Wednesday 14 October 2015

नेपाल: हिंदू राष्ट्र में लाल ध्वज को भगवा प्रणाम

पूर्व प्रधानमंत्री सुशील कोइराला को 249 के मुकाबले 338 वोट से हराकर वामपंथी नेता खडगा प्रसाद ओली नेपाल के 38 वें प्रधानमंत्री बन गए। होना तो यह चाहिए था कि जिस प्रकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राज्यअभिषेक में सुशील कोइराला सब से पहले दिल्ली के निमंत्रण पर दौड़े चले आए थे उस तरह मोदी जी भी काठमांडू जाते लेकिन ऐसा नहीं हो सका। वह तो खैरा ओली को मोदी की तरह स्वप्रर्दशन का शौक नहीं था वरना अगर वह किसी को अपने शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित करते तो वह नरेंद्र मोदी नहीं बल्कि शी जीन पिंग होते। बकौल आडवाणी जी जिस तरह मोदी जी के सत्ता में आने का श्रेय कांग्रेस की अक्षमता को जाता है ठीक उसी प्रकार ओली जी के प्रधानमंत्री बन जाने में मोदी जी का बहुत बड़ा योगदान है। मोदी जी दादागिरी ने नेपाली जनता और नेताओं को न केवल भारत बल्कि भारत समर्थित कोइराला का भी दुश्मन बना दिया। एक साल पहले खडगा को मंद बुध्दि कहने वाले माओवादी भी उनके समर्थक बन गए और वे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो गए।
प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी जी को विदेशी दौरों की ऐसी जल्दी थी कि तुरंत घोषणा हो गई कि वह पहली यात्रा जापान की करेंगे लेकिन जापान जाना अहमदाबाद जाने जैसा तो था नहीं, इसलिए मोदी जी भूटान के लिए निकल पड़े। भूटान जाने में प्रधानमंत्री तो दर किनार एक आम नागरिक के लिए भी कोई दिक्कत नहीं है जहां तक आवश्यकता और महत्व का प्रशन है इन बातों पर विचार करने की प्रधानमंत्री को फुर्सत नहीं है। भूटान से वापस आने के बाद भी मोदी जी का चंचल मन शांत नहीं हुआ तो संभव है किसी ने सलाह दी हो महाराज नेपाल के पशुपति नाथ मंदिर में जाकर शांति प्राप्ति का कष्ट करें। वहां पूजा-पाठ के बाद मोदी जी ने ट्वीट किया मैं अपने आप को बहुत सौभाग्यशाली महसूस कर रहा हूं।
पशुपति नाथ मंदिर में मोदी जी ने खुश हो कर लगभग 4 करोड का चंदन और 9 लाख का घी दान कर दिया। सवाल यह उठता है कि क्या वह धन सरकारी खजाने से खर्च किया गया था? यदि हाँ तो क्या मोदी जी जनता के टैक्स का रुपया किसी निजी संस्था पर खर्च करने का अधिकार रखते हैं? यदि उनका अपना निजी धन था तो अचानक प्रधानमंत्री बनते ही वह उनके हाथ कहां से आ गया। उनका दो महीने का वैध वेतन तो चार करोड नहीं है। चुनावी हलफनामे में जमा पूंजी सिर्फ एक करोड 65 लाख थी। यदि यह राशि किसी दोस्त ने उन्हें उपहार में दी थी तो वह काला धन था या सफेद यानी उस पर आय कर का भुगतान किया गया था या नहीं? जो व्यक्ति लगातार सीना ठोंक कर यह घोषणा करता है कि अगर मेरे ऊपर कोई भ्रष्टाचार का आरोप हो तो बताओ? उसे चाहिए कि वह इन सवालों के जवाब दे या खोखली दावेदारी बंद कर दे।
पशुपति नाथ मंदिर से मोदी जी भगवा वसत्र धारण करके जब बाहर निकले तो उनके गले में रुद्रक्ष की माला और माथे पर चंदन का तिलक ऐसे सजा था मानो महर्षि जी दिल्ली के बजाय सीधे कैलाश परबत कूच करने वाले हैं। बाद में पता चला कि ऐसे दृश्य हर विदेशी दौरे पर देखने को मिलेंगे कहीं वह कोट पहन कर ढोल बजा रहे होंगे तो कहीं हैट पहनकर बीन बजाएंगे जैसा देस होगा वैसा वेषभूषा होगा। वह तो खैर अरब अमीरात के दौरे मस्जिद में जाते हुए उन्होंने अरबी कंदूरा नहीं पहन लिया वरना गजब हो जाता। मंदिर से वापस होते हुए उन्होंने यात्री पुस्तक में लिखा काशी (जो उनके निर्वाचन क्षेत्र में स्थित है) और पशुपति समान हैं। वह नेपाल और भारत को एकजुट रखते हैं, मैं प्रार्थना करता हूँ कि उनका आशीर्वाद दोनों देशों की जनता पर सदा रहे। '' इस एक साल के समय में मोदी जी ने पशुपति नाथ का आशीर्वाद भी व्यर्थ कर दिया और देखते देखते हिन्द-नेपाल एकता काफूर हो गई।
 अमेरिका के अलावा नेपाल ही वह देश है जहां का दौरा मोदी जी ने दो बार यात्रा की। मोदी जी के अमेरिका आने जाने का लाभ तो पाकिस्तान को यह हुआ कि अमेरिका ने उसके साथ परमाणु समझौते की पेशकश कर दी और जो सफलता पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बरसों की मेहनत से प्राप्त की थी नवाज शरीफ के लिए उसका मार्ग खुल गया। नेपाल भारत के बजाय चीन के करीब हो गया। यही वह कूटनीतिक उपलब्धि हैं जिनके कारण मोदी जी की तुलना पंडित नेहरू से की जाती है जिन्हों ने निष्पक्ष आंदोलन का नेतृत्व ऐसे किया था कि मुट्ठी भर शक्तियों को छोड सारी दुनिया के देश एक झंडे तले जमा हो गए थे।
प्रधानमंत्री का दूसरा नेपाल दौरा भी कम रोचक नहीं था। वैसे तो उन्हें सार्क सम्मेलन में भाग लेने के लिए जाना था लेकिन अचानक विश्व हिंदू परिषद को याद आ गया कि सीता माई का मायका जनकपुरी नेपाल में है अब यह कैसे हो सकता है कि राम भक्त मोदी नेपाल जाएं और राजा जनक के दरबार र्में उपस्थित न हों। विहिप ने आओ देखा न ताओ मोदी जी जनसभा की घोषणा कर दी और अयोध्या से बरात समान यात्रा लेकर जनकपुरी की ओर निकल पड़े। मोदी जी के आम सभा की तैयारियां जोर-शोर से शुरू हो गईं। इस दौरान संघ परिवार ने सोचा नेपाल तो हिंदू राष्ट्र है वहां राम भक्तों को सीता के मायके जाने से कौन रोक सकता है? वे बेचारे भूल गए थे कि कलयुग में नेपाल अखंड भारत का हिस्सा नहीं बल्कि एक स्वतंत्र देश है और वहां की सरकार को विश्वास में लेना अनिवार्य है। जनकपुरी की तराई में रहने वाले मधीशिय निवासियों को वैसे भी पहाड़ी नेपाली शक की नज़र से देखते हैं ऐसे में मोदी जी को वहाँ आम सभा की अनुमति देने की गलती वे कैसे कर सकते थे। खैर सुरक्षा कारणों का बहाना बना कर सभा को रद्द करके मामला रफा-दफा किया गया।
 मोदी जी को नेपालियों के तेवर से हवा के रुख का अनुमान लगाना चाहिए था लेकिन किसी भी खुद पसंद इंसान के लिए यह बहुत मुश्किल काम है। वह काठमांडू के अंदर नेपाली सरकार को संविधान बनाने के विषय में बिन मांगे सुझाव देने लगे, विलंब के दुषपरिणाम कि चेतावनी दे डाली, बहुमत के बजाय आम सहमति की हिदायत भी कर दी। इस तरह की सार्वजनिक गलती तो वायसराय लॉर्ड करज़न ने भी भारतीय संविधान के समय नहीं कि थी बल्कि पंडित नेहरू के पास सिर्फ अपना एक प्रतिनिधि भेजा था। मोदी जी अगर जानते कि पंडित नेहरू ने उस प्रतिनिधि को क्या कह कर लौटाया था तो वह उसकी मूर्खता दोहराने का साहस नहीं करते।
 मोदी जी से संविधान के पूर्ण होने पर विदेश सचिव एस जय शंकर को अपना विशेष दूत बनाकर नेपाल भेजने की जो चूक हुई इस ने भारत नेपाल संबंधों को असुधार्य नुकसान पहुंचाया। जय शंकर के सुझावों को खारिज करते हुए माओवादी पुष्पा कुमार दाहल ने स्पष्ट कहा कि नेपाली किसी भी ओर से कोई ऐसा दबाव बर्दाश्त नहीं करेंगे जिससे संप्रभुता पर अक्षर आता हो। हम भारत के जी हज़ूरिये नहीं हैं। प्रधानमंत्री खड़ग प्रसाद ओली ने कहा1950 का युग बीत गया जब भारतीय राजदूत नेपाली संसद में बैठा करता या भारत सरकार राजा के खिलाफ राजनीतिक दलों का समर्थन करती और क्षेत्रिय नेताओं को वश में रखती थी।
जय शंकर का कठमंडो में जाकर ऐसे मधीशिय नेताओं से मिलना (जो चुनाव में विफल हो चुके हैं) पाकिस्तानी विदेश सचिव के कश्मीरी अलगाववादी नेताओं नेताओं से मुलाकात जैसा था जिस के कारण भारत पाक बातचीत में रुकावट पडी। जिस कूटनीति की अनुमति हम पाकिस्तान को इसलिए नहीं देते कि वह हमारी संप्रभुता के खिलाफ है वही हरकत काठमांडू में जाकर करने को हम ठीक समझते हैं। जयशंकर के सुझावों को नेपाल के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप क्यों समझा गया यह जानने के लिए उन पर एक नजर डालना पर्याप्त है।
इन सुझावों में संविधान के विभिन्न प्रावधान का उल्लेख कर के इस प्रकार आदेश दिए गए हैं। दफा 63 (3) मधीशियों लिए जनसंख्या के अनुपात से क्षेत्र और दफा 21 में राज्य ढांचे में उनकी आनुपातिक प्रतिनिधित्व। दफा 86 में परिवर्तन करके मधीशियों की आबादी के लिहाज से सदन में प्रतिनिधित्व। क्या भारत में राष्ट्रीय स्तर पर राज्य स्तर पर अल्पसंख्यकों को उनकी आबादी के आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्राप्त है। क्या जिस भाजपा ने गुजरात के मुसलमानों को 12 साल से विधायक का टिकट तक नहीं दिया और जिसके र्निवाचित 282 सांसदों में एक मुसलमान या ईसाई नहीं है इसका नेपाल में जाकर आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग हास्यास्पद नहीं है? दफा 154 में क्षेत्र संयुक्त चुनाव में संशोधन की अवधि को 20 साल से घटाकर 10 साल करने का सुझाव दिया गया । इस तरह के प्रशासनिक निर्णय किसी पड़ोसी देश को दूर भारत के अंदर एक प्रांतीय सरकार को भी नहीं दिए जाते।
मोदी सरकार के लिए संविधान में दो बातें सबसे अधिक परेशानी की थीं पहले तो नेपाल को हिंदू राष्ट्र के बजाय धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया जाना लेकिन इसका विरोध करना इसलिए संभव नहीं था कि खुद भारत अब तक एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र है। दूसरा मुद्दा संविधान की धारा 283 है जिसके तहत किसी ऐसे व्यक्ति को जिस के माता पिता नेपाली न हों राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या मुख्य न्यायाधीश के पद के योग्य न होना। जय शंकर ने सुझाव दिया कि विवाह के आधार पर नागरिकता अपनाने वाले को उन पदों का हकदार होना चाहिए। सवाल यह उठता है कि आखिर भारत को इससे क्या गरज कि नेपाल में शिखर पद का अधिकार किस को प्राप्त हो और कौन उस से वंचित हो? सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री का पद संभालने के विरोध भाजपा ने जिस आधार पर किया था क्या वो उसे भूल चुकी है?
नेपाल का संविधान उस सुधार वादी प्रर्कण का शिखर स्वरुप है जिसकी शुरुआत  1854 में जंग बहादुर राणा ने संविधान जारी कर के की थी। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पदमा शमशेर राणा ने  1945 में संविधान बनाने की पुर्नआरंभ किया और  1948 में जो संविधान बना इसमें राजा तो मौजूद था लेकिन एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री का प्रावधान भी था। समय समय पर विभिन्न राजा अपनी सत्ता की खातिर संविधान का हनन करते रहे और राजनीतिक दल उसके संर्घष में पीडित होते रहे।  1979 में राजा बीरेंद्र ने संवैधानिक सुधारों के लिए 11 सदस्यीय आयोग का गठन किया और  1990 में आंदोलन के कारण नया संविधान स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया जिससे उसके अपने अधिकार सीमित हो गए। 
1996  में साम्यवादी विद्रोह ने जोर पकड़ा दस साल बाद2006  में एक शांति समझौता संपन्न हुआ। इसके बावजूद संविधान बनाने का काम विभिन्न कारणों से टलता रहा और अंततः 601 सदस्यों वाले संविधान सभा ने स्पष्ट बहुमत के साथ उसे पारित कर दिया। जिन मधीशियों की खातिर भारत सरकार परेशान है उनके 69 प्रतिनिधियों ने संविधान बनाने की प्रक्रिया का बहिष्कार किया जबकि हिंदू राष्ट्र के पक्ष में केवल 21 लोगों ने मत दिया।
नए संविधान के अनुसार संविधान सभा को संसद में बदल दिया गया। इस संविधान में आर्थिक समानता, सामाजिक न्याय और समता पर आधारित समाज बनाने का वचन दिया गया है। संविधान की प्रस्तावना में बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था, नागरिक स्वतंत्रता, मूलभूत मानव अधिकार, मतदान का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका और संवैधानिक समाजवाद के आधार पर एक आनंद पूर्ण समाज के निर्माण की बात कही गई है। राष्ट्रपति राज्य प्रमुख हैं मगर संसद का वर्चस्व है। 20 सितंबर को संविधान के पारित होते ही जनता खुशी से जश्न मनाने के लिए सड़कों पर उतर आई। सारी दुनिया से बधाई संदेश प्राप्त होने लगे लेकिन भारत सरकार ने न नाराजगी का प्रर्दशन करते हुए अपने राजदूत को दिल्ली में तलब किया।
भारत की नाराजगी के जवाब में नेपाली प्रधानमंत्री ने कहा कि सैद्धांतिक रूप में यह बात सही है कि संविधान राष्ट्रीय आम सहमति के आधार पर बनाया जाए लेकिन यदि यह संभव न हो तो भारी बहुमत से पारित संविधान का स्वागत होना चाहिए तथा संविधान को बहुमत  या आम सहमति से बनाना नेपाल का आंतरिक मामला है, भारत को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। भारत सरकार की इस प्रतिक्रिया ने नेपाली की जनता को न केवल निराश किया बल्कि उनके अंदर गुस्से और नाराजगी की एक लहर दौड़ा दी।
नेपाल चारों ओर से घिरा हुवा देश है और इसका बाहरी दुनिया से जमीनी संपर्क भारत पर निर्भर है। उस का व्यापार लगभग 65 प्रतिशत भारत से है। नेपाली जनता की सभी महत्वपूर्ण आवश्यकताओं जैसे पेट्रोल, खाद्य तेल, आटा सब्जियों और परिधान भारत से जाता हैं। संविधान के निर्माण के अंतिम चरण में तराई के अंदर सुरक्षाबलों के खिलाफ हिंसा भड़क उठी। शुरुआत में पुलिस वाले मारे गए फिर बाद में उनकी ओर से भी शक्ति का दुरुपयोग शुरू हो गया। संविधान की स्वीकृति के बाद मधीशियों के विरोध का बहाना बनाकर भारत की ओर से आघोषित आर्थिक बंदी लगा दी गई।
इस के कारण भारत का सर्मथन करने वाली नेपाली कांग्रेस भी दिल्ली सरकार की आक्रामक रोष का विरोध करने पर मजबूर हो गई। नेपाल के नेताओं ने आर्थिक नाकाबंदी की निंदा करते हुए विश्व समुदाय से अपनी भूमिका निभाने का अनुरोध किया है। तीन अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए नेपाल के उप प्रधानमंत्री '' प्रकाश मान सिंह ने कहा है कि पिछले दो सप्ताह से नेपाल की आर्थिक नाकेबंदी के कारण खाने पीने का सामान और पेट्रोल डीजल आदि की भारी कमी से पौने तीन करोड़ नेपाली जनता बडे संकट से जूझ रहे हैं और आने वाले दिनों में बड़ी मानव त्रासदी जन्म ले सकती है।
मोदी जी को इस हस्तक्षेप के परिणाम का एहसास होता तो वह अपनी यात्रा के अवसर पर यह न कहते कि मैं ने तो कुछ महीनों के अंदर नेपाल का दौरा कर लिया जबकि मनमोहन सिंह दस सालों में यह न कर सके। इस दौरान नेपाल में संविधान बनाने की प्रक्रिया जारी थी इसलिए भारत सरकार दर पर्दा जो कुछ कर सकती थी करती रही लेकिन खुले हस्तक्षेप से बचा गया ताकि उसका नकारात्मक प्रतिक्रिया न हो लेकिन जल्द बाज तबीयत के मालिक मोदी जी इस नजाकत को नहीं भांप सके और अपनी अनुभवहीनता के कारण वर्षों की मेहनत पर पानी फेर दिया। एक नेपाली राजनयिक के अनुसार '' नेपाल में भारत विरोधी भावनाएं इतनी तीव्र हो गई हैं कि उन्हें सामान्य होने में शायद कई दशक आवश्यक हूँ। क्योंकि बकौल नेपाल के एक बौद्धिक अमित ढाकल जय शंकर के पास अपने स्वामी का कोई संदेश नहीं केवल धमकी थी। जिस धमकी की आशंका डखाल ने जताई थी वह सच्चाई बन गई है।
अपने राज अभिषेक के बाद पशुपति नाथ मंदिर से निकलते हुए मोदी जी के मन में यह विचार जरूर आया होगा कि काश पशुपति नाथ की तरह काशी विश्वनाथ भी हिंदू राष्ट्र में होता। उन्होंने मन ही मन में दृढ़ संकल्प भी किया होगा कि एक दिन वह भारत को भी नेपाल की तरह हिंदू राष्ट्र बना देंगे लेकिन वे नहीं जानते थे कि बहुत जल्द नेपाल भी हिंदू राष्ट्र नहीं रहेगा बल्कि धर्मनिरपेक्ष राज्य में बदल जाएगा। उस समय मोदी जी इस क्रांति का मूल्यांकन नहीं कर सके इसी लिए आज भारत नेपाल संबंध इस कगार पर पहुंच गए। मोदी जी शायद नहीं जानते कि देश या विदेश में अपने लोगों के सामने भाषणभाजी और सफल कूटनीति में बहुत बडा अंतर है।⁠⁠[10/14/2

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