैदा हो जाएगी और तुम्हारी हवा उखड़ जाएगी, धैर्य से काम लो, निश्चित रूप से अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है। '' इस आयत से पता चलता है कि अल्लाह और उसके रसूल के आज्ञापालन ही आपसी टकराव समाप्त कर सकता है वरना 'हवा उखड़ जाती' है जो जगज़ाहिर है।
उक्त श्लोक में युद्ध के बावजूद दोनों युद्धरत गुटों को मुसलमान कहकर संबोधित किया गया है। आज हमारी स्थिति यह है कि हम अपने विरोधियों को अंधाधुंध इस्लाम के दायरे से बाहर कर देते हैं। काफिर या कम से कम गुमराह तो करार दे ही देते हैं। सुलह के बाद अगर मन मिटाव हो जाए तो समस्या समाप्त हो जाती है, लेकिन यह जरूरी नहीं है। हो सकता है कि उनमें से एक पक्ष आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दे। आगर शक्तिशाली समूह के खिलाफ फैसला हो तो यह संभावना अधिक है ऐसी स्थिति के लिए मार्गदर्शन अगले भाग में है '' फिर अगर उनमें से एक (समूह) दूसरे पर ज़्यादती और सरकशी करे तो उस (समूह) से लड़ो जो दुर्व्यवहार का दोषी हो रहा है जब तक वे अल्लाह के आदेश पर लौट आए। '
युद्ध का यह आदेश सुलह के बाद फसाद करने पर है लेकिन और जब उसे अपनी गलती का एहसास हो जाए तो आदेश है ''फिर अगर वे पलट आए तो दोनों के बीच न्याय के साथ सुलह करा दो और न्याय से काम लो, निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को बहुत पसंद करता है, ''। इस आयत के बाद अल्लाह विश्वासियों को भाईचारे की हिदायत करते हुए फरमाते हैं '' बात यह है कि (सभी) विश्वासी (आपस में) भाई हैं। सो तुम अपने दो भाइयों के बीच सुलह कराया करो, और अल्लाह से डरते रहो ताकि तुम पर दया की जाए। '' यह श्लोक संदेश दे रहा है कि भाईचारे और प्रेम के बिना शांति व सुरक्षा असंभव है।
हाल वार्ता के बीच अरब सहयोगी सेनाओं ने मकला स्थान एक जबरदस्त हवाई हमला बोल दिया लेकिन वह होतयों के बजाय अलकाईदा के खिलाफ था। इस हमले में 800 से अधिक लडाके मारे गए इसी के साथ थलसेना ने मकला के स्वतंत्र होने की घोषणा कर दी। यह बहुत सोचा समझा कदम था जो होतियों के खिलाफ नहीं था वरना वार्ता तुरंत टूट जाती। यह हमला होतियों को चेतावनी देने के लिए था कि अगर वह अड़े रहे तो उन्हें भी इस तरह की बमबारी का शिकार होना पड़ेगा। सवाल यह है कि क्या इस तरह के दबाव में होती आएंगे? और इसका कोई नतीजा निकलेगा? संयोग से इन दोनों प्रशनों का उत्तर ना है। यह बमबारी एक साल से चल रही है। इसमें 7000 लोग मारे जा चुके हैं इसके बावजूद संयुक्त अरब गठबंधन की सेना राजधानी सना में प्रवेश न कर सकी इसलिए बातचीत और सुलह के बजाय धौंस धमकी का परिणाम सिवाय बर्बादी और विनाश के कुछ और नहीं निकलेगा। ईस वार्ता का ''एकमात्र लाभ संघर्ष विराम के लिये स्थापित की जाने वाली संयुक्त समिति का गठन है अगर उस ने ईमानदारी के साथ काम किया तब भी शांति और सुरक्षा के लिए किसी न किसी हद तक उपयोगी सिध्द हो सकती है।

Tuesday 19 April 2016

कश्मीर जल रहा है, शोले उगल रहा है

कश्मीर में नई सरकार का गठन होते ही हिंसा फूट पड़ी। कई निर्दोष नागरिक घायल और पांच मारे गए। मृतकों के घर वालों का दुख बांटने और घायलों के जखमों पर मरहम रखने के लिए केंद्रीय मंत्री तो दूर राज्य की मुख्यमंत्री और उनका नायब तक नहीं गया। वैसे भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और विधायक सत शर्मा ने अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ऐसी हिंसा का आरोप आतंकवादियों पर लगा दिया जिसमें नागरिक सुरक्षा बलों की गोली का निशाना बने हैं। उन्होंने इस हिंसा को सेना को बदनाम करने का षडयंत भी करार दिया लेकिन सवाल यह है कि इस साजिश पर अमल किसने किया? सुरक्षा बलों से किसने कहा कि वे अंधाधुंध गोलियां चलाएं और आंसू गैस के डिब्बे इस जोर से फेंकें कि युवा की मौत हो जाए?
 इस आरोप के बाद जांच की मांग बेमतलब हो जाती है। क्या कश्मीर के अलावा देश के किसी और राज्य में सुरक्षा बलों के दमन के बाद सत्ता सीन लोग अपने राज्य के बहुसंख्यक वर्ग के खिलाफ इस तरह का बयान दे सकते हैं? इस को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि भाजप आम लोगों के नहीं सेना वोट से चुनाव जीती है वैसे जहां तक घाटी का सवाल है वहाँ सारी सीटों पर उसकी जमानत जब्त हो गई क्योंकि जनता ने उसे वोट नहीं दिया और अब देंगे भी नहीं खैर। जम्मू कश्मीर भाजपा के प्रमुख सत शर्मा जो जनता के  खून खराबे के बजाय सुरक्षाबलों की बदनामी को लेकर परेशान हैं उन्हें हरियाणा में सामने आने वाली प्रकाश सिंह पैनल की रिपोर्ट देख लेनी चाहिए।
 प्रकाश सिंह पूर्व पुलिस प्रमुख हैं और उन्हें जाट प्रदर्शनों के दौरान पुलिस विद्रोह की जांच का काम सौंपा गया था। इस पैनल के अनुसार हिंसा के दौरान भाजपा शासित हरियाणा के हर जिले में औसतन 60 से 70 पुलिस वालों ने अपने अधिकारियों के आदेश पालन करने से इनकार कर दिया था। उनमें से कई नाजुक परिस्थितियों में छुट्टी पर चले गए थे। ड्यूटी पर मौजूद जाट भी मूकदर्शक बने दुकानों, घरों बल्कि पुलिस थानों तक को लुटता और जलता हुआ देख रहे थे। आम पुलिस कांस्टेबल तो दरकिनार डीजीपी वाई पी सिंघल ने फसाद के दौरान दंगा प्रभावित क्षेत्रों की एक भी यात्रा नहीं की। शांति बहाली के बाद वे केवल एक बार मुख्यमंत्री मनोहर लाल खत्तर के साथ रोहतक गए थे। इस रिपोर्ट पर कड़ी कार्रवाई की तैयारी चल रही है क्या ऐसा करने से सुरक्षा बलों का मनोबल कम न होगाऔर यह शुभ कार्य कौन करेगा?
कश्मीर की हिंसा खत्म भी नहीं हुई थी कि गुजरात में हंगामा शुरु हो गया। इससे पहले कि पटेलों की 7 सदस्यीय समिति मुख्यमंत्री से मुलाकात करती मेहसाना जिले में पाटीदार अनामत आंदोलन समिति ने हारदिक पटेल की रिहाई को लेकर विरोध पर्दशन करने की घोषणा की। जिला प्रशासन ने प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी इसके बावजूद सरकारी आदेश का उल्लंघन करते हुए जबरदस्त जुलूस निकाला गया, जनसभा भी हुई और भीड़ ने पुलिस पर पथराव किया। इस हिंसा में एक एकजेक्युटिव मजिस्ट्रेट के हाथ की हड्डी टूट गई पांच पुलिसकर्मी और दो अधिकारी घायल हुए जबकि 25 प्रदर्शनकारियों को भी मामूली चोट आई। प्रदर्शनकारी इतने उत्ताजित थे कि इन्हों ने ग्रह मंत्री रजनी पटेल का घर फूंक दिया परंतु प्रशासन केवल लाठीचार्ज और आंसू गैस पर संतुष्ट रहा। इसके विपरीत हिन्दवारा में तो प्रदर्शनकारियों ने किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया। वहां पर पत्थरबाज़ी लिए पत्थर भी नहीं थे किसी पुलिस वाले को खराश तक नहीं आई फिर भी गोली चली और हत्याएं हुईं। प्रशन यह है कि कया एक राष्ट्र में एक विधान और एक निशान की घोषणा करने वालों को यह भेदभाव शोभा देता है? वैसे सत्ता की खातिर महबूबा मुफ्ती के साथ हाथ मिला कर भाजपा ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के तथाकथित बलिदान पर भी धूल डाल दी है।
उप मुख्यमंत्री डॉ। निर्मल सिंह तो खैर पीड़ितों से मिलने क्या जाते कश्मीरियों की शुभचिंतक मानी जाने वाली महबूबा मुफ्ती भी श्रीनगर से 69 किलोमीटर दूर हिन्दवारा जाने के बजाय दिल्ली पहुंच गईं। वहां पर उन्होंने कश्मीरियों के लिए चावल की मांग की, कर्मचारियों के वेतन के लिए वित्तीय सहायता का आश्वासन लिया और रक्षा मंत्री से मिलकर जांच के वादे सहित लौट आईं। पिछले साल मार्च तक इस तरह की 35 जांच जारी थीं उनमें कितनी वृध्दि हुई कौन जाने? विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह की जांच की रिपोर्ट तक पूरी नहीं होती इस के आधार पर किसी आरोपी को सज़ा का सवाल ही पैदा नहीं होता।
कश्मीर में ताजा विरोध प्रदर्शन का कारण एक छात्रा पर सैनिक द्वारा बलात्कार का आरोप था। होना तो यह चाहिए था इस शिकायत के आते ही पुलिस एफआईआर दर्ज करती और जांच शुरू कर देती। इसमें अगर प्रामाणिकता पाई जाती तो आरोपी को गिरफ्तार किया जाता तथा छात्र को मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के सामने अपना पक्ष स्पष्ट करने का अवसर दिया जाता है। जब यह जानकारी मीडिया में आती तो अपने आप अफवाहों का दरवाजा बंद हो जाता लेकिन हुआ यह कि छात्रा और उसके पिता को अनुचित हिरासत में ले लिया गया और लड़की को माँ से भी मिलने की अनुमति नहीं दी गई जिससे चिंताग्रस्त हो कर वे प्रेस में पहुंच गई।
यह तो ऐसा ही है जैसे एक महीने पहले राजस्थान के चित्तौड़ गढ में स्थित मेवाड़ विश्वविद्यालय में चार कश्मीरी विद्यार्थियों को अपने घर में गोमांस बनाकर खाने के आरोप में हिंदू छात्रों ने पीट दिया। विरोधी ऐसे हिंसक मुद्रा में थे कि उन्होंने खूब जमकर नारेबाजी की और परिसर के बाहर एक मांस की दुकान भी जला दी लेकिन उन्हें गिरफ्तार करने के बजाय प्रशासन ने कशमीरी छात्रों को हिरासत में ले लिया। पुलिस अधिकारी को विश्वास था कि यह गोमांस नहीं है फिर भी इसका नमूना जांच के लिए भेज दिया गया। राजस्थान में मांसाहार की अनुमति है लेकिन मेवाड़ विश्वविद्यालय के परिसर में वह निषिद्ध है। इसलिए जाहिर है कैंटीन में सिर्फ सब्जी ही परोसी जाती होगी। अब जो छात्र मांस खाना चाहें उनके लिए घर में खाना बनाने के अलावा कोई उपाय नहीं है। चूंकि राज्य में गौ हत्या पर प्रतिबंध है इसलिए अनिवार्य रूप से वे गोमांस नहीं खा सकते। लेकिन प्रशासन के आशीर्वाद से अगर बदमाशी घर में प्रवेश कर जाए तो उस पर किसका जोर चलता है? प्रशासन अगर कश्मीरी छात्रों के बजाय हमलावरों को हिरासत में लेता तो वे हतोत्साहित होते लेकिन भाजपा वाले चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकते ।
कश्मीर में जब छात्रा और उसके पिता को अवैध हिरासत में ले लिया गया तो अफवाहों को पर लग गए। आरोप सेना पर था इसलिए लोग छावनी के सामने विरोध प्रदर्शन करने के लिए पहुंचे। होना तो यह चाहिए था कि उनकी गलतफहमी दूर की जाती या मजबूरी में लाठीचार्ज करके भगा दिया जाता लेकिन उनकी बात सुनकर उन्हें विश्वास में लेने के बजाए उन पर गोलियां बरसाई गईं। इस घटना में दो लोगों की तो घटनास्थल पर मौत हो गई जिनमें एक उभरता हुआ क्रिकेट खिलाडी नईम बट था और एक महिला भी थी जो दूर खेत में काम कर रही थी बाकी युवाओं का निधन अस्पताल में हुआ। इस अत्याचार को छिपाना के लिए प्रशासन ने बहुत भोंडा तरीका अपनाया।
सेना ने अपनी सफाई में एक वीडियो पेश की जिसमें छात्र का यह बयान था कि उसके साथ सैनिक नहीं बल्कि दो अज्ञात स्थानीय छात्रों ने दुर्व्यवहार किया। वीडियो के विषय में यह दावा किया गया कि यह बयान मीडिया के सामने दिया गया है जबकि इसमें छात्र पुलिस अंकल कहकर संबोधित करती है। इससे जाहिर हो गया कि यह वक्तव्य राज्य पुलिस की हिरासत लिया गया है और ऐसी हिरासत में जो गैर कानूनी थी इसलिए उसका भला क्या महत्व? इस वीडियो सेना के हाथ लग जाना और सोशल मीडिया में फैल जाना अनगिनत संदेह को जन्म देता है। अदालत में जज ने पुलिस की अवैध हिरासत के लिए सरज़निश और तुरंत छात्रा को उसके पिता सहित उपस्थित करने का आदेश दिया। जज के सामने भी छात्रा ने सेना के बजाय दूसरे छात्रों पर बलात्कार की कोशिश का आरोप लगाया लेकिन सवाल यह उठता है कि इस में आपराधिक देरी के कारण जो 5 निर्दोष लोगों की जान गई इसके लिए कौन जिम्मेदार है?  केवल दो पुलिस कांस्टेबल को निलंबित कर देने से मरने वाले जीवित नहीं होंगे।
हिन्दवारा में जब पत्थरबाज़ी का आरोप कमजोर हो गया तो आरोप लगा की भीड़ सैन्य छावनी को आग लगाने जा रही थी हालांकि इसके पक्ष में भी कोई सबूत पेश नहीं किया गया। कश्मीर में हर विरोध को अलगाव वाद से जोड़ दिया जाता है हालांकि सुरक्षाबलों के खिलाफ हिंसा कश्मीर से कहीं अधिक पूर्वोत्तर प्रांतों और नक्सलवाद से प्रभावित आदिवासी क्षेत्रों में घटती हैं। अभी हाल में 30 मार्च को छत्तीसगढ़ गढ में नक्सलियों ने एक सैन्य ट्रक को  बारूदी सुरंग से उड़ा कर सीआरपीएफ के 7 जवानों को मार दिया। 2013 - 14 के भीतर इस एक राज्य में 53 सुरक्षा बल कर्मी माओवादियों के हाथों की मृत्यु हुई, जबकि केवल 40 सशस्त्र नक्सली मारे गए ।
कश्मीरी हिंसा मात्र अलगाव वाद के कारण नहीं है बल्कि मानवाधिकारों के हनन का विरोध पर प्रदर्शन करने वालों पर सरकारी आतंकवाद के कारण भी होती है। इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण 2010  की हिंसा थी जिसमें 100 से अधिक लोगों ने बलिदान दिया था। यह विरोध किसी विदेशी या अलगाववादी नेता के उकसाने पर नहीं हुआ था बलकि उस साल 30 अप्रैल को शहजाद अहमद, शफी लोन और रियाज अहमद नामक सोपोर के तीन युवकों को अच्छी मजदूरी का लालच देकर सेना में हमाल की नौकरी पर रखा गया और फिर उन की हत्या करके आतंकवादी करार दे दिया गया। यह हवाई आरोप नहीं हैं बल्कि 5 साल बाद सेना ने इस गंभीर अपराध में अपने 5 कर्मियों को आजीवन कारावास की सजा सुना दी। सच तो यह है कि उस प्रकार अलगाव वाद के रुझान को बढ़ावा मिलता है।
इस तथ्य को पूर्व सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह ने उक्त कांड के बाद जून 2010  में स्वीकार किया था। उन्होंने घाटी में हिंसा और विरोध प्रदर्शनों के दौरान निहत्थे युवकों पर गोलीबारी की घटनाओं के संदर्भ में कश्मीर समस्या के राजनीतिक समाधान की वकालत की थी। दैनिक 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के साथ एक साक्षात्कार में जनरल वी के सिंह ने कहा था''मेरे विचार में अब विभिन्न राजनीतिक विचारों के लोगों को एक साथ वैठ कर व्यापक बातचीत की अवश्यकता है। उन्हो ने कहा खा भारतीय सेना ने कश्मीर में आंतरिक सुरक्षा की समग्र स्थिति पर काबू तो पा लिया है लेकिन अब मुद्दों को राजनीतिक लिहाज से हल करने की जरूरत है। '' संयोग से जनरल वीके सिंह सेना से सेवानिवृत्त होने के बाद राजनीति में अपने कदम जमा चुके हैं और उप विदेश मंत्री हैं। उनके लिए राजनीतिक हल निकालने के भरपूर अवसर हैं लेकिन शायद देश हित के बजाय निजी लाभ ने उन्हें अपना पिछला बयान भुला दिया है। आजकल तो वह सिवाय विवादास्पद बयान देने के विदेश मंत्रालय का भी कोई काम नहीं करते। यह निश्चित रूप से कुसंगत का प्रभाव है।
 हिन्दवारा त्रासदी के बाद अधिक 3600 सैनिकों को रवाना करवाने वाले श्री सिंह को याद नहीं कि उन्होंने कहा था '' राज्य पुलिस को अब अधिक सक्रिय होने की जरूरत है ताकि कश्मीर में तैनात लगभग पांच लाख सैनिकों की संख्या में कमी की जा सके। '' टीवी साक्षात्कार में जनरल वी के सिंह कह चुके हैं कि सुरक्षा बल कश्मीर की बिगड़ती स्थिति पर काबू पाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। उनका कहना था कश्मीर में शांति और व्यवस्था की स्थिति बेहद तनावपूर्ण है जिसका कारण स्थानीय लोगों के भीतर विश्वास की कमी है।
 जनरल वी के सिंह जिस कश्मीरी समस्या पर चिंता व्यक्त कर रहे थे इसकी गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है मानवाधिकार की संगठनों के अनुसार कश्मीर में पिछले इक्कीस साल से जारी सशस्त्र संघर्ष के परिणामस्वरूप 80 हजार से अधिक लोग मारे गए।  इस बाबत अलगाववादियों का दावा है कि मरने वाले नागरिकों की संख्या एक लाख से अधिक है, जबकि अधिकारी 47 हजार स्वीकार करते हैं।
कश्मीर समस्या को हल करने के लिए कश्मीरियों के मनोविज्ञान को समझना भी अवश्यक है। नवंबर 2014  में सेना की गोली से दो युवक मारे गए थे। सेना ने मृतकों के घर वालों को 10 लाख मुआवजा देने की घोषणा की लेकिन आश्चर्य की बात यह कि मृतक फैसल यूसुफ के पिता यूसुफ बट और मेराज उद्दीन डार के पिता गुलाम मोहम्मद डार ने पैसे लेने से इनकार कर दिया। उनकी मांग थी कि हत्यारों को हमारे हवाले किया जाए या उन की पहचान बताई जाए। दरअसल मांग यह थी कि रुपया देकर बहलाने फुसलाने के बजाए कातिलों को सजा दी जाए। बडगाम की यह घटना राज्य की चुनाव अभियान के दौरान हुई थी।
 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव अभियान में उस त्रासदी के बाद श्ररीनगर का दौरा किया था और चुनावी सभा में वादा किया था कि वह हत्यारों को सजा बहाल करेंगे। पिछले 30 वर्षों में किसी भारतीय प्रधानमंत्री की यह पहली घोषणा थी जिस से बहुत सारी उम्मीदें की गई थीं। इस घोषणा ने यह संदेश दिया था कि वह हत्यारों को सजा दिला कर वे कश्मीरी जनता का दिल जीतना चाहते हैं लेकिन हिन्दवारा के मामले में उनकी खामोशी से पता चलता है कि वह तो केवल चुनाव जीतना चाहते थे। सत्ताधारियों की समझ में जब तक यह बात नहीं आती कि कश्मीरी जनता का विश्वास प्राप्त किए बिना कश्मीर को साथ नहीं रखा जा सकता तब तक कश्मीर घाटी में शांति स्थापित नहीं हो सकता।

Friday 15 April 2016

किसानों की समस्या: सरकार और न्यायालय

सामाजिक समस्याओं का समाधान सरकार का परम कर्तव्य है परंतु वर्तमान सरकार इस संदर्भ में संवेदनशील नहीं है इसलिएन्यायालय को बार बार हस्तक्षेप करना पडता है। वैसे सरकार भी न्यायपालिकाके काम काज में हस्तक्षेपकरतीहै परंतुजबकोईन्यायाधीषसरकारसेप्रभावितनहींहोताहैतोन्यायहोताहै वरनाअदालतसेभीन्यायकेबजायअन्यायहीमिलताहै।राजनीतिसेतोखोकलेनारोंकेसिवाकुछहाथनहींआता।प्रकृतिका नियम यहहैकिअगरशरीरकाएकअंगलकवाग्रस्तहोजाएतोउसकाकामकिसीनकिसीहदतकदूसराभाग करने लगताहैयहीकारणहैकिआजकलविधायिकाका काम भी न्यायपालिकाकोकरनापड़रहाहै।जन कल्याणकीसमस्याओंमें उसकीरुचिऔरहस्तक्षेपदिनप्रति दिनबढ़ताजारहीहै।
अभीहालमें12अप्रैल2016 कोचीफजस्टिसटीएसठाकुरकीअध्यक्षतावालीखंडपीठनेआरबीआईकीओरसे प्रस्तुत किए जाने वाली बड़ेऋणचोरोंकी सूचीके आधार परवित्तमंत्रालयकोनोटिसजारीकरतेहुएपूछाकिऋणवसूलीलिएक्याकदमउठाएजारहेहैं? शीर्षअदालतकीयहटिप्पणीएकमामलेकीसुनवाईकेदौरानकी, जिसमेंअखबारकेअंदरआरटीआईकेहवालेसेप्रकाशितएकसमाचारमेंसरकारपरविशवासकरनेकेबजायन्याय पालिका कोकदमउठानेकाअनुरोधकियागयाथा।
समाचारकेअनुसार29सरकारीबैंकोंने2013 से2015 केबीचलगभग2.18लाखकरोड़रुपयेकेऋणमाफकरदिए।आवेदकनेआरबीआईसेइनकंपनियोंऔरव्यक्तियोंकीसूचीसौंपेजानेका आग्रहकियाथा, जिनपरसार्वजनिकक्षेत्रकेबैंकों में 500करोड़रुपयेयाइससेअधिककाकर्जबकायाहै।आरबीआईकोसुप्रीमकोर्टने फटकारतेहुएकहाकिमामूलीउधारकर्तागरीबकिसानोंपरतोकड़ीकार्रवाईहोतीहै।उनसेऋणप्राप्तकरनेके लिएजमीनको कुर्कीकरकेबेचदियाजाता है जबकिहजारोंकरोड़रुपयेऋणलेनेवालेलोगअपनीकंपनियोंकोदिवालियाबताकरविदेशमें ऐशकरतेहैं। अदालतनेआरबीआईकोसख्तलहजेमेंइनमामलोंपरकड़ीनिगाहरखनेका आदेश दिया।
संविधानकीदृष्टिमेंएककिसानऔरएकपूंजीपतिकेअधिकारसमानहैं।देशमेंबड़ेपूंजीपतियोंकीसंख्याएकसालमेंमहाराष्ट्रकेअंदरआत्महत्याकरनेवालेकिसानोंसेभीकमहै।सरकारपूंजीपतियोंकेवोटसेनहींबल्किकिसानोंके मतसेबनतीहै।देशमेंचूंकिपूंजीवादीलोकतंत्रका चलनहैइसलिएसरकारमुट्ठीभरपूंजीपतियोंके हितों की खातिर किसानोंऔरमजदूरोंकाशोषणकरतीहै।जबकिबहुमतकेप्रतिनिधिकेरूपमें उसेश्रमिकजनताकेअधिकारोंका संरक्षक होना चाहिये।किसानोंकेसंदर्भ में सुप्रीमकोर्टनेएकसालकेअंदरयहदूसरीबारचिंताव्यक्तकीहै।31अक्टूबर2015 को  कोर्टनेकहाथा'' खुदकोकिसानदोस्तकहनेवालीकेंद्रसरकारकिसानोंकीआत्महत्याकेप्रतिगंभीरनहींहै।अदालतनेउससमयसरकारकीलापरवाहीदूरकरनेहेतुसमयपरहलफनामादायरनकरनेकेकारण25हजाररुपयेकाजुर्मानाभीलगायाथा।
उससमयअदालतकेसामनेनेशनलक्राइमरिकॉर्डब्यूरोकेआंकड़ेथेजिसकेअनुसार2014 में6हजारसेअधिककिसानोंनेआत्महत्याकीथीऔरयहसिलसिलाबदस्तूरजारीथा।इसमामलेमें21अगस्त2015 कोसुप्रीमकोर्टनेकेंद्रसरकारको4सप्ताहकेभीतरशपथपत्रदाखिलकरनेकाआदेशदियालेकिनसरकारने2महीनेबादभीहलफनामाप्रस्तुत नहींकियाजिसपरसखतनाराजगीव्यक्तकरते हुए कोर्टनेसरकारसेपूछा कि इसउद्देश्यकेलिएस्थापितएमएसस्वामीनाथनकमेटीरिपोर्टके190बिंदुओंपरसहमतिकेबावजूदइसेलागूकरनेमेंदेरीक्योंहोरहीहै? कोर्टनेअफसोसकेसाथकहागंभीरसंकट हैफिरभीस्वामीनाथनकमेटीकी सिफारिशोंकेकार्यान्वयनकेलियेबनाएगएसरकारीपैनलकीपिछले8वर्षोंमेंकेवल5बैठकें क्यों हुईं।जोसरकारसुप्रीमकोर्टकेनिर्देशपरकागजीकार्रवाईतककरनेमेंदेरीकरतीहोउससेकिसीठोसउपायकी अपेक्षाकरनाव्यर्थहै।
दोमहीनेपहलेफरवरीमेंसुप्रीमकोर्टनेखाद्यसुरक्षाअधिनियमकोलागूनकरनेपरकुछराज्योंकोकड़ीफटकारलगाईथी।अदालतनेकड़ेशब्दोंमेंसरज़निशकरतेहुए पूछा था किसंसदद्वारापारितकानूनकोआखिरगुजरातजैसेराज्यक्योंलागूनहींकरते? न्यायमूर्तिमदनबीलोकरकेनेतृत्ववालीखंड पीठनेकहाथाअखिरसंसदक्याकररहाहै? क्यागुजरातभारतकाअंशनहींहै? कानूनकहताहैकिवहपूरेभारतकेलिएहैऔरगुजरातहैकिइसेलागूनहींकरता है।कलकोईकहसकताहैकिवहआपराधिकअधिनियमऔरभारतीयदंडसंहिताकोलागूनहींकरेगा। इस केअलावासुप्रीमकोर्टने10फरवरीतककेंद्रसरकारकोसूखेसेप्रभावितराज्योंकीविस्तृतजानकारीप्रस्तुतकरनेकाआदेशभी दिया।सुप्रीमकोर्टनेअपनेआदेशमेंइनराज्योंमेंचलाईजानेवालीविभिन्नयोजनाओं, खाद्यसुरक्षाअधिनियमऔरमिडडेमीलकेबारेमेंहलफनामादाखिलकरनेकानिर्देशदियाथा।
देशकेअंदरजबसेनईसरकारकीस्थापनाहुईहैअकालकादौरदौराहै।महाराष्ट्र, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, राजस्थान, आंध्रप्रदेशऔरतेलंगानासहितनौराज्यसूखेकीचपेटमेंहैं।कईराज्योंमेंहालातइतनेखराबहोगएहैंकिलोगपीनेकेपानीकेकारणविस्थापनपर मजबूरहैं।ऐसेमेंयोगेंद्रयादवऔरप्रशांतभूषणकोजनहितयाचिकादायरकरकेमांगकरनापड़ाकिवहसूखेसेप्रभावितराज्योंकीजनताकोखाद्यसुरक्षाकानूनकेतहतअनाजउपलब्धकरानेकीखातिरकेंद्रसरकारको निर्देशजारीकरे। "स्वराजअभियान" नेराहतऔरपुनर्वासकेअन्यउपायोंकेलिएभीअदालतसेअनुरोधकियाकिवहकेंद्रको निर्देशदे।सवालयहउठताहैकियहएनजीओने जनहितकल्याणकी खातिरसीधेसरकार से संपर्क क्यों नहीं किया। उसेअदालतकेदरवाजेपरदस्तकदेनेकीअवश्यक्ताक्योंपड़ी?
 इसप्रशनकासीधाजवाबहैकिइसराष्ट्रीयसमस्याकीओरनतोराज्यसरकारेंध्यानदेतीहैंऔरन केंद्रसरकारउन्हें गंभीरतासे लेतीहै।केंद्रसरकारके अनुसारउसकीजिम्मेदारीकेवलसंसाधनप्रदानकरदेनाऔरनिर्देशजारीकरनेतकसीमितहैइसे कार्यवंतकरनाराज्यसरकारकाकामहै।अदालतइससेसहमतनहींउसकाकहनाहैकिदेशकेनौराज्यसूखेसेप्रभावितहैंइसलिएकेंद्रसरकारअपनीआंखेंबंदनहींरखसकती।इसगंभीरस्थितिसेनिपटनेकेलिएकेंद्रसरकारको आवश्यकउपायकरनेपड़ेंगे।सरकारकीउदासीनताके चलते अदालतनेकेंद्रकोएकदिनकेभीतरहलफनामादाखिलकरयहबतानेकानिर्देशदियाकिमहात्मागांधीराष्ट्रीयग्रामीणरोजगारगारंटीकानून (मनरेगा) सूखेसेप्रभावितराज्योंमेंकैसेलागूकियाजारहाहै? शीर्षअदालतनेसरकारसेयहभीजाननाचाहाकिइनराज्योंमेंवित्तकीआपूर्तिकैसेहोरहीहै?
सुप्रीमकोर्टकीइसफटकारकाभीकेंद्रसरकारपरकोईप्रभाव नहींपडा।दूसरेदिनसुनवाईमेंसरकारी वकीललगभग15मिनटदेरी सेपहुंचा।अतिरिक्तसॉलिसीटरजनरलकेइंतजारमेंखफाहोकरन्यायाधीशोंनेकहाकिइसमहत्वपूर्णमुद्देपरभीपर्याप्तगंभीरतादिखाईनहींदेती।क्यायहआपकीप्राथमिकतानहींहै? क्याहमयूंहीखालीबैठे रहें।क्याआपयहउम्मीदकरतेहैंकिहमकुछनकरें, समयकाटतेहुएहुएकेवलघड़ीकोदेखतेरहें? इसकेबादजोहलफनामादाखिलकियागया उसकेअनुसारकेंद्रसरकारनेवादाकियाकिवहएकसप्ताहकेभीतरमनरेगाकेतहतराज्यसरकारोंको11030करोड़देगी।अदालतकेदबावमेंसरकारकीओरसेइसभारीराशिकीआपूर्तिइसबातकाप्रमाण हैगरीबमजदूरोंकेइसअधिकारपरसरकारसांपबनकरबैठीहुईथी।इसनागदेवताकोवहांहटानेकीखातिरहीस्वराजअभियानवालोंकोअदालतकादरवाजाखटखटानापड़ाथा।अगरवेसीधेसरकारकेबिलमेंजातेतोवहअजगरउन्हेंभीनिगलजाता।
शीर्षअदालतनेजोस्पष्टीकरणमांगाथाइसकेजवाबमेंशपथपत्रकेअंदरदर्जथाकि2014.15 मेंमनरेगाकेतहतकामकरनेवालोंमेंसेकेवल27प्रतिशतकोउनकामेहनतानामिला परंतु73प्रतिशतलोगइसमजबूरीकीहालतमैंभी सहायतासेवंचितरहे।मनरेगापरराजनीतितोखूबहुईपहलेउसेपिछलीसरकारकीविफलताकरारदेकरमजाकउड़ायागयाफिरविफलताकी यादगारकेरूपमेंजारीरखनेकासंकल्पकियागया।मनरेगाकामुख्यउद्देश्य थाकिमजदूरकोउसीशाममजदूरीचुकाईजातीथीलेकिननईसरकारकेआने के बादयहहालतहोगईकिमजदूरको3महीनेतकइंतजारकरनापड़ताथा।ऐसेमेंसवालउठताहैकिकोईमजदूरभलाइसयोजनामेंकामहीक्योंकरे? औरअपनीमजदूरीपानेतकजीवितकैसेरहे? दूसरेसालयानी2015 .16मेंथोड़ासुधारहुआफिरभीकेवल45प्रतिशतकोउनकीमजदूरीसमयपरमिली55प्रतिशतवंचितहीरहे।
 ग्रामीणविकासमंत्रीबिरेन्दरसिंहनेस्पष्ट किया कि महात्मागांधीग्रामीणरोजगारगारंटीअधिनियमकेकार्यान्वयनकेसंबंधमेंराज्योंको12230करोड़रुपएजारीकिएगएहैं।उन्होंनेयहभीबतायाकिइसराशिसेराज्योंकीनिलंबितमजदूरीका बकायानिपटायाजाएगातथानएवित्तवर्षकेदौरानराज्योंकोमददमिलेगी।हलफनामेकेअनुसार7983करोड़रुपयेकीराशिराज्योंकी बकायाहैऔर2723करोड़रुपयेसे सूखेकाशिकारराज्योंमेंमनरेगाकेतहतकामकरनेवालेमजदूरोंकोअधिक50दिनकारोज़गारमिल सकेगा। अदालतनेवादोंपरकटाक्षकरतेहुएकहाकिनईमजदूरी कास्वपनछोड़िएपहलेपुरानाभुगतानसुनिश्चित कीजिए।क्याआपचाहतेहैंअन्यराज्योंकेमजदूरइंतजारकरेंकिजबउनकाराज्यकोसूखाप्रभावितघोषित होगातबवहअतिरिक्तमजदूरीकेलिएआपकेपासआसकेगा।
सार्वजनिकमुद्दोंकेप्रतिसरकारकीउदासीनताकेएकप्रतीकमहाराष्ट्रमेंआईपीएलकाआयोजनहै।पिछलेसप्ताहमहाराष्ट्रमेंआईपीएलकीमेजबानीकेखिलाफएकगैरसरकारीसंगठन'लोकसत्तामूवमेंट' केजनहितयाचिकाकीसुनवाईकेदौरानमुंबईहाईकोर्टनेमहाराष्ट्रक्रिकेटएसोसिएशन (एमसीए) औरबीसीसीआईसेकहाकिराज्यकेसूखाप्रभावितक्षेत्रोंसेइंडियनप्रीमियरलीग (आईपीएल) मैचोंकोस्थानांतरितकरदें।हाईकोर्टनेएमसीएसेकहाकिजलसुरक्षाटूर्नामेंटकेआयोजनसेकहींअधिकमहत्वपूर्णहै, खासकरऐसेसमयमेंजबराज्यपानीकीगंभीरकमीसेत्रस्तहै।आपलोगइसतरहपानीकैसेबर्बादकरसकतेहो।जनतामहत्वपूर्णहैंयाआईपीएलमैच? आपइतनेबेपरवाहकैसेहोसकतेहो? '' नागरिकों के हितों की सुरक्षासरकारकाकामथालेकिनजबवहविफल हो गई तोमजबूरनअदालतकोमैदानमेंआनापड़रहाहै।
इसअवसरपरसवालउठताहैकिअगरसरकारअपना कामनहींकररहीहैतोकर क्या रहीहै? इसबाबतकुछमहीनेपहलेमहाराष्ट्रकीराज्यसरकारपरयहगंभीरआरोपलगाथाकिउसनेविदर्भकेकिसानोंकल्याणके लिएआवंटितराशिकाकुछहिस्साकोरियाईनर्तकोंपरखर्चकरदिया था।इससालमहाराष्ट्रके3200सेअधिककिसानआत्महत्याकरचुकेहैंजोपिछले14सालोंमेंसबसेअधिकसंख्या हैइसकेबावजूदमुख्यमंत्रीकोकिसानोंकीसमस्याओंकोहलकरनेकेबजाए''भारतमाताकीजय'कानारालगारहेहैंऔरजनताकोधोखादेनेके लिएघोषणा कररहेहैंकिअगरमुझेमुख्यमंत्रीपदसेहाथधोनापड़ातबभी मैं बाजनहींआउंगा।देवेंद्रफडनवीसकीइसमूर्खतापूर्णराजनीतिकासबसेअच्छाजवाबकट्टरराष्ट्रवादीपार्टीऔरभाजपाकीसहयोगीशिवसेनाके नेताउद्धवठाकरेनेदिया।
अपनेसमाचार पत्र सामनाकेसंपादकीयमेंउन्होंनेलिखाकिवर्तमानमेंभारतमाताकीजयपरराजनीतिजोरोंपरहै।मुझेखुशीहोतीअगरफडनवीस कहतेकिवहमहाराष्ट्रकेहरघरमेंपानीपहुंचाएंगेयाइस्तीफादेंगे।उद्धवठाकरेनेकहानारालगानेके लिए मनुष्यकाजीवितरहनाअवश्यक है।भारतमाताकेसुपुत्रपानीकी बूंद बूंद कोतरसरहेहैंऔरएकदूसरेकेखूनकेप्यासेहोरहेहैं।उन्होंनेयाददिलायाकियुवाअन्यायकेखिलाफहथियारउठाकरनक्सलवादीबनजातेहैं।क्यामराठवाड़ाकेयुवाओंकोएकघूंटपानीकेलिएआतंकवादीबनजानाहोगा? अगरऐसाहोगयातोभारतमाताकानाराव्यर्थहोजाएगा।यदिभारतकेलोगखुशनहींहोंगेतोभारतमाताकभीभीखुशनहींहोसकती।भारतमाताकीजयदरअसलजनताकीजयहै परंतुजनताकेपासपीनेकेलिएपानीनहींहै।जानवरमररहेहैंऔरखेतकब्रिस्तानबनतेजारहेहैं।उन्होंनेकहाकियहभारतमाताकेसपनोंकामहाराष्ट्रनहींहै।मुख्यमंत्री (मैदानछोड़करभागनेकेबजाय) अपनीकुर्सीपरविराजमानरहिएमगरहरघरमेंपानीपहुंचाइए।क्याउद्धवठाकरेनहींजानतेकिजबसरकारेंअपना कर्तव्य निभानेमेंअसफलहोजातीहैंतोइसतरहकेभ्रामकनारेलगातीहैं।
 इसअवसरपरडेढ़सालपहले10अक्टूबर2014कोदीजानेवालीसर्वोच्चन्यायालयकीटिप्पणीयादआतीहैजबकिउसनेनईनवेलीकेंद्रसरकारकीलापरवाहीसेनाराजहोकरबेहदकटुतापूर्वक स्वर मेंसरकारकी तुलनारावण केभाईकुंभकर्णऔरइरविंगवाशिंगटनकी प्रसिद्धकहानीके काम चोर चरित्ररिप वैन विंकलसेकीथी।पर्यावरणके मामलोंमेंलापरवाहीोंसेनाराजसुप्रीमकोर्टकेजस्टिसदीपकमिश्राऔरआरएफनरीमनपर्यावरणमंत्रालयपरजमकर बरसेथे।न्यायालयनेकहाथा'' केंद्रसरकारकुंभकर्णकीनींदसोईहुईहैऔररिपवैनविंकलकेभांतिकाम कर रहीहै''उत्तराखंडकीअलकनंदाऔरभगीरथीनदियोंमें24पनबिजलीनिर्माणपर आपत्तीजनक शिकायत पर यह विचार व्यक्त किए गए थे।अदालतनेकहाथाकिहमेंबिजलीकीजरूरतहैलेकिनइसकापर्यावरणतत्वोंयानीमछलियोंऔरअन्यजलीयप्राणियोंकेसाथसंतुलनहोनाचाहिए।
अदालतनेउक्तनिर्माणय़ोजना पररोकलगाकरएक13सदस्यीयतकनीकीविशेषज्ञोंकीसमितिकागठनकियाऔरसरकारकोदोमहीनेकेभीतररिपोर्टप्रस्तुतकरनेकोकहालेकिनसरकारपरंपराके अनुसार उक्तरिपोर्टप्रस्तुतकरनेमेंअसफलरही।इससमितिमेंदोसरकारीअधिकारियोंसहितशेष11सदस्योंकीसर्वसम्मतरायथीकियहयोजनाहानिकारकहै।सरकारीसंस्थाएनटीपीसीनक्शाबदलनेकेलिएतैयारथीइसकेबावजूदसरकार3महीनेतकरिपोर्टपरकोईफैसलानहोसकाऔरदैनिक9करोडकेहिसाबसेअंबानीकीएलएंडटीकोबिनाकिसीकामकेभुगतानहोता रहा।इसमौकेपरजजनेस्वीकारकियाथाकिइसतरह के मामलेसरकारकेकार्यक्षेत्रमेंआतेहैंऔरअदालतइसअवांछितहस्तक्षेपसेखुशनहींहै।
इसयादगारनिर्णयकाकुंभकर्णतोकमसेकम6महीनेकेबादजागजाताथालेकिनयहसरकारअपनेदोसालपूराकरनेजारही है परंतु अदालतकेसारे प्रयतेनोंके बावजूदस्वप्न रंजित हैकदापि आगला चुनावपरिणामहीउसेनींदसेजगानेमें सफल हो सकेगा।सुप्रीमकोर्टनेसरकारकीतुलना19वें शतक को जिसआलसीऔरअयोग्यनायकरिपवानविंकल सेकीथी वह इस सरकार का पूर्वज लगता है।रिवैनसपनेऔरकहानियांसुनाने केकारणबच्चोंमेंबहुतलोकप्रियथालेकिनअपनेखेतऔरघरकीदेखरेखपरध्याननहींदेताथाइसलिएपत्नीकेअभिशापकाशिकाररहताथा।

एकदिनइसमुसीबतसेबचनेकेलिएवहदूर के पहाड़ोंपरचलागयाजैसाकिआजकलहमारेराजनीतिज्ञविदेशीदौरोंपरनिकलजातेहैं।वहाँउसनेएकबुजुर्गकोदेखाजोबांसुरी बजारहेथे।वहउस मेंखोगयाऔरसोगया।रिपवैनजबनींदसेजागातोउसकीदाढ़ीकईफुटलंबाहोचुकीथी।वहजबवापसअपनेघरआयातोउसकेयुग के सारेलोगपरलोक सिधारचुकेथे।इसकानवजात बेटाअधेड़होचुकाथाऔरअमेरिकाकेअंदरक्रांतिआचुकीथीकिंगजॉर्ज3 केबजायजॉर्जवाशिंगटनसत्तासीनहोचुकेथे।वैसेतोसुप्रीमकोर्टने'' होनहारभरवांके चिकनेचकनेपात'' देखकरसमकालीनसरकार को पालने ही में डेढ़सालपहलेपहचान लियाथा और उसका संकेत दे दिया थालेकिनअगरवहऐसानहींभीकरतातब भीसमयकेसाथदेशकिजागरूकजनतापर शाक्षातकार हो जाता किवहकौनपाईडपाईपरहैजोअपनीजादुईशहनाईसेअपने आज्ञाकारीचूहोंकोविनाशकेकगारपरलिएचला जारहाहै?

Wednesday 6 April 2016

ना खुदा मिला ही मिला ना विसाले सनम

 प्रधान मंत्री एक और सरकारी पिकनिक से लौट आए। मोदी जी के राजनीतिक ग्राफ को देखने के लिए उनके विदेश यात्राओं पर एक नज़र डाल लेना काफी हे। मई 2014 के अंत में शपथ ग्रहण के पशचात सब से पहले वे विदेशी दौरे की योजना बनाने में लग गए और जून के मध्य में अंतहीन '' विश्वा यात्रा ' ' पर निकल पड़े। दो साल के भीतर वे 31 देश घूम आए जबकि बराक ओबामा ने 9 सालों के अंदर केवल 52 देशों का दौरा किया और रूस के राष्ट्रपति ने तो केवल 50 देशों की सैर की।
इस बाबत आंकड़ों की समीक्षा खासी रोचक है। पहले 6 महीने यानी जून से दसम्बर 2014 में प्रधानमंत्री ने 9 देशों का दौरा किया। इस दौरान पांच राज्यों के चुनाव अभियान उनके पैरों की जंजीर बन गए और वह मन मानी न कर सके। एक साल बाद यानी जून से दिसंबर  2015 के दौरान बिहार के चुनाव अभियान के बावजूद मोदी जी के यात्राओं की संख्या 9 से बढ़कर 18 हो गई यह सौ प्रतिशत वृद्धि असाधारण थी। साल 2015 में मोदी जी ने कुल 28 दौरे किए थे यानी हर तिमाही में औसतन 7 दौरे।
इस प्रदर्शन की बदौलत उन्हें एनआरआई प्रधानमंत्री का सम्मान प्राप्त हुवा और राहुल गांधी को आवेदन करना पड़ा कि अगर कभी विदेशी दौरों से फुर्सत मिले तो अपने देश के किसानों से भी मुलाकात करने का कष्ट करें। यहां तक ​​कि सोशल मीडिया में ऐसा कार्टून भी देखने को मिला कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज मोदी जी को अलविदा करते हुए हाथ जोड़कर कह रही हैं '' भारत माता की यात्रा करने लिए धनियवाद ''। अब आइए इस वर्ष को देखें। पहले तीन महीनों में केवल 3 देशों और अगले 6 महीने में अधिक 3 देशों की परियोजना है मानो इस साल के पहले 9 महीने में केवल 6 यानी पिछले साल के पहले 9 महीनों के 20 की तुलना में तीन गुना से अधिक की गिरावट जो उनकी लोकप्रियता में जबरदस्त कमी का प्रतीक है।
इस तेजी के साथ किसी नेता का अलोकप्रिय हो जाना अपने आप में एक शोध का विषय है। इसका कारण जीजमान की बेजारी या खुद मोदी जी का इस मोह माया से मन उचाट हो जाना या दोनों हो सकता है। जहां तक ​​देश की जनता का संबंध है उनका मन न केवल प्रधानमंत्री से उचाट हो चुका है बल्कि उनके प्रवचन सुन सुन कर और तस्वीरें देखदेख वे कर अत्यंत निराश हो चुका है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जब प्रधानमंत्री मोदी इस महत्वपूर्ण यात्रा पर बेल्जियम से होते हुए बराक ओबामा और अन्य विश्व नेताओं से मुलाकात के लिए अमेरिका रवाना हो रहे थे तो उस समय टेलीविजन चैनलों पर विराट कोहली छाया हुवा था और लोग भारत वेस्ट इंडीज मैच देखने में मगन थे।
गुणवत्ता को मात्रा पर प्राधान्य प्राप्त है इसलिए इन यात्राओं का प्रभाव भी देखें। इस दौरान मोदी जी ने अमरीका का 3 बार और मध्य पूर्व के दो दौरे किए। यह दोनों क्षेत्र एक दूसरे से खासे अलग हैं इसलिए इन का विश्लेषण काफी है। मोदी जी पर चूंकि गुजरात नरसंहार के कारण अमेरिका में प्रवेश पर पाबंदी थी इसलिए उनकी पहली आमरिकी यात्रा को असहज महत्व प्राप्त हो गया। इस अवसर पर मैडिसन स्क्वायर पर होने वाले मनोरंजन कार्यक्रम में मोदी जी को रॉक स्टार के रूप में पेश किया गया। अमेरिका में रहने बसने वाले भारतीयों का जोश और विशेष रूप से गुजरातियों का जुनून देखने लायक था। भगवा कट्टरपंथियों के क्रोध का शिकार होने वालों में से एक राजदीप सरदेसाई भी थे। इसके बाद वाईट हाऊस में मोदी जी की आम सी बैठक को असाधारण बना कर पेश किया गया ।
मोदी जी ने एक साल बाद जब दूसरी बार अमेरिका के लिए निकले तो ज़माना बदल चुका था। मोदी जी का जादू केजरीवाल ने तोड़ दिया था। अच्छे दिनों की आस में नरेंद्र मोदी को चुनने वाली जनता जागृत हो कर मनमोहन सिंह का ज़माना याद कर रही थी। उन के मुख पर राजकपूर की बड़े बजट की फ्लॉप फिल्म मेरा नाम जोकर का गीत '' जाने कहां गए वो दिन '' मचल रहा था। मोदी जी के चुनाव पर खर्च होने वाले निवेश की तुलना अगर उन के प्रदर्शन से की जाए तो '' मेरा नाम मोदी'' भी बड़ी फ्लॉप निकलेगी। इसलिए बहुत संभव है कि इस समय निराश मोदी जी भी '' जाने कहां गए वो लोग '' गुनगुना रहे हैं। एक साल पहले फूल बिछाने वाला गुजरात का पटेल समुदाय अब आग बरसा रहा था। हार्दिक पटेल की रिहाई के लिए प्रदर्शन की तैयारियां चल रही थीं। पटेल समाज  मेडीसन स्कोयर के लिए दिया जाने वाला अपना चंदा वापस मांग रहा था।
 उन जमीनी तथ्यों ने दूसरे अमेरिकी दौरे को थोडा बहुत प्रतिष्ठित बना दिया। सार्वजनिक सभा से बचते हुए उद्योगपतियों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया। मेक इन इंडिया के सपने को साकार करने के लिए गूगल, फेसबुक और बिजली चालित वाहन बनाने वाली अमेरिकी कंपनी टेसला का दौरा किया गया। टेसला चूँकि अमेरिका के बाहर निर्मिती का विचार कर रही थी इसलिए उसे भारत बुलाने की प्रयत्न किया गया। इस चक्कर में वह लोग बंगलोरो भी आए लेकिन चीन को प्राथमिकता दी और मेड इन चाइना कार बनाने का फैसला किया।
फेसबुक वाले इंटरनेट बेस्किस नामक प्रोजेक्ट बाज़ार में लाना चाहते थे लेकिन दुनिया भर में इसका विरोध हो रहा था। फेसबुक के ज़ुकरबरग ने मोदी जी को अपने झांसे में लेकर भारत के बाज़ार में घुसने की कोशिश की और इसमें सफल भी हो गए लेकिन इंटरनेट की संप्रभुता के लिए सक्रिय विभिन्न गैर सरकारी संगठनों ने सरकार पर इस कदर दबाव बनाया के सरकार को उसे स्थगित करने पर मजबूर होना पड़ा। इस तरह फेसबुक बेस्किस का भी देस निकाला और मुंह काला हो गया।
मोदी जी की तीसरी अमेरिकी यात्रा शुद्ध राजनीतिक और कूटनीतिक थी। इसमें मनोरंजन या और वाणिज्यिक निशाना नहीं था। इस बार मोदी जी भाजपा के माथे पर लगा पुराना कलंक मिटाना चाहते थे। मुंबई के बाद पठानकोट हमले का आरोप मसूद अजहर पर है लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि मसूद अज़हर एक युग में भारत के भीतर जेल में था। भारत सरकार ने उसके खिलाफ कोई आरोप पत्र दाख़िल नहीं किया अंततः अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में विदेश मंत्री जसवंत सिंह खुद अपहरण विमान के बदले उन्हें काबुल छोड़ आए। इस बार मोदी जी ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में  मसूद अजहर को आतंकवादी करार देने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। 15 में से 14 सदस्यों को अपना सर्मथक बना लिया लेकिन चीन ने अपेक्षानुसार प्रस्ताव को वीटो कर दिया।
जैश मुहम्मद को 2001 में आतंकवादी घोषित कर दिया गया है लेकिन 2008 में मुंबई हमले के बाद जब मसूद अजहर पर प्रतिबंध का प्रस्ताव किया गया था तो चीन ने इसे वीटो कर दिया था। पिछले साल भारत की ओर अबदुल रहमान लखवी पर कार्रवाई करने के लिये पाकिस्तान को मजबूर करने के लिए जो अभियान चलाया गया उसे भी चीनी वीटो के कारण विफल होना पड़ा, फिर भी प्रधानमंत्री का इस बार आशावादी होना अद्भुत था। उन्हें चाहिए था कि पहले चीन को राजी करते इसके बाद 14 के बजाय अन्य 7 सदस्य भी साथ होते तो काम चल जाता लेकिन हमारे प्रधानमंत्री यदि ऐसी समझदारी दिखाने लगें तो उन बेचारों का क्या होगा जिनका काम मोदी जी के नित नए कार्टून बनाकर लोगों को हँसाना है।
मसूद अजहर पर प्रतिबंध लगाने में होने वाली कूटनीतिक विफलता को छिपाना के लिए पहले तो ढकी छिपी शैली में चीन और पाकिस्तान को आतंकवादियों का संरक्षक बताया गया लेकिन बाद में संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू अपने आप को नाम लेने से भी नहीं रोक सके। इस तरह मसूद अजहर का तो बाल बांका नहीं हुआ मगर चीन और पाकिस्तान के साथ संबंधों में जो सुधार आया था उस पर ओस पड  गई। मुंबई की भाषा में इसे कहते हैं '' खाया पिया कुछ नहीं गिलास फोड़ा बारह आना। ''
मोदी सरकार की विदेश नीति के कारण पाकिस्तान तो दूर नेपाल नामक एकमात्र पूर्व हिंदू राष्ट्र भी चीन की गोद में चला गया है। नेपाल में मोदी जी ने दो दौरे किए परंतु यह पड़ोसी देश वर्तमान में दुश्मन बना हुआ है। चीन और नेपाल के बीच रेलवे ट्रैक बिछाई जा रही है और उम्मीद है कि भविष्य में चीनी वस्तुओं नेपाल से होकर बे रोकटोक भारत के बाजार में फैल जाएंगी और हम लोग मेक इन इंडिया की जय माला जपते रह जाएंगे।
अमेरिका के लिए चीन ही सब से बड़ा खतरा है। चीन के खिलाफ अमेरिकी प्रशासन भारत का उपयोग करना चाहता है। हिंदुस्तान का चीन से संघर्षरत हो जाना अमरीका के हित में है इसलिए वह हमें उकसाता हैं और हम उनके दाम धोखे में आ जाते हैं। इस अवसर पर दो प्रशन ऐसे हैं जिन पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। पहला तो यह कि चीन के साथ बेहतर संबंध भारतीय जनता के पक्ष में उपयोगी है या नहीं? तथा अमेरिका कितना विश्वसनीय सहकारी है? चीन हमारा पड़ोसी देश है और यह कटु सत्य है कि वह आर्थिक और सैन्य दृष्टि से श्रेष्ठ है। पिछले कुछ वर्षों के भीतर भारत चीनी व्यापार में अच्छी खासी प्रगति हुई और भारत के भीतर चीन निवेश का ईरादा भी रखता है जो दोनों देशों की जनता के लाभ में है ऐसे में किसी तीसरे को प्रसन्न करने के लिए खुद अपना नुकसान कर लेना कहां की समझदारी है?
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि अमेरिका ने अपने हर मित्र की पीठ में छुरा घोंपा है। अफगानिस्तान में अलकाईदा को साथ लेकर सोवियत संघ का मुकाबला किया और फिर उसका दुश्मन बन गया। ईरान के विरूध सद्दाम हुसैन का समर्थन किया और बाद में सत्ता छीन कर फांसी के फंदे तक पहुंचा दिया। सीरिया में मुजाहिदीन की पहले हिमायत की और आगे चलकर वहाँ आईएसएस को उतार दिया जो बशार बजाय नुस्रा का सर कुचलने लगी। इस का नवीनतम उदाहरण खुद सऊदी अरब है जहां मोदी जी ने अमेरिका से वापसी में उतरे थे।
मध्य पूर्व में शाह ईरान के बाद अमेरिका ने उसके खिलाफ धर्मयुद्ध छेड़ दिया। इस युद्ध में मुजाहिदीन खल्क से लेकर सद्दाम हुसैन तक सब को मैदान में उतारा गया। परमाणु हथियारों का बहाना बनाकर ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लागू कर दिया गया लेकिन सारे उपाय विफल हो गए। इस दौरान अमेरिका ने यह महसूस किया कि अब ईरान की ओर से पहले जैसा वैचारिक खतरा नहीं है इसलिए ईरान की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया गया। मस्कत के अंदर बातचीत शुरू हुई और लंबी बहस के बाद ईरान ने परमाणु ईंधन पर सीमित प्रतिबंध स्वीकार कर लिया। इस तरह अमेरिकी प्रशासन को आर्थिक प्रतिबंध समाप्त करने का औचित्य मिल गया।
मध्य पूर्व के अंदर सऊदी अरब हर परिस्थिती में अमेरिका का सहयोगी बना रहा बना रहा लेकिन ईरान के साथ संबंधों का सुधारने से पहले उसे पूछा तक नहीं गया। अमेरिका के इस व्यव्हार से अरब व्दीप के सारे सहयोगी अमेरिका से नाराज हो गए और उनका विश्वास अमेरिका के ऊपर से उठ गया। इस संबंध में अरबों के अंदर गंभीर चिंता है। मोदी जी को उससे सीख लेनी चाहिए। पिछले साल के मोदी ने अमीरात का दौरा किया उस से सऊदी यात्रा की तुलना भी आवश्यक है। यमन में समर्थन न मिलने से यह दोनों देश पाकिस्तान से नाराज है। इसी तनाव ने मोदी जी की यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया है।
मोदी जी जब अबूधाबी पहुंचे थे तो हुवाई अड्डे पर उनका स्वागत रक्षा मंत्री मोहम्मद बिन जाइद ने किया था लेकिन रियाद में उनके स्वागत के लिए शहर के राज्यपाल आए। इसके बाद मोदी जी को शेख जाइद मस्जिद दिखलाई गई। रियाद शहर में भी बहुत सारी मस्जिदें हैं लेकिन उन्हें वहाँ नहीं लेजाया गया। अबूधाबी में मोदी जी ने एक श्रम शिविर के भी दर्शन किया लेकिन सऊदी अरब में अधिक संख्या के बावजूद वह भारतीय श्रमिकों से मुलाकात न कर सके। एक पांच सितारा होटल में विशिष्ट लोगों के संबोधन पर उन्हें संतुष्ट होना पड़ा जबकि दुबई के अंदर एक स्टेडियम में भारतीय जनता के जनसमूह को उन्होंने संबोधित किया था।
अमीरात के दौरे पर मोदी जी का सबसे बड़ा नाटक अबूधाबी में बनने वाले एक मंदिर परियोजना पर खुशी व्यक्त करना था। स्वामी नारायण मंदिर को दो साल पहले निर्माण की अनुमति मिल चुकी थी लेकिन मोदी जी और उनके भक्तों ने यह भ्रम फैलाने की कोशिश की यह मंदिर उनके प्रयतनों से बन रहा है। सऊदी अरब के अंदर तो यह कल्पना ही कठिन थी। यह अंतर पिछले साल और इस साल की लोकप्रीयता का प्रतीक है।
अभी हाल में प्रधानमंत्री ने दिल्ली के अंदर विश्व सूफी सम्मेलन के नाम जो नाटक किया उस में वहाबियत का खूब जमकर विरोध हुआ। सल्फ़ियत को आईएसएस का स्रोत करार दिया गया और हरमैन शरीफ़ैन को सऊदी अरब के चंगुल से मुक्त करने का संकल्प दोहराया गया। ऐसी सभा के आयोजन करवाने के बाद भी अगर मोदी जी सऊदी अरब से उम्मीद रखें कि उनके साथ गर्मजोशी का प्रदर्शन हो तो यह सरासर मूर्खता है। वह तो खैर 'अमेरिका के प्रेम और पाकिस्तान द्वेष में यह दौरा रद्द नहीं हुआ वरना संभव है कि वैश्विक सूफी सम्मेलन के बाद भारत और सऊदी अरब के संबंध बिगड़ जाते।
इस बात की संभावना है कि मोदी जी ने सऊदी सरकार को विश्वास दिला दिया हो कि वह जनता को मूर्ख बनाने के लिए एक लोकतांत्रिक तमाशा था लेकिन इस दौरे के कारण मोदी जी को बरेलवी विचारधारा के जिन उलेमा और जनता का जो थोड़ा बहुत समर्थन प्राप्त हो गया था वह उस पर पूरी तरह पानी फिर गया है। एक साथ दो नावों में सवार होने की कोशिश में मोदी जी की लुटिया आए दिन इसी तरह डूबती रहती है क्योंकि त्वरित लाभ को वह सब कुछ समझते हैं। उनके अंदर दूरदर्शिता का अभाव है। दोस्त और दुश्मन में भेद किए बिना विरोधी पक्षों को खुश करने की कोशिश में वह दोनों को नाराज़ कर देते हैं। सउदी अरब हमेशा से भारत का मित्र रहा 2010 में मनमोहन ने वहां की यात्रा भी की परंतु प्रशन है कि प्रधान मंत्री वहां से क्या भेंट लाए? अगले दिन पेट्रोल के भाव में 2 रूपए और डीजल की 1 रूपया वृध्दि की घोषणा पर जो उनको धन्यवाद देना चाहता है शौक से दे।
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