Monday 7 December 2015

6 दिसंबर: मनदिर नहीं बनाएंगे

किसी युग में संघ परिवार की घोषणा थी 'मंदिर वहीं बनाएंगे' लेकिन अब वह बदल कर 'मंदिर नहीं बनाएंगे' हो गई है। इस बदलाव के कई कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि इस बासी कढ़ी में अब उबाल नहीं आता। जनता उस की ओर आकर्षित नहीं होती। इसके माध्यम से जनता का भावनात्मक शोषण करके वोट पाना असंभव हो गया है आदि। जहां तक मंदिर निर्माण का प्रशन है संघ को इसमें रुचि न पहले थी न अब है। संघ परिवार के लोग तो केवल कैमरे के आगे पूजा-पाठ करते हैं और इसके हटते ही राजनीतिक दांव पेंच में व्यस्त हो जाते हैं। राम मंदिर के बीज से सारा तेल निकाला जा चुका है और अब उसके बुरादा पर मक्खियां भिनभिनाती हैं। संभवत: इस पीढ़ी के के बाद (जो इस खेल तमाशे देख चुकी है, नए लोगों के सामने जो इस से परिचित न हों) यह मुद्दा फिर से जीवित कर दिया जाए। पुर्नजन्म में विश्वास रखने वाले खुद तो दोबारा जन्म नहीं ले सकते परंतु उन के व्दारा उत्पन्न किए जाने वाले विवाद जैसे गाय, लव जिहाद, घर वापसी, समान नागरिक संहिता, संविधान अनुच्छेद 370, मुसलमानों की जनसंख्या आदि बार-बार जन्म लेते रहते है।
राम मंदिर आंदोलन के बारे में उक्त दावा केवल भुलावा नहीं है। 6 दिसंबर  1992 के बाद घटने वाली घटनाओं पर नज़र डालने से यह बात अपने आप स्पष्ट हो जाती है। यह आश्चर्य जनक तथ्य है कि राम मंदिर आंदोलन  1984 से उठकर  1992 में शिखर पर पहुंचा। इस पूरी अवधि में भारत के अंदर कांग्रेस या तीसरे मोर्चे की सरकार थी मगर उसके पतन की शुरूआत शीला दान से हुई जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के नाम पर भाजपा सत्तासीन थी। अटल जी के कार्यकाल में 15 मार्च  2002 को विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल और राम जन्मभूमि न्यास के महंत रामचंद्र परमहंस ने अस्थायी राम मंदिर के भीतर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करते हुए प्रतीकात्मक पूजा-पाठ की घोषणा करके हलचल मचा दी।
इन लोगों को आशा थी कि जब नर्सिम्हाराव हमें चोर दरवाजे से मस्जिद को ढाने की अनुमति दे सकते हैं हमारे अपने लोग पूजा करने से कैसे रोक सकते हैं लेकिन ऐसा नहीं होवा। केंद्र सरकार ने विहिप को मजबूर किया कि वह शीला न्यास करने के बजाय दिगंबर अखाड़ा ही में प्रधानमंत्री कार्यालय से आने वाले शत्रुघ्न सिंह को शीला दान कर दें। शीला दान के लिए बाबरी मस्जिद की भूमि से करीब जिस राम कोट मोहल्ले की घोषणा की गई थी वहाँ तक जाने की अनुमति भी केंद्र सरकार ने नहीं दी।
कार सेवकों और राम भक्तों ने इस बदलाव को धोखाधड़ी करार दिया और सिंघल व परमहंस को खूब बुरा भला कहा। विहिप का विरोध करते होए निर्मोही अखाड़े के महंत जगन्नाथ दास ने कहा सीमा पर तनाव के चलते यह विवाद मूर्खतापूर्ण है। महंत जगन्नाथ ने स्पष्ट किया चूँकि राम मंदिर की जमीन पर स्वामित्व का दावा निर्मोही अखाड़े का है इसलिए मंदिर जमीन किसी और को नहीं मिल सकती है। उन्होंने यह गंभीर आरोप भी लगाया कि अशोक सिंघल ने उन्हें स्वामित्व स्थानांतरित करने के बदले दस करोड रुपये रिश्वत की पेशकश की जिसे उन्हों ने यह कहकर नकार दिया कि मैं अपनी श्रध्दा और आस्था नहीं बेच सकते। राम चबूतरा के दावेदार महंत रघुवीर दास ने आरोप लगाया कि उनका अखाड़ा1885   से न्यायिक लड़ाई लड़ रहा है। विहिप वाले जनता को बेवकूफ बना रहे हैं। जब उन्हें जमीन ही नहीं मिलेगी तो वह मंदिर कैसे बनाएंगे? अयोध्या के चौथे बड़े अखाड़े हनुमान गढ़ी के प्रमुख महंत ज्ञानदास भी विहिप के विरोधी थे। वे सभी अदालत के फैसले का प्रतिक्षा करने के पक्षधर थे। उनका यह आरोप भी था कि संघ परिवार ने रामचंद्र परमहंस को अपने कब्जे में ले लिया है और उनका शोषण कर रहा।
परमहंस मूर्ति रखने से लेकर बाबरी मस्जिद की शहादत तक तो बहुत सक्रिय थे मगर 2002 में शीलादान के तमाशे ने उनका दिल तोड़ दिया। सुप्रीम कोर्ट ने जून की तारीख दे रखी थी इसलिए अशोक सिंघल ने जनता को मूर्ख बनाने के लिए 100 दिनों का पूर्ण आहुती यज्ञ शुरू कर दिया मगर रामचंद्र परमहंस इस से दूर हो गए। इन की भाषा बदल गई और वे आपसी सहमति से विवाद निपटाने का राग अलापने लगे। वे बोले यदि राम मंदिर समस्या को स्थानीय लोगों पर छोड़ दिया जाता तो वह बड़ी आसानी से निपट जाता मगर राजनीतिज्ञों ने अपने हित की खातिर इसे बिगाड़ दिया। अपने अनुयायों से उन्होंने यहां तक कहा कि मेरा मंदिर एक भी मुसलमान के रक्तपात पर नहीं बनेगा। 6 जुलाई  2003 को दिल का दौरा पड़ने से रामचंद्र परमहंस का निधन हो गया। विहिप के उपाध्यक्ष गिरिराज किशोर ने उस समय आरोप लगाया था कि एक महीने पहले लालकृष्ण आडवाणी से मुलाकात के बाद परमहंस गंभीर दबाव में थे और उनकी म्रत्यु के दोषी आडवाणी जी हैं। इस तरह मानो उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री आडवाणी ने अनजाने में सही राम जन्मभूमि आंदोलन के एक पैर तोड़ दिया।
 2004 में अंततः बीजेपी सरकार रामल्ला को नर्सिम्हा राव व्दारा स्थापित अस्थायी मंदिर में छोड़कर विदा हो गई। इस आंदोलन में दूसरी दरार 2009 के चुनाव से पहले पड़ी जब आडवाणी जी फिर एक बार प्रधानमंत्री की दौड़ में कूह पडे। उस समय उनकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा बाबरी मस्जिद की शहादत का कलंक था। रथयात्रा के महारथी आडवाणी ने अपना दामन उजला करने के लिए पहले तो यह सफाई दी कि उनका इरादा बाबरी मस्जिद के विध्वंस नहीं था। इसके बाद बोले वे बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर वे दुखी तो हुए मगर उन्हें इसका खेद नहीं है। आगे चल कर जब लगा कि यह पर्याप्त नहीं है तो घोषणा कर दी कि 6 दिसंबर उनके जीवन का सबसे बडा शोकासीन दिवस था। यह घोषणा उन्होंने न केवल इस्लामाबाद में जाकर की बल्कि अपनी जीवनी '' मेरा देश मेरा जीवन '' मैं भी उसे दर्ज किया। आडवाणी जी अपनी सारी कलाबाजी के बावजूद न घर के रहे न घाट के।
अशोक सिंघल ने आडवाणी जी के व्यवहार की तीव्र आलोचना की और कहा आडवाणी जी इस तरह का सुरक्षात्मक रवैया छोड़ दें। 6 दिसमबर हिन्दु इतिहास का शौर्य दिवस था। तपन घोष नामक राष्ट्र संव्यक संघ के एक सच्चे कार्यकर्ता ने 6 दिसंबर  2009 को अशोक सिंघल के नाम एक खुला पत्र लिखा। यह पत्र अंदर की कहानी बताता है। इस पत्र में राम मंदिर निर्माण की बाहरी बाधाओं का उल्लेख करने के बाद कहा गया था कि राम मंदिर आंदोलन के नेताओं से एक महान चूक होई। उन्हों ने राम मंदिर आंदोलन के माध्यम से प्राप्त संसाधन को राजनीति की भेंट चढा दिया और बहुमत में आने से पूर्व सत्तासीन हो गए। इसके पीछे एक मात्र प्रेरणा सत्ता का लालच था।
निराशा व अराजकता का शिकार होकर नेताओं ने अपनी विचार धारा से सहझौता कर लिया और इस अपराध में न केवल भाजपा बल्कि पूरा संघ परिवार साझी है। उन्होंने अपने वाहनों पर लाल बत्ती लगवाने के लिए राम मंदिर को लाल बत्ती दिखा दिया । जब तक पहले मंदिर और फिर सत्ता थी आंदोलन सफल था लेकिन मंदिर पर सत्ता की प्राथमिकता विफलता का कारण बन गई। सिद्धांतों को पर सत्ता और विलासिता की लालसा ने लुटिया डुबा दी। तपन का मानना था संघ ने जल्दबाजी से काम लिया। उसे बहुमत की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी मगर आज अगर वह जीवित है तो खुली आँखों से देख सकता है कि भाजपा का अपने बलबूते पर सत्ता में आना भी राम मंदिर के किसी काम नहीं आ सका।
20014  के चुनाव से पहले आडवाणी जी का टिकट कट गया। मोदी जी ने राम मंदिर का सहारा लेने के बजाए 'सब के साथ और सबका विकास' की घोषणा करके अपने माथे पर लगा गुजरात का कलंक छिपाया और सत्ता में आ गए इस तरह मानो राम मंदिर निर्माण करने की जिम्मेदारी से वे अपने आप मुक्त हो गए। चुनाव से पूर्व अक्टूबर 2013 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने यह कहकर सारी दुनिया को चौंका दिया कि सत्ता में आने के पश्चात वह मंदिर से पहले शौचालय बनवाएंगे। उनका कहना था कि हर साल लाखों रुपये मंदिर बनाने में झोंक दिये जाते है लेकिन इससे बड़ी शर्मिंदगी की और कोई बात नहीं हो सकती कि इक्कीसवें शतक में भी हमारी मां और बहनों को शौचालय उपलब्ध नहीं है और उन्हें खुले आसमान तले बैठना पड़ता है ।चुनाव में सफलता के बाद  2014 अक्टूबर में उन्होंने स्वच्छ भारत आंदोलन शुरु भी किया परंतु दुर्भाग्यवश वह मीडिया तक सीमित रहा। मोदी जी को यह सुविधा प्राप्त है कि अब विहिप वाले उन पर आरोप नहीं लगा सकते कि उन्होंने राम मंदिर के नाम पर सत्ता प्राप्ति के बाद उसे भुला दिया।
अशोक सिंघल को भी इस बात का तीव्र अहसास हो गया था कि मोदी सरकार उन पर निर्भर नहीं है यही वजह है कि पिछले साल 21 दिसंबर को अशोक सिंघल ने एक पुस्तक विमोचन समारोह में दावा किया कि उनके पचास वर्षीय संघर्ष के परिणामस्वरूप 800 साल की गुलामी के बाद हिंदू अपना गंवाया हुआ साम्राज्य स्थापित करने में सफल हो गए हैं। इसी बयान को महम्मद सलीम ने संसद में राजनाथ से जोड़कर हंगामा मचा दिया। अशोक सिंघल ने बारहवीं सदी के पृथ्वीराज चव्हाण की ओर संकेत करते हुए कहा कि 800 साल बाद देश में हिंदुत्व की रक्षक सरकार अस्तित्व में आई है और हिंदुत्व के मूल्यों को स्थापित किया जा रहा है।
सिंघल ने हिंदू समाज द्वारा विश्व कल्याण की बात की और कहा, हम लोगों का धर्म नहीं बल्कि ह्रदय परिवर्तन चाहते हैं। यह बात अशोक सिंघल ने घर वापसी आंदोलन के दौरान कही थी। विश्व युद्ध से ले कर इस्लामी आतंकवाद तक अनगिनत समस्याओं पर सिंघल ने अपने भाषण में चर्चा की लेकिन राम मंदिर पर चुप्पि साधे रहे। जो व्यक्ति राम मंदिर के बिना एक निवाला न निगलते हो इस का इस समस्या को गटक जाना इस वास्तविकता का खुला प्रमाण था कि रामचंद्र परमहंस की मौत के ग्यारह साल बाद सिंघल भी निराशा हो चुके हैं और यह शुभकार्य भी भाजपा के शासन काल में हुआ।
15  सतम्बर 2015 को अशोक सिंघल 89 वें जन्मदिन के अवसर पर उनकी जीवनी बनाम 'हिंदुत्व के पुरोधा' का विमोचन किया गया। इस अवसर पर सरसंघचालक मोहन भागवत, गृहमंत्री राजनाथ सिंह के अलावा स्वामी सत्यामित्रानन्द, साध्वी प्रज्ञा, साध्वी निरंजन ज्योति, राघवुलू रेड्डी, केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा और हर्षवर्धन मौजूद थे। इन लोगों ने अशोक सिंघल की को खूब श्रद्धांजलि तो दी मगर सिवाय विहिप के अध्यक्ष विष्णु हरि डालमिया किसी ने झूठे मुंह राम मंदिर के निर्माण की बात नहीं की।
डालमिया ने कहा जन्म दिन के अवसर पर उपहार देने की प्राचीन परंपरा है। मैं प्रधानमंत्री से कहूंगा कि वे अशोक सिंघल जी को उनके 90 वें जन्मदिन पर राम मंदिर का उपहार दें। राजनाथ सिंह यहां मौजूद हैं और वे इस संदेश को मोदी तक पहुंचा सकते हैं। बेचारे डालमिया नहीं जानते थे कि आगामी जन्मदिन का उपहार लेने के लिए सिंघल खुद मौजूद नहीं होंगे। इस सभा के बाद पर्यवेक्षकों ने लिखा था कि अशोक सिंघल खुद मोदी सरकार के राम मंदिर को ठंडे बस्ते में डाल देने से बहुत चिंतित हैं। इस समारोह के बाद अशोक सिंघल कैलाश वासी हो गए और राम जन्मभूमि आंदोलन की दूसरी टांग भी टूट गई बल्कि अशोक सिंह के साथ राम मंदिर आंदोलन ने दम तोड़ दिया।
इस साल 30 सितंबर को विश्व हिंदू परिषद के एक प्रेस सम्मेलन में सुब्रमण्यम स्वामी भी आए और केंद्र सरकार से आग्रह किया कि वे बाबरी मस्जिद की भूमि का अधिग्रहण कर के मुसलमानों को इसके बदले सरयू नदी के दूसरी ओर मस्जिद निर्माण के लिए वैकल्पिक जगह प्रदान करे। इस अवसर पर स्वामी ने बताया कि वह प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मंदिर निर्माण के लिए कई सुझाव दे चुके हैं परंतु अभी तक जवाब नहीं आया। सवाल यह उठता है कि क्या टविटर के राजा मोदी की इस संवेदनशील प्रशन पर चुप्पी आश्चर्यजनक नहीं है? स्वामी ने यह भी कहा वह अमित शाह से इस समस्या पर राष्ट्रीय परिषद की विशेष बैठक का अनुरोध भी कर चुके हैं लेकिन वहाँ भी सन्नाटा छाया हुआ है। पत्रकारों ने जब पूछा इस बाबत भाजपा सरकार का रुख क्या है तो अशोक सिंघल ने अस्पष्ट जवाब देते हुए कहा राम मंदिर के निर्माण पर किसी को आपत्ति नहीं है। अशोक सिंघल ने यह भी बताया था कि जनवरी की 10 और 11 तारीख को दिल्ली में राम मंदिर मुद्दा के वैधानिक समाधान पर चर्चा करने के लिए एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जाएगा। अशोक सिंघल नहीं जानते थे कि यमराज उनको यह अवसर नहीं देगा।
अयोध्या में फैसल आबाद के रहने वाले मुहम्मद मुस्तफा अपनी पुरानी यादें ताजा करते हुए कहते हैं कि 6 दिसंबर  1992 के दिन अशोक सिंघल सैनिक वेशभूषा में कारसेवकों को आदेश दे रहे थे। आप सोच रहे होंगे कि प्रलय की उस घड़ी में मोहम्मद मुस्तफा वहां क्या कर रहा था? दरअसल उस समय मोहम्मद मुस्तफा का नाम शिव प्रसाद था। वह बजरंग दल का कप्तान था। उसने चार हजार लोगों को बाबरी मस्जिद के विध्वंस का प्रशिक्षण दिया था। वह उन दुर्भाग्यशाली लोगों में से एक था जो बाबरी मस्जिद के गुंबद पर चढ़ गए थे। मस्जिद की शहादत के बाद उसके अंदर प्रवेश करने वालों और वापस आकर फैसलाबाद में राम राम - जय श्रीराम का नारा लगाने वालों में वह सब से आगे था।
शिव प्रसाद के भाग्य ने पलटा खाया। उसके अंदर अपराध बोध ने जन्म लिया। वह महसूस करने लगा की उस से कोई बड़ा पाप संपन्न हुवा है वह बेचैन रहने लगा। उसी स्थिति में1997  के अंदर वह नौकरी की खातिर शारजाह पहुंच गया। यहां भी काम में उसका मन नहीं लगता था।  1998 में शुक्रवार के दिन वह एक मस्जिद के बाहर से गुजर रहा था कि उसके कानों में उर्दू भाषा के धर्मोपदेश के शब्द पड़े। वह रुक कर सुनने लगा। अल्लाह की हिदायत (प्रेरणा) उसके दिल में उतरने लगी। इसके बाद हर शुक्रवार को वह मस्जिद के पास बैठ कर प्रवचन सुनना उसकी आहत बन गई। यह सिलसिला लगभग एक साल चला। बाबरी मस्जिद की शहादत के 7 साल बाद 6 दिसंबर  1999 को शिव प्रसाद ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। यह संसार एक परीक्षा स्थल है यहां कई लोगों को एक ही प्रशनपत्र मिलता है लेकिन वे विपरित परिणाम भोगते हैं। अशोक सिंघल और शिव प्रसाद का उदाहरण हमारे सामने है।
मोहम्मद मुस्तफा (शिव प्रसाद) के कट्टर संघी पिता तिर्काल प्रसाद और अन्य परिजनों को जब पता चला कि उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया है तो वह उस के विरोधी हो गए। विहिप और बजरंग दल के लोग उसे जान से मारने की धमकी देने लगे लेकिन मोहम्मद मुस्तफा का कहना है कि अब उस्लाम से फिरने का सवाल ही पैदा नहीं होता अब तो प्राण इसी पर अर्पण करूंगा। उस की प्रार्थना है कि उसके परिवारगण और अन्य संघी साथी भी इस्लाम की छत्रछाया में आ जाएं। अशोक सिंघल के पक्ष में तो मोहम्मद मुस्तफा की प्रार्थना कुबूल नहीं हुई लेकिन कौन जाने किसके के लिये स्वीकार हो जाए? अशोक सिंघल और शिव प्रसाद (मोहम्मद मुस्तफा) के जीवन में उन सभी के लिए संदेश है जिन के सिने में मर्म ह्रदय है।⁠⁠[12/6/2015, 4:

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