Thursday 1 October 2015

7/11 : एक और विस्फोटक निर्णय

मुंबई लोकल ट्रेन विस्फोट पर जब मकोका अदालत ने कुछ दिन पहले अपना फैसला सुरक्षित कर दिया तो जमीयतुल उलमाए हिंद (महाराष्ट्र) के मौलाना अब्दुल खालिक फ़ारक़लीत का एक लेख नज़रों से गुज़रा जिसमें उन्होंने आशा व्यक्त की थी कि ' 'मैं पहले दिन से आरोपियों की पैरवी कर रहा हूँ। मुझे पता है कि अब्दुल वहीद की तरह सभी आरोपी निर्दोष हैं ..... मुझे उम्मीद थी कि जिस तरह अक्षरधाम मंदिर पर हमले से मुफ्ती अब्दुल कयूम और अन्य आरोपियों की बाइज़्ज़त रिहाई हुई वैसे ही लोकल ट्रेन बम विस्फोट के मामले में आरोपी भी बाइज़्ज़त बरी किए जाएंगे। '' इसके अलावा एक गंभीर आशंका भी व्यक्त की गई थी ''ईस बात की प्रबल संभावना है कि आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई जाएगी।'' अदालत ने 12 में से 5 को फांसी की सजा सुनाकर मौलाना की पुष्टि कर दी। फ़ारक़लीत साहब चूंकि इस मामले से जुड़े हुए थे इसलिए उन की शंका सही थी लेकिन मेरे जैसे लोग जो इस मामले को लगभग भूले हुए थे उनकी अपेक्षा भी अलग नहीं थीं। 
हमारी न्याय प्रणाली बहुत सरल और आसान है यहां अक्सर निर्णय इस आधार पर किया जाता है कि आरोपी कौन है और उस पर किसे मारने का आरोप है? यानी मरने वाला कौन है और मारने का आरोप किस पर है? इस मामले में कुल चार संभावनाएं हो सकती हैं:
• हिंदू पर हिंदू को मारने का आरोप हो
• हिन्दू पर गैर हिन्दू को मारने का आरोप हो
• गैर हिंदू पर हिंदू को मारने का आरोप हो
• गैर हिंदू पर गैर हिन्दू को मारने का आरोप हो
सौभाग्य से अभी तक भारत में अंतिम स्थिति पैदा नहीं हुई इसलिए पहली तीन संभावनाओं के उदाहरण देखें। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं उन्हें एक सिख ने मार दिया। आरोपी को अदालत ने फांसी की सजा सुनाई। इंदिरा जी के सुपुत्र राजीव गांधी को (जो प्रधानमंत्री रह चुके थे) एक हिंदू ने मार दिया। अदालत उसे फांसी की सजा नहीं दे सकी। राजीव गांधी की विधवा पर ऐसा दबाव बनाया गया कि उन्होंने सख्त सजा की मांग करने के बजाय माफी की घोषणा करदी। एक अंतर यह है कि इंदिरा गांधी की हत्या का बदला आम सिखों से लिया गया और राजीव जी ने उसे यह कहकर सही ठहराया कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है लेकिन जब राजीव गांधी खुद गिरे तो जमीन क्यों नहीं हिली? जमीन हिलती नहीं है हिलाई जाती है। राजीव गांधी की मौत का बदला कौन लेता और किस से लेता? कोई समुदाय अपने आप से कैसे बदला ले सकता है? 
  गांधीजी के हत्यारे गोडसे को सजा तो हुई थी मगर नरसंहार फिर भी नहीं हुवा। नाथू राम गोडसे के साथ नरमी का मामला नहीं किया जा सका इसके कई कारण हैं। एक तो आजादी के तुरंत बाद हिंदू महासभा और संघ परिवार बहुत कमजोर था। कांग्रेस की सत्ता को ना इन फासीवादी दलों से कोई खतरा था और न हिंदू जनमत के खिलाफ जाने की आशंका थी। गोडसे को गाडगिल ने तुरंत पहचान लिया था इसलिए वह रंगे हाथों पकड़ा गया। गोडसे अगर पहचाना न जाता और उसका कोई साथी या गांधीजी का रक्षक उसे मार देता तो संभवत: गांधी जी की हत्या का आरोप पाकिस्तान पर लगाकर भारत के मुसलमानों पर उसका बुखार उतारा जा सकता था लेकिन आगे चलकर राष्ट्रीय राजनीति की स्थिति बदल गई। हिन्दू जनता की संतुष्टी की खातिर खुद कांग्रेस भी अपनी सत्ता बचाने के लिये हिन्दू अपराधियों को सज़ा देने से कतराने लगी। 
फासीवादी शक्तियां अपने प्राचीन नरभक्षी रास्ते पर अब भी अग्रसर हैं। कुछ साल पहले महाराष्ट्र में अंधविश्वास के खिलाफ संर्घष करने वाले डॉक्टर नरेंद्र दाभोलकर की हत्या हो गई। जाहिर है वह हत्या किसी हिंदू ने कि होगी। उस समय महाराष्ट्र में और केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी लेकिन हत्यारों के प्रति नरमी का व्यवहार किया गया और कोई गिरफ्तारी नहीं हुई। इसके बाद भाजपा सत्ता में आ गई तो गोविंद पानसरे और उनकी पत्नी की घर में घुस कर हत्या कर दी गई। पानसरे के हत्यारे भी बहुत दिनों तक आज़ाद घूमते रहे। उनसे प्रेरित होकर कर्नाटक के हिंदुत्व वादियों ने प्रोफेसर मालेशप्पा कालबरगी की हत्या कर दी। हिन्दू सेना ने इस हत्या को उचित ठहराते हुए घोषणा कर दी कि उनके बाद के एस भगवान का नंबर है। कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है फिर भी इस अपमानजनक धमकी को नजरअंदाज कर दिया गया।
 महाराष्ट्र में शिवसेना और कांग्रेस दोनों पानसरे के हत्यारों की गिरफ्तारी का दबाव बढ़ाते रहे यहां तक कि पुलिस ने सनातन संस्था के सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया। वैसे संभावना कम ही है कि पुलिस उनके खिलाफ ठोस सबूत प्रदान करके उन्हें सजा दिलवाए परंतु जब सनातन संस्था पर प्रतिबंध की मांग की गई तो पहले शिवसेना ने उसका जमकर विरोध किया और फिर अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री एकनाथ खड़से भी सनातन के समर्थन में कूद पड़े। उन्होंने कह दिया कि यदि बिना सबूत के सनातन पर पाबंदी लगानी हो तो क्यों न एम आई एम पर भी प्रतिबंध लगा दिया जाए? यह कितना मूर्खपूर्ण तर्क है। सनातन संस्था के कई लोग बम बनाते हुए मारे गए हैं। इसके सदस्यों को पानसरे हत्या कांड में पुलिस ने गिरफ्तार किया है इसके बावजूद मंत्री जी को कोई सबूत दिखाई नहीं देता क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है? 
यह तो व्यक्तिगत हत्या की घटनाएं हैं सार्वजनिक नरसंहार का भी एक मामला अभी हाल में मध्य प्रदेश के अंदर सामने आया। झबवा के पेटलवाद में लगभग 100 लोग एक विस्फोट में मारे गए। इस बारे में पहले तो यह खबर आई कि गैस सिलेंडर के फटने से यह दुर्घटना घटी। एक गैस सिलेंडर अगर 100 लोगों की जान ले सकता है तो आतंकवादियों को खतरनाक बम का उपयोग करने की जरूरत ही क्या है? बाद में पता चला चूंकि यह विस्फोटक पदार्थ एक श्वेताम्बर जैन राजेंद्र कसवा के गोदाम में रखे हुए थे जो भाजप के व्यापारियों की स्थानीय संगठन का अध्यक्ष भी है तो पता चला कि वह अफवाह अपराधी से ध्यान हटाने और अपराध पर पर्दा डालने की खातिर घड़ी गई थी। 
सारी दुनिया को मांस, मछली और अंडे तक खाने से रोकने वाले जैन समाज के एक व्यक्ति ने 100 से अधिक निर्दोष लोगों की जान ले ली लेकिन किसी अहिंसा वादी जैन मुनी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। नरभक्षी शाकाहार का यह एक दुर्लभ नमूना। कसवा पहले तो फ़रार हो गया और बाद में गिरफ्तार भी हो गया। बहुत जल्द उसकी जमानत हो जाएगी और मामला रफा-दफा कर दिया जाएगा क्योंकि मरने वाले सामान्य हिंदू जरूर थे परंतु मारने वाला उँचे कुल का समृद्ध भगवा हिंदू है।
भगवा हिंदू पर अगर सामान्य हिन्दुओं की हत्या का आरोप हो तो नजरअंदाज कर दिया जाता है लेकिन अगर वह मुसलमानों की हत्या करें तो पुरस्कार पाते हैं। इसका सबूत नरोदा पाटिया में बच्चों और महिलाओं तक का नरसंहार कराने वाली माया कुंदनानी को समाज कल्याण मंत्री बना दिया जाना था। अमित शाह पक्षाध्यक्ष और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बना दिए गए। इशरत जहां और सोहराबुद्दीन को फर्जी मुठभेड़ में मारने वाले पुलिस अधिकारी न केवल बरी हो गए बल्कि उन्नति के साथ पद बहाल कर दिये गए। खुद अपराध कबूल करने वाले असीमानंद ने जब जमानत याचिका की तो केंद्रीय जांच एजेंसी ने उसका विरोध नहीं किया क्योंकि ग्रहराज्य मंत्री हरि भाई चौधरी के अनुसार राष्ट्रीय जांच एजेंसी को स्वामी असीमानंद की जमानत के विरोध करने का कोई आधार नहीं मिला। अगर सरकार ही विरोध नहीं करे तो अदालत को क्या पड़ी है कि इनकार करे? सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का? 
मालेगांव विस्फोट की मुख्य आरोपी कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभूतपूर्व रुख अपनाते हुए निचली अदालत को निर्देश दिया कि उन की जमानत याचिका पर एक महीने के भीतर विचार किया जाए और मकोका के प्रावधानों पर विचार ना किया जाए। जस्टिस फकीर मोहम्मद इब्राहिम और जस्टिस शिव कीर्ति सिंह के अनुसार पहली नज़र में यह साबित नहीं हो पा रहा है कि उन पर मकोका क्यों लगाया गया है। यदि इन धमाकों में मरने वाले मुसलमान नहीं होते और उस का आरोप हिंदुओं पर न होता तो क्या न्याय मूर्ति महोदय यह रुख अपनाने का साहस करते?
यह परिवर्तन अपने आप नहीं होता जानबूझ कर लाया जाता है जिसका प्रमाण प्रसिद्ध वकील रोहिणी सालियान का वह साक्षात्कार है जिसमें उन्होंने कहा कि केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद मालेगांव बम विस्फोट मामले में एनआईए का दबाव है कि वह इस मामले में "नर्म" रवैया अपनाएं। वकील रोहिणी के अनुसार "राजग सरकार बनने के बाद एनआईए के एक अधिकारी ने उन्हें फोन किया। जब उन्हों ने फोन पर बात करने से इनकार कर दिया तो अधिकारी ने उनसे मिलकर बताया कि उन्हें आरोपियों के प्रति नरम रुख अपनाना चाहिए। सालियान ने बताया कि 12 जून को मामले की सुनवाई से ठीक पहले उसी अधिकारी ने उनसे कहा कि "मुख्या" चाहते हैं कि उनकी जगह पर कोई और वकील अदालत में पैरवी करे। रोहिणी सालियान जे जे शूट आउट और मुलुंड विस्फोट जैसे कई मुकदमे लड चुकी हैं।
इसके विपरीत अगर मृतक हिंदू हों और आरोप किसी मुसलमान के सर मंढ दिया जाए तो अदालत और राजनीति का रुख एकदम बदल जाता है उसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण अफजल गुरु और याकूब मेमन हैं। अफजल गुरु ने सरकार के आवाहन पर अलगाववाद त्याग दिया था। वह स्थायी रूप से खुफिया एजेंसियों की निगरानी में था बल्कि उनसे सहयोग भी करता था। उसके परिवार के अनुसार खुफिया एजेंसी के कहने पर वह दिल्ली गया था जहां उसे विस्फोट के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और बिना किसी ठोस सबूत के राष्ट्रीय भावनाओं की भेंट चढ़ा दिया गया। याकूब मेमन अपने भाई टाइगर मेमन की मर्जी के खिलाफ वापस आते हुए अपने साथ ऐसे पाकिस्तान विरोधी सबूत लेता आया जो खुफिया एजेंसियां भी नहीं ला पाई थीं इसके बावजूद उसे फांसी दी गई। चूंकि ये दोनों मुसलमान थे और उन पर हिंदुओं को मारने का आरोप था इसलिए सारे साक्ष्य व नियम बेकार हो गए। राजनीतिज्ञ, अदालत और पत्रकार सब उनके खिलाफ हो गए।
मुसलमानों की बिगड़ती स्थिति का कारण मुसलमानों का अल्पसंख्यक होना बताया जाता है या उन के बिखराव को दोषी ठहराया जाता है लेकिन भारत में अंग्रेजों के आने से पहले भी मुसलमान बहुमत में नहीं थे और उनमें एकता भी नहीं था बल्कि वे एक दूसरे युध्द भी किया करते थे परंतु उनकी ऐसी दुर्दशा कभी नहीं हुई थी। अंग्रेज जाते जाते यहां एक ऐसी राज्य प्रणाली छोड़ गए जिसमें बहुमत का तुष्टिकर्ण शासकों की मजबूरी है। 
इस तुष्टिकर्ण के कारण वे अल्पसंख्यकों पर अत्याचार होता है और बहुमत की नाराजगी से बचने के लिए बहुल समुदाय के कट्टरपंथियों की अनदेखी की जाती है वरना क्या कारण है कि बाबरी मस्जिद को हिन्दू आतंकवादियों ने सब के सामने शहीद कर दिया और इस की प्रतिक्रिया में सूरत व अन्य स्थानों पर मुसलमानों के खिलाफ सांप्रदायिक दंगे भी भडके। इस गंभीर अपराध के किसी अपराधी को सजा नहीं हुई। इसके विपरीत अपनी राजनीति चमकाने की खातिर गोधरा में राम भक्तों को जलाने का आरोप मुसलमानों के सिर मंढ कर गुजरात में नरसंहार किया गया। दोनों ही मामलों में कि जब चाकू खरबूजे पर गिरा तब भी और जब ख़रबोजा चाकू पर गिरा तब भी घाटे में खरबूजा ही रहा चाकू का कुछ नहीं बिगड़ा। 
 इस परिस्थिति में सही रवैया तो वही है जो अब्दुल खालिक फ़ारक़लीत साहब ने अपनाया है। बिना निराशा और शोर-शराबे के वे पिछले 9 सालों से उन पीड़ितों के कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं और जो कुछ उनसे बन पड़ता है निस्वार्थ अल्लाह के लिये कर रहे हैं। हो सकता है इन प्रयासों के परिणामस्वरूप मामला किसी ऐसी अदालत में चला जाए जिस में जस्टिस तहलीयानी जैसा न्यायाधीश मौजूद हो जो सरकार के बजाय अंतरात्मा की आवाज पर 26/11 के आरोपी फहीम अंसारी और सबाहुदीन की तरह इन आरोपियों को भी रिहा करदे।
मौलाना ने अपने पत्र में आगे लिखा है कि '' आरोपियों ने हिम्मत नहीं हारी है। हाई कोर्ट में वह फिर से अपना बचाव करेंगे। उन्हें बस हमारे समर्थन और सहयोग की जरूरत है। हमें उन लोगों को अकेला महसूस होने नहीं देना है। अल्लाह पर उन्हें पूर्ण विशवास है।''  यही विश्वास और भरोसा मुसलमान को किसी हाल में निराश नहीं होने देता और वह धैर्य और दृढ़ता के साथ अपने प्रभु को प्रसन्न करता चला जाता है। वह जानता है कि इस दुनिया से जाना महत्वहीन है कि हर किसी को एक दिन जाना ही है लेकिन सफलता तो उन्हीं को प्राप्त होती है जो अपने प्रभु के कृपा पात्र बन कर उसके समक्ष हाजिर होते हैं।

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