Monday 28 December 2015

पाक यात्रा: राजा व्यापारी, प्रजा भिखारी

'' अब तो यह आना जाना लगा रहे गा'' प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने यह वाक्य किस किस से कहा यह तो कहना मुश्किल है परंतु अंतिम बार जिस को कहा उसे सब जानते हैं। पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक कार्टून चल पड़ा था जिसमें ओबामा को मोदी की ओर इशारा करते हुए पुतिन से यह कहते दिखाया गया था कि इस आदमी से सावधान रहना। यह तुम को अपने देश में आने का आमंत्रण देगा और अगर जवाब में आप ने भी उसे अपने यहाँ बुला लिया तो तुरंत बोरिया बिस्तर बांध कर आधमकेगा। यह जोक यूं ही नहीं बना। मोदी जी पहली बार बिना बुलाए ही जर्मनी पहुँच गए थे मगर एंजेला मार्केल उनसे जान छुड़ाकर विश्व कप देखने के लिए ब्राजील चली गईं।
विदेशी दौरों की यह श्रंखला रजत जयंती मना चुकी है मगर मूल परिस्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं हुआ। मोदी जी का संकट विमोचन मंजन विदेशी यात्रा है। दिल्ली की हार के बाद अपना दुख भुलाने के लिये वह सेशिलेस नामक अज्ञात द्वीप से होकर मॉरीशस पहुंचे और श्रीलंका से होते हुए वापस आ गए। बिहार की हार के बाद ब्रिटेन की ओर निकल पड़े। अब जबकि कीर्ति आजाद ने उनके चहीते अरुण जेटली की गर्दन दबोच ली तो मोदी जी ने रूस का रास्ता लिया। उसके बाद जब दादरी मामले का आरोपपत्र दाखिल हुवा जिसमें भाजपा के स्थानीय नेता का बेटा और भतीजा दोनों नामित हैं तो वह अफगानिस्तान की शरण में जा छिपे और सज्जन जिंदल की कृपा से पाकिस्तान होते हुए लौटे।
पुलिस वालों को जब किसी अपराध का टोह नहीं मिलता तो वह इस प्रश्न पर विचार करने लगते हैं कि इससे किस को खतरा था या उसमें किसका फायदा है? इसी तरह मीडिया के कागजी नेताओं की खबरों के पीछे इन घटनाओं को खोजना जरूरी होता है कि जो ख़बर बन कर उन्हें नुकसान पहुंचा सकते थे। हाल की घटनाओं को अगर इस तर्क की रोशनी में देखा जाए तो इससे साफ जाहिर है कि भाजपा ने कांग्रेस को राज्य सभा में राह पर लाने के लिए नेशनल हेराल्ड का मुद्दा उछाला लेकिन उनसे गलती यह हुई कि इसी दौरान केजरीवाल पर भी हाथ डाल दिया गया, जबकि उसकी अवश्यक्ता नहीं थी। कांग्रेसी तो खैर बयानबाजी से आगे नहीं बढ़े लेकिन केजरीवाल चूंकि राजनीति से पहले एक संर्घष आंदोलन से जुडे हुए थे इसलिए उन्होंने अपनी प्रतिरक्षा के बजाय उल्टा भाजपा पर हल्ला बोलते हुए अरुण जेटली को निशाने पर ले लिया। इससे कांग्रेस का भला हो गया जनता ने यह मान लिया कि भाजपा अपने विरोधियों को बदले की भावना से परेशान कर रही है।
दिल्ली सरकार व्दारा डीडीसीए भ्रष्टाचार की जांच के निर्णय पर अरूण जेटली की चिंता ने सिध्द कर दिया कि दाल में काला है। केजरीवाल पर चूंकि उनका ज़ोर नहीं चलता था इसलिए दस करोड की मानहानि का दावा ठोंक कर डराने धमकाने की कोशिश की गई परंतु केजरीवाल का नज़ला पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी और भाजपा के सांसद कीर्ति आजाद पर उतारा गया। कीर्ति आजाद की मांग नई नहीं है बल्कि पिछले दस वर्षों से वह यह आरोप लगा रहे हैं लेकिन कांग्रेस ने उनकी अनदेखी कर रखी थी।
कीर्ति आजाद के समर्थन में पहले तो शत्रुघ्न सिन्हा आए और फिर सुब्रमण्यम स्वामी भी आ गए। स्वामी जी अपनी आयु के इस अंतिम चरण में किसी सरकारी पद के लिए हाथ पांव मार रहे हैं। पहले तो उन्हें उम्मीद थी कि अगर वित्त मंत्री न सही तो कम से कम राज्य मंत्री का कलमदान हाथ आ जाएगी लेकिन जब भी वह नहीं मिला तो निराश हो गए। इसके बाद जेएनयू के कुलपति का झुनझुना दिखाकर उन्हें बहलाया गया लेकिन फिर ठेंगा दिखा दिया गया। ऐसे में स्वामी को लगा कि अगर जेटली की छुट्टी हो जाए तो उनके वारे न्यारे हो सकते हैं इसलिए वे आजाद के समर्थक बन गए।
अरुण जेटली एक ज़माने में रक्षा मंत्री और वित्त मंत्री दोनों पदों पर थे बाद में उन से रक्षा मंत्रालय का कलमदान लेकर मनोहर परिकर को दे दिया गया और अब विपक्ष की ओर वित्त मंत्रालय से इस्तीफा की भी मांग की जा रही है इसलिए जेटली की परेशानी भी उचित है। भाजपा ने पहले तो शत्रुघ्न सिन्हा की तरह किर्ती आजाद की भी अनदेखी की मगर जेटली ने इसे प्रतिष्ठा का प्रशन बना दिया। कीर्ति आजाद ने जेटली पर बाकायदा प्रत्यारोप करने के बजाय सिर्फ भ्रष्टाचार की बात की थी इसके बावजूद जेटली ने अमित शाह से कह दिया कि अगर आजाद को पार्टी से नहीं निकाला जाता है तो वह वित्त मंत्रालय के अलावा पार्टी के सारे पदों से इस्तीफा दे देंगे। जेटली की इस धमकी ने पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री दोनों को चिंताग्रस्त कर दिया। इस तरह मानो एक पुरोहित ने काले धन के मरघट पर (कीर्ति) आज़ाद को बलि का बकरा बना दिया। भाजपा इससे पहले यही व्यवहार राम जेठमलानी और अरूण शौरी के साथ कर चुकी है। इन दोनों का दोष मात्र इतना था कि उन्होंने अनेक कारणों से प्रधानमंत्री की आलोचना का साहस किया था।
कीर्ति आजाद को स्वतंत्र करके मोदी जी रूस रवाना हो गए परंतु उसी समय उत्तर प्रदेश की एक अदालत में दादरी मामले की चार्जशीट दाखिल हो गई। उसके अंदर 15 लोगों के नाम मौजूद हैं और दो लोगों को शामिल किया जाना शेष है। यह चार्जशीट महमद अखलाक की बेटी शाइस्ता की शिकायत पर आधारित है जो पूरे कांड की चश्मदीद गवाह है । हत्यारों ने शाइस्ता को धमकी दी थी कि वह उनके खिलाफ ज़ुबान खोलने की गलती न करे वरना उसका भी वही हश्र होगा जो उसके पिता और भाई का हुआ है। कायर हत्यारे भूल गए थे कि शाइस्ता मुस्लिम है और मुस्लमान अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरते।
शाइस्ता ने न केवल अपना विस्तृत बयान दर्ज करवाया बल्कि आरोपियों की पहचान भी कर दी। इन में सबसे महत्वपूर्ण आरोपी भाजपा नेता संजय राणा का बेटा विशाल और भतीजा शिवम है जो अपना अपराध स्वीकार कर चुके हैं। विशाल ने पुलिस से कहा कि जब उसे यह सूचना दी गई कि मुहम्मद अखलाक ने गाय वध करके उसका मांस खाया है तो उसका खून खौल गया और उसने मंदिर से घोषणा करवाने के बाद भीड़ एकत्र करके हमला कर दिया।
इस अभियोग के बाद संभावना थी कि फिर एक बार मीडिया में असहिष्णुता चर्चा का विषय बन जाए। क्योंकि रूस के अंदर प्रधानमंत्री का शस्त्र खरीदने के अलावा एक मात्र उपलब्धि अपने ही देश के राष्ट्र गान के दौरान चल पड़ना था। रूसी अधिकारी चूंकि इसे राष्ट्रीय गान का अपमान समझते हैं इसलिए उन्हें मोदी जी को कंधा पकड़कर वापस लाना पड़ा जो अपने आप में एक अपमान था खैर इस वीडियो को राष्ट्रीय मीडिया ने खूब उछाला और यह जनता के मनोरंजन का साधन बना। विदेशी यात्रा पर इस तरह का बिनामूल्य मनोरंजन प्रदान करना मोदी जी की विशेषता है।
इस वीडियो पर सोशयल मीडिया में जो टिप्पणियां हुए वह बहुत रोचक हैं। किसी ने लिखा कि प्रधानमंत्री अपने राष्ट्रीय गान को पहचान नहीं सके। किसी न कहा मोदी जी को आगे बढ़ते देखकर राष्ट्रीय गान बजाने वालों को अपना काम बंद कर देना चाहिए था मानो वह प्रधानमंत्री का नहीं उन का दोष था। या कम से कम इस अधिकारी को असहिष्णुता का प्रदर्शन करने के बजाए इस मामूली सी गलती को सहन कर उसे अनदेखा कर देना चाहिए था। शायद वह अधिकारी नहीं जानता था कि प्रधानमंत्री इससे पहले ना केवल उल्टे ध्वज के साथ फोटो खिंचवा चुके हैं बलकि एक बार तो उस से अपना पसीना भी पोंछ चुके हैं।
मोदी जी की जल्दबाजी देख कर रूसियों को यह गलतफहमी हो गई होगी कि उन्हें अफगानिस्तान जाने की जल्दी है। ऐसे में संभव है उन लोगों ने कवि भरत व्यास की शैली में उन्हें समझाने का प्रयत्न भी किया होगा ''इतनी जल्दी क्या है गोरी साजन के घर जाने की, सखियों के संग बैठ जरा कुछ बातें हैं समझाने की''। अफगानिस्तान के बारे में रूस से अधिक कौन जानता है क्योंकि उन्हें अफगान मुजाहिदीन ने जो घाव दिया है वह प्रलय तक भूल नहीं सकते लेकिन रूसियों को क्या पता कि हमारे प्रधानमंत्री के पास समझने समझाने के लिए समय नहीं है वह तो बस '' कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर इन्सान जैसे कर्म करेगा वैसे फल देगा भगवान' में विश्वास करने वाले भले मानस हैं। खैर आगे चलकर पता चला कि प्रधानमंत्री ऐसे भोले भी नहीं कि जैसा रूसी समझते थे वह अफगानिस्तान में नहीं बल्कि पाकिस्तान में अपने साजन से मिलने के लिए व्याकुल थे।
भारतीय जनता पार्टी की समस्या यह है कि जब वह सत्ता से वंचित होती है उसे पाकिस्तान खलनायक दिखाई देता है और जब वे चुनाव में सफल हो जाती हे तो पाकिस्तान अचानक महानायक बन जाता है। एक जमाना था जब राजनाथ सिंह ने मनमोहन सिंह के यूसुफ रजा गिलानी से हाथ मिलाने पर आपत्ति जताई थी और अब यह स्थिति है कि गले लगाना तो दूर चरण छूने तक की नौबत आगई है। अखबारों में यह खबर छपी कि जब नवाज शरीफ ने अपनी माता का परिचय मोदी जी से कराया तो उन्हों ने चरण छुए। सुयोग से अटल जी के बाद पाकिस्तान की यात्रा करने का सौभाग्य मोदी जी को प्राप्त हुआ।
कांग्रेसी जब पाकिस्तान से संबंधों को सुधारने की बात करते हैं तो भाजप वालों को सीमा पर बहने वाला सैनिकों का लहू पुकारता है। मुंबई विस्फोट, कारगिल,  ताज और संसद पर आतंकी हमला याद आता है लेकिन जब वह खुद पाकिस्तान से पींगें बढ़ाते हैं तो उन्हें अखंड भारत के सपने दिखने लगते हैं। यह लोग टाइगर मेमन, दाऊद इब्राहीम, हाफिज सईद और जकीउर रहमान लखवी आदि की पाकिस्तान में उपस्थिति को सुविधापुर्वक भूल जाते हैं।
भाजपा के लिए पाकिस्तान की शत्रुता एक चुनावी अवश्यक्ता है इसलिए चुनाव से पहले पाकिस्तान को उसकी अपनी भाषा में जवाब देने की वकालत करने वाले मोदी जी के मन में शपथ ग्रहण समारोह में मुख्य अतिथि के रूप से सर्व प्रथम नवाज शरीफ का विचार आता है। इसके बाद जम्मू कश्मीर में चुनाव के समय अचानक सीमा पर हमले तेज हो जाते हैं। हुरियत से पाकिस्तानी दूत की बैठक को प्रतिष्ठा का प्रशन बनाकर वार्ता रद्द कर दी जाती है। बिहार के चुनाव से पहले कश्मीर पर बातचीत नहीं करने की शर्त डाल कर रोडा अटका दिया जाता है और बिहार में भाजपा की हार पर पाकिस्तान में दीवाली मनाए जाने का दुषप्रचार किया जाता है।
इसके बाद मौसम के बदलते ही गिरगिट अपनी त्वचा का रंग बदल देता है। एक खबर तो यह भी है कि नेपाल में सज्जन जिंदल के कमरे में मुलाकात के दौरान मोदी जी ने खुद कहा था कि जम्मू कश्मीर के चुनाव के कारण वे कोई महत्वपूर्ण कदम नहीं उठा सकते। नवाज शरीफ ने भी सेना के दबाव का उल्लेख करके समय मांगा था। खैर अब संभव है अगले साल पंजाब के चुनाव तक यह सुखद वातावरण रहे बाद में क्या होगा यह कहना मुश्किल है?
पाकिस्तान के संदर्भ में मोदी जी न केवल आंतरिक दबाव बल्कि बाहरी लोगों के तुष्टीकरण की खातिर भी बयानबाजी करते रहे हैं जैसे बांग्लादेश के अंदर अवामी लीग को खुश करने के लिए उन्होंने पाकिस्तान की खुले आम आलोचना की। यमन संकट के बाद अमीरात के साथ पाकिस्तान के संबंध तनावपूर्ण हो गए थे इसलिए दुबई के अंदर भी मोदी जी ने पाकिस्तान के खिलाफ खूब जहर उगला और वहां के शासकों को खुश कर दिया। अफगानिस्तान के अंदर भी वह अप्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान को बुरा भला कहने से नहीं चूके लेकिन इसके कुछ घंटे बाद ही पाकिस्तान में जाकर ''मिले सुर मेरा तुम्हारा '' का राग अलापने लगे।
सवाल यह है कि अगर यही करना था बीच में उस नाटक की जरूरत क्या थी? और अगर यह नाटक है तो सच्चाई क्या है? इस से महत्वपूर्ण प्रशन यह है कि क्या इस तरह की नौटंकी से स्थिर आधार पर पडोसी देशों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित हो सकते हैं? क्या मिलजुल कर सालगिरह का केक काटने से दिल भी आपस में मिल जाते हैं? अगर यह काम इतना सरल है तो मोदी जी कीर्ति आजाद, राम जेठमलानी और अरूण शौरी के साथ जन्मदिन क्यों नहीं मना लेते? वैसे बिहार के चुनाव परिणाम वाले दिन लालकृष्ण आडवाणी के साथ मोदी जी ने यह रणनीति आजमाने का प्रयत्न किया लेकिन पर्याप्त सफलता नहीं मिली। वर्तमान में आडवाणी जी अपने चिर शिष्य अरुण जेटली के बजाय उनके दुश्मन कीर्ति आजाद के साथ खडे हैं।
 पाकिस्तान दौरे के बारे में यह भ्रम पैदा करने की नाकाम कोशिश की गई कि फैसला अचानक हो गया था हालांकि यह बिल्कुल बचकाना बात है। जंग नामक समाचार पत्र ने इस रहस्य का खुलासा किया कि लाहौर हवाई अड्डे को एक दिन पहले ही उड़ानों को सीमित करने के आदेश दे दिए गए थे। इसके अलावा मोदी जी ने नवाज शरीफ और उनके परिवार को जो उपहार दिए उसकी व्यवस्था तुरंत कैसे हो सकती थी? सुयोग से शाम 4 बजकर 20 मिनट पर जब मोदी जी का जाहाज़ लाहौर हवाई अड्डे पर उतरा तो घड़ी के कांटे इस मनगढ़ंत कहानी की चार सौ बीसी पर मुस्कुरा रहे थे।
अब तो यह बिल्ली भी थैले से बाहर आ चुकी है कि अफगानिस्तान से भारतीय इस्पात निर्माताओ की एक संस्था अफगान आयरन एंड स्टील कनस्टोरीम खनिज आयात करती है। इसमें सज्जन जिंदल के 16 और उसके चचेरे भाई के 4 प्रतिशत शेयर हैं। ये लोग वर्तमान में रूस के रास्ते अपना माल लाते हैं लेकिन अगर यही आपूर्ति पाकिस्तान के रास्ते कराची से होने लगे तो समय और पूंजी की भारी बचत हो सकती है। नवाज शरीफ खुद भी इस्पात के बहुत बड़े व्यापारी हैं इसलिए जिंदल से उनके पारिवारिक संबंध हैं। यही कारण है कि जिंदल के कहने पर मोदी जी ने पाकिस्तान जाने का कष्ट किया।
प्रधानमंत्री का खुला कर अडानी और अंबानी जैसे पूंजीपतियों की तरफदारी करना उनके पद की गरिमा को आहत करता है। इस पर जहाँ विपक्ष को आपत्ति है वहीं आम लोग भी चिंतित हैं। लेकिन अपनी देश भक्ति पर गर्व करने वाली भाजपा के लिये यह आपत्तिजनक बात नहीं है। वैसे तो भाजपा के आर्थिक विभाग के प्रमुख नरेंद्र तनेजा इस बात को रद्द करते हैं कि प्रधानमंत्री को अपनी बैठक तय करने के लिए किसी व्यापारी की जरूरत हो। उनका कहना है प्रधानमंत्री सीधे नवाज शरीफ से बात कर सकते हैं और हाल में दोनों प्रमुख पेरिस में मिल भी चुके हैं।
इसी के साथ तनेजा ने यह भी स्वीकार किया कि 2000  में  कारगिल के युग की कूटनीति फिलहाल संभव नहीं है। आजकल 80 प्रतिशत कूटनीतिक निर्णय व्यापारी वर्ग करता है। तनेजा के अनुसार व्यापार और वाणिज्य को केंद्र स्थान प्राप्त हो गया है और मोदी इस विचार के बहुत बड़े समर्थक हैं। यही कारण है कि सज्जन जिंदल दिल्ली में नवाज शरीफ को चाय के लिए आमंत्रित करता है। उनके लड़के को अपने साथ खाने पर लेकर जाता है। नेपाल में अपने कमरे के अंदर दोनों प्रमुखों की बैठक करवाता है और मोदी के आने से पहले लाहौर पहुंच जाता है। देश की दुर्दशा पर ''राजा व्यापारी प्रजा भिकारी'' वाली कहावत लागू होती है।
पिछले चुनाव अभियान के दौरान 'अच्छे दिन' और '' कालाधन '' के अलावा '' न खाऊंगा न खाने दूंगा '' वाली घोषणा कहावत बन गई। ये तीनों वादे मोदी जी ने डेढ़ साल के अंदर पूरे कर दिये। अडानी और अंबानी तो दूर कांग्रेसी जिंदल तक के अच्छे दिन आ गए। काला धन जितना कुछ भी वापस आया जनता के बजाय भक्तों की जेब में चला गया। जहां तक ​​खाने खिलाने का सवाल है मोदी जी ने अपनी पार्टी वालों को भी यह अवसर नहीं दिया बल्कि खुद ही सब कुछ हड़प गए।
इस घोषणा के अनुसार मनुष्य खिलाने से पहले खाता है इस लिये प्रधानमंत्री सारे पूंजीपतियों को जी भर के खाने का अवसर प्रदान कर रहे हैं बल्कि उनके संरक्षक बने हुए हैं। ऑस्ट्रेलिया में उन्होंने अडानी को न केवल ठेका दिलवाया बल्कि तुरंत सरकारी बैंक से कर्ज भी मुहैया करा दिया। अफगानिस्तान से खनिज का आयात करने वालों के लिए पाकिस्तान का मार्ग प्रशस्त कर दिया। तो क्या मोदी जी यह सेवा निःशुल्क कर रहे होंगे? यदि ऐसा है तो उसके प्रथम अधिकारी मतदाता हैं जिन्होंने उन्हें सत्ता की कुर्सी प्रदान की है लेकिन वह बेचारे इसकी कीमत का भुगतान नहीं कर सकते। पूंजीपति निश्चित रूप से उस की भरपूर कीमत चुका सकते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था की यही सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें राजनीतिज्ञ एक से वोट और दूसरे से नोट लेकर स्वयं ऐश करता है।

Tuesday 22 December 2015

निर्भया से भयभीत व्यवस्था

अंधा उसे कहते हैं जो अपनी आँखों से देख नहीं सकता। जो सुन नहीं सकता वह बहरा कहलाता है बोलने से विकलांग व्यक्ति को मूक कहते हैं। लूला अपने हाथों से कोई वस्तु उठा नहीं सकता और न लंगड़ा अपने पैरों पर चल सकता है परंतु कानून की दृष्टि से एक नाबालिग बलात्कार कर सकता है! यदि आप को इस पर आश्चर्य नहीं है तो जान लीजिए कि पागल अपने दिमाग से सोच नहीं सकता। निर्भया बलात्कार के मामले में तथाकथित अव्यसक अपराधी की रिहाई हमसे सवाल कर रही है कि क्या न्यायपालिका बुद्धिहीन है? अदालत का तर्क यह है कि हम कानून बना नहीं सकते हम तो बस उस को लागू के लिए प्रतिबद्ध हैं। तो फिर क्या विधायिका यानी हमारे राजनीतिज्ञ पागल हैं? उन्होंने क़ानून क्यों नहीं बनाया?
ऐसा लगता है कि हमारे शासक नहीं चाहते कि शहर दिल्ली ने दुनिया भर में बलात्कार की राजधानी होने का जो श्रेय प्राप्त किया उस से वह वंचित हो जाए। वे यह भी नहीं चाहते कि हर 20 मिनट में देश के भीतर जो एक बलात्कार की वारदात का पंजीकरण होता है इस दर में कमी आए। एक अध्ययन के अनुसार महिला उत्पिडन के 69 में से केवल एक की पुलिस में शिकायत दर्ज होती है। यदि प्रशासन को प्राप्त कुल शिकायतों को 69 से गुणा कर दिया जाए तो अनुमान लगाया जा सकता है देश में महिलाएं कैसे दर्व्यव्हार का शिकार हैं। इस अत्याचार का एक कारण उचित कानून का अभाव है और दूसरा कार्यक्षमता में कमी है। यही कारण है कि दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाती मालीवाल ने हाई कोर्ट के फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि यह बेहद दुख की बात है कि निर्भया का दोषी 20 दिसंबर को रिहा किया जाएगा। नर्भया के दोषी की रिहाई का दिन इतिहास का काला दिवस होगा।
निर्भया बलात्कार के पश्चात उसकी हत्या कर के आंतें बाहर निकालकर सड़क पर फेंकने वाला दोषी तीन साल एक सुधार घर में ऐश करने के बाद सम्मानपूर्वक बरी कर दिया गया। यह अत्याचार क्यों हुआ इसका लाख तर्क दिया जाए लेकिन मुख्य कारण यही है कि इस देश में इस्लामी कानून नहीं है। शरीयत ए इस्लामी के अनुसार से 9 से 12 वर्षिय किशोर व्यसक हो सकता है। किसी के वयस्क होने का निर्णय अस्वाभाविक आधार के बजाय मनुष्य के शारीरिक परिवर्तन पर किया जाएगा? निर्भया के दोषी ने अपने कुकर्म से सिध्द कर दिया कि वह बालिग हो चुका है इसलिए वह उसी दंड का अधिकारी है जो वयस्कों के लिए है।
शरीयत ए इस्लामी संसद के प्रमाणीकरण की मोहताज नहीं है और न वह मनुष्य को इस में हस्तकक्षेप का अधिकार देती है । जो लोग ऐसा करते हैं वे अपनि सत्ता का दुरुपयोग करते हैं जिसके कारण समाज में क्रूर अपराधी निडर होकर दनदनाते फिरते हैं और अत्याचार पीडित जनता असहाय और लाचार हो जाती है। पुलिस अपराधी की रिहाई के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों को निर्भया के माता पिता सहित गिरफ्तार कर लेती है।
मानव जाति की समझदारी इसमें है कि वह अपनी गुणों का पूरा समर्ण करके उनका भरपूर उरयोग करे और अपनी विवश्ता को भी ध्यान में रखे। दुनिया का सबसे महान बस चालक भी यदि हवाई जहाज़ चलाने का प्रयत्न करेगा तो न केवल खुद दुर्घटनाग्रस्त होकर बेमौत मारा जाएगा बल्कि जहाज़ के अन्य यात्रियों की मृत्यु का कारण भी बनेगा। आजकल यही हो रहा है। निर्भया की घटना के बाद यूपीए सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा विधेयक पारित किया जिसमें 18 साल से कम आयु के युवकों को नाबालिग घोषित कर दिया परंतु यह नहीं सोचा कि इसका लाभ उठाकर कितने दोषी सजा से बच जाएंगे । इस साल मई में नई सरकार ने संविधान में एक संशोधन करके इस उम्र को 16 साल करने का प्रयतान किया। वह संवैधानिक संशोधन लोक सभा में तो परित हो गया लेकिन राज्य सभा में विपक्ष ने उसे संशोधन हेतु संसदीय चयन समिति के हवाले कर दिया।
संसद में मई की गरमाई बैठक के बाद बरसाती बैठक और अब शीतकालीन सत्र तक सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने इस गंभीर प्रशन पर आपराधिक लापरवाही का प्रदर्शन किया। अगर यह कानून पहले बन जाता तो अदालत के लिए उस अपराधी को सजा देना सरल हो जाता लेकिन हमारे नेताओं को अगर चुनावी अभियान, विदेश यात्राओं और एक दूसरे के खिलाफ दुषप्रचार से फुर्सत मिले तो वह जनता के कल्याण की ओर ध्यान दें। वह तो दिन रात राजनीतिक जोड़-तोड़ और भ्रष्टाचार के जरिए लूट खसोट में लगे रहते हैं।
वित्त मंत्री को पूंजीपतियों को खुश करने वाले जीएसटी विधेयक का ग़म खाए जाता है बल्कि अब तो वह निवेशकों का उध्दारक दिवालिया कानून भी पास कराने की जुगत में हैं। विपक्ष कांग्रेस का यह हाल है कि कभी वह सूट बूट पर हंगामा करती है तो कभी अपने भ्रष्टाचार पर परदा डालने के लिए अदालत के चक्कर काटती है। भ्रष्टाचार सम्राट केजरीवाल एक भ्रष्ट अधिकारी को बचाने के लिए सर धड़ की बाजी लगा देते हैं और पूर्व कानून मंत्री उन पर मानहानि का दावा करने के लिए अदालत के दरवाजे पर दस्तक देते हैं लेकिन कोई निर्भया के हत्यारे को सजा दिलाने के लिए न्यायपालिका का रुख नहीं करता है।
हमारे देश में प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री के अलावा एक कानून मंत्री सदानंद गौड़ा भी हैं जिनके नाम से बहुत कम लोग परिचित हैं। सदा आनन्द अपने नामानुसार हर चित्र में अपनी बत्तीसी दिखाते है। यह उनका कर्तव्य था 6 महीने के भीतर इस संवैधानिक संशोधन पर चयन समिति की टिप्पणी सदन में पेश करके 20 दिसंबर से पूर्व इसे पारित करवा कर उस जघन्य अपराधी को रिहा होने से रोकते लेकिन सदानंद खुद व्यक्तिगत समस्याओं में ऐसे उलझे हुए हैं कि उन्हें राष्ट्र के लिए फुर्सत ही नहीं।
नई सरकार में पहले सदानंद गौड़ा को रेल मंत्री बनाया गया। कुछ महीने बाद ही उनके सुपुत्र कार्तिक को एक फिल्म अभिनेत्री को धोखा देकर बलात्कार करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद उन्हें मंत्री मंडल से हटाने के लिए दबाव बनने लगा। प्रधानमंत्री ने जब पहली बार मंत्री मंडल में फेरबदल किया तो सदानंद गौड़ा को रेलवे से हटा कर कानून मंत्री बना दिया गया। इस तरह मानो सदानंद गौड़ा को अपने बेटे को सजा से बचाने की सुविधा प्रदान कर दी गई क्योंकि ऐसे न्यायाधीष तो कम ही होंगे जो अपने मंत्री के सुपुत्र को जेल भेजने का साहस दिखाएं।
इसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस ने आरोपी को सजा दिलवाने के बजाएया यह साबित करने पर अपना जोर लगा दिया कि कार्तिक से मुलाक़ात के लिए वह अभिनेत्री स्वतः आई थी इसलिए बलात्कार का तो मुकदना नहीं बनता हाँ धोखाधड़ी की दफा 420 अवश्य लगती है। कानून मंत्री के सामने अब नया लक्ष अपने 420 बेटे का विवाह था।
मंत्री जी इस शुभ कार्य में जुट गए और इस साल अक्टूबर में इस कर्तव्य से भी निमट गए जबकि उस अभिनेत्री के अनुसार कार्तिक ने 5 जून 2014 को उसके गले में मंगलसूत्र डाला था और अपने दोस्तों से उसका परिचय पत्नी के रूप में कराया था। अभिनेत्री के अनुसार कार्तिक का यह दूसरा विवाह है। इस दौरान सदानंद पर लोक आयूकत की अदालत में ज़मीन घोटाले का एक नया आरोप भी लगा। अब ऐसा कानून मंत्री अपने आप को कानूनी शकंजों से बचाए या कार्तिक की अंदेखी कर के निर्भया का बलात्कार करने वाले को सजा दिलवाए?
जनता के दबाव में 22 दिसंबर को संवैधानिक संशोधन पारित हो गया लेकिन इसके बावजूद जो अपराधी रिहा हो चुका है उसे दंड देना असंभव है। सीताराम येचुरी के अलावा विपक्ष और सरकार दोनों इस संशोधन के पक्ष में थे। येचूरी अब भी इसे सीलेक्ट समिति के हवाले करना चाहते हैं लेकिन आशंका है कहीं फिर से वह ठंडे बस्ते में न चला जाए। वैसे इस कानून के पारित हो जाने के बावजूद समस्या का समाधान नहीं होगा।
जिस दिन सदन में इस पर बहस हो रही उसी दिन रोहतक की अदालत ने एक नेपाली लड़की के निर्मम बलात्कार और हत्या में 7 लोगों को मौत की सजा सुनाई। इस अपराध के आठवें आरोपी ने आत्महत्या कर ली लेकिन नौवां 15 साल का है। नए कानून के बावजूद वह दोषी अधिकतम 3 साल सुधार केंद्र में रह कर छूट जायेगा। इस तरह मानो फिर एक बार साबित हो जायेगा कि ईश्वरीय निर्देश की आनदाखी कर के बनाए जाने वाले मानवीय कानून अक्षम होते हैं। निर्भया के पिता बद्री नाथ सिंह पाण्डे भी यही ​​कहते हैं कि हम मजबूर नहीं हैं मगर व्यवस्था असमर्थ है। जरूरत कानून बदलने की नहीं व्यवस्था परिवर्तन की है।
मनुष्य के कल्याण की गारंटी उसके निर्माता और मालिक के अलावा किसि और का बनाया हुआ कानून कैसे दे सकता है? मुस्लिम विव्दानों का 1400 वर्ष पूर्व व्यसक की आयु भौतिक आधार पर 9 से 12 साल निर्धारित कर देना (हालांकि कि लक्षणों के प्रकट न होने की स्थिति में 15 साल तक का अपवाद भी मौजूद है) इस बात का खुला प्रमाण है कि वे इस्लामी शरीयत और मानव प्रकृति से खूब परिचित थे। ब्रिटेन में भी 10 से 17 वर्ष के किशोर को अवस्क माना जाता है परंतु अगर वह हत्या या बलात्कार जैसा जघन्य अपराध कर बैठे तो युवाओं की अदालत से उसका मुकदमा क्राउन कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया जाता है।
अमेरिका के विभिन्न राज्यों में कानून अलग अलग है लेकिन कम से कम 14 साल के लड़के को वयस्कों की सजा मिल सकती है। एनकोस्न के 16 वर्षीय किशोर बरोगन राफ़्रटी को  2011  के अंदर हत्या के आरोप में जेल भेजा गया। इसी साल कोलारेडो के एक 12 वर्षिय किशोर ने अपने माता-पिता की हत्या करने के बाद अपने छोटे भाई पर हमला किया। अपराध कबूल करने के बाद उसे अव्यसकों की अदालत ने 7 साल की सजा सुनाई। बलात्कार की घटनाएं अमेरिका के विकसित समाज में भी घटती हैं जैसे स्टेबनविला में दो 16 वर्षीय फुटबॉल खिलाड़ियों ने एक नशे में धुत्त जवान लड़की की इज्जत लूट ली। सुंदर द्वीप में एक 12 साल के छात्र ने अपनी अध्यापिका का बलात्कार कर दिया। बोल्टन के 12 वर्षीय लड़के ने दो लड़कियों की इज्जत लूट ली जिन की उम्र 10 और 11 साल थी। अमेरिका में 20 प्रतिशत अपराध यह तथाकथित नाबालिग किशोर करते हैं।
भारत में भी कम उम्र के किशोरों के अंदर अपराध प्रवृत्ति में जबरदस्त वृद्धि हुई है। गौहाटी में पिछले दिनों पांच लड़के एक 12 वर्षीय लड़की को बरगला कर अपने झोपड़ी में ले गए और उसका बलात्कार किया। पकड़े जाने पर उन सभी ने अपने कमसिन होने का दावा कर दिया बाद में उन्हें सुधार केंद्र रवाना कर दिया गया। कानून में परिवर्तन के बावजूद उनमें से कुछ अपने आप को 16 वर्ष से कम का साबित करके 3 साल के भीतर छूट जाएंगे।
अपराध के आंकड़े रखने वाले राष्ट्रीय संस्थान (एन सी आर बी) के अनुसार 2012 में 35 हज़ार से अधिक अव्यसक अपराध में लिप्त पाए गए जिनमें से एक तिहाई यानी दस हजार से अधिक 16 साल से कम आयु के थे। इन अपराधों में चोरी डकैती तो केवल दोगुना बढ़ी लेकिन महिलाओं के अपहरण में 6.6 गुना की वृद्धि हुई। 2002 से लेकर 2012 के दशक में इन तथाकथित कमसिनों द्वारा बलात्कार की घटनाओं में 5.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इस अवधि में महिलाओं और बच्चियों के अपहरण की घटनाएं 5 गुना बढ़ गईं।
इस भयानक स्थिति की सर्वप्रथम जिम्मेदारी राजनेताओं पर जाती है जिनके रवैये ने अपराधियों के हौसले बुलंद कर दिए हैं। उदाहरण के लिए दो महीने पहले दिल्ली में दो मासूम बच्चियों की सामूहिक बलात्कार के बाद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली पुलिस पर निशाना साधते हुए प्रधानमंत्री और लेफ्टिनेंट गवर्नर पर हल्ला बोल दिया है। केजरीवाल ने दिल्ली में बढ़ते अपराधों के लिए दिल्ली पुलिस को जिम्मेदार ठहराया (इसलिए कि वे केंद्र सरकार के अधीन है)। केजरीवाल ने दिल्ली में लगातार होने वाली बलात्कार की वारदातों को शर्मनाक बताते हुए सवाल किया कि पीएम और एलजी क्या कर रहे हैं? इसके जवाब में महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष बरखा सिंह ने केजरीवाल सरकार पर आरोप लगाया कि वह केवल अपने प्रचार में व्यस्त है जबकि दिल्ली में महिलाओं पर अपराध बढ़ते जा रहे हैं।
अतीत में वित्त मंत्री अरुण जेटली भी इस तरह की राजनीतिक बयानबाजी कर चुके हैं। उन्होंने पर्यटन मंत्रालय की एक बैठक में बलात्कार की घटनाओं की ओर संकेत करते हुए कहा था कि दिल्ली में एक मामूली घटना के विज्ञापित हो जाने के कारण देश को पर्यटन के क्षेत्र में अरबों रुपये का घाटा उठाना पड़ा। उनके विचार में बलात्कार की घटनाओं के घटने से अधिक हानिकारक उनका प्रचार है और वह इस घाटे को धन दौलत के तराजू में तोलते हैं।
राज्य सभा की बहस में भाग लेते हुए टीएमसी के डेरेक ओब्रायन ने अपने स्वार्थी भाषण में कहा कि अगर दुर्भाग्यवश वह मेरी बेटी होती तो मैं वकीलों पर रूपया बरबाद करने के बजाए बंदूक खरीद कर उस अपराधी को गोली मार देता। जबकि ज्योति सिंह उर्फ ​​निर्भया की मां आशा देवी भारत की हर लड़की की सुरक्षा के लिए संर्घष करने का आवाहन करती हैं। उन्होंने यह सवाल भी किया कि हमें न्यायालय से किसी अनुकूल निर्णय की अपेक्षा नहीं थी लेकिन मैं पूछना चाहता हूं कि आखिर कानून परिवर्तन के लिए कितनी निर्भया दरकार हैं?
इस अवसर पर सबसे महत्वपूर्ण बात स्वाती मालीवाल ने कही कि अब समय आ गया है कि महिलाएं मोमबत्ती कि बजाय मशाल ले कर मैदान में उतरें। महिला ही क्यों पुरुषों को भी अत्याचार के खिलाफ इस लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर शामिल होना पडेगा तभी इस समस्या का समाधान संभव है। निर्भया के पिता बद्री सिंह पाण्डे अपनी पत्नी आशा देवी के साथ सदन में संविधान के संशोधन पर बहस का निरीक्षण करने के लिए आए। इस से पूर्व  बद्री नाथ सिंह ने संसदीय कार्य राज्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी से मुलाकात के बाद कहा बातें बहुत हो चुकीं अब किसी देरी के बिना इस संशोधन को लागू होना चाहिए।

Sunday 20 December 2015

मर्दे नादां पर कलामे नरम और नाजुक बेअसर

इक़बाल और टेगोर दो ऐसे युग पुरूष हैं जिन का दो विभिदेशों में समान सम्मान किया जाता है। एक तरफ अल्लामा इक़बाल को पाकिस्तान के राष्ट्र कल्पना का जनक कहा जाता है वहीं उन का तराना-ए-हिन्दी सारे जहाँ से अच्छा भारतीय राष्ट्र गान जन गण मन से अधिक लोकप्रीय है। इस तथ्य का एक प्रमाण यह है की जब इंदिरा गांधी ने भारत के प्रथम अंतरिक्षयात्री राकेश शर्मा से पूछा कि अंतरिक्ष से भारत कैसा दिखता है, तो शर्मा ने इस गीत की पहली पंक्ति कही। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि जन गण मन मूलतः बंगाली में लिखा गया था जिसको भारत के अधिकतर लोग नहीं समझ सकते यही कारण है की बंगला दाश ने भी टेगोर रचित आमार सोनार बांगला को अपना राष्ट्र गीत बनाया।
औपचारिक और अनौपचारिक राष्ट्रीय गीतों में एक अंतर यह भी है कि विद्रोह से भरे भारत के लोगों को शांत करने के लिए अंग्रेजों ने अपने इंग्लॅण्ड के राजा को भारत आमंत्रित किया जोर्ज पंचम 1911 में भारत में आया। उस समय रविंद्रनाथ टेगोर पर दबाव बना कर जोर्ज पंचम के स्वागत में यह गीत लिखवाया गया। मजबूरी में रविंद्रनाथ टेगोर ने वो गीत लिखा जिस में  जोर्ज पंचम को भारत भाग्य विधाता कहा गया। हकीक़त में यह अंग्रेजो कि खुशामद में लिखा गया गीत था जबकि । अल्लामा  इक़बाल को १९०५ में लाला हरदयाल ने एक सम्मेलन की अध्यक्षता करने का निमंत्रण दिया। इक़बाल ने भाषण देने के बजाय यह सारे जहां से अच्छा पूरी उमंग से गाकर सुनाई। हिन्दुस्तान के प्रशंसा में लिखा यह गीत विभिन्न सम्प्रदायों के बीच भाई-चारे की भावना को प्रोत्साहित करता है।
अल्लामा इकबाल की कविता इस्लामी मान्यताओं और दर्शन के साथ मुलमानों के इतिहास और सभ्यता का बहुमूल्य गुलदस्ता है। एक समाज सुधारक के रूप में उन्होंने मिल्लत के अनेक समस्याओं का विश्लेषण किया। मिल्लत के पतन का कारण और निवारण कुरान और प्रेषित के उपदेशों की रोशनी में पेश किया इसीलिए इस्लामी कवि कहलाने का गौरव प्राप्त है। अल्लामा इकबाल उच्च श्रेणी की बौद्धिक और सुधारात्मक कविता के बावजूद असाधारण लोकप्रियता प्राप्त हुई ऐसा कम होता है।
 अल्लामा इकबाल ने कविता की माध्यम से निराश लोगों को जागरूक करने की जिम्मेदारी निभाई। उनके बाद उठने वाली प्रगतिशील आंदोलन ने भी बड़े पैमाने पर कविता से जनजागरण का काम लीया परंतु उसमें इस्लाम के बजाय वामपंथी विचारधारा का बोलबाला था। इसके विपरीत इकबाल ने निराशा  मुसलिम समुदाय में नया जोश और उल्लास भरने की खातिर इस्लाम को आधार बनाया। इकबाल को  पश्चिम में जाकर उसके अवलोकन और अनुभव का सौभाग्य प्राप्त हुआ था इसलिए उसकी वास्तविकता और बोदा पन उन पर पूरी तरह स्पष्ट हो चुका था। इकबाल ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में पश्चिमी विचारधारा विनाश कारी प्रभाव को बहुत करीब से देखा वे दोनों महायुध्द के चश्मदीद गवाह थे इसलिए उन्होंने बौद्धिक पटल पर पश्चिमी सभ्यता की मानसिक गुलामी से निकालने का संघर्ष किया।
अल्लामा इकबाल ने कुरान सुन्नत के अलावा पश्चिमी विचारों और भारत के प्राचीन दर्शन का अध्ययन किया। अल्लामा इकबाल ने प्राचीन और आधुनिक युग के महापुरूषों का खुले मन से गुनगान किया जिनमें श्री रामचंद्र, श्री कृष्ण, गौतम बुद्ध, गुरुनानक, विश्व मित्र, स्वामी राम तीर्थ आदि का समावेश है। लाहौर में अपने अंग्रेजी और दर्शन के शिक्षक प्रोफेसर अर्नोल्ड इंगलिस्तान वापसी ने अल्लामा बहुत दुखी हुए और प्रसिध कविता नाला ए फिराक में अपनी श्रद्धा के अमर पुष्प अर्पण किये। अल्लामा दिल्ली महान दार्शनिक और कवि भरथरी हरि के बडे प्रशंसक थे। यही कारण है कि इकबाल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक बाल जिब्रील के प्रथम पृष्ठ पर भरथरी हरि की पंक्ति का अनुवाद लिखा है। यह अनूठा सम्मान कम ही लोगों को प्राप्त हुआ होगा। भरतरी हरी पहली शताब्दी (ई.पू.) में संस्कृत भाषा के कवि थे। मालवा के उस राजा का राजधानी उज्जैन था। उनकी व्याकरण की पुस्तक का आज भी हवाला दिया जाता है।
 इसके अलावा भरथरी हरि तीन कविता संग्रह हैं जिनमें जीवन के तीन प्रमुख क्षेत्रों पर 100 से आधिक श्लोक हैं। पहली पुस्तक श्रंगार शतक में प्रेम विलास को विषय बनाया गया है। दूसरी पुस्तक नीति शतक उस युग की रचना है जब वह मालवा राज्य का राज कुमार था। इसमें भरथरी हरि ने अपने दौर की राजनीतिक स्थिति और विचारों को प्रस्तुत किया है। इस कवि की सब से महत्वपूर्ण किताब वैराग्य शतक है। अपना राज पाट छोड़कर संन्यास लेने के बाद उसने वैराग्य शतक लिखी जिसमें दिव्य अनुभूति और सन्यास व मोक्ष को चर्चा का विषय बनाया गया है अल्लामा इकबाल एक कवि के रूप भरथरी हरि के की महानता का अपार सम्मान करते थे।
भरथरी हरि की कविता में मौजूद विषय की विविधता और विस्तार का मुख्य कारण उसके जीवन के उतार-चढ़ाव हैं। संन्यास लेने से पहले उसने एक सफल दुनियादार जीवन का उपभोग किया और सांसारिक विलासता में ऐसे लीन हुआ कि राजर्धम और रचनात्मक कर्मों से बेखबर हो गया। इस लापरवाही का मुख्य कारण उसका पत्नी रानी पनगला के साथ जुनून की हद तक प्यार था। भरतरी हरी सौतेले भाई विक्रमादित्य ने इस पर आपत्ति जताई तो रानी पनगला ने अपने पति की मदद से उसे निर्वासित करवा दिया।
भरथरी हरि के विषय में एक बहुत रोचक घटना इतिहास की पन्नों में दर्ज है। कहा जाता है कि किसी साधु संत ने भरथरी हरि से खुश होकर उसे एक फल प्रदान किया और यह वरदान भी दिया कि इसे खाने से आयु में वृद्धि होगी। भरथरी हरि चूंकि अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करता था इसलिए उसने अपने उसको प्राथमिकता दी। भरथरी हरि ने वह फल अपनी चहेती पत्नी देकर कहा कि नहाने के बाद उसे खाए। पनगला एक साईस के इश्क में गिरफ्तार थी इसलिए उसने फल उसे दे दिया। साईस एक वेश्या का प्रेमी था इसलिए वह फल उपहार के रूप में वेश्याओं तक पहुंच गया। वेश्या ने राजा को खुश करने के लिए वह फल भरथरी हरि की भेंट कर दिया। उसने फल खा लिया मगर उसे पता चल गया कि रानी पंगला बेवफा है। इस घटना से आहत होकर भरतरी हरी ने ना केवल अपनी पत्नी से किनारा कर लिया बल्कि राज पाट छोड़ कर सन्यासी बन गया। रानी पंगला की भूमिका तथ्य है या प्रतीक यह तो अनुसंधान का विषय है लेकिन इसमें शक नहीं कि कलयुग ने क्रुर और बेवफ़ा रानी पंगला को सुंदर आभूषण पहना कर लोकतंत्र की नीलम परी बना दिया है।
इस युग लोकतंत्रिक नीलम परी ने अपना मकड जाल कुछ इस तरह से फैला रखा है कि संविधान ने सत्ता का फल जाहिरा तौर पर जनता के कदमों में डाल दिया। जनता ने वर्तमान समय में भाजपा पर मुग्ध होकर यह फल उसे प्रदान कर दिया। भाजपा का युगल प्रेमी नरेंद्र मोदी थे इसलिए वह मोदी जी को थमा दिया गया। मोदी जी पूंजीपतियों के आशिक हैं इसलिए उन्होंने अडानी और अंबानी को इस फल से मालामाल कर दिया। पूंजीपतियों के दिल में यदि जनता का प्यार होता तो और अगर वह फल उन्हें लौटा देते तो चक्र पूरा हो जाता लेकिन कलयुग में यह कैसे संभव था इस लिए लालची पूंजीपतियों ने उसे अपनी तिजोरी में बंद कर दिया और देश की जनता का बहुमत दाने दाने का मोहताज हो गया।
लोकतंत्र का यह जादुई फल संविधान की बदौलत हर चुनाव के मौसम में गांव गांव शहर शहर अपने आप फलने लगता है। जनता उस के जादू में गिरफ्तार होकर अपने सारे दुख दर्द भुला देते हैं और राजनीतिक नेताओं के भाषणों की कृपा से नित नए सपने सजाने लगते हैं। पिछली बार राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का समर्थन करने के पश्चात अब लोगों को अपनी गलती का अहसास हो चला है इस लिये संभवतः वह आगामी चुनाव में यह फल कांग्रेस के हाथ में थमा दे। फिर वही सिलसिला चल पड़ेगा। कांग्रेस उसे राहुल की झोली में डाल देगी और फिर घूम कर वह पूंजीवादी लॉकर में चला जाएगा। लाचार व असहाय जनता फिर नए चुनाव का इंतजार करेंगे और कांग्रेस को सबक सिखाने के लिए तीसरे मोर्चे को वह फल प्रदान कर देंगे लेकिन अंततः लालू, नीतीश या मुलायम भी उसे पूंजीपतियों के हाथों बेचने से नहीं चूकेंगे। जनता को तो इस राज्य प्रणाली में धैर्य(सब्र) के मीठे फल पर ही संतोश करना होगा। वह उसे कभी नहीं चख पाएंगे।
जनता की स्मरणशक्ति चूंकि कम अवधि की होती है इसलिए संभावना है कि अगले युग के लोग भाजपा की धोखाधड़ी को भूल चुके हों। उन्हें कमल फिर से खुशनुमा लगने लगे, फिर एक बार उस पर विस्वास कर बैठें। विकल्प ना होने के कारण राजी-खुशी न सही तो बेदिली के साथ सत्ता के फल को तत्कालीन मोदी के चरणों में डाल दें और वह उसे पूंजीपतियों के चरणों में डाल दे। पूंजीवादी लोकतंत्र में इसके अलावा और हो भी क्या सकता है। यह सिलसिला तब तक चलेगा जब तक कि लोग पश्चिमी निर्धमी लोकतांत्रिक प्रणाली को अपना संरक्षक समझेंगे और उस का उन्मूलन करने के बजाय उसका संरक्षण करते रहेंगे। भरथरी हरि की तरह मौजूदा नेताओं में से न कोई संन्यास लेगा और न राष्ट्र का कल्याण होगा।
इस आधुनिक राजनैतिक प्रणाली के कारण भरतर हरि की भूमि भारत में फिलहाल जो व्यक्ति शासन कर रहा है वह संन्यासी न सही तो कम से कम ब्रह्माचारी जरूर है। उसने बिना तलाक के वैवाहिक रिश्ता तोड रखा है। वह अपनी मां से प्रदर्शनी मुलाकात तो करता है लेकिन उन्हें अपने पास नहीं बुलाता। वे बड़े गाजे-बाजे के साथ यह दावा तो करता है कि उसका आगे पीछे कोई नहीं है कि जिसके लिए वह भ्रष्टाचार करे हालांकि जो व्यक्ति सरकारी खर्च पर दिन में पांच बार कपड़े बदले और उनमें एकाध 10 लाख तक का सूट भी हो तो उसे भ्रष्टाचार के जाल में फंसने के लिए किसी और की क्या अवश्यक्ता?
भरथरी हरि के बाद से यह देश अभूतपूर्व बौद्धिक और व्यावहारिक गिरावट का शिकार हुआ है। वह तो खैर इकबाल की भेंट प्रधानमंत्री से नहीं हुई। अगर ऐसा हुआ होता और इसके बाद उन्होंने भरतरी हरी वाला शेर कहा होता तो निश्चित रूप से प्रधानमंत्री के भक्त उसे अपने चहीते नेता से जोड देते। मोदी जी भी जिनके नाम से एक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका है इस शेर को समझे बिना सहर्ष इस बात पर गर्व जताते कि पहली बार किसी महान कवि ने किसी प्रधानमंत्री शेर कहा परंतु चूंकि इन के जन्म से 12 साल पहले अल्लामा इकबाल इस नश्वर जग से कूच कर चुके थे इसलिए यह संभावना नहीं है। अभी तक आगर आप नहीं जान सके वो कौन सा शेर है जो प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व का भरपूर चित्रण करता है तो लीजिए पढिए भरथरी हरि का यह विचार ؎
फूल पत्ती से कट सकता है हीरे का जिगर मर्दे नादां पर कलामे नरम और नाजुक बेअसर
केजरीवाल के प्रधानमंत्री को कायर और मानसिक रोगी कहने पर आजकल भाजपा वाले खूब बवाल मचा रहे हैं और उन्हें अपनी भाषा पर लगाम लगाने का प्रवचन दे रहे हैं। भाजपा जैसी बदज़बान पार्टी का जिसकी साध्वी सांसद ने रामज़ादे और हरामज़ादे की शब्दावली का आविष्कार किया है। जिस का एक मंत्री दलित युवक की हिरासत में मौत को कुत्ते की की मौत क़रार देता है। जिसके नेता मांस खाने वालों के लिए मौत की सजा की सिफारिश करते हैं और खुद प्रधानमंत्री गुजरात के दंगों को अपनी कार के पहियों तले आने वाले कुत्ते की संज्ञा देता है, दूसरों के बोलने पर आलोचना कुछ अजीब सा लगता है। अरविंद केजरीवाल ने उक्त शेर की रोशनी में कहा कि चूंकि प्रधानमंत्री राजनीतिक क्षेत्र में मुझ पर काबू नहीं पा सके इसलिए ओछी हरकतों पर उतर आए हैं और यह भी बोले कि देश के वित्त मंत्री झूटा है। सच तो यह है कि यदि लातों के भूत की पूजा जूतों से ही होती है।

Tuesday 15 December 2015

مردِ ناداں پرکلامِ نرم و نازك كا اثر

شاعر مشرق علامہ اقبال کا کلام  اسلامی عقائد و فلسفہ کے ساتھ امت کی تاریخ تہذیب کا بیش بہا گلدستہ ہے۔ ایک مخلص مصلح کی حیثیت سے انہوں نے ملت مسائل کا تجزیہ فرمایا۔  زوالِ ملت کے اسبابب و علل کی نشاندہی کرنے کے بعد  قرآن و سنت کی روشنی میں اس  کا حل بھی پیش کیا اس لئے  بجا طور پر ان کوحکیم الامت کہلانے کا حق اور شاعر اسلام ہونے کا اعزاز حاصل ہے۔  ان کی شاعری میں جہاں معرفت الٰہی کے پہلو بہ پہلو عشق نبی ؐ کا دریا موجزن ہے وہیں دیگر مذاہب و نظریات کے حوالے بھی جا بجا نظر آتے ہیں  ۔عصر حاضر کا یہ المیہ  بھی ہے کہ آج کل عامیانہ اور سطحی قسم کے شعراء کی خوب پذیرائی ہوتی ہے مگر گہری اور سنجیدہ شاعری کرنے والوں کو یہ شرف  کم ہی حاصل  ہوتا ہے ۔ علامہ اقبال کا یہ امتیاز ہے کہ  نےنہایت اعلیٰ پائے کی فکری   اور اصلاحی شاعری کے باوجود اللہ تعالیٰ نے انہیں غیر معمولی مقبولیت سے نوازہ  ۔
 علامہ اقبال سے بہت پہلے اردو شاعری غم جاناں کے حصار سے نکل غم دوراں کی آغوش میں آچکی تھی۔ غالب نے شاعری کو فلسفۂ حیات کے اسرارو رموز کو کھولنے کا ذریعہ بنایا اور ان کے شاگردِ رشید حالی نے شاعری کے ذریعہ اصلاح امت کا بیڑہ اٹھایا۔ اس دور میں جہاں حالی نہایت سنجیدگی سے یہ فرض منصبی  ادا کررہےتھے وہیں اکبر الہ بادی نے بڑے ظریفانہ انداز میں ایک نہایت کامیاب کوشش کی اور اصلاح امت کے مشکل ترین کام کو بہت عام فہم  انداز میں پیش کرنے عظیم کارنامہ انجام دیا ۔ یہی وجہ ہے کہ آج بھی ان کے اشعار ضرب المثل بنے ہوئے ہیں ۔  اس طرح کی  استثنائی سعید روحوں کے علاوہ عموی صورتحال  وہی تھی جسے شاعر مشرق نے کچھ یوں بیان کیا ہے کہ   ؎
ہند  کے   شاعر  و  صورت  گر  و   ا فسانہ  نویس ہائے بے چاروں کے اعصاب پر عورت ہے سوار
 علامہ اقبال نے صنف شاعری  کی مددسے خواب غفلت کی شکار قوم کو بیدار کرنے کی ذمہ داری ادا کی۔ ان کے بعد اٹھنے والی  ترقی پسند تحریک نے بھی بڑے پیمانے پر  شاعری سے عوامی بیداری کی خدمت لی لیکن اس میں  اسلام کے بجائے اشتراکی نظریات کی ترویج و اشاعت کا بول بالا تھا۔ کسی بھی تحریک کیلئے اس بنیاد نہایت اہم ہوتی ہے۔ بہترین صلاحیتوں کے حامل افراد پر مشتمل ترقی پسند  تحریک کے بہت قلیل عرصہ میں خزاں رسیدہ ہوجانے کی  وجہ اس کا کمزورمحرک کمزور ہے۔  اس کے برعکس اقبال نے مایوسی کا شکار مسلمانوں میں نیا جوش اور ولولہ پیدا کرنے کی خاطر اسلام کی عظمت کو اجاگر کیا۔اقبال کو چونکہ مغرب میں جاکر اس کے مشاہدے اور تجربے کی سعادت نصیب ہوئی تھی اس لئے  اس کی حقیقت اور بودہ  پن ان پر پوری طرح عیاں ہوچکا تھا ۔ اقبال نے زندگی کے مختلف شعبوں میں  مغربی نظریات کی تباہ کاریوں کو بہت قریب سے دیکھا وہ دونوں جنگ عظیم کے چشم دید شاہد تھے اس لئے انہوں شعوری طور پرامت کو مغربی تہذیب کی مرعوبیت سے نکالنےکی سعی و جدوجہد کی ۔ علامہ اقبال نے  صدابہار دین اسلام کی بنیاد پر مسلمانوں میں جو  بیداری پیدا فرما دی وہ خزاں ناآشنا ہے اسی لئے آج بھی زندہ و تابندہ ہے۔
یہ نغمہ فصل گل ولالہ کا نہیں پابند بہار  ہو کہ  خزاں   لا  الہ   اللہ
علامہ اقبال نے قرآن سنت کے علاوہ مغربی نظریات اور  ہندوستان کے قدیم فلسفہ اور شخصیات  سے بھی استفادہ کیا ۔ علامہ اقبال نے قدیم و جدید  زعماء  کی عظمت کے اعتراف میں بڑی وسیع القلبی کا  مظاہرہ فرمایا۔ علامہ کی شاعری میں جہاں امت مسلمہ کے اکابرین کا ذکر ہے وہیں غیر مسلمین کے حوالے بھی کثرت سے ملتے ہیں۔ سرزمین ہند کی نامور  ہندوشخصیات مثلاً  رام چندر ، شری کرشن ، گوتم بدھ ، گرونانک ، وشو امتر ، سوامی رام تیرتھ وغیرہ پر بھی علامہ کی  نظموں کو مقبولت حاصل ہوئی اور گاہے بگاہے ان کے حوالے دئیے جاتے ہیں ۔ ایک مرتبہ پنجاب کے گورنر نے ان سے شمس العلماء کے خطاب کیلئے نام  پیش کرنے کی ا ستدعا کی۔  اس کے جواب میں جذبۂ احسانمندی سے سرشار  اقبال نےجب اپنے  ا ستاد سید میر حسن کے نام کی سفارش کی تو گورنر نے کہا ہم نے تو نہ ان کا نام  سنا اورنہ ان کی کوئی تصنیف دیکھی۔ اقبال بولے میں ان کی زندہ تصنیف ہوں۔ لاہور میں اپنے انگریزی اور فلسفہ کے استاد پروفیسر آرنلڈ کی انگلستان واپسی نے علامہ کو غمگین کردیا  جس کا اظہار نظم نالۂ فراق میں کےلازوال عقیدت  کے پھولوں صورت میں ہوا  ؎
تو کہاں ہے اے کلیم  ذرۂ  سینائے  علم تھی  تری    موجِ   نفس   بادِ   نشاط  افزائے   علم
اب کہاں وہ شوق رہ پیمائی صحرائے علم تیرے دم سے تھا ہمارے سر میں بھی سودائے علم
علامہ کی وسعتِ نظر ی اور کشادہ دلی  نے انہیں سرزمین ہند کے عظیم فلسفی اور شاعر  بھرتری ہری کا بھی دلدادہ بنا دیا تھا ۔ یہی وجہ ہے کہ اقبال  نے اپنی مشہور کتاب بال جبریل کے سر ورق پر بھرتری ہری کے شعرکا ترجمہ  لکھا ہے۔ کسی  شعری مجموعے  کی ابتداء میں کسی  دوسرے فلسفی کے شعر کے موجودگی کا  منفرد اعزاز  کم ہی لوگوں کو حاصل ہوا ہوگا ۔ بھرتری ہری پہلی صدی عیسوی قبل مسیح میں سنسکرت زبان کا شاعر تھا  ۔ ریاستِ مالوہ کےاس راجہ کا دارالخلافہ اجین تھا۔ اس ماہر لسانیات نے  سنسکرت صرف و نحو کی معرکتہ الآرا  کتاب تصنیف کی جس کا آج بھی حوالہ دیا جاتا ہے۔
 اس کے علاوہ  بھرتری ہری تین شعری مجموعے ہیں جن میں زندگی کے تین اہم شعبہ جات پر اشعار درج ہیں۔ پہلی کتاب  شرنگار شتک میں عشق و محبت کو موضوع بنایا گیا ہے ۔  دوسری کتاب نیتی شتک اس دورکی تصنیف ہے جب وہ مالوہ کی ریاست اجین کا راج کمار تھا۔  اس میں بھرتری ہری نے اپنے  دور کی سیاسی حالات و نظریات کو پیش کیا ہے ۔اس شاعر کی اہم ترین کتاب ویراگیہ شتک ہے۔  اپنا راج پاٹ چھوڑ کر سنیاس لینے کے بعد اس نے ویراگیہ شتک لکھی جس میں معرفتِ الہٰی اور فقر وغناء  کو موضوع بحث بنایا گیا ہے ۔علامہ اقبال ایک شاعر کی حیثیت سے بھرتری ہری کے بڑےمداح تھےاور اس کی عظمت کا گن گاتے تھے ۔
بھرتری ہری کی شاعری میں  موجود موضوعات کے تنوع  اور وسعت کی بنیادی وجہ اس کی زندگی کے نشیب و فراز ہیں ۔ سنیاس لینے سے قبل اس نےایک کامیاب دنیا دار زندگی کا تجربہ کیا اور دنیاوی آلائشات میں اس حد تک منہمک ہوا کہ فکری اور تخلیقی زندگی کے شعبوں سے غافل ہوگیا ۔ اس غفلت کیلئے اس کااپنی بیوی رانی  پنگلہ کے ساتھ جنون کی حد تک عشق کو موردِ الزام ٹھہرایاجاتا ہے ۔ بھرتری ہری کے سوتیلے بھائی وکرمادتیہ  نے اس پر اعتراض کیا تو رانی  پنگلہ نے کمال رعونت  کا مظاہرہ کرتے ہوئےاپنے شوہر کی مددسے اسے ملک بدر کروادیا۔
بھرتری ہری کے بابت ایک نہایت دلچسپ واقعہ تاریخ کی کتابوں میں درج ہے۔   کہا جاتا ہے کہ  کسی سادھو سنت نےبھرتری ہری سے خوش ہو کر اس کی خدمت میں ایک پھل پیش کیا اور  یہ  وردان  بھی دیا  کہ اسے کھانے سے عمر میں اضافہ ہوگا ۔  بھرتری ہری چونکہ اپنی بیوی سے بہت محبت کرتا تھا اس لئے اس  نے اپنی ذات پر اسے ترجیح دی ۔ بھرتری ہری نے  وہ پھل اپنی چہیتی بیوی کو دے کر کہا کہ نہانے کے بعد اسے کھائے۔ پنگلہ ایک سائیس کے عشق میں گرفتار تھی اس لئے اس نے پھل اس کو دے دیا۔ سائیس ایک طوائف کا عاشق تھا اس لئے وہ  پھل  تحفہ کی صورت میں طوائف تک پہنچ گیا۔ طوائف نے بادشاہ کو خوش کرنے کیلئے وہ پھل بھرتری ہری   کی نذر کر دیا ۔ اس نے پھل تو کھا لیا مگر اس کو پتہ چل گیا کہ رانی پنگلہ بے وفا ہے۔ اس واقعہ  سے دل برداشتہ ہوکربھرتری ہری   نےنہ صرف اپنی بیوی سے کنارہ کشی اختیار کی بلکہ  راج پاٹ چھوڑ کرسنیاسی بن گیا ۔رانی پنگلہ کاکردار حقیقت ہے یا علامت  یہ تو تحقیق کا موضوع ہے لیکن اس میں شک نہیں کہ  کل یگ نے سفاک وبے وفا رانی  پنگلہ کو جمہوی لباس پہنا کرنیلم پری بنا دیا ہے جو علامہ اقبال کے اس شعر میں اپنے درشن کراتی ہے؎
دیو استبداد جمہوری قبا میں پائے کوب تو سمجھتاہے کہ آزادی کی ہے نیلم پری
عصرِ حاضر میں اس نیلم پری نے اپنا دامِ فریب کچھ اس طرح سے پھیلا  رکھا ہے کہ جمہوری دستور نے اقتدار کا پھل(حق) بظاہر عوام کے قدموں میں ڈال دیا ۔ عوام نے فی زمانہ  بی جے پی پر فریفتہ ہوکر اس پھل سے اسےنواز دیا۔ بی جے پی کا معشوق نریندر مودی تھا اس لئے وہ مودی جی کو تھما  دیا گیا۔ مودی جی سرمایہ داروں کے عاشق ہیں اس لئے انہوں نے اڈانی اور امبانی کو اس پھل سے مالامال کر دیا۔  سرمایہ داروں کے دل میں اگر عوام کی محبت ہوتی توا وروہ پھل  انہیں لوٹا دیتے تو دائرہ مکمل ہوجاتا لیکن کل یگ میں یہ کیونکر ممکن تھا اس لئے حریص سرمایہ داروں اسے اپنی تجوری میں بند کردیااور ملک کے عوام کی اکثریت  نانِ جویں کے محتاج  ہوگئی۔
جمہوریت کایہ طلسماتی پھل  دستور کے طفیل انتخاب کے موسم میں گاوں گاوں شہر شہر ہر شاخ پر اپنے آپ  لگ جاتا ہے۔ عوام اس کے سحر زدہ میں گرفتار ہو کر اپنے سارے دکھ درد بھلا دیتے ہیں اور سیاسی رہنماوں کی تقاریر کی بدولت نت نئے خواب سجانے لگتے ہیں۔  پچھلی بارتو قومی سطح پر عوام نےاس پھل  سےبی جے پی کو نواز دیا  تھالیکن  چونکہ انہیں اپنی غلطی کا روز افزوں احساس ہورہا  ہے اس لئےممکن ہے  وہ  آئندہ اس پھل کو کانگریس کے ہاتھ میں دے دیں ۔ پھر وہی سلسلہ چل پڑے گا ۔ کانگریس اسےراہل کی جھولی میں ڈال دے گی اور پھرگھوم کر وہ  سرمایہ دار کی تجوری  میں چلاجائیگا ۔ بیکس و لاچار عوام پھر  نئے انتخابی موسم  کا انتظار کریں گے اور کانگریس کو سبق سکھانے کیلئے ممکن ہے تیسرے محاذ  کووہ پھل تھمادیں  لیکن بالآخر لالو نتیش یا ملائم بھی  اسے سرمایہ داروں کے ہاتھ فروخت کرنے سے نہیں چوکیں گے ۔  عوام کوتو اس نظام میں صبر کے میٹھے پھل پر ہی اکتفاء کرنا ہوگا۔ وہ اسے کبھی نہ چکھ پائیں گے ۔
عوام کی یادداشت چونکہ بہت قلیل المدت ہوتی ہے اس لئے  قوی امکان ہے کہ  اگلے زمانوں کے لوگ  بی جے پی کی دھوکہ دھڑی کو بھول چکے ہوں ۔انہیں کمل پھر سے خوشنما لگنے لگے وہ پھر ایک بار اس کے دامِ فریب میں گرفتار ہو جائیں ۔ متبادل کے طور راضی خوشی نہ سہی تو بادلِ ناخواستہ عالمِ بیزاری میں اقتدار کے پھل کو  اس وقت کے مودی  کے چرنوں میں ڈال دیں  اور وہ سرمایہ داروں کے آگے سر بسجور ہوجائے ۔ سرمایہ دارانہ جمہوریت میں اس کے علاوہ اور ہو بھی کیا سکتا ہے۔  یہ سلسلہ اس وقت تک جاری و ساری رہے گا جب تک کہ  لوگ مغرب کے پروردہ اس لادینی جمہوری نظام  کو اپنے لئے باعثِ رحمت سمجھتے رہیں گےاور اس کی بیخ کنی کرنے کے بجائے اس کی آبیاری میں جٹے رہیں گے ۔  بھرتری ہری کی طرح موجودہ سیاستدانوں میں  سے نہ کوئی سنیاس لے گا اور نہ راشٹرکا کلیان ہوگا۔  علامہ اقبال نے ابلیس کی مجلس شوریٰ میں مغرب کے اس جمہوری نظام کی جو عکاسی کی تھی آج ہندوستان کا بچہ بچہ بسرو چشم  اس کا نظارہ کر رہا ہے؎
تو نے کیا دیکھا نہیں مغرب کا جمہوری نظام چہرہ روشن، اندروں چنگیز سے تاریک تر!
اس جدید نظام استبداد کی بدولت بھر تری ہری کی سرزمین ہند پر فی الحال جو شخص حکمرانی کررہا ہے جو بزعم خود سنیاسی نہ سہی تو کم از کم برہماچاری ضرور ہے۔ اس نے طلاق کےبغیر ہی رشتہ ازدواج منقطع کر رکھا ہے۔  وہ اپنی والدہ سے نمائشی ملاقات تو کرتا ہے لیکن ان کو اپنے پاس نہیں بلاتا۔ وہ بڑے طمطراق کے ساتھ یہ  دعویٰ تو کرتا  ہے کہ اس کا آگے پیچھے کوئی ایسا نہیں ہے کہ جس کیلئے وہ بدعنوانی میں ملوث ہو حالانکہ جو شخص سرکاری خرچ پردن میں پانچ مرتبہ کپڑے بدلےاور ان میں  ایک آدھ ۱۰ لاکھ تک کا سوٹ بھی  شامل  ہوتو اس کو بدعنوانی کے جال میں پھنسنے کیلئے کسی اور کی  کیا حاجت ؟
بھرتری ہری کے بعد سے یہ ملک بے مثال  فکری و عملی  انحطاط کا شکار ہوا ہے ۔ وہ تو خیرعلامہ اقبال کی ملاقات موجودہ وزیراعظم سے نہیں ہوئی ۔  اگر ایسا ہوا ہوتا اور اس کے بعد انہوں نے  بھرتری ہری والاوہ  ضرب المثل  شعر  کہا ہوتا تو یقیناً وزیراعظم کے حواری اسے اپنے چہیتے رہنما  سے منسوب کردیتے۔ مودی جی بھی جن کے نام سے ایک شعری مجموعہ شائع ہوچکا ہے اس شعر کو سمجھے بغیر بخوشی اس بات پر فخر جتاتے  ہوئے کہتے کہ پہلی بار کسی عظیم شاعر نے کسی وزیر اعظم پر شعر کہا ہےلیکن چونکہ ان پیدائش سے ۱۲ سال قبل علامہ اقبال اس دارِ فانی سے کوچ کرگئے تھے اس لئے اس حادثے کا امکان نہیں ہے ۔  ابھی تک اگر آپ نہیں جان سکے وہ کون سا شعر ہے جو ان کی شخصیت کا بھرپور عکاس ہے  تو لیجئے پڑھئے بالِ جبریل کے سرِ ورق پر بھرتری ہری کا معرکتہ الآراء خیال ؎
پھول کی پتی سے کٹ سکتا ہے ہیرے کا جگر مردِ ناداں  پرکلامِ  نرم   و نازک  بے   اثر
کیجریوال کےوزیراعظم کو بزدل اور نفسیاتی مریض کہنے پر آج کل بی جے پی والے خوب واویلا مچا رہے ہیں اورانہیں اپنی زبان پر لگام دینے کی تلقین کررہے ہیں ۔ بی جے پی جیسی بدزبان پارٹی کا جس کی ایک سادھوی رامزادے اور حرام زادے کی اصطلاح ایجاد کرتی ہے۔ جس کا ایک وزیرزیر حراست دلت نوجوان کی زیر حراست موت کو کتے کے پلے کی موت قرار دیتا ہے ۔ جس کے رہنما علی الاعلان بیف کھانے والوں کیلئے موت کی سزا تجویز کرتے ہیں اور خود وزیراعظم گجرات کے فساد کو اپنی گاڑی کے پہیے تلے آنے والے کتے سے تعبیر کرتا ہے ، دوسروں کی لب کشائی پر تنقید کرنا کچھ عجیب سا لگتا ہے ۔ اروند کیجریوال نے مذکورہ شعر کی روشنی میں کہا کہ چونکہ وزیراعظم سیاسی میدان میں مجھ پر قابو نہیں پاسکے اس لئے اوچھی حرکات پر اتر آئے ہیں اور یہ بھی بولے کہ ملک کا وزیرخزانہ کاذب ہے۔ سچ تو یہ ہے کہ اگر لاتوں کے بھوت کی پوجا جوتوں سے ہوتی ہے۔  

Thursday 10 December 2015

Election ka khel (Urdu)

وزیر اعظم جو آج کل مفاہمت اور سمجھداری کی باتیں کررہے ہیں اس کے پیچھےدہلی سے شروع ہو کر بہار، اترپردیش  اور اب یہ مدھیہ پردیش سے ہوتا ہوا گجرات تک پہنچنے والا شکست و ریخت کا طویل  سلسلہ کارفرما ہے۔ گجرات گرام پنچایت کے انتخابی نتائج کو دیکھنے کے بعد یہ بات اظہر من الشمس ہوجاتی ہے کہ انہوں نے بڑودہ کے حلقۂ انتخاب پر وارانسی کو ترجیح کیوں دی ؟ گجرات کا جھٹکا  بہارسے زوردار ہے۔ اس لئے کہ گجرات نہ صرف وزیراعظم کی کرم بھومی ہے بلکہ امیت شاہ بھی وہیں کہ دھرتی پتر ہیں ۔ ان کے علاوہ وزیرخزانہ ارون جیٹلی بھی ایوانِ بالا میں گجرات کی نمائندگی کرتے ہیں ۔ انسانی وسائل کی وزیر سمرتی ایرانی کا تعلق بھی گجرات سے ہےاور بی جے پی کے بھیشم پتامہ لال کرشن اڈوانی کا حلقۂ انتخاب بھی گجرات ہی میں ہے۔ یہ حسن اتفاق ہے کہ ۱۵ اگست ؁۲۰۱۴ کو وزیراعظم نے جس آدرش گرام  یوجنا کا اعلان کیا تھا اس کے تحت مذکورہ بالا تینوں رہنماوں نے گجرات کے تین گاوں گود لئے اور ان تینوں مقامات پر بی جے پی پنچایت چناو ہار گئی۔  ایسا لگتا ہے کہ بی جےپی کے جو اچھے دن مختصر سے مدت کیلئے آئے تھے وہ بہت جلدلوٹ گئے۔ کامیابی کی بوند بوند کو ترسنے والے  وزیراعظم کے پاس  اب عظیم اقبال کا یہ شعر گنگنانے کے علاوہ کیا چارۂ کار ہے ؎
یہ مری  انا کی شکست ہے،  نہ دعا کرو، نہ دوا کرو
جو کرو تو اتنا کرم کرو، مجھے میرے حال پہ چھوڑ دو
کوئی بعید نہیں کہ وزیراعظم ان پہ درپہ لگنے والے زخموں کا غم غلط کرنے کیلئے غیر ملکی دوروں پر نکل کھڑے ہوتے ہوں ۔ چونکہ خود مودی جی  اترپردیش کو گجرات پر ترجیح دیتے ہیں اس لئے پہلے اتر پردیش بلکہ وارانسی کا ذکر ہوجائے۔ وزیراعظم نے آدرش گرام یو جنا کے تحت جیا پور نام کا گاوں گود لیا  اور بڑی شان سے اعلان کیا کہ میں نے جیا پور کو نہیں بلکہ جیا پور نے مجھے گود لیا ہے۔جیا پور کا پنچایت انتخاب جیتنے کیلئے مہنت اویدیہ ناتھ نے اپنی ہندو واہنی کو سنجے جوشی کے ساتھ  وہاں بھیجا اس کے باوجود بہوجن سماج پارٹی کے ایک براہمن امیدوار گڈو تیواری نے بی جے پی کے ارون کمار سنگھ کو شکست دے دی ۔ ارون کمار سنگھ مقامی بجرنگ دل کاناظم ہے ۔ اس پر قتل اور ناجائز اسلحہ  رکھنے کےمقدمات بھی ہیں اس لئے اگر آدرش  گاوں کے لوگوں نے اسے دھتکاردیا تو کیا غلط کیا؟
 بی جے پی کے اپنے دعویٰ کے مطابق اسے  ضلعی پنچایت انتخاب میں صرف  ۱۷ فیصد نشستوں پر کامیابی ملی ۔ وارانسی میں کامیابی کی شرح بھی لگ بھگ وہی رہی ۴۸ میں ۹  امیدوارکامیاب  ہوئے باقی سارے ہار گئے۔ اس کے برعکس سماجوادی پارٹی نے ۲۵ نشستوں پر اپنی کامیابی درج کرائی ۔ وہ تو خیر سے مودی جی نےخود  کوانتخابی مہم سے روکے رکھا ورنہ ان۹ امیدواروں کی  کامیابی بھی مشکوک  ہوجاتی  ۔اس طرح کےمواقع پر اپنے آپ کو قابو میں رکھنا  مودی جی کے لئے بہت مشکل  ہوتاہے مبادہ  ان کے صبرو ضبط کی وجہ  افتخار راغب کےاس شعر میں بیان ہوئی ہو ؎
جب بھی میں نے چاہا، راغب دشمن پر یلغار کروں
خود کو  اپنے سامنے پاکر  میں نے  خود کو   روکا  ہے
اس دوران بی جے پی کیلئے اچھی خبر منی پور سے آئی جہاں اس کے دو امیدوار کا میاب ہو کر صوبائی اسمبلی پہنچ گئے ۔  وہیں میزورم کے شمالی ایزول کی نشست پر کانگریس نے اپنی پکڑ بنائے رکھی اور میگھالیہ میں ایچ ایس پی ڈی پی نے اپنی کامیابی درج کرائی ۔ مدھیہ پردیش میں بی جے پی کو ایک فتح اور ایک شکست کا سامنا کرنا پڑا۔ دیواس میں تکوجی پوار کے موت سے خالی ہونے والی نشست پر بی جے پی نے ان کی بیوی گایتری راجے پوار کو امیدوار بنایا۔ گایتری نے کا نگریس کے جئے پرکاش شاستری کو ہرا دیا لیکن پچھلی مرتبہ کے مقابلے شکست کے فرق میں ۲۰ہزار ووٹوں کی کمی آگئی۔ شوہر۵۰ ہزار ووٹ سے جیتا تھا زوجہ صرف۳۰ہزار سے کامیاب ہوئی۔  لیکن بی جے پی کو اس سے بڑا جھٹکا جھبوا رتلام میں لگا جہاں کچھ عرصہ قبل دھماکوں میں ۸۰  سے زائدلوگ ہلاک ہوئے تھے۔
کانگریسی  موروثیت کی اٹھتے بیٹھتے مخالفت کرنے والی بی جے پی نے جھبوا میں بھی آنجہانی رکن پارلیمان دلیپ سنگھ بھوریا کی بیٹی نرملا بھوریا کو اپنا امیدوار بنایا۔  یہ روایتی طور پر یہ کانگریس کی سیٹ ہے اور یہاں سے کانتی لال بھوریا ۴ مرتبہ کامیاب ہوچکے ہیں لیکن پچھلی مرتبہ مودی لہر کے چلتے وہ ۴۰ ہزار ووٹ سے ہار گئے تھے لیکن اس بار انہیں ۸۰ ہزار کے فرق سے کامیابی ملی ۔  اس نشست کو وزیراعلیٰ شیوراج چوہان نے اپنے وقار کا مسئلہ بنا لیا تھا ۔ انہوں نے وہاں ۶ دنوں تک قیام کیا ۲۷ خطابات عام کئے دھماکے سے مرنے والے مہلوکین کے گھر گھر گئے لیکن اس کے باوجود جو حشر ہوا وہ سامنے ہے ۔ ویسے ویاپم گھوٹالے میں پھنسے ہوئےشیوراج  چوہان اگروزیراعظم کے نقشِ قدم پر چل کر اپنی مٹی پلید نہ کراتےتو اچھا تھا ۔  ایم پی میں جہاں برسرِ اقتدار بی جے پی کی یہ درگت بنی وہیں تلنگانہ میں ٹی آر ایس نے ورنگل میں ۴ لاکھ ۵۰ ہزار کے فرق سے کامیابی حاصل کرکے بتا دیا کہ مقبولیت کس کو کہتے ہیں ؟ ملک بھر کے  بی جے پی رہنما اپنے آس پاس دشمنوں  کو جشن مناتے ہوئے حیرت سے دیکھ رہے ہیں ان کی حالت اس شعر کی مصداق ہے؎
یہ کون  چھوڑ  گیا  ہے  ہمیں  اندھیرے   میں
شکست کھائے ہوئے دشمنوں کے گھیرے میں
گجرات کی کہانی سب سے زیادہ دلچسپ ہے۔ اس کی ایک جھلک بلساڑ ضلع پنچایت کی کلواڑ نشست میں دیکھنے کو ملی ۔ اس نشست پر بی جے پی نے ہریش بھائی پٹیل کو ٹکٹ دیا تو کانگریس نے ان کی بیوی جئے شری بین پٹیل کو اپنا امیدوار بنایا۔ ان دونوں کا مقدمہ گزشتہ ۹ سالوں سے عدالت کے فیصلے کا منتظر ہے۔ غالباً عدالت سے مایوس ہوکر یہ لوگ سیاست کے اکھاڑے میں ایک دوسرے خلاف کود پڑے اور نتیجہ یہ نکلا کہ جئے شری کو وجئے شری پراپت ہوگئی اس نے اپنے شوہر نامدار کو ۷۹۱ ووٹوں سے شکست دے دی۔  ایک اور دلچسپ پہلو یہ ہے کہ راجیہ سبھا میں اپنے ارکان کی تعداد کو بڑھانے کی خاطرمودی جی نے جو۷ نئے ضلعے بنائے تھے ۔  ان میں سے صرف ایک گیر سومناتھ میں کانگریس اور بی جے پی دونوں کے۱۴ امیدوار کامیاب ہوئے لیکن باقی ۶  میں بی جے پی کو کراری ہار کا سامنا کرنا پڑا۔ موربی اور بوتاڑ میں تو بی جے پی کے دو امیدواروں کےمقابلے کانگریس کے ۲۲ اور ۱۸ امیدوار کامیاب ہوگئے ۔
گجرات اس بار شہر اور گاوں کے درمیان تقسیم ہوگیا ۔ ۶بڑے شہروں کے میونسپل کارپوریشنس پر کمل کھلا اور ۵۶ میں سے ۴۲ میونسپلٹی  پربی جے پی  کا قبضہ برقرار رہا حالانکہ اس کی نشستوں کی تعداد میں پہلے کی بہ نسبت کمی آئی۔  اس کے برعکس تعلقہ سطح پر      بی جے پی ؁۲۰۱۰ کے مقابلے۲۴۶۰ سے ۲۰۱۷ پر اتر آئی اور کانگریس ۱۴۲۸ سے چڑھ کر ۲۵۴۸ پر پہنچ گئی۔ضلعی پنچایت میں بی جے پی کے۳۶۸  تو کانگریس کے ۵۹۵ امیدوار کامیاب ہوئے۔ اس طرح ۳۱ میں سے ۲۱ ضلعی پنچایت پر کانگریس کا قبضہ ہو گیا ۔ ؁۲۰۱۰ میں بی جے پی کا ۳۰ ضلع پنچایت پر قابض تھی لیکن اب وہ ۶ تک محدود ہوگئی ہے ۔پانچ سال قبل  کانگریس کی  کسی ایک ضلع میں بھی اکثریت میں نہیں تھی لیکن اب ۲۱ پنچایتیں اس کے قبضے میں آگئی ہیں۔
تعلقہ سطح پر  بی جے پی کو ؁۲۰۱۰ کے ۱۹۲ سے ۷۳ پر آنا پڑا جبکہ کانگریس ۳۷ سے بڑھ کر۱۳۲ تعلقہ پنچایت میں کامیاب رہی ۔ میونسپلٹی میں جہاں بی جے پی ۴۷ سے گھٹ کر ۴۲ پر پہنچی وہیں کانگریس اپنی قوت میں صد فیصد اضافہ کرکے ۵ سے ۱۰ مقامات پر کامیاب ہوگئی۔ ان نتائج کو اگر ووٹ کے فیصد میں تبدیل کیا جائے تو کانگریس کے۵۲ فیصد اور بی جے پی کے۴۴ فیصد ووٹ بنتے ہیں ۔ اس طرح گزشتہ سال کے پارلیمانی انتخابات کے مقابلے بی جے پی کے ووٹ بنک میں ۱۵ فیصد کی زبردست کمی واقع ہوئی ہے ۔  جس کے  اثرات یقیناً ؁۲۰۱۷ کے ریاستی انتخابات پر پڑ یں گے۔
بی جے پی کو اپنے انجام کا اندازہ تھا  اس لئے گجرات کی حکومت مختلف بہانوں سےبلدیاتی انتخابات ٹال رہی تھی ۔ الیکشن کمیشن کے خلاف اس نے عدالت میں گہار لگائی کہ آزادوغیرجانبدار انتخاب کروانے کیلئے ماحول  سازگار نہیں ہے لیکن عدالت نے اس نامعقول دلیل کو مسترد کردیا  اور اسے   مجبوراً انتخابات کرانے پڑے ۔ بی جے پی نے آگے چل ایک اور داوں  کھیلتے ہوئےرائے دہندگی کی تاریخ دیوالی اور شادی کا موسم میں طے کردی۔ ان لوگوں کو خام خیالی تھی کہ عام لوگ دلچسپی نہیں لیں گے اور ان کے کارکن بڑھ چڑھ کر کامیابی سے ہمکنارکردیں گے لیکن ایسا نہیں ہوا ۔ جہاں میونسپل کارپوریشن میں ؁۲۰۱۰ کے مقابلے زیادہ رائے دہندگان(۴۵ فیصد ) نے حصہ لیا وہیں تعلقہ پنچایت میں یہ تعداد بڑھ کر ۶۰ پر پہنچ گئی ۔ اس کا مطلب ہے کہ لوگ اپنی دیگر مصروفیات کو چھوڑ کرقصداً بی جے پی کو ہرانے کیلئے پولنگ بوتھ میں آئے۔  اس طرح گویا۷ ماہ کی پاٹیدار تحریک نے بی جے پی کے ۱۷ سالہ اقتدار کی چولیں ہلا دیں ۔
قومی سیاست میں جو مقام اتر پردیش کو حاصل ہے وہی حیثیت گجرات کے اندر سوراشٹر کی ہے اور مثل مشہور ہے کہ جو سوراشٹر سے کامیاب ہوتا ہے وہی گجرات پر راج کرتا ہے ۔ سوراشٹر کو ہندوتوا کی لیباریٹری کہلانے کا بھی شرف حاصل ہے اس کے باوجود وہاں جو کچھ ہوا وہ چونکا دینے والا ہے۔ سوراشٹر کے اندر کانگریس کو ۱۱ میں سے۱۰ ضلعوں میں کامیابی ملی اور صرف گاندھی نگری پوربندر میں بی جے پی اپنی ناک بچا سکی۔  تعلقہ سطح پرکانگریس نے ۶ مقامات بڑے فرق کےساتھ بی جے پی سے چھین لئے ۔  کڑوا پٹیل اور لیوا پٹیل کے درمیان کا اختلاف بھی بی جے پی کے کام نہ آسکا۔ لیوا پٹیل سماج کے طاقتور رہنما وٹھل رادڑیہ کے امیدواروں کو راجکوٹ میں ۳۶ میں سے ۳۵ نشستوں پر شکست کا سامنا کرنا پڑا۔  شمالی گجرات  کے مہسانہ ، گاندھی نگر، سابر کانٹھا اور پاٹن ضلعوں سے جووزیراعظم  نریندر مودی ، وزیراعلیٰ آنندی بین پٹیل اور دیگر بڑے وزراء کا علاقہ ہے بی جے پی کا سپڑا صاف ہوگیا۔   ایسا کیوں ہوا اس کی وجہ ناصر کا ظمی کے شعر میں دیکھیں؎
پیاسی  دھرتی جلتی ہے، سوکھ  گئے  بہتے دریا
فصلیں جل کر راکھ ہوئیں،نگری نگری کال پڑا
مبصرین کا خیال ہے کہ یہ حکومت کے خلاف عوامی ناراضگی کا اظہار ہے۔ فصلوں کی تباہی ، کسانوں کی خودکشی، غیر واضح تحویل اراضی کا قانون  اور بے روزگاری جیسے حقیقی مسائل نے بی جے پی کا بیڑہ غرق کردیا ۔ عوام کو فی الحال گھروں کی قیمتوں میں اضافہ اور سڑکوںو پلوں کی خستہ حالت نے تنگ کررکھاہے اس لئے وہ اسمارٹ سٹی، وائی فائی والے شہر اور ترقی پذیر گجرات جیسے نعروں سے متاثر نہیں ہوتے ۔ سماجی فلاح وبہبود کی کسوٹی پر ؁۲۰۰۰ میں گجرات ۱۰ ویں مقام پر تھا ۔ اس کے بعد مودی کی دورِ اقتدار میں ؁۲۰۱۱ تک وہ ایک پائیدان نیچے کھسک کر ۱۱ ویں مقام پر پہنچ گیا ۔یہ اس گجرات  ماڈل کی تلخ حقیقت ہے جس کو  دکھلا کر ساری ملک کی عوام کو بیوقوف بنایا گیااورملک کے بھولے بھالے لوگ بھی خوب اس کے جھانسے میں آگئے بقول شاعر(ترمیم میں معذرت کے ساتھ) ؎
اچھے دن کی آ س لگاکر میں نے خود کو جھونکا تھا
کیسے کیسے خواب دکھا کرمیں نے خود کوجھونکاتھا
  گجرات کے بڑے شہروں میں بی جے پی کی کامیابی اور دیہات  میں ناکامی کی ایک وجہ آمدنی کاتفاوت بھی ہے ۔ ؁۱۹۹۴ میں گجرات کا عام شہری ایک دیہاتی کے مقابلے ۵۰ فیصد زیادہ کماتا تھا ۔ یہ فرق ؁۲۰۰۷ میں ۶۸ فیصد تک پہنچ گیا اوراب بھی وہیں ہے ۔ہاردک پٹیل کی تحریک کے پیچھے  بھی یہ عوامل کارفرما ہیں اس لئے کہ زیادہ ترپٹیل برادری کسان ہے اور چھوٹے شہروں میں رہتی ہے۔ اس تفریق و امتیاز کی سب سے بڑی قیمت ادیباسیوں اور مسلمانوں نے چکائی ۔ ادیباسیوں کے قومی کمیشن نے اور سچر کمیٹی کی رپورٹ نے ریاستی حکومت  کی توجہ اس جانب مبذول تو کرادی لیکن اس مسئلہ کو حل کرنے کیلئے حکومت نے کوئی ٹھوس اقدام نہیں کیا۔ شاید اس لئے کہ بی جے پی کو پتہ  ہےمسلمان اور ادیباسی روایتی طور پر کانگریس کے ساتھ رہے ہیں ۔لیکن ان نتائج کے بعد کم ازکم  اب یہ بات حکومت کی سمجھ میں آنی چاہئے کہ ’’میک ان انڈیا ‘‘ کے تحت شہروں میں بڑی کمپنیوں کے آجانے سے دیہات کی بیروزگاری دور نہیں ہوگی ۔
ان انتخابی نتائج کا فی الحال قومی سیاست پر تو کوئی  خاص اثر نہیں پڑے گا لیکن بی جے پی کی اندرونی جاری رسہ کشی پر یہ ضرور اثر انداز ہوں گے اور امیت شاہ کا پھر سے صدر منتخب ہونا خطرے میں پڑ سکتا ہے۔  بزرگ رہنماوں نے غم و غصہ کے اظہار سے امیت شاہ کو یہ احساس کرادیا ہے۔ یہی وجہ ہے کہ بی جے پی کے آئندہ قومی مجلس عاملہ کے اجلاس میں۸۰ لوگوں کو خصوصی مدعو کے طور پر شریک  کیا جارہا ہے جبکہ اس کے کل ۱۰۵ ارکان ہیں۔ امیت شاہ چاہتے ہیں  کہ اپنے  حواریوں کی مدد سے مخالفین کے اثرات کو زائل کریں ۔ امیت شاہ کے دوبارہ منتخب ہونے یا نہ ہونے کا سیدھا اثر آئندہ سال ہونے والے آسام ، مغربی بنگال، تمل ناڈو، کیرالہ اور پنجاب پر پڑ سکتا ہے۔یکے بعد دیگرے ناکامیوں سے دوچارکانگریس فری انڈیا کا نعرہ لگانے والے امیت شاہ  کی حالت  زارپر یہ شعر صادق آتا ہے ؎
یہ جو ایک ترکشِ وقت ہے، ابھی اس میں تیر بہت سے ہیں
کوئی تیر تم  کو  نہ  آلگے  ،  مرے حالِ  دل پہ  نہ  یوں  ہنسو

Monday 7 December 2015

6 दिसंबर: मनदिर नहीं बनाएंगे

किसी युग में संघ परिवार की घोषणा थी 'मंदिर वहीं बनाएंगे' लेकिन अब वह बदल कर 'मंदिर नहीं बनाएंगे' हो गई है। इस बदलाव के कई कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि इस बासी कढ़ी में अब उबाल नहीं आता। जनता उस की ओर आकर्षित नहीं होती। इसके माध्यम से जनता का भावनात्मक शोषण करके वोट पाना असंभव हो गया है आदि। जहां तक मंदिर निर्माण का प्रशन है संघ को इसमें रुचि न पहले थी न अब है। संघ परिवार के लोग तो केवल कैमरे के आगे पूजा-पाठ करते हैं और इसके हटते ही राजनीतिक दांव पेंच में व्यस्त हो जाते हैं। राम मंदिर के बीज से सारा तेल निकाला जा चुका है और अब उसके बुरादा पर मक्खियां भिनभिनाती हैं। संभवत: इस पीढ़ी के के बाद (जो इस खेल तमाशे देख चुकी है, नए लोगों के सामने जो इस से परिचित न हों) यह मुद्दा फिर से जीवित कर दिया जाए। पुर्नजन्म में विश्वास रखने वाले खुद तो दोबारा जन्म नहीं ले सकते परंतु उन के व्दारा उत्पन्न किए जाने वाले विवाद जैसे गाय, लव जिहाद, घर वापसी, समान नागरिक संहिता, संविधान अनुच्छेद 370, मुसलमानों की जनसंख्या आदि बार-बार जन्म लेते रहते है।
राम मंदिर आंदोलन के बारे में उक्त दावा केवल भुलावा नहीं है। 6 दिसंबर  1992 के बाद घटने वाली घटनाओं पर नज़र डालने से यह बात अपने आप स्पष्ट हो जाती है। यह आश्चर्य जनक तथ्य है कि राम मंदिर आंदोलन  1984 से उठकर  1992 में शिखर पर पहुंचा। इस पूरी अवधि में भारत के अंदर कांग्रेस या तीसरे मोर्चे की सरकार थी मगर उसके पतन की शुरूआत शीला दान से हुई जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के नाम पर भाजपा सत्तासीन थी। अटल जी के कार्यकाल में 15 मार्च  2002 को विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल और राम जन्मभूमि न्यास के महंत रामचंद्र परमहंस ने अस्थायी राम मंदिर के भीतर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करते हुए प्रतीकात्मक पूजा-पाठ की घोषणा करके हलचल मचा दी।
इन लोगों को आशा थी कि जब नर्सिम्हाराव हमें चोर दरवाजे से मस्जिद को ढाने की अनुमति दे सकते हैं हमारे अपने लोग पूजा करने से कैसे रोक सकते हैं लेकिन ऐसा नहीं होवा। केंद्र सरकार ने विहिप को मजबूर किया कि वह शीला न्यास करने के बजाय दिगंबर अखाड़ा ही में प्रधानमंत्री कार्यालय से आने वाले शत्रुघ्न सिंह को शीला दान कर दें। शीला दान के लिए बाबरी मस्जिद की भूमि से करीब जिस राम कोट मोहल्ले की घोषणा की गई थी वहाँ तक जाने की अनुमति भी केंद्र सरकार ने नहीं दी।
कार सेवकों और राम भक्तों ने इस बदलाव को धोखाधड़ी करार दिया और सिंघल व परमहंस को खूब बुरा भला कहा। विहिप का विरोध करते होए निर्मोही अखाड़े के महंत जगन्नाथ दास ने कहा सीमा पर तनाव के चलते यह विवाद मूर्खतापूर्ण है। महंत जगन्नाथ ने स्पष्ट किया चूँकि राम मंदिर की जमीन पर स्वामित्व का दावा निर्मोही अखाड़े का है इसलिए मंदिर जमीन किसी और को नहीं मिल सकती है। उन्होंने यह गंभीर आरोप भी लगाया कि अशोक सिंघल ने उन्हें स्वामित्व स्थानांतरित करने के बदले दस करोड रुपये रिश्वत की पेशकश की जिसे उन्हों ने यह कहकर नकार दिया कि मैं अपनी श्रध्दा और आस्था नहीं बेच सकते। राम चबूतरा के दावेदार महंत रघुवीर दास ने आरोप लगाया कि उनका अखाड़ा1885   से न्यायिक लड़ाई लड़ रहा है। विहिप वाले जनता को बेवकूफ बना रहे हैं। जब उन्हें जमीन ही नहीं मिलेगी तो वह मंदिर कैसे बनाएंगे? अयोध्या के चौथे बड़े अखाड़े हनुमान गढ़ी के प्रमुख महंत ज्ञानदास भी विहिप के विरोधी थे। वे सभी अदालत के फैसले का प्रतिक्षा करने के पक्षधर थे। उनका यह आरोप भी था कि संघ परिवार ने रामचंद्र परमहंस को अपने कब्जे में ले लिया है और उनका शोषण कर रहा।
परमहंस मूर्ति रखने से लेकर बाबरी मस्जिद की शहादत तक तो बहुत सक्रिय थे मगर 2002 में शीलादान के तमाशे ने उनका दिल तोड़ दिया। सुप्रीम कोर्ट ने जून की तारीख दे रखी थी इसलिए अशोक सिंघल ने जनता को मूर्ख बनाने के लिए 100 दिनों का पूर्ण आहुती यज्ञ शुरू कर दिया मगर रामचंद्र परमहंस इस से दूर हो गए। इन की भाषा बदल गई और वे आपसी सहमति से विवाद निपटाने का राग अलापने लगे। वे बोले यदि राम मंदिर समस्या को स्थानीय लोगों पर छोड़ दिया जाता तो वह बड़ी आसानी से निपट जाता मगर राजनीतिज्ञों ने अपने हित की खातिर इसे बिगाड़ दिया। अपने अनुयायों से उन्होंने यहां तक कहा कि मेरा मंदिर एक भी मुसलमान के रक्तपात पर नहीं बनेगा। 6 जुलाई  2003 को दिल का दौरा पड़ने से रामचंद्र परमहंस का निधन हो गया। विहिप के उपाध्यक्ष गिरिराज किशोर ने उस समय आरोप लगाया था कि एक महीने पहले लालकृष्ण आडवाणी से मुलाकात के बाद परमहंस गंभीर दबाव में थे और उनकी म्रत्यु के दोषी आडवाणी जी हैं। इस तरह मानो उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री आडवाणी ने अनजाने में सही राम जन्मभूमि आंदोलन के एक पैर तोड़ दिया।
 2004 में अंततः बीजेपी सरकार रामल्ला को नर्सिम्हा राव व्दारा स्थापित अस्थायी मंदिर में छोड़कर विदा हो गई। इस आंदोलन में दूसरी दरार 2009 के चुनाव से पहले पड़ी जब आडवाणी जी फिर एक बार प्रधानमंत्री की दौड़ में कूह पडे। उस समय उनकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा बाबरी मस्जिद की शहादत का कलंक था। रथयात्रा के महारथी आडवाणी ने अपना दामन उजला करने के लिए पहले तो यह सफाई दी कि उनका इरादा बाबरी मस्जिद के विध्वंस नहीं था। इसके बाद बोले वे बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर वे दुखी तो हुए मगर उन्हें इसका खेद नहीं है। आगे चल कर जब लगा कि यह पर्याप्त नहीं है तो घोषणा कर दी कि 6 दिसंबर उनके जीवन का सबसे बडा शोकासीन दिवस था। यह घोषणा उन्होंने न केवल इस्लामाबाद में जाकर की बल्कि अपनी जीवनी '' मेरा देश मेरा जीवन '' मैं भी उसे दर्ज किया। आडवाणी जी अपनी सारी कलाबाजी के बावजूद न घर के रहे न घाट के।
अशोक सिंघल ने आडवाणी जी के व्यवहार की तीव्र आलोचना की और कहा आडवाणी जी इस तरह का सुरक्षात्मक रवैया छोड़ दें। 6 दिसमबर हिन्दु इतिहास का शौर्य दिवस था। तपन घोष नामक राष्ट्र संव्यक संघ के एक सच्चे कार्यकर्ता ने 6 दिसंबर  2009 को अशोक सिंघल के नाम एक खुला पत्र लिखा। यह पत्र अंदर की कहानी बताता है। इस पत्र में राम मंदिर निर्माण की बाहरी बाधाओं का उल्लेख करने के बाद कहा गया था कि राम मंदिर आंदोलन के नेताओं से एक महान चूक होई। उन्हों ने राम मंदिर आंदोलन के माध्यम से प्राप्त संसाधन को राजनीति की भेंट चढा दिया और बहुमत में आने से पूर्व सत्तासीन हो गए। इसके पीछे एक मात्र प्रेरणा सत्ता का लालच था।
निराशा व अराजकता का शिकार होकर नेताओं ने अपनी विचार धारा से सहझौता कर लिया और इस अपराध में न केवल भाजपा बल्कि पूरा संघ परिवार साझी है। उन्होंने अपने वाहनों पर लाल बत्ती लगवाने के लिए राम मंदिर को लाल बत्ती दिखा दिया । जब तक पहले मंदिर और फिर सत्ता थी आंदोलन सफल था लेकिन मंदिर पर सत्ता की प्राथमिकता विफलता का कारण बन गई। सिद्धांतों को पर सत्ता और विलासिता की लालसा ने लुटिया डुबा दी। तपन का मानना था संघ ने जल्दबाजी से काम लिया। उसे बहुमत की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी मगर आज अगर वह जीवित है तो खुली आँखों से देख सकता है कि भाजपा का अपने बलबूते पर सत्ता में आना भी राम मंदिर के किसी काम नहीं आ सका।
20014  के चुनाव से पहले आडवाणी जी का टिकट कट गया। मोदी जी ने राम मंदिर का सहारा लेने के बजाए 'सब के साथ और सबका विकास' की घोषणा करके अपने माथे पर लगा गुजरात का कलंक छिपाया और सत्ता में आ गए इस तरह मानो राम मंदिर निर्माण करने की जिम्मेदारी से वे अपने आप मुक्त हो गए। चुनाव से पूर्व अक्टूबर 2013 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने यह कहकर सारी दुनिया को चौंका दिया कि सत्ता में आने के पश्चात वह मंदिर से पहले शौचालय बनवाएंगे। उनका कहना था कि हर साल लाखों रुपये मंदिर बनाने में झोंक दिये जाते है लेकिन इससे बड़ी शर्मिंदगी की और कोई बात नहीं हो सकती कि इक्कीसवें शतक में भी हमारी मां और बहनों को शौचालय उपलब्ध नहीं है और उन्हें खुले आसमान तले बैठना पड़ता है ।चुनाव में सफलता के बाद  2014 अक्टूबर में उन्होंने स्वच्छ भारत आंदोलन शुरु भी किया परंतु दुर्भाग्यवश वह मीडिया तक सीमित रहा। मोदी जी को यह सुविधा प्राप्त है कि अब विहिप वाले उन पर आरोप नहीं लगा सकते कि उन्होंने राम मंदिर के नाम पर सत्ता प्राप्ति के बाद उसे भुला दिया।
अशोक सिंघल को भी इस बात का तीव्र अहसास हो गया था कि मोदी सरकार उन पर निर्भर नहीं है यही वजह है कि पिछले साल 21 दिसंबर को अशोक सिंघल ने एक पुस्तक विमोचन समारोह में दावा किया कि उनके पचास वर्षीय संघर्ष के परिणामस्वरूप 800 साल की गुलामी के बाद हिंदू अपना गंवाया हुआ साम्राज्य स्थापित करने में सफल हो गए हैं। इसी बयान को महम्मद सलीम ने संसद में राजनाथ से जोड़कर हंगामा मचा दिया। अशोक सिंघल ने बारहवीं सदी के पृथ्वीराज चव्हाण की ओर संकेत करते हुए कहा कि 800 साल बाद देश में हिंदुत्व की रक्षक सरकार अस्तित्व में आई है और हिंदुत्व के मूल्यों को स्थापित किया जा रहा है।
सिंघल ने हिंदू समाज द्वारा विश्व कल्याण की बात की और कहा, हम लोगों का धर्म नहीं बल्कि ह्रदय परिवर्तन चाहते हैं। यह बात अशोक सिंघल ने घर वापसी आंदोलन के दौरान कही थी। विश्व युद्ध से ले कर इस्लामी आतंकवाद तक अनगिनत समस्याओं पर सिंघल ने अपने भाषण में चर्चा की लेकिन राम मंदिर पर चुप्पि साधे रहे। जो व्यक्ति राम मंदिर के बिना एक निवाला न निगलते हो इस का इस समस्या को गटक जाना इस वास्तविकता का खुला प्रमाण था कि रामचंद्र परमहंस की मौत के ग्यारह साल बाद सिंघल भी निराशा हो चुके हैं और यह शुभकार्य भी भाजपा के शासन काल में हुआ।
15  सतम्बर 2015 को अशोक सिंघल 89 वें जन्मदिन के अवसर पर उनकी जीवनी बनाम 'हिंदुत्व के पुरोधा' का विमोचन किया गया। इस अवसर पर सरसंघचालक मोहन भागवत, गृहमंत्री राजनाथ सिंह के अलावा स्वामी सत्यामित्रानन्द, साध्वी प्रज्ञा, साध्वी निरंजन ज्योति, राघवुलू रेड्डी, केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा और हर्षवर्धन मौजूद थे। इन लोगों ने अशोक सिंघल की को खूब श्रद्धांजलि तो दी मगर सिवाय विहिप के अध्यक्ष विष्णु हरि डालमिया किसी ने झूठे मुंह राम मंदिर के निर्माण की बात नहीं की।
डालमिया ने कहा जन्म दिन के अवसर पर उपहार देने की प्राचीन परंपरा है। मैं प्रधानमंत्री से कहूंगा कि वे अशोक सिंघल जी को उनके 90 वें जन्मदिन पर राम मंदिर का उपहार दें। राजनाथ सिंह यहां मौजूद हैं और वे इस संदेश को मोदी तक पहुंचा सकते हैं। बेचारे डालमिया नहीं जानते थे कि आगामी जन्मदिन का उपहार लेने के लिए सिंघल खुद मौजूद नहीं होंगे। इस सभा के बाद पर्यवेक्षकों ने लिखा था कि अशोक सिंघल खुद मोदी सरकार के राम मंदिर को ठंडे बस्ते में डाल देने से बहुत चिंतित हैं। इस समारोह के बाद अशोक सिंघल कैलाश वासी हो गए और राम जन्मभूमि आंदोलन की दूसरी टांग भी टूट गई बल्कि अशोक सिंह के साथ राम मंदिर आंदोलन ने दम तोड़ दिया।
इस साल 30 सितंबर को विश्व हिंदू परिषद के एक प्रेस सम्मेलन में सुब्रमण्यम स्वामी भी आए और केंद्र सरकार से आग्रह किया कि वे बाबरी मस्जिद की भूमि का अधिग्रहण कर के मुसलमानों को इसके बदले सरयू नदी के दूसरी ओर मस्जिद निर्माण के लिए वैकल्पिक जगह प्रदान करे। इस अवसर पर स्वामी ने बताया कि वह प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मंदिर निर्माण के लिए कई सुझाव दे चुके हैं परंतु अभी तक जवाब नहीं आया। सवाल यह उठता है कि क्या टविटर के राजा मोदी की इस संवेदनशील प्रशन पर चुप्पी आश्चर्यजनक नहीं है? स्वामी ने यह भी कहा वह अमित शाह से इस समस्या पर राष्ट्रीय परिषद की विशेष बैठक का अनुरोध भी कर चुके हैं लेकिन वहाँ भी सन्नाटा छाया हुआ है। पत्रकारों ने जब पूछा इस बाबत भाजपा सरकार का रुख क्या है तो अशोक सिंघल ने अस्पष्ट जवाब देते हुए कहा राम मंदिर के निर्माण पर किसी को आपत्ति नहीं है। अशोक सिंघल ने यह भी बताया था कि जनवरी की 10 और 11 तारीख को दिल्ली में राम मंदिर मुद्दा के वैधानिक समाधान पर चर्चा करने के लिए एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जाएगा। अशोक सिंघल नहीं जानते थे कि यमराज उनको यह अवसर नहीं देगा।
अयोध्या में फैसल आबाद के रहने वाले मुहम्मद मुस्तफा अपनी पुरानी यादें ताजा करते हुए कहते हैं कि 6 दिसंबर  1992 के दिन अशोक सिंघल सैनिक वेशभूषा में कारसेवकों को आदेश दे रहे थे। आप सोच रहे होंगे कि प्रलय की उस घड़ी में मोहम्मद मुस्तफा वहां क्या कर रहा था? दरअसल उस समय मोहम्मद मुस्तफा का नाम शिव प्रसाद था। वह बजरंग दल का कप्तान था। उसने चार हजार लोगों को बाबरी मस्जिद के विध्वंस का प्रशिक्षण दिया था। वह उन दुर्भाग्यशाली लोगों में से एक था जो बाबरी मस्जिद के गुंबद पर चढ़ गए थे। मस्जिद की शहादत के बाद उसके अंदर प्रवेश करने वालों और वापस आकर फैसलाबाद में राम राम - जय श्रीराम का नारा लगाने वालों में वह सब से आगे था।
शिव प्रसाद के भाग्य ने पलटा खाया। उसके अंदर अपराध बोध ने जन्म लिया। वह महसूस करने लगा की उस से कोई बड़ा पाप संपन्न हुवा है वह बेचैन रहने लगा। उसी स्थिति में1997  के अंदर वह नौकरी की खातिर शारजाह पहुंच गया। यहां भी काम में उसका मन नहीं लगता था।  1998 में शुक्रवार के दिन वह एक मस्जिद के बाहर से गुजर रहा था कि उसके कानों में उर्दू भाषा के धर्मोपदेश के शब्द पड़े। वह रुक कर सुनने लगा। अल्लाह की हिदायत (प्रेरणा) उसके दिल में उतरने लगी। इसके बाद हर शुक्रवार को वह मस्जिद के पास बैठ कर प्रवचन सुनना उसकी आहत बन गई। यह सिलसिला लगभग एक साल चला। बाबरी मस्जिद की शहादत के 7 साल बाद 6 दिसंबर  1999 को शिव प्रसाद ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। यह संसार एक परीक्षा स्थल है यहां कई लोगों को एक ही प्रशनपत्र मिलता है लेकिन वे विपरित परिणाम भोगते हैं। अशोक सिंघल और शिव प्रसाद का उदाहरण हमारे सामने है।
मोहम्मद मुस्तफा (शिव प्रसाद) के कट्टर संघी पिता तिर्काल प्रसाद और अन्य परिजनों को जब पता चला कि उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया है तो वह उस के विरोधी हो गए। विहिप और बजरंग दल के लोग उसे जान से मारने की धमकी देने लगे लेकिन मोहम्मद मुस्तफा का कहना है कि अब उस्लाम से फिरने का सवाल ही पैदा नहीं होता अब तो प्राण इसी पर अर्पण करूंगा। उस की प्रार्थना है कि उसके परिवारगण और अन्य संघी साथी भी इस्लाम की छत्रछाया में आ जाएं। अशोक सिंघल के पक्ष में तो मोहम्मद मुस्तफा की प्रार्थना कुबूल नहीं हुई लेकिन कौन जाने किसके के लिये स्वीकार हो जाए? अशोक सिंघल और शिव प्रसाद (मोहम्मद मुस्तफा) के जीवन में उन सभी के लिए संदेश है जिन के सिने में मर्म ह्रदय है।⁠⁠[12/6/2015, 4:

Saturday 5 December 2015

۶دسمبر: مندرنہیں بنائیں گے



(قسط دوم )
کسی زمانے میں سنگھ پریوار کا نعرہ تھا ’مندر وہیں بنائیں گے‘ لیکن اب اس  کا موقف بدل کر ’مندر نہیں بنائیں گے ‘ہوگیا ہے۔ اس تبدیلی کی کئی وجوہات ہوسکتی ہیں۔ ایک تو اس باسی کڑھی میں اب ابال نہیں آتا ۔ عوام اس کی جانب متوجہ نہیں ہوتے ۔ اس کے ذریعہ عوام کا جذباتی استحصال کرکے ووٹ حاصل کرنا ناممکن ہو گیاہےوغیرہ وغیرہ ۔ جہاں تک مندر کی تعمیر کا سوال ہے سنگھ والوں کو اس میں دلچسپی نہ پہلے تھی نہ اب ہے ۔ سنگھ پریوار کےلوگ   تو صرف کیمرےکےآگے  پوجا پاٹ کرتے ہیں اور  اس کے ہٹتے ہی سیاسی داؤں پیچ میں مصروف  ہو جاتے ہیں۔  رام مندر  کےبیج سے ساراتیل نکالا جا چکا ہے اب اس کے برادے پر مکھیاں بھنبھناتی ہیں ۔ ویسے بعید نہیں کہ اس نسل کے گزر جانے کے بعد جو یہ کھیل تماشے دیکھ چکی ہےایسے  نئے لوگوں کے سامنے جو واقف نہ ہوں یہ مسئلہ پھر سے زندہ کردیاجائے ۔ پونر جنم میں وشواس رکھنے والے یہ لوگ خود تو دوبارہ جنم نہیں لے سکتے ۔ مگران کے  پیدا کردہ تنازعات مثلاً گائے ، لو جہاد ، گھر واپسی ، یکساں سول کوڈ ، دستورکی شق۳۷۰ ،مسلمانوں کی آبادی وغیرہ کا باربار جنم ہوتا رہتا ہے ۔
رام مندر تحریک کے متعلق مذکورہ دعویٰ محض خام خیالی نہیں ہے۔ ۶ دسمبر ؁۱۹۹۲ کے بعد رونما ہونے والے واقعات پر غائر نظر ڈالنے پر یہ حقیقت اپنے آپ عیاں ہوجاتی ہے۔ یہ حسن اتفاق ہے کہ رام مندر کی تحریک ؁۱۹۸۴ سے اٹھ کر ؁۱۹۹۲ میں بامِ عروج پر پہنچی ۔  اس پورے عرصے میں ہندوستان کے اندر کانگریس یا تیسرے محاذ کی حکومت تھی  مگر اس کے زوال کا آغاز شیلا دان سے ہوا جب قومی جمہوری محاذ کے نام پر بی جے پی برسرِ اقتدار تھی ۔  اٹل جی دورِ اقتدار میں۱۵ مارچ ؁۲۰۰۲ کو وشوہندو پریشد  کے اشوک سنگھل اور رام جنم بھومی نیاس کے مہنت رام چندر پر مہنس نے عارضی رام مندر کے اندر سپریم کورٹ کے احکامات کی خلاف ورزی کرتے ہوئے علامتی پوجا پاٹ کا اعلان کرکے ہلچل مچادی۔   ان لوگوں کو امید تھی کہ جب نرسمہاراو ہمیں چور دروازے سے مسجد کو ڈھانے کی اجازت دے سکتے ہیں تو ہمارے اپنے لوگ  پوجا کرنے سے کیونکر روک سکتے ہیں  لیکن ایسا نہیں ہوا۔مرکزی حکومت نے وی ایچ پی اور آر جے این کو مجبور کیا کہ وہ  شیلا نیاس کرنے کے بجائے دگمبر اکھاڑہ ہی میں  وزیراعظم کے دفتر سے آنے والے شتروگھن سنگھ کو شیلا دان کردیں ۔ شیلا دان کیلئے بابری مسجد کی اراضی سے قریب جس رام کوٹ محلہ  کا اعلان کیا گیا تھا وہاں تک بھی جانے کی اجازت حکومت نے انہیں نہیں دی ۔
کارسیوک رام بھکتوں نے اس تبدیلی کو دھوکہ دھڑی قرار دیا اور سنگھل و پرمہنس پر خوب لعن طعن کی۔   وی ایچ پی کے اس احمقانہ اقدام کی مخالفت  کرتے ہوئےنرموہی اکھاڑے کے مہنت جگناتھ داس نے کہا سرحد پر کشیدگی کے چلتے یہ تنازعہ غیر دانشمندانہ ہے ۔مہنت جگناتھ نے واضح کیا  چونکہ رام مندر کی زمین پر حق ملکیت کا دعویٰ نرموہی اکھاڑے کا ہے اس لئے مندر  زمین کسی اور کو نہیں  دے سکتی ۔انہوں نے یہ سنگین الزام بھی لگایا کہ اشوک سنگھل نے انہیں  حق ملکیت منتقل کرنے کے عوض دس کروڈ روپئے رشوت کی پیشکش کی جسے یہ کہہ کر مستردکر دیا کہ میں اپنا عقیدہ نہیں بیچ سکتا۔   رام چبوترہ کے دعویدار مہنت رگھور داس نے الزام لگایا کہ ان کا اکھاڑہ ؁۱۸۸۵ سے عدالتی جنگ لڑ رہا ہے۔ وی ایچ پی والے عوام کو بیوقوف بنارہے ہیں ۔ جب ان کو زمین ہی نہیں ملے گی تو وہ مندر کیسے بنائیں گے ؟  ایودھیا کے چوتھے بڑے اکھاڑےہنومان گڑھی کے  سربراہ   مہنت گیان داس بھی وی ایچ پی کے مخالف تھے۔  وہ سب عدالت کے فیصلے کا انتظار کرنے  کے قائل تھے۔  ان کا یہ الزام بھی تھا کہ سنگھ پریوار نے رام چندر پرمہنس کو اپنے قبضے میں لے لیا ہے اور ان کا استحصال کررہاہے  ۔  
پرمہنس مورتی رکھنے سے لے کر بابری مسجد کی شہادت تک   توبہت سرگرم تھے مگر؁۲۰۰۲  میں شیلادان کے  تماشے نے ان کا دل توڑ دیا ۔ سپریم کورٹ نے چونکہ جون کی تاریخ دے رکھی تھی اس لئے اشوک سنگھل  نے عوام کو بے وقوف بنانے کیلئے ۱۰۰ دنوں کا پورن آہوتی یگیہ شروع کردیا  مگر رامچندر پرمہنس اس سےکنارہ کش  ہوگئے ۔ان کا لب ولہجہ بدل گیا اور  وہ باہمی مفاہمت سے اس قضیہ کو چکانے  کا راگ الاپنے لگے ۔  انہوں نے کہا کہ اگر یہ رام مندر کو مقامی لوگوں پر چھوڑ دیا جاتا تووہ بڑی آسانی سے نمٹ جاتا مگر سیاستدانوں نے اپنے مفاد کی خاطر اسے بگاڑ دیا۔  اپنے مقلدین سے انہوں نے یہاں تک کہا کہ میرا مندر کسی ایک بھی مسلمان کے خون پر نہیں بنے گا۔ ۶ جولائی ؁۲۰۰۳ کو دل کا دورہ پڑنے سے رامچندر پر مہنس کا انتقال ہوگیا ۔ وی ایچ پی کے نائب صدر گری راج کشور نے الزام لگایا کہ ایک ماہ قبل لال کرشن اڈوانی سے  ملاقات کے بعدوہ شدید دباو میں تھے  اور ان کے ہلاکت خیزدورے کا سبب اڈوانی جی  ہیں۔ اس طرح گویا نائب وزیراعظم اور وزیرداخلہ اڈوانی نے نادانستہ سہی رام جنم بھومی تحریک   کی ایک ٹانگ توڑ دی ۔  
؁۲۰۰۴ میں بالآخر بی جےپی حکومت رام للاّ کو اپنے پیش رونرسمہا راو  کے تعمیر کردہ  عارضی چھجےّمیں چھوڑ کر رخصت ہوگئی ۔  اس تحریک میں دوسری دراڑ ؁۲۰۰۹ کے انتخاب سے قبل پڑی جب اڈوانی جی پھر ایک بار وزیراعظم کی دوڑ میں کمر کس کے اترے۔ اس وقت ان کی راہ کا سب سے بڑا روڑہ بابری مسجد کی شہادت کا داغ تھا ۔  رتھ یاترا کے مہارتھی ایل کے اڈوانی نے  اپنا دامن اجلا کرنے کیلئے پہلے تو یہ صفائی دی کہ ان کا ارادہ بابری مسجد کی مسماری نہیں تھا۔ اس کے بعد بولے وہ بابری مسجد کی مسماری پرسوگوار تو ہوئے مگر انہیں اس کا افسوس نہیں ہے ۔ آگے چل کرجب محسوس ہوا کہ یہ کافی نہیں ہے تو اعلان کردیاکہ ۶ دسمبر  ان کی  زندگی کا  رنجیدہ ترین دن  تھا ۔ یہ اعتراف انہوں نے نہ صرف اسلام آباد میں جاکر کیا بلکہ اپنی سوانح حیات ’’میرا ملک میری زندگی‘‘ میں بھی اسے درج کیا۔    اڈوانی جی اپنی ساری قلابازیوں کے باوجود نہ گھر کے رہے نہ گھاٹ کے۔
اشوک سنگھل نے اڈوانی جی کے رویہ کو شدید تنقید کا نشانہ بنایااور کہا اڈوانی جی اس طرح کا مدافعانہ رویہ ترک کردیں ۔ وہ ہندووں کی تاریخ کا روشن ترین باب تھا ۔ تپن گھوش نامی  راشٹرسنگھ کے ایک مخلص کارکن نے ۶ دسمبر ؁۲۰۰۹ کو اشوک سنگھل کے نام ایک کھلا خط لکھا ۔ اس خط کاا قتباس اندر کی کہانی بیان کرتا ہے۔ اس خط کےاندررام مندر کی تعمیر  میں  خارجی رکاوٹوں کا ذکر کرنے کے بعد کہا گیا تھا کہ رام مندر تحریک کے رہنماوں سے ایک عظیم غلطی سرزد ہوئی۔انہوں  نے رام مندر تحریک کے ذریعہ حاصل کردہ سرمایہ کو سیاست کی نذر کردیااور اکثریت میں آنے سے قبل ہی اقتدار پر فائز ہوگئے۔ اس کے پس پشت اقتدار کالالچ کارفرما تھا ۔  تحریکی رہنما وں نےحرص و ہوس کے علاوہ مایوسی و انتشار کا شکار ہوکر اپنے نظریات سے مفاہمت کرلی اور اس جرم میں نہ صرف بی جے پی بلکہ پورا سنگھ پریوار شریک ہے۔انہوں نے اپنی گاڑیوں پر سرخ بتی لگوانے کیلئے رام مندر کو لال بتی دکھادی ۔ جب تک  پہلے مندر اور پھر اقتدار تھا تحریک کامیاب تھی لیکن جب اقتدار کی مندر پر  فوقیت ناکامی کا سبب بن گئی ۔ اصول ونظریات پر اقتدار و آسائش کی ترجیح نے بیڑہ غرق کردیا۔  تپن کا خیال تھا سنگھ نے جلد بازی سے کام لیا ۔ اسے اکثریت میں آنے کا انتظارکرنا چاہئے تھا مگر آج اگر وہ زندہ ہے تو کھلی آنکھوں سے دیکھ سکتا ہے کہ  بی جے پی کا اپنے بل بوتے پر اقتدار میں آنا بھی رام مندر کے کسی کام نہیں آسکا۔  
؁۲۰۰۱۴ کے انتخابات سے قبل اڈوانی جی کاٹکٹ کٹ گیا۔ مودی جی نے رام مندر کا سہارا لینے کے بجائے’سب کا ساتھ اور سب کا وکاس‘ والا نعرہ بلند  کرکے اپنے دامن  پر لگےگجرات فسادکے  داغ کی پردہ پوشی کی اور اقتدار میں آگئے  اس طرح گویا رام مندر تعمیر کرنے کی ذمہ داری سے وہ اپنے آپ سبکدوش ہوگئے۔ اب وی ایچ پی والے بھی ان پر یہ الزامات نہیں لگا سکتے تھے کہ انہوں نے رام  مندرکے نام پر اقتدار حاصل کرنے کے بعد اسے بھلا دیا۔  اشوک سنگھل کو بھی اس بات کا شدید احساس  ہو گیاتھا کہ مودی  حکومت ان کے مرہونِ منت نہیں ہے یہی وجہ ہے کہ گزشتہ سال ۲۱ دسمبر کو اشوک سنگھل نے ایک کتاب کی تقریبِ رونمائی میں طول طویل تقریر کی اور دعویٰ کیا کہ ان پچاس سالہ جدو جہد کے نتیجے میں ۸۰۰ سال کی غلامی کے بعد ہندو اپنا گنوایا ہوا سامراج قائم کرنے میں کامیاب ہوگئے ہیں۔  اسی بیان کو محمدسلیم نے ایوان  پارلیمان میں راجناتھ سے جوڑ کر ہنگامہ مچا دیا۔
اشوک سنگھل نے بارہویں صدی کے پرتھوی راج چوہان کا حوالہ دیتے ہوئے کہا کہ ۸۰۰ سال بعد ملک  ہندوتوا کی محافظ سرکار عالمِ وجود میں آئی اور مرحلہ وارہماری اقدار کو قائم کیا جارہا ہے۔ انہوں نے ہندو سماج کے ذریعہ عالمی فلاح و بہبود کی بات کی  اور کہا ہم لوگوں کا دین نہیں بلکہ ان کا دل بدلنا چاہتے ہیں ۔ یہ بات  اشوک سنگھل نے  گھر واپسی تحریک کے دوران کہی تھی ۔ عالمی جنگ سےلے کر اسلامی دہشت گردی تک بے شمار مسائل سنگھل کی تقریر میں زیر بحث آئے لیکن وہ رام مندرکے ذکرسے خالی  تھی ۔ جو شخص رام مندر کے بغیر ایک نوالہ نہ نگلتا ہو اس کااس مسئلہ کو ڈکار  جانا کھلا اعتراف تھا  کہ رام چندر پرمہنس کی موت کے گیارہ سال بعد  سنگھل بھی مایوسی شکار ہوچکے ہیں اور یہ کارِ خیر بھی بی جے پی کے زیر اقتدار ہوا۔  
۱۵ ستمبر؁۲۰۱۵ کو اشوک سنگھل ۸۹ ویں سالگرہ  کے موقع پر ان کی سوانح حیات بنام ’ہندوتوا کے پرودھا‘  کا اجراء عمل میں آیا۔  اس موقع پر آرایس ایس کےصدر موہن بھاگوت ، وزیرداخلہ راجناتھ سنگھ کے علاوہ سوامی ستیامترانندا گیری ، سادھوی رتھمبرا، سادھوی نرنجن جیوتی ،  راگھوالو ریڈی ،  مرکزی وزراءمہیش شرما اور ہرش وردھن موجود تھے ۔ ان لوگوں نے اشوک سنگھل  کی خدمت میں طول طویل خراجِ عقیدت پیش کیا مگر  سوائے وی ایچ پی کے صدر وشنو ہری ڈالمیا کے کسی نے جھوٹے منہ رام مندر کے تعمیر کی بات بھی نہیں کی۔  ڈالمیا  نے کہا جنم دن کے موقع پر تحفے تحائف دینے کی قدیم روایت ہے ۔ میں وزیراعظم سے کہوں گا کہ وہ اشوک سنگھل جی کو ان کی ۹۰ ویں سالگرہ پر رام مندر کا تحفہ دیں ۔ راجناتھ سنگھ یہاں موجود ہیں اور وہ اس پیغام کو مودی تک پہنچا سکتے ہیں ۔ بیچارے  ڈالمیا نہیں جانتے تھے کہ آئندہ  سالگرہ کا تحفہ لینے کیلئے سنگھل خود موجود نہیں ہوں گے ۔ اس مجلس کے بعد مبصرین نے لکھا تھا کہ اشوک سنگھل خود مودی سرکار کے رام مندر کو ٹھنڈے  بستے میں ڈال دینے سے بہت تشویش کا شکار ہیں۔ اس تقریب کے دوماہ بعد  اشوک سنگھل بھی اس دارِ فانی سے کوچ کرگئے اور اس طرح رام جنم بھومی تحریک کی  دوسری ٹانگ بھی ٹوٹ  گئی بلکہ بی جے پی کے ہی دورِ اقتدارمیں  اشوک سنگھ کے ساتھ رام مندر تحریک نے بھی دم توڑ دیا ہے ۔  تپن کمار گھوش نے اشوک سنگھل کی حیات میں ان کو خیربادکہتے ہوئے ؁۲۰۰۹ میں لکھا تھا پورے سنگھ پریوار میں رام مندر کے سب سے بڑے حامی ہونے کے باوجو د آپ اس جنم میں جس حقیقت  کا ادراک  نہ کرسکے لیکن چونکہ ہندو پونر جنم میں وشواس رکھتے ہیں اس لئے مجھے یقین ہے کہ  اگلے جنم میں آپ یہ ضرور دیکھیں گے۔  
اس سال ۳۰ ستمبر کو وشو ہندو پریشد کی ایک پریس کانفرنس میں سبرامنیم سوامی بھی شریک ہوئے اور مرکزی حکومت پر زور دیا کہ  وہ بابری مسجد کی خطۂ اراضی  کو اپنی تحویل  میں لے کر مسلمانوں کو اس کے عوض سریو ندی کے دوسری جانب مسجد کی تعمیر کیلئے متبادل جگہ عطا کردے۔  اس موقع پر سوامی نے بتایا کہ وہ وزیراعظم کو  خط لکھ کر مندر کی تعمیر کیلئے کئی تجاویز پیش کرچکے ہیں لیکن ابھی تک اس کا جواب نہیں آیا۔  سوال یہ پیدا ہوتا ہے کہ کیا ٹویٹر کے بادشاہ  مودی جی کی اس نازک معاملہ میں خاموشی حیرت انگیز  نہیں ہے؟ سوامی نے یہ بھی کہا وہ امیت شاہ سے اس مسئلہ پر قومی کونسل کے خصوصی اجلاس کی درخواست بھی کرچکے ہیں لیکن وہاں بھی سناٹا چھایا ہوا ہے۔  صحافیوں نے جب پوچھا اس بابت بی جے پی حکومت کا موقف کیا ہے تو اشوک سنگھل نے مبہم جواب دیتے ہوئے کہا رام مندر کی تعمیر پر کسی کو اعتراض نہیں ہے۔  اشوک سنگھل نے یہ بھی بتایا  تھاکہ جنوری کی ۱۰ اور ۱۱ تاریخ کو دہلی میں رام مندر کا مسئلہ  کےقانونی  حل پر بحث کرنے کیلئے ایک قومی سیمینار کا انعقاد کیا جائیگا۔ اشوک سنگھل نہیں جانتے تھے کہ فرشتۂ اجل ان کوسیمینار میں شریک ہونے کا موقع نہیں دے گا۔
ایودھیا شہرکے فیصل آبادمیں رہنے والےمحمد مصطفیٰ اپنی پرانی یادیں تازہ کرتے ہوئے کہتے ہیں کہ  ۶ دسمبر ؁۱۹۹۲ کے دن اشوک سنگھل نے فوجی لباس زیب تن کررکھا تھا اور کارسیوکوں کو احکامات صادر کررہے تھے ۔ آپ سوچ رہے ہوں گے کہ اس قیامت کی گھڑی میں محمد مصطفیٰ وہاں کیا کررہا تھا ؟ دراصل اس وقت محمد مصطفیٰ کا نام شیو پرساد تھا ۔ وہ بجرنگ دل کا کپتان تھا ۔ اس نے چار ہزارلوگوں کو اس بات کی تربیت دی تھی کہ بابری مسجد کو کیسے شہید کیا جائے۔ وہ ان چند  بدنصیب لوگوں میں سے ایک تھا جو بابری مسجد کے گنبد پر چڑھ گئے  تھے۔ مسجد کی شہادت کے بعد اس کے اندر داخل ہونے والوں اور واپس آکر فیصل آباد میں رام رام ۔جئے شری رام کا نعرہ لگانے والوں میں شیوپرساد پیش پیش تھا ۔
شیو پرساد کی تقدیر نے پلٹا کھایا ۔ اس کے اندر احساسِ جرم نے جنم لیا ۔ اس کو محسوس ہونے لگاکوئی بہت بڑا گناہ اس سے سرزد ہوگیا ہے  وہ بے چین رہنے لگا۔ اسی کیفیت میں ؁۱۹۹۷ کے اندر وہ ملازمت کی خاطر شارجہ پہنچ گیا ۔ یہاں بھی کام میں اس کا دل نہ لگتا تھا ۔ ؁۱۹۹۸ میں جمعہ کے دن  وہ ایک مسجد کے باہر سے گزررہا تھا کہ اس کے کانوں میں اردو خطبے کے الفاظ پڑے ۔ وہ رک کر سننے لگا ۔ اللہ کی ہدایت اس کے دل میں اترنے لگی ۔اس کے بعد ہر جمعہ کو مسجد کے قریب بیٹھ کر خطبہ سننا اس کا معمول بن گیا یہ سلسلہ  تقریباً ایک سال تک جاری رہا  یہاں تک کہ بابری مسجد کی شہادت کے ۷ سال بعد ۶ دسمبر ؁۱۹۹۹  کو شیوپرساد نے اسلام قبول کرلیا ۔ یہ کائنات ہستی ایک امتحان گاہ ہے جس میں مختلف لوگوں کو ایک ہی امتحانی  پرچہ ملتا ہے لیکن وہ  متضاد نتائج سے ہمکنار ہوتے ہیں ۔اشوک سنگھل اور شیوپرساد کی مثال ہمارے سامنے ہے۔
محمد مصطفیٰ  (شیوپرساد)کے کٹر سنگھی والد ترکال پرشاد اور دوسرے اہل خانہ کو جب پتہ چلا کہ انہوں نے اسلام قبول کرلیا ہے تو وہ اس کے سخت مخالف ہوگئے ۔ وی ایچ پی  اور بجرنگ دل کے لوگ اسے جان سے مارنے دھمکی دینے لگے لیکن محمد مصطفیٰ کا کہنا ہے کہ اس  کےدین رحمت سے پھرنے کا سوال ہی پیدا نہیں ہوتا اب تو جان اسی دین حنیف  پر جائیگی ۔ وہ چاہتا ہے کہ اس کے اہل خانہ اور دیگر سنگھی بھی اسلام قبول کرلیں ۔ اشوک سنگھل کے حق میں تو محمد مصطفیٰ کی دعاقبول نہیں ہوئی لیکن کون جانے کس کے حق میں قبول ہوجائے؟ اشوک سنگھل اور شیوپرشاد (محمد مصطفیٰ)  کی زندگی میں ان تمام لوگوں کیلئے پیغامِ  نصیحت ہے جو  دیدۂ عبرت نگاہ رکھتے ہیں ۔   اشوک سنگھل کے  عبرت ناک انجام  پر خواجہ عزیزالحسنین مجذوب کی مشہور زمانہ نظم یاد آتی ہے ؎
اجل   نے   نہ   کسریٰ  ہی   چھوڑا   نہ  دارا                           اسی سے سکندر سا  فاتح بھی ہارا
ہر ایک چھوڑ کے کیا کیاحسرت سدھارا                          پڑا رہ گیا سب یہیں ٹھاٹ سارا
جگہ جی   لگانے   کی   دنیا   نہیں   ہے
یہ عبرت کی جا ہے تماشہ نہیں ہے