Tuesday 18 August 2015

स्वतंत्रता दिवस: टीम विराट कोहली और टीम सम्राट मोदी का निराशाजनक प्रदर्शन

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनकी नित नई शब्दावली के लिए याद किया जाएगा। पिछली बार उन्होंने लाल किले से ''मेक इन इंडिया '' का नारा उछाला था ताकि अंतरताष्ट्रीय निवेशक भारत आकर अपना उत्पादन करें। इस नारे से देश की भोली-भाली जनता तो मूर्ख बन गई लेकिन शातिर निवेशकों उसके झांसे में नहीं आए। इस बार उन्होंने जनता को कंफ्यूज करने के लिये टीम इंडिया की शब्दावली तैयार कर दी और कहा कि भारत के 125 करोड लोग टीम इंडिया हैं। हम जैसे लोग इस नारे को सुनकर सोचने लगे कि अगर हम टीम इंडिया हैं वे जो श्रीलंका में टेस्ट मैच खेल रहे हैं वे कौन हैं? सुविधा के लिए उसे टीम विराट कोहली कह लीजिए। एक और सवाल पैदा हुआ कि अगर जनता टीम विशाल भारत है तो सरकार क्या है? चूंकि सरकार के मुखिया मोदी जी हैं इसलिए उसे टीम सम्राट मोदी कह लीजिए।
मोदी जी ने जब टीम इंडिया का नारा लगाया तो इस से सबसे अधिक खुशी विराट कोहली और उसके साथी खिलाड़ियों को हुई होगी जो सुबह में उठकर अभ्यास करने के बजाय मोदी जी का भाषण सुन रहे थे और भाषण भी ऐसी कि समाप्त होने नाम न लेता था। इतनी देर में तो ट्वेंटी ट्वेंटी मैच की एक पारी समाप्त हो जाती। मोदी जी ने अपने भाषण में एक और नारा उछाला '' स्टैंड अप एंड स्टार्ट आप'' जिस का अर्थ है '' खड़े हो जाइये और शुरू हो जाइये '' विराट कोहली ने सोचा मोदी जी की आधी नसीहत पर तो हम मे पहले ही अमल कर लिया और पहली पारी में ऐसे जमकर खड़े हुए कि श्रीलंका के 183 के जवाब में 375 का विशाल स्कोर खड़ा कर दिया और फिर श्रीलंका को 367 पर ढेर भी कर दिया।
स्वतंत्रता दिवस के दिन विराट कोहली की टीम को सिर्फ 153 रन बनाने थे और 9 विकेट उसके हाथ में थे। जिस टीम ने पहली पारी में 375 बनाए हूँ इसके लिए 176 रन बनाकर मैच जीत लेना कोई बड़ी बात नहीं थी। लेकिन बुरा हो मोदी जी के भाषण जो उन्हों ने खड़े होने के बाद शुरू हो जाने की नसीहत कर डाली और मनोबल बढ़ाने के लिए यह भी कह दिया था कि कई लाख शौचालय बनाकर हम ने साबित कर दिया कि हम जो चाहें कर सकते हैं । विराट कोहली बेचारा भूल गया कि सरकारी खर्च से स्कूलों में शौचालयों का निर्माण और श्री लंका के मैदान में क्रिकेट मैच में सफलता दो अलग अलग बातें हैं। मोदी जी की सलाह का  अनुसर्ण करते हुए भारतीय बल्लेबाजों ने आओ देखा न ताओ बस शुरू हो गए कि जैसे मोदी जी शुरू हो जाते हैं और बल्ला उठा उठाकर मारने लगे।
 विराट कोहली को प्रधानमंत्री का भाषण सुनकर यह खुशफहमी हो गई थी कि अब रनों की ऐसी बरसात होगी कि देखते देखते जन धन योजना की तरह करोडों बैंक खाते खुल जाएंगे। वही हुआ खाते तो खुले लेकिन उनमें कोई राशि नहीं आई। बल्लेबाज बड़े उत्साह के साथ मैदान में जाते थे और बहुत जल्दी कोई खास रन अपने खाते में जमा किए बिना लौट आते थे। खुद विराट कोहली जिसने पहली पारी में 103 रन बनाए थे सम्राट मोदी की सलाह पर चलते हुए 3 रन बनाकर लौट आया। इस तरह प्रधानमंत्री की सलाह के कारण जीती हुई बाजी पलट गई। पूरी टीम 112 के मामूली स्कोर पर सिमट गई । स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर टीम सम्राट मोदी की तरह टीम विराट कोहली ने भी टीम इंडिया यानी देश वासियों को निराश करके स्वतंत्रता समारोह का मज़ा किरकिरा कर दिया।
राजनीति में जब लोग अव्वल तो अपनी कमजोरी स्वीकार नहीं करते और अगर करते भी हैं तो दूसरों को दोषी ठहराकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं मगर क्रिकेट में ऐसा नहीं होता वहाँ विफलता की समीक्षा की जाती है, कारण खोजे जाते हैं और दोषियों की पहचान भी की जाती इस प्रकार क्रिकेट अपनी सारी खराबियों के बावजूद राजनीति से अधिक गंभीर खेल है। टीम विराट कोहली की विफलता के कारण यह था कि ट्वेंटी ट्वेंटी मैच खेल खेल कर हमारे खिलाड़ी टेस्ट मैच खेलने की कला भूल गए हैं। ट्वेंटी ट्वेंटी मैच में कलात्मक कौशल्य और समझ बूझ का कोई खास महत्व नहीं होता बल्कि जैसे मन में आए बल्ला घुमाओ भाग्य से टीम जीत जाती है लेकिन टेस्ट मैच 5 दिन का खेल होता है इसमें संभलकर खेलना पड़ता है और सूझबूझ रखने वाले बीच में बाजी पलट देते हैं जैसा कि श्रीलंका ने पहली पारी में पिछडने और दूसरी पारी में 5 विकेट गंवाने के बावजूद खुद को संभाला और भारत के सामने 175 का लक्ष्य रखने के बाद अपनी असाधारण गेंदबाजी से मैच जीत लिया।
क्रिकेट की अगर राजनीति से तुलना की जाए तो यों समझ लीजिए कि 5 या 6 महीने चलने वाला चुनावी अभियान ट्वेंटी ट्वेंटी जैसा है। इसमें राजनीतिक दल खूब उठापटक करते हैं। नारेबाजी से लेकर हुल्लड़ बाजी तक सब वैध हो जाता है। ऊटपटांग वादे किए जाते हैं जो मन में आए कह दिया जाता है जैसे अच्छे दिन आने ही वाले हैं, 56 इंच की छाती, कालेधन की वापसी, मांस के निर्यात पर प्रतिबंध आदि। इस धोबी पछाड़ में सट्टा भी खूब लगता है तथा किसी न किसी की लॉटरी लग जाती है। लेकिन सरकार चलाना टेस्ट मैच जैसा है जहां सूझबूझ की जरूरत पड़ती है। केवल खोखले वादों से काम नहीं चलता बल्कि लोग उपलब्धि देखना चाहते हैं और तब जाकर दूध का दूध पानी का पानी होता है।
विराट कोहली और सम्राट मोदी दोनों ही ट्वेंटी ट्वेंटी के महारथी हैं इसलिये टेस्ट मैच में अभी तक अपनी पहली जीत दर्ज कराने के लिए तरस रहे हैं फिर भी इन दोनों में एक स्पष्ट अंतर यह है कि विराट कोहली ने हार की जिम्मेदारी बड़े विशाल ह्रदय से स्वीकार कर ली। उसने साफ शब्दों में कहा कि इस हार के लिए हम खुद के अलावा किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। उसका कहना था कि पहले 5 विकेट लेने के बाद हम इसका फायदा उठाने से चूक गए। मोदी जी की भी यही समस्या है चुनाव में स्पष्ट बहुमत हासिल करने के बाद वह संसद में इसका फायदा न उठा सके। भाजपा और कांग्रेस के सदस्यों की संख्या में वैसा ही अंतर है जैसा कि भारत और श्रीलंका के पहली पारी के रनों का अंतर था बल्कि इससे भी कहीं अधिक। इसके बावजूद पूरे मानसून सत्र पर पानी फिर गया और टीम मोदी का कप्तान बाढ़ग्रस्त सदन में कदम रखने का साहस नहीं कर सका।
इसके विपरीत चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस की हालत श्रीलंका की दूसरी पारी जैसी थी। एक तो पहली पारी में 192 रन की लीड और ऊपर से 95 के तुच्छ स्कोर पर 5 मुख्य बल्लेबाजों का आउट होकर लौट आना। इसके बावजूद दिनेश चांडीमल का निरीश नहीं हुआ बल्कि उसने नाबाद 162 का निजी स्कोर कर के श्रीलंका को 362 रन पर पहुंचा दिया। पिछले संसदीय सत्र में राहुल गांधी ने बिल्कुल दिनेश चांडीमल की तरह मोदी जी के महंगे कोट की धज्जियां उड़ा कर उनकी सरकार को सूट बूट वाली सरकार घोषित कर दिया। राहुल ने मोदी जी को सलाह दी कि अगर विदेश यात्रा से फुर्सत मिले तो आत्महत्या करने वाले किसानों की भी खबर ले लिया करें। सरकार को हवा के रुख में परिवर्तन को समझ कर पर्याप्त तैयारी करनी चाहिये थी लेकिन टीम सम्राट मोदी भी टीम विराट कोहली की तरह मुंगेरीलाल का हसीन सपनों में मस्त रही।
इस मानसून सत्र में सदन के अंदर कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खरगे ने ललित मोदी के मुद्दे पर रंगना हेराथ के समान हल्ला बोल दिया जिस ने 7 विकेट लेकर टीम विराट को धूल चटा दी। विराट कोहली ने जिस तरह बिगड़ती स्थिति पर काबू पाने के लिए पांचवें नंबर पर हरभजन को भेज दिया उसी तरह सुमित्रा महाजन ने कांग्रेस के 25 सांसदों को 5 दिनों के लिए निलंबित कर दिया लेकिन वह पांसा भी उल्टा पड़ा। अन्य दल जो कांग्रेस के साथ आने में संकोच कर रहे थे वह भी विरोध प्रदर्शन में शामिल होने पर मजबूर हो गए। हरभजन को उस अवसर पर मैदान में उतारना कप्तान की सबसे बड़ी नादानी थी वह बेचारा केवल एक रन बनाकर आउट हो गया और इसी के साथ पूरी टीम का मनोबल टूट गया। यही दुर्घटना भाजपा के साथ भी हुई।
सम्राट मोदी को चाहिए कि वह विराट कोहली के हार स्वीकार को गिरह से बांध कर रख लें। विराट ने स्वीकार किया कि हम अपनी रणनीति पर नहीं चल पाए। ऐसे दबाव की स्थिति में सोच स्पष्ट होनी चाहिए। यही औसत दर्जे की टीमों और खिलाड़ियों से अलग करता है। उसने कहा कि हम ने आज की हार से यही सबक सीखा कि 170 जैसे मामूली लक्ष्य से कोई खास फर्क नहीं पड़ता मगर कन्फ्यूजन से पड़ता है। मानसिक शक्ति बहुत महत्वपूर्ण है जिस की कमी महसूस हुई। कोहली ने विस्तार में जाते हुए कहा जब विरोधी टीम फार्म में हो तो उसे एक ओवर में 3 या 4 बाउंड्री लगाने देना मूर्खता थी। हमें समझदारी से काम लेना चाहिए था। कोहली ने जिस नासमझी का प्रदर्शन खेल के मैदान में किया वही गलती मोदी सरकार ने संसद में की। विपक्ष ने खूब चौके छक्के लगाएा और सरकार को मुंह की खानी पड़ी। कोहली ने तो सबक सीख लिया है और यदि वह सुधार कर ले तो अगले मैच में अपनी हार को जीत में बदल सकता है लेकिन मोदी जी के यहां अभी तक इसकी संभावना नजर नहीं आती।
ललित मोदी के बिना क्रिकेट वैसा ही है जैसे नरेंद्र मोदी के बिना राजनीति। ललित मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर इंडिया टुडे के राजदीप सरदेसाई से बातचीत करते हुए कहा कि उस पर कोई आरोप नहीं है। उसको कोई सम्मन नहीं मिला। उसने इंटरपोल से पता किया उसके खिलाफ कोई रेड कॉर्नर वारंट नहीं है। वह तो महज अंडरवर्ल्ड के डर से वापस नहीं आ रहा है। यह सब कहने के बाद वह बोला कि भारत में एक क्रिकेट माफिया सक्रिय है। श्रीनिवासन और राजीव शुक्ला के अलावा अरुण जेटली भी माफिया में शामिल हैं। यह दावा अगर सही है कि अरुण जेटली माफिया का हिस्सा है तो उन्हें वित्त मंत्री का सबसे महत्वपूर्ण कलमदान सौंपने वाला अपने आप इस माफिया का प्रमुख हो जाता है।
कोहली की तरह मोदी भी इस बार स्वतंत्रता दिवस समारोह को यादगार बना सकते थे। 15 अगस्त  2015 को अगर प्रधानमंत्री '' एक पद एक पेंशन''  की घोषणा कर देते तो वह बहुत बडी उपलब्धी होती लेकिन अफसोस कि उन्होंने यह सुनहरा मौका गंवा दिया। जंतर-मंतर पर दो महिनों से प्रदर्शन करने वाले पूर्व सैनिकों को इस बार प्रधानमंत्री से बड़ी उम्मीद थीं। इन लोगों ने अपने धरना स्थल पर विशाल टीवी लगवा रखा था ताकि प्रधानमंत्री की घोषणा सुनकर जश्न मनाएं। यदि मंजूरी न सही तारीख की घोषणा भी हो जाती तो जंतर मंतर का धरना जशन में बदल जाता लेकिन जब प्रदर्शनकारियों को अंदाज़ा हो गया कि प्रधानमंत्री उनके साथ फिर से दगा बाजी कर रहे हैं तो उन्होंने मोदी के भाषण की समाप्ति से पहले ही टीवी बंद कर दिया। सच तो यह है कि इस बार अपने  लंबे और संवेदहीन भाषण से प्रधान मेत्री ने न केवल पूर्व सैनिकों को बल्कि पूरे राष्ट्र को निराश किया।
इस बार जंतर मंतर पर प्रदर्शन कर रहे पूर्व सैनिकों को आश्चर्य पहला झटका उस समय लगा जब दिल्ली पुलिस ने 14 अगस्त को उनका तम्बू बल पूर्वक हटाने की कोशिश की। इस दौरान एक 84 वर्षीय पूर्व सैनिक की शर्ट भी फट गई। इसके बाद किरण रजेजो ने हस्तक्षेप कर के पुलिस को रोका। इस अपमानजनक व्यवहार के बावजूद वे बेचारे आशावादी थे मगर प्रधानमंत्री ने फिर से वही कहा जो 17 महीने पहले कह चुके थे कि सैद्धांतीक रूप में वे सहमत हैं। बातचीत चल रही है। बहुत जल्दी फैसला हो जाएगा। कसी बात को सैद्धांतीक रूप से स्वीकार करने का बाद लागू न करना बलकि अवधि तक निर्धारित न करना इस बात का संकेत है कि या तो घोषणाकर्ता अपनी कमजोरी के कारण सत्ताधारी होकर भी निर्णय लेने की सक्षमता नहीं रखता या पाखंडी है। मोदी जी के बारे में दोनों ही बातें आंशिक रूप से सही हो सकती हैं। वित्त मंत्रालय उनकी सुन कर नहीं देता और वह जनता को बहलाने रहते हैं। प्रदर्शनकारियों ने यहां तक कहा हमें यह कहने में शर्म आती है कि वे झूठे हैं और उनके नियत ठीक नहीं है।
मोदी जी की कमजोरी संसद के मानसून सत्र में खुलकर सामने आ गई। बीस दिनों के हंगामों में वह एक मिनट के लिए भी वहाँ नहीं फटके और राहुल गांधी को यह कहने का मौका मिल गया कि हम तो समझते थे कि जिस ने हमें हराया है उसमें दम है लेकिन अब पता चल गया है कि दम नहीं है। हम सोच रहे थे कि 44 सांसदों के साथ हम क्या करेंगे लेकिन हमने उन्हें डरा दिया है, प्रधानमंत्री डरपोक है। खुद भाजपा ने भी सत्ताधारी होने के बावजूद विरोध प्रदर्शन करके यह साबित कर दिया कि वह कमजोर है वरना जिसके पास सत्ता की बागडोर हो वह भला जुलूस क्यों और किसके खिलाफ निकाले?  आमतौर पर अपने छीने गए अधिकारों को प्राप्त करने के लिए विरोध प्रदर्शन किया जाता है। जो सरकार खुद अपने अधिकारों की रक्षा में असमर्थ है वह भला दूसरों को क्या सुरक्षा प्रदान करेगी।
प्रधानमंत्री ने भारत की जनता को जो आधुनिक उपनाम '' टीम इंडिया '' से नवाज़ा है जो टीम विराट कोहली से अधिक गंभीर समस्याओं से त्रस्त है। इस का अन्दाज़ा स्वतंत्रता दिवस से दो दिन पहले मेरठ के अंदर घटने वाली एक घटना से किया जा सकता है। 35 वर्षीय सैनिक वेद मित्रा चौधरी जब दूध की दुकान में गया तो देखा कुछ आवारा युवक दुकान के मालिक की बेटी को छेड़ रहे हैं। चौधरी ने हस्तक्षेप किया तो आकाश नामक लड़के ने अपने साथियों को बुलाया और वे सब लाठी डंडे के साथ वेद मित्रा पर टूट पड़े। स्वतंत्रता दिवस के दिन सैन्य अस्पताल में लांस नायक वेद मित्रा चौधरी ने दम तोड़ दिया। इस मामले में 8 लोगों के खिलाफ नामजद शिकायत दर्ज हुई उसके बावजूद पोलिस ने मात्र आकाश, संजू और रितेश को गिरफ्तार किया।
इस घटना का सबसे दुखद पहलू यह है कि इसमें अपराधियों के बजाय गवाह भयभीत हैं। दुकान के मालिक का कहना है इसे जवाबी हमले का डर है। अभी तक पुलिस सुरक्षा प्रदान नहीं की गई है। पुलिस ने इस दावे को खारिज करते हुए कहा कि वह स्वतंत्रता दिवस के प्रावधान में व्यस्त है। सवाल यह उठता है कि वह कौन सी आजादी है कि जिस को सुरक्षा प्रदान की जा रही है? वह स्वतंत्रता जिस में अपने पिता को चाय देने के लिए दुकान में आने वाली बेटी के साथ खुलेआम छेड़ छाड की जाती है? इसे रोकने वाले सैनिक हत्या हो जाती है? मरने वाले सैनिक के पत्नी और बच्चों से कोई नेता मिलने नहीं जाता? क्या इन गंभीर समस्याओं को टीम मोदी केवल '' स्टैंड अप और स्टार्ट अप '' के खोखले नारों से हल करेगी या उस पर कोई ठोस उपाय भी करेगी? एक सवाल यह भी है कि कहीं इस भ्रष्ट और कमज़ोर टीम मोदी से ऐसी अपेक्षा करना गलत तो नहीं है?

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