Monday 28 December 2015

पाक यात्रा: राजा व्यापारी, प्रजा भिखारी

'' अब तो यह आना जाना लगा रहे गा'' प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने यह वाक्य किस किस से कहा यह तो कहना मुश्किल है परंतु अंतिम बार जिस को कहा उसे सब जानते हैं। पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक कार्टून चल पड़ा था जिसमें ओबामा को मोदी की ओर इशारा करते हुए पुतिन से यह कहते दिखाया गया था कि इस आदमी से सावधान रहना। यह तुम को अपने देश में आने का आमंत्रण देगा और अगर जवाब में आप ने भी उसे अपने यहाँ बुला लिया तो तुरंत बोरिया बिस्तर बांध कर आधमकेगा। यह जोक यूं ही नहीं बना। मोदी जी पहली बार बिना बुलाए ही जर्मनी पहुँच गए थे मगर एंजेला मार्केल उनसे जान छुड़ाकर विश्व कप देखने के लिए ब्राजील चली गईं।
विदेशी दौरों की यह श्रंखला रजत जयंती मना चुकी है मगर मूल परिस्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं हुआ। मोदी जी का संकट विमोचन मंजन विदेशी यात्रा है। दिल्ली की हार के बाद अपना दुख भुलाने के लिये वह सेशिलेस नामक अज्ञात द्वीप से होकर मॉरीशस पहुंचे और श्रीलंका से होते हुए वापस आ गए। बिहार की हार के बाद ब्रिटेन की ओर निकल पड़े। अब जबकि कीर्ति आजाद ने उनके चहीते अरुण जेटली की गर्दन दबोच ली तो मोदी जी ने रूस का रास्ता लिया। उसके बाद जब दादरी मामले का आरोपपत्र दाखिल हुवा जिसमें भाजपा के स्थानीय नेता का बेटा और भतीजा दोनों नामित हैं तो वह अफगानिस्तान की शरण में जा छिपे और सज्जन जिंदल की कृपा से पाकिस्तान होते हुए लौटे।
पुलिस वालों को जब किसी अपराध का टोह नहीं मिलता तो वह इस प्रश्न पर विचार करने लगते हैं कि इससे किस को खतरा था या उसमें किसका फायदा है? इसी तरह मीडिया के कागजी नेताओं की खबरों के पीछे इन घटनाओं को खोजना जरूरी होता है कि जो ख़बर बन कर उन्हें नुकसान पहुंचा सकते थे। हाल की घटनाओं को अगर इस तर्क की रोशनी में देखा जाए तो इससे साफ जाहिर है कि भाजपा ने कांग्रेस को राज्य सभा में राह पर लाने के लिए नेशनल हेराल्ड का मुद्दा उछाला लेकिन उनसे गलती यह हुई कि इसी दौरान केजरीवाल पर भी हाथ डाल दिया गया, जबकि उसकी अवश्यक्ता नहीं थी। कांग्रेसी तो खैर बयानबाजी से आगे नहीं बढ़े लेकिन केजरीवाल चूंकि राजनीति से पहले एक संर्घष आंदोलन से जुडे हुए थे इसलिए उन्होंने अपनी प्रतिरक्षा के बजाय उल्टा भाजपा पर हल्ला बोलते हुए अरुण जेटली को निशाने पर ले लिया। इससे कांग्रेस का भला हो गया जनता ने यह मान लिया कि भाजपा अपने विरोधियों को बदले की भावना से परेशान कर रही है।
दिल्ली सरकार व्दारा डीडीसीए भ्रष्टाचार की जांच के निर्णय पर अरूण जेटली की चिंता ने सिध्द कर दिया कि दाल में काला है। केजरीवाल पर चूंकि उनका ज़ोर नहीं चलता था इसलिए दस करोड की मानहानि का दावा ठोंक कर डराने धमकाने की कोशिश की गई परंतु केजरीवाल का नज़ला पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी और भाजपा के सांसद कीर्ति आजाद पर उतारा गया। कीर्ति आजाद की मांग नई नहीं है बल्कि पिछले दस वर्षों से वह यह आरोप लगा रहे हैं लेकिन कांग्रेस ने उनकी अनदेखी कर रखी थी।
कीर्ति आजाद के समर्थन में पहले तो शत्रुघ्न सिन्हा आए और फिर सुब्रमण्यम स्वामी भी आ गए। स्वामी जी अपनी आयु के इस अंतिम चरण में किसी सरकारी पद के लिए हाथ पांव मार रहे हैं। पहले तो उन्हें उम्मीद थी कि अगर वित्त मंत्री न सही तो कम से कम राज्य मंत्री का कलमदान हाथ आ जाएगी लेकिन जब भी वह नहीं मिला तो निराश हो गए। इसके बाद जेएनयू के कुलपति का झुनझुना दिखाकर उन्हें बहलाया गया लेकिन फिर ठेंगा दिखा दिया गया। ऐसे में स्वामी को लगा कि अगर जेटली की छुट्टी हो जाए तो उनके वारे न्यारे हो सकते हैं इसलिए वे आजाद के समर्थक बन गए।
अरुण जेटली एक ज़माने में रक्षा मंत्री और वित्त मंत्री दोनों पदों पर थे बाद में उन से रक्षा मंत्रालय का कलमदान लेकर मनोहर परिकर को दे दिया गया और अब विपक्ष की ओर वित्त मंत्रालय से इस्तीफा की भी मांग की जा रही है इसलिए जेटली की परेशानी भी उचित है। भाजपा ने पहले तो शत्रुघ्न सिन्हा की तरह किर्ती आजाद की भी अनदेखी की मगर जेटली ने इसे प्रतिष्ठा का प्रशन बना दिया। कीर्ति आजाद ने जेटली पर बाकायदा प्रत्यारोप करने के बजाय सिर्फ भ्रष्टाचार की बात की थी इसके बावजूद जेटली ने अमित शाह से कह दिया कि अगर आजाद को पार्टी से नहीं निकाला जाता है तो वह वित्त मंत्रालय के अलावा पार्टी के सारे पदों से इस्तीफा दे देंगे। जेटली की इस धमकी ने पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री दोनों को चिंताग्रस्त कर दिया। इस तरह मानो एक पुरोहित ने काले धन के मरघट पर (कीर्ति) आज़ाद को बलि का बकरा बना दिया। भाजपा इससे पहले यही व्यवहार राम जेठमलानी और अरूण शौरी के साथ कर चुकी है। इन दोनों का दोष मात्र इतना था कि उन्होंने अनेक कारणों से प्रधानमंत्री की आलोचना का साहस किया था।
कीर्ति आजाद को स्वतंत्र करके मोदी जी रूस रवाना हो गए परंतु उसी समय उत्तर प्रदेश की एक अदालत में दादरी मामले की चार्जशीट दाखिल हो गई। उसके अंदर 15 लोगों के नाम मौजूद हैं और दो लोगों को शामिल किया जाना शेष है। यह चार्जशीट महमद अखलाक की बेटी शाइस्ता की शिकायत पर आधारित है जो पूरे कांड की चश्मदीद गवाह है । हत्यारों ने शाइस्ता को धमकी दी थी कि वह उनके खिलाफ ज़ुबान खोलने की गलती न करे वरना उसका भी वही हश्र होगा जो उसके पिता और भाई का हुआ है। कायर हत्यारे भूल गए थे कि शाइस्ता मुस्लिम है और मुस्लमान अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरते।
शाइस्ता ने न केवल अपना विस्तृत बयान दर्ज करवाया बल्कि आरोपियों की पहचान भी कर दी। इन में सबसे महत्वपूर्ण आरोपी भाजपा नेता संजय राणा का बेटा विशाल और भतीजा शिवम है जो अपना अपराध स्वीकार कर चुके हैं। विशाल ने पुलिस से कहा कि जब उसे यह सूचना दी गई कि मुहम्मद अखलाक ने गाय वध करके उसका मांस खाया है तो उसका खून खौल गया और उसने मंदिर से घोषणा करवाने के बाद भीड़ एकत्र करके हमला कर दिया।
इस अभियोग के बाद संभावना थी कि फिर एक बार मीडिया में असहिष्णुता चर्चा का विषय बन जाए। क्योंकि रूस के अंदर प्रधानमंत्री का शस्त्र खरीदने के अलावा एक मात्र उपलब्धि अपने ही देश के राष्ट्र गान के दौरान चल पड़ना था। रूसी अधिकारी चूंकि इसे राष्ट्रीय गान का अपमान समझते हैं इसलिए उन्हें मोदी जी को कंधा पकड़कर वापस लाना पड़ा जो अपने आप में एक अपमान था खैर इस वीडियो को राष्ट्रीय मीडिया ने खूब उछाला और यह जनता के मनोरंजन का साधन बना। विदेशी यात्रा पर इस तरह का बिनामूल्य मनोरंजन प्रदान करना मोदी जी की विशेषता है।
इस वीडियो पर सोशयल मीडिया में जो टिप्पणियां हुए वह बहुत रोचक हैं। किसी ने लिखा कि प्रधानमंत्री अपने राष्ट्रीय गान को पहचान नहीं सके। किसी न कहा मोदी जी को आगे बढ़ते देखकर राष्ट्रीय गान बजाने वालों को अपना काम बंद कर देना चाहिए था मानो वह प्रधानमंत्री का नहीं उन का दोष था। या कम से कम इस अधिकारी को असहिष्णुता का प्रदर्शन करने के बजाए इस मामूली सी गलती को सहन कर उसे अनदेखा कर देना चाहिए था। शायद वह अधिकारी नहीं जानता था कि प्रधानमंत्री इससे पहले ना केवल उल्टे ध्वज के साथ फोटो खिंचवा चुके हैं बलकि एक बार तो उस से अपना पसीना भी पोंछ चुके हैं।
मोदी जी की जल्दबाजी देख कर रूसियों को यह गलतफहमी हो गई होगी कि उन्हें अफगानिस्तान जाने की जल्दी है। ऐसे में संभव है उन लोगों ने कवि भरत व्यास की शैली में उन्हें समझाने का प्रयत्न भी किया होगा ''इतनी जल्दी क्या है गोरी साजन के घर जाने की, सखियों के संग बैठ जरा कुछ बातें हैं समझाने की''। अफगानिस्तान के बारे में रूस से अधिक कौन जानता है क्योंकि उन्हें अफगान मुजाहिदीन ने जो घाव दिया है वह प्रलय तक भूल नहीं सकते लेकिन रूसियों को क्या पता कि हमारे प्रधानमंत्री के पास समझने समझाने के लिए समय नहीं है वह तो बस '' कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर इन्सान जैसे कर्म करेगा वैसे फल देगा भगवान' में विश्वास करने वाले भले मानस हैं। खैर आगे चलकर पता चला कि प्रधानमंत्री ऐसे भोले भी नहीं कि जैसा रूसी समझते थे वह अफगानिस्तान में नहीं बल्कि पाकिस्तान में अपने साजन से मिलने के लिए व्याकुल थे।
भारतीय जनता पार्टी की समस्या यह है कि जब वह सत्ता से वंचित होती है उसे पाकिस्तान खलनायक दिखाई देता है और जब वे चुनाव में सफल हो जाती हे तो पाकिस्तान अचानक महानायक बन जाता है। एक जमाना था जब राजनाथ सिंह ने मनमोहन सिंह के यूसुफ रजा गिलानी से हाथ मिलाने पर आपत्ति जताई थी और अब यह स्थिति है कि गले लगाना तो दूर चरण छूने तक की नौबत आगई है। अखबारों में यह खबर छपी कि जब नवाज शरीफ ने अपनी माता का परिचय मोदी जी से कराया तो उन्हों ने चरण छुए। सुयोग से अटल जी के बाद पाकिस्तान की यात्रा करने का सौभाग्य मोदी जी को प्राप्त हुआ।
कांग्रेसी जब पाकिस्तान से संबंधों को सुधारने की बात करते हैं तो भाजप वालों को सीमा पर बहने वाला सैनिकों का लहू पुकारता है। मुंबई विस्फोट, कारगिल,  ताज और संसद पर आतंकी हमला याद आता है लेकिन जब वह खुद पाकिस्तान से पींगें बढ़ाते हैं तो उन्हें अखंड भारत के सपने दिखने लगते हैं। यह लोग टाइगर मेमन, दाऊद इब्राहीम, हाफिज सईद और जकीउर रहमान लखवी आदि की पाकिस्तान में उपस्थिति को सुविधापुर्वक भूल जाते हैं।
भाजपा के लिए पाकिस्तान की शत्रुता एक चुनावी अवश्यक्ता है इसलिए चुनाव से पहले पाकिस्तान को उसकी अपनी भाषा में जवाब देने की वकालत करने वाले मोदी जी के मन में शपथ ग्रहण समारोह में मुख्य अतिथि के रूप से सर्व प्रथम नवाज शरीफ का विचार आता है। इसके बाद जम्मू कश्मीर में चुनाव के समय अचानक सीमा पर हमले तेज हो जाते हैं। हुरियत से पाकिस्तानी दूत की बैठक को प्रतिष्ठा का प्रशन बनाकर वार्ता रद्द कर दी जाती है। बिहार के चुनाव से पहले कश्मीर पर बातचीत नहीं करने की शर्त डाल कर रोडा अटका दिया जाता है और बिहार में भाजपा की हार पर पाकिस्तान में दीवाली मनाए जाने का दुषप्रचार किया जाता है।
इसके बाद मौसम के बदलते ही गिरगिट अपनी त्वचा का रंग बदल देता है। एक खबर तो यह भी है कि नेपाल में सज्जन जिंदल के कमरे में मुलाकात के दौरान मोदी जी ने खुद कहा था कि जम्मू कश्मीर के चुनाव के कारण वे कोई महत्वपूर्ण कदम नहीं उठा सकते। नवाज शरीफ ने भी सेना के दबाव का उल्लेख करके समय मांगा था। खैर अब संभव है अगले साल पंजाब के चुनाव तक यह सुखद वातावरण रहे बाद में क्या होगा यह कहना मुश्किल है?
पाकिस्तान के संदर्भ में मोदी जी न केवल आंतरिक दबाव बल्कि बाहरी लोगों के तुष्टीकरण की खातिर भी बयानबाजी करते रहे हैं जैसे बांग्लादेश के अंदर अवामी लीग को खुश करने के लिए उन्होंने पाकिस्तान की खुले आम आलोचना की। यमन संकट के बाद अमीरात के साथ पाकिस्तान के संबंध तनावपूर्ण हो गए थे इसलिए दुबई के अंदर भी मोदी जी ने पाकिस्तान के खिलाफ खूब जहर उगला और वहां के शासकों को खुश कर दिया। अफगानिस्तान के अंदर भी वह अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान को बुरा भला कहने से नहीं चूके लेकिन इसके कुछ घंटे बाद ही पाकिस्तान में जाकर ''मिले सुर मेरा तुम्हारा '' का राग अलापने लगे।
सवाल यह है कि अगर यही करना था बीच में उस नाटक की जरूरत क्या थी? और अगर यह नाटक है तो सच्चाई क्या है? इस से महत्वपूर्ण प्रशन यह है कि क्या इस तरह की नौटंकी से स्थिर आधार पर पडोसी देशों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित हो सकते हैं? क्या मिलजुल कर सालगिरह का केक काटने से दिल भी आपस में मिल जाते हैं? अगर यह काम इतना सरल है तो मोदी जी कीर्ति आजाद, राम जेठमलानी और अरूण शौरी के साथ जन्मदिन क्यों नहीं मना लेते? वैसे बिहार के चुनाव परिणाम वाले दिन लालकृष्ण आडवाणी के साथ मोदी जी ने यह रणनीति आजमाने का प्रयत्न किया लेकिन पर्याप्त सफलता नहीं मिली। वर्तमान में आडवाणी जी अपने चिर शिष्य अरुण जेटली के बजाय उनके दुश्मन कीर्ति आजाद के साथ खडे हैं।
 पाकिस्तान दौरे के बारे में यह भ्रम पैदा करने की नाकाम कोशिश की गई कि फैसला अचानक हो गया था हालांकि यह बिल्कुल बचकाना बात है। जंग नामक समाचार पत्र ने इस रहस्य का खुलासा किया कि लाहौर हवाई अड्डे को एक दिन पहले ही उड़ानों को सीमित करने के आदेश दे दिए गए थे। इसके अलावा मोदी जी ने नवाज शरीफ और उनके परिवार को जो उपहार दिए उसकी व्यवस्था तुरंत कैसे हो सकती थी? सुयोग से शाम 4 बजकर 20 मिनट पर जब मोदी जी का जाहाज़ लाहौर हवाई अड्डे पर उतरा तो घड़ी के कांटे इस मनगढ़ंत कहानी की चार सौ बीसी पर मुस्कुरा रहे थे।
अब तो यह बिल्ली भी थैले से बाहर आ चुकी है कि अफगानिस्तान से भारतीय इस्पात निर्माताओ की एक संस्था अफगान आयरन एंड स्टील कनस्टोरीम खनिज आयात करती है। इसमें सज्जन जिंदल के 16 और उसके चचेरे भाई के 4 प्रतिशत शेयर हैं। ये लोग वर्तमान में रूस के रास्ते अपना माल लाते हैं लेकिन अगर यही आपूर्ति पाकिस्तान के रास्ते कराची से होने लगे तो समय और पूंजी की भारी बचत हो सकती है। नवाज शरीफ खुद भी इस्पात के बहुत बड़े व्यापारी हैं इसलिए जिंदल से उनके पारिवारिक संबंध हैं। यही कारण है कि जिंदल के कहने पर मोदी जी ने पाकिस्तान जाने का कष्ट किया।
प्रधानमंत्री का खुला कर अडानी और अंबानी जैसे पूंजीपतियों की तरफदारी करना उनके पद की गरिमा को आहत करता है। इस पर जहाँ विपक्ष को आपत्ति है वहीं आम लोग भी चिंतित हैं। लेकिन अपनी देश भक्ति पर गर्व करने वाली भाजपा के लिये यह आपत्तिजनक बात नहीं है। वैसे तो भाजपा के आर्थिक विभाग के प्रमुख नरेंद्र तनेजा इस बात को रद्द करते हैं कि प्रधानमंत्री को अपनी बैठक तय करने के लिए किसी व्यापारी की जरूरत हो। उनका कहना है प्रधानमंत्री सीधे नवाज शरीफ से बात कर सकते हैं और हाल में दोनों प्रमुख पेरिस में मिल भी चुके हैं।
इसी के साथ तनेजा ने यह भी स्वीकार किया कि 2000  में  कारगिल के युग की कूटनीति फिलहाल संभव नहीं है। आजकल 80 प्रतिशत कूटनीतिक निर्णय व्यापारी वर्ग करता है। तनेजा के अनुसार व्यापार और वाणिज्य को केंद्र स्थान प्राप्त हो गया है और मोदी इस विचार के बहुत बड़े समर्थक हैं। यही कारण है कि सज्जन जिंदल दिल्ली में नवाज शरीफ को चाय के लिए आमंत्रित करता है। उनके लड़के को अपने साथ खाने पर लेकर जाता है। नेपाल में अपने कमरे के अंदर दोनों प्रमुखों की बैठक करवाता है और मोदी के आने से पहले लाहौर पहुंच जाता है। देश की दुर्दशा पर ''राजा व्यापारी प्रजा भिकारी'' वाली कहावत लागू होती है।
पिछले चुनाव अभियान के दौरान 'अच्छे दिन' और '' कालाधन '' के अलावा '' न खाऊंगा न खाने दूंगा '' वाली घोषणा कहावत बन गई। ये तीनों वादे मोदी जी ने डेढ़ साल के अंदर पूरे कर दिये। अडानी और अंबानी तो दूर कांग्रेसी जिंदल तक के अच्छे दिन आ गए। काला धन जितना कुछ भी वापस आया जनता के बजाय भक्तों की जेब में चला गया। जहां तक ​​खाने खिलाने का सवाल है मोदी जी ने अपनी पार्टी वालों को भी यह अवसर नहीं दिया बल्कि खुद ही सब कुछ हड़प गए।
इस घोषणा के अनुसार मनुष्य खिलाने से पहले खाता है इस लिये प्रधानमंत्री सारे पूंजीपतियों को जी भर के खाने का अवसर प्रदान कर रहे हैं बल्कि उनके संरक्षक बने हुए हैं। ऑस्ट्रेलिया में उन्होंने अडानी को न केवल ठेका दिलवाया बल्कि तुरंत सरकारी बैंक से कर्ज भी मुहैया करा दिया। अफगानिस्तान से खनिज का आयात करने वालों के लिए पाकिस्तान का मार्ग प्रशस्त कर दिया। तो क्या मोदी जी यह सेवा निःशुल्क कर रहे होंगे? यदि ऐसा है तो उसके प्रथम अधिकारी मतदाता हैं जिन्होंने उन्हें सत्ता की कुर्सी प्रदान की है लेकिन वह बेचारे इसकी कीमत का भुगतान नहीं कर सकते। पूंजीपति निश्चित रूप से उस की भरपूर कीमत चुका सकते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था की यही सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें राजनीतिज्ञ एक से वोट और दूसरे से नोट लेकर स्वयं ऐश करता है।

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